Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

आईपीएफ़ सर्वे : आपकी थाली से रोटियां ग़ायब न हों, इसलिए पटरी से उतर चुकी यूपी की अर्थव्यवस्था का हाल समझिए

‘उत्तर प्रदेश एक नज़र में’ शीर्षक से जारी आईपीएफ की बुकलेट में सिर्फ सूबे के वित्तीय हालात पर ही नहीं, खेती-किसानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार और बैंकिंग से लेकर मैनुफैक्चरिंग की स्थिति की सूक्ष्म पड़ताल की गई है। आधारभूत आंकड़ों और ठोस तथ्यों के ज़रिए बताया गया है कि यूपी की अर्थव्यवस्था ठहर गई है, जिसे पटरी पर लाने के लिए सरकार के पास कोई पुख्ता योजना नहीं है।
uttar pradesh

उत्तर प्रदेश 75 जिलों वाला देश का सबसे बड़ा राज्य है जिसकी आबादी करीब 25 करोड़ है। इंडिया पीपुल्स फ्रंट (एआईपीएफ) ने इसके हालात की गहरी नब्ज़ टटोली है और बताया है कि यूपी की अर्थव्यवस्था बेपटरी हो गई है। इस राज्य के लोगों की थाली से रोटियां गायब होती जा रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा,  रोज़गार, कृषि और उद्योग का हाल बेहाल है। इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुछ सालों में हालात बद से बदतर हो जाएंगे। सूबे को बचाने का सिर्फ एक ही उपाय है कि यहां के लोग अपने राज्य की अर्थव्यवस्था का हाल समझें। लोकतंत्र और समावेशी विकास के लिए लोग एक साथ चलें, उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाएं।

आईपीएफ ने यूपी के मौजूदा हालात को समझाने के लिए पुख्ता आंकड़ों के साथ एक बड़ा दस्तावेजी साक्ष्य पेश किया है। संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एसआर दारापुरी की ओर से जारी 20 पेज की बुकलेट के कई हिस्से हैं, जिसे संस्थापक सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने लिखा है। ‘उत्तर प्रदेश एक नज़र में’ शीर्षक से जारी आईपीएफ की बुकलेट में सिर्फ सूबे के वित्तीय हालात पर ही नहीं, खेती-किसानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार और बैंकिंग से लेकर मैनुफैक्चरिंग की स्थिति की सूक्ष्म पड़ताल की गई है। आधारभूत आंकड़ों और ठोस तथ्यों के ज़रिए बताया गया है कि यूपी की अर्थव्यवस्था ठहर गई है, जिसे पटरी पर लाने के लिए सरकार के पास कोई पुख़्ता योजना नहीं है।

आईपीएफ ने दस्तावेजी साक्ष्य पेश करते हुए कहा, "यूपी का हर व्यक्ति 26 हज़ार रुपये से ज़्यादा का कर्ज़दार है, जबकि हर व्यक्ति की मासिक आमदनी 7 हज़ार रुपये से भी कम है। औसत सालाना आय सिर्फ 81,398 है। साल 2022-23 में इस राज्य पर करीब 6.66 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ है। वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर आदमी पर 98776 रुपये का कर्ज़ है। देश का कुल कर्ज़ 128.41 लाख करोड़ का है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में यूपी में कुल कर्ज़ 6.66 लाख करोड़ रुपये है। साल 2022 में उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति कर्ज़ 26,000 रुपये से ज़्यादा था। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार देश में किसान परिवारों पर 2013 में औसतन 47000 रुपये कर्ज़ था, जबकि 2019 में ये बढ़कर 74121 रुपये हो गया।"
 
बढ़ रही अडानी-अंबानी की आय
 
आईपीएफ ने ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकॉनमिक कोआपरेशन एंड डेवलपमेंट की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है, "देश में साल 2000 से 2016-17 के बीच किसानों को उनकी फसल का उचित दाम न मिलने से 45 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है। एनएसओ रिपोर्ट- 2019 के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के किसान परिवार की मासिक आमदनी सिर्फ 8,061 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी आय 10,218 रुपये है। साल 2013 की एनएसओ रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में एक किसान परिवार की मासिक औसत आय सिर्फ 4,923 रुपये है। यह राष्ट्रीय स्तर पर किसान परिवारों की औसत आय 6,223 रुपये का लगभग तीन चौथाई है। पंजाब में किसान परिवारों की आय 13,311 रुपये, केरल और हरियाणा की क्रमशः 11,008 रुपये और 10,637 रुपये थी, जबकि बिहार में 5,485 रुपये और पश्चिम बंगाल में 5,888 रुपये से भी कम आय उत्तर प्रदेश में किसान परिवारों की थी।"

आईपीएफ ने अपने सर्वेक्षण में बताया है, "रोज़गार के मामले में यूपी फिसड्डी है। यहां करीब छह लाख सरकारी पद खाली हैं। स्टार्टअप योजना में सिर्फ 5616 इकाइयों का पंजीकरण हुआ है, लेकिन यूपी सरकार के विकास का माडल सिर्फ मेट्रो, ग्लोबल समिट, एक्सप्रेस-वे, स्मार्ट सिटी तक ही सीमित है। यूपी के गौतमबुद्ध नगर में 83.6 फीसदी, गाज़ियाबाद में 81 फीसदी, लखनऊ में 67.8 फीसदी, कानपुर नगर में 66.7 फीसदी, झांसी में 43.2 फीसदी और वाराणसी में 43 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। इन शहरों में बड़े पैमाने पर बेकारी है, वहां रहने वाले लोगों की आमदनी में कोई बड़ा बदलाव नहीं नजर नहीं  आ रहा है।"

"यूपी सरकार बड़े पैमाने पर स्मार्ट सिटी बनाने का दावा कर रही है, जबकि उसका मकसद साफ है। वह किसानों की ज़मीन औने-पौने दाम पर खरीद कर बिल्डर्स और कंपनियों के हवाले करना चाहती है। विपक्षी दलों के विकास का मॉडल भी कुछ ऐसा ही है। पूंजी और उच्च तकनीक केंद्रित विकास की योजनाएं लोगों की गरीबी और बेकारी दूर करने में कतई सक्षम नहीं हैं। गरीबी के दौर में खासतौर पर दो कॉर्पोरेट घराने-अंबानी और अडानी ने अकूत संपत्ति जुटा ली है। मोदी सरकार के सहयोग से अडानी समूह ने अपनी संपत्ति में जबर्दस्त इजाफा किया है।"

आसान नहीं गरीबों की राह

‘न्यूज़क्लिक’ की एक रिपोर्ट का ज़िक्र करते हुए आईपीएफ ने कहा है कि साल 2014 में अडानी की संपत्ति महज़ 50.4 हज़ार करोड़ रुपये थी। चंद सालों में ही वह बढ़कर 10.94 लाख करोड़ पर पहुंच गई। रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा समय में अडानी की संपत्ति अंबानी से करीब तीन लाख करोड़ रुपये ज़्यादा है। आईपीएफ की पड़ताल के मुताबिक, "संसद में यह बताया गया है कि भारत में पिछले पांच वित्तीय वर्षों में कर्जे के लगभग 10 लाख करोड़ रुपये कॉर्पोरेट्स के माफ कर दिए गए।"

"उच्च मध्य वर्ग के एक छोटे से हिस्से की आमदनी बढ़ी है। साल 2021 साल की तुलना में साल 2022 में मर्सडीज, बेंज जैसी कारों की खरीद में 64 फीसदी की वृद्धि हुई है। इससे यह स्वतः स्पष्ट होता है कि आर्थिक असमानता में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। आईपीएफ ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि देश में साल 2018-19 में दोपहिया वाहन की खरीद में 36 फीसदी और कार में नौ फीसदी गिरावट दर्ज की गई है।"

यूपी के किसान बेहाल
 
उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के आंकड़ों का हलावा देते हुए आईपीएफ ने कहा है कि इस राज्य में एक हेक्टेयर से कम छोटी जोतों की तादाद 1.91 करोड़ यानी 80 फीसदी है। एक से दो हेक्टेयर जोत वाले किसान 30 लाख यानी 12.6 फीसदी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार साल 2015-16 की तुलना में 2019-21 में 22 फीसदी लोगों की जोत में कमी आई है। आईपीएफ सर्वे के मुताबिक, "किसानों को अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लाचार होकर ज़मीन बेचनी पड़ रही हैं। श्रमशक्ति के लिहाज़ से देखा जाए तो गरीब किसानों और निम्न मध्यम वर्ग के किसानों की तादाद सबसे ज़्यादा है। छोटी जोतों को सहकारी आधार पर यदि पुनर्गठित किया जाए तो फसलों की उपज में बढ़ोतरी तो होगी ही साथ ही पूंजी निर्माण और प्रदेश के विकास में इनकी बड़ी भूमिका हो सकती है।"

सहकारिता को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन देने का दावा करने वाली डबल इंजन की सरकार कृषि विकास पर अपने 6.15 लाख करोड़ के बजट का महज़ 2.8 फीसदी यानी 16-17 हज़ार करोड़ रुपये ही खर्च करती है। इसके गन्ना, धान, गेहूं उत्पादक किसानों को अपनी उपज को बेचने और भुगतान पाने में भीषण संकट का सामना करना पड़ता है। गन्ना किसानों का हज़ारों करोड़ रुपये मिल मालिकों के ऊपर बकाया रहता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए बड़े आंदोलन के बावजूद सरकार ने किसानों को लागत पर डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देने से इनकार कर दिया है। खेत मजदूरों, दलितों, आदिवासियों, अति पिछड़े वर्गों में ज़मीन की बड़ी भूख दिखती है। इस वर्ग के लोग काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन के लिए मजबूर हो रहे हैं। इनकी श्रम शक्ति का उपयोग यूपी के विकास में नहीं हो रहा है।

संकट में आदिवासी

आईपीएफ की पड़ताल में कहा गया है कि यूपी में वनाधिकार कानून के तहत दावों और निस्तारण की स्थिति बेहद चिंताजनक है। उत्तर प्रदेश जनजाति कल्याण निदेशालय द्वारा साल 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, "सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, ललितपुर, चित्रकूट, बहराइच, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, महाराजगंज, गोण्डा, बिजनौर और सहारनपुर में अनुसूचित जनजाति और वनाश्रितों के 93430 दावे थे, जिसमें से सरकार ने 74538 दावे (80 फीसदी) निरस्त कर दिए।"

वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों और वनाश्रितों को वन भूमि बहुत सीमित संख्या में दी गई है। सर्वे के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आदिवासियों के सामने दो जून भरपेट भोजन का संकट हमेशा मंडराता रहता है। सोनभद्र जिले में यह भी देखा गया है कि लड़कों के अलावा लड़कियां भी समूह बनाकर बैंगलौर जैसे शहर में जाकर काम करती हैं। यदि उन्हें यहां उच्च शिक्षा व काम के अवसर मिलते तो उनका पलायन रुक जाता और उनकी श्रम शक्ति प्रदेश के विकास में लगती।

सर्वे के मुताबिक, यह तथ्य नोट करने लायक है कि यूपी में बैंक क्रेडिट डिपोजिट अनुपात में बड़ा अंतर है। साल 2020-21 में बैंकों में यहां के लोगों का जमा धन 12,87,176 करोड़, और दिया गया ऋण 5,25,691 करोड़ रुपये है। प्रदेश से पूंजी का पलायन प्रति साल महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में हो जाता है। बैंकों में लोगों की जमा की गई धनराशि से स्व रोज़गार के लिए ऋण मिलता तो लोगों का प्रदेश से पलायन एक हद तक रुक जाता। प्रदेश में साढे़ तीन लाख आंगनवाड़ी सहायिकाएं और दो लाख दस हज़ार आशा वर्कर्स हैं। इन लोगों को बहुत कम पैसे में काम करना पड़ता है। यदि इन्हें न्यूनतम वेतनमान मिलता तो मंदी के संकट से निपटने में बड़ी मदद मिलती और देश निर्माण में महिलाओं की बड़ी भूमिका बनती। यूपी में खेत मज़दूरों की तादाद 97.50 लाख है और उनकी क्रय शक्ति नगण्य है।

राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 49 फीसदी सेवा क्षेत्र का है। खुदरा व्यापार के विस्तार से सेवा का क्षेत्र मजबूत हुआ था, लेकिन जीएसटी, कोविड और नोटबंदी की वजह से इसमें बड़ी गिरावट आई है। ऑनलाइन कारोबार ने इनके सामने नई चुनौती खड़ी कर दी है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में कृषि, कुटीर उद्योग और श्रम आधारित उद्योग के विकास के बिना सेवा क्षेत्र का भी विस्तार नहीं हो सकता। अच्छी तकनीकी, पूंजी केंद्रित और कुशल श्रम आधारित उद्योग प्रदेश के बाहर हैं क्योंकि प्रदेश में उद्योग के फलने-फूलने जैसा सामाजिक वातावरण भी नहीं है।

आईपीएफ का मानना है, "कोरोना महामारी के दौर में सरकार के स्वास्थ्य व्यवस्था की कलई खुल गई। उसी समय यह स्पष्ट हो गया कि सरकारी अस्पतालों की स्थिति बेहद खराब है और निजी अस्पताल भी बेहतर चिकित्सा सुविधा देने में अक्षम हैं। यदि प्रदेश में ऑक्सीज़न सिलेंडर की उपलब्धता होती तो बहुत सारी ज़िंदगियों को बचाया जा सकता था। यही हाल शिक्षा का भी है। प्राथमिक विद्यालयों के कमज़ोर होने से हर गांव में अंग्रेजी मीडियम के स्कूल खुल रहे हैं। उच्च शिक्षा क्षेत्र में भी प्राइवेट मैनेजमेंट स्कूल और कालेजों की भरमार है।"

ऐसे हैं यूपी के सरकारी अस्पताल
 
पिछड़ रहे उत्पादक
 
सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक "यूपी की जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी है, जो हाल के सालों में करीब 28 फीसद थी। इस सेक्टर की हिस्सेदारी में जबर्दस्त गिरावट आई है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम इकाइयों में यूपी देश में अव्वल है। देश में करीब 11 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ है जिनमें 1.65 करोड़ लोग यूपी के हैं। रोज़गार प्रदान करने में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम (एमएसएमई) सेक्टर का कृषि क्षेत्र के बाद दूसरा स्थान है। राष्ट्रीय स्तर पर एमएसएमई सेक्टर का जीडीपी में 8 फीसदी व मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन में 45 फीसदी और निर्यात में 40 फीसदी योगदान है। यूपी सरकार द्वारा एमएसएमई इकाइयों के पुनर्जीवन और उन्हें मजबूत बनाने की नीति के तहत 2017-22 अवधि में 253402 करोड़ का लोन दिया गया। यह सेक्टर अभी संकटग्रस्त हालात में है।"

"प्रदेश में बुनकरी और सूती वस्त्र उद्योग 90 के दशक से ही संकटग्रस्त था, इसके बाद नोटबंदी, जीएसटी और महामारी के चलते इस सेक्टर की कमर टूट गई। इसे पुनर्जीवित करने के लिए लोन मुहैया कराने जैसे कदम नाकाफी हैं। तकनीक और बाज़ार की उपलब्धता सुनिश्चित करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। आजीविका के अन्य साधनों के अभाव से कुटीर उद्योगों में भी लोग जुड़े हुए हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर सर्वे में देखा गया है कि लोगों की आय में तेजी से गिरावट आई है।"

वाराणसी साड़ी उद्योग का सालाना कारोबार 2400 करोड़ का है। इसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सात लाख लोगों की आजीविका जुड़ी है, लेकिन यह कारोबार संकटग्रस्त है। यूपी के कालीन उद्योग से 15-20 लाख लोग जुड़े हैं। इसमें दो से ढाई लाख बुनकर व मज़दूर हैं। इसी तरह भदोही जिले में 800 से अधिक कालीन कारखानों में विभिन्न प्रांतों के करीब डेढ़ लाख से अधिक बुनकर काम करते हैं। बुनकरी कारोबार सर्वाधिक संकटग्रस्त है।

यही हाल अलीगढ़ में ताला उद्योग का है। इनमें करीब दो लाख लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। देश का करीब 80 फीसदी ताला अलीगढ़ में ही बनता है और निर्यात किया जाता है। यहां का ताला उद्योग कारोबार करीब 4,000 करोड़ रुपये का है, लेकिन पिछले तीन सालों में यह कुटीर उद्योग भी संकट के दौर से गुज़र रहा है। आगरा में करीब सात हज़ार जूते के छोटे कारखाने हैं। यह देश के जूता कारोबार की 65 फीसद मांग को पूरा करता है। करीब 15 हज़ार करोड़ रुपये का वार्षिक टर्नओवर है, लेकिन यह उद्योग भी संकट के दौर से गुज़र रहा है।

विकास के आंकड़ें झूठे
 
आईपीएफ के मुताबिक, "उत्तर प्रदेश में बाहर से पूंजी लाने के लिए समय-समय पर उद्यमियों की इंवेस्टर्स मीट और निवेश की खूब चर्चा होती है। फरवरी 2018 की लखनऊ में आयोजित इंवेस्टर्स मीट में ही 4.28 लाख करोड़ रुपये के 1045 निवेश प्रस्ताव सरकार को सौंपे थे। सरकारी आंकड़ों को ही सच माना जाए तो अभी तक राज्य में 51,240 करोड़ रुपये का ही निवेश प्रदेश में हुआ है।"

"साल 2023 में भी बड़े इंवेस्टर्स मीट की चर्चा सरकार चला रही है, जिसमें 10 लाख करोड़ रुपये के निवेश की बात हो रही है। मीडिया की खबरों और पुराने विदेशी निवेश के अनुभव के आधार पर लोगों को यह लग रहा है कि निवेश के नाम पर सरकार के मंत्री और अफसर विदेश के दौरे पर हैं। वास्तविक निवेश की अभी तक कोई तस्वीर उभर कर नहीं आई है। यूपी सिर्फ 5,616 स्टार्टअप का पंजीकरण किया गया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसमें कितने क्रियाशील हैं और उनमें पूंजी निवेश की क्या स्थिति है? इसमें भी अधिकांश नोयडा, गाजियाबाद व लखनऊ में हैं। बाकी जिले फिसड्डी हैं।"

आईपीएफ ने विकास के जो आंकड़े जुटाए हैं उसके मुताबिक, "यूपी में नवंबर 2022 में श्रम शक्ति भागीदारी दर 33.50 फीसदी थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 39 फीसदी रही। दरअसल बेरोज़गारी के आंकड़ों से आजीविका संकट का संपूर्ण परिदृश्य स्पष्ट नहीं होता है। इसकी वास्तविक स्थिति श्रम भागीदारी दर और लोगों की आय से समझी जा सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के नीचे 22 फीसदी लोग हैं, नीति आयोग द्वारा जारी बहुआयामी गरीबी सूचकांक में यूपी का आंकड़ा 37.79 फीसदी है। इसके मुकाबले बिहार में 51.91 फीसदी और झारखंड में 42.16 फीसदी गरीबी है।" 

बजट का विवरण
 
आईपीएफ की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, "साल 2022-23 में केंद्र सरकार का कुल बजट 39.45 लाख करोड़ और यूपी का, 6.15 लाख करोड़ रुपये था। यूपी सरकार शिक्षा पर 75,165 करोड़ (12.2 फीसदी बजट) रुपये खर्च करती है, जो सभी राज्यों के शिक्षा के लिए औसत आवंटन (15.2 फीसदी) से कम है। स्वास्थ का बजट 40,991 करोड़ (6.67 फीसदी बजट शेयर) है। नीति आयोग के अनुसार स्वास्थ्य रैकिंग में केरल पहले नंबर पर, बिहार 18 वें और यूपी 19 वें नंबर पर है। ट्रांसपोर्ट का बजट 39,864 करोड़ (6.48 फीसदी बजट शेयर), ऊर्जा का 37,566 करोड़ (6.11 फीसदी बजट शेयर), समाज कल्याण का 31,239 करोड़ (5.08 फीसदी बजट शेयर), रूरल डेवलपमेंट का 29,542 करोड़ (4.80 फीसदी बजट शेयर) है। यह राज्यों द्वारा ग्रामीण विकास के लिए औसत आवंटन 5.7 फीसदी से कम है।"

"यूपी में शहरी विकास के लिए 27,541 (4.41 फीसदी बजट शेयर), वाटर सप्लाई  एवं सैनिटेशन के लिए 21,733 (4.51 फीसदी बजट शेयर) और सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण के लिए 21,431 करोड़  (4.46 फीसदी बजट शेयर) आवंटित किया गया है। कृषि एवं संबद्ध गतिविधि के लिए 2.8 फीसदी बजट शेयर है। यह राज्यों द्वारा कृषि के लिए औसत आवंटन (6.2 फीसदी) से काफी कम है। साल 2022-23 के 6.15 लाख करोड़ के बजट में राजस्व खर्च 4.56 लाख करोड़ है, जिसमें से 2.76 लाख करोड़ रुपये मुख्य रूप से वेतन पेंशन व ब्याज की अदायगी में खर्च होता है। 2020-21 के बजट में इस मद में वास्तविक खर्च 1.83 लाख करोड़ था जो कुल खर्च 3.52 लाख करोड़ का 52 फीसदी था।"

"पूंजीगत व्यय जो इंफ्रास्ट्रक्चर आदि विकास मदों पर खर्च किया जाता है उसका बजट में महज़ 1.23 लाख करोड़ का आवंटन है जोकि बजट का 20 फीसदी है। इसमें यह नोट किया जाना चाहिए कि वास्तविक आय-व्यय 4 लाख करोड़ के ही करीब होगा। इसके लिए 2020-21 बजट के वास्तविक खर्च व आय के प्राप्त सरकारी आंकड़ों में देखा जा सकता है। बजट से यह भी देखा जा सकता है कि महत्त्वपूर्ण सेक्टर सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण, समाज कल्याण, ग्रामीण व शहरी विकास आदि में बेहद कम बजट का आवंटन है।"
 
आंकड़ों से स्पष्ट है कि शिक्षा व स्वास्थ्य में भी जो बजट आवंटित हैं उसका बड़ा हिस्सा वेतन, पेंशन आदि में ही खर्च होता है। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर सार्वजनिक व्यय करने के बजाय सरकार का फोकस पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल की नीति में है। तमाम स्कूलों, कालेजों व अस्पतालों को पीपीपी मॉडल के तहत संचालित करने की घोषणा भी की गई है। स्वास्थ्य महकमे के कायाकल्प की सच्चाई यह है कि चिकित्सकों व पैरामेडिकल स्टाफ के औसतन 40 फीसदी स्वीकृत पद रिक्त पड़े हुए हैं, विशेषज्ञ डॉक्टर के तो 60 फीसदी से ज़्यादा पद रिक्त पड़े हुए हैं। यही हाल प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज तक में है।

डंडे का लोकतंत्र
 
ऑल इंडिया पीपल्स फ्रंट ने अपने आधारभूत आंकड़ों के ज़रिए यह बताया है कि यूपी क्यों पिछड़ता जा रहा है? इसके पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह है भेदभाव की राजनीति और चौथे स्तंभ पर हमला। आईपीएफ के मुताबिक, "यहां मुख्य विपक्षी दल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन सूत्र के एक नेता के अधिनायकत्व में चलते हैं। साल 1990 के बाद की अर्थनीति ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया, नौकरशाही और अधिक ताकतवर हुई, लोकतांत्रिक अधिकारों का दायरा सिमटता चला गया। चीनी मिलों के अलावा सीमेंट उद्योग आदि को भारी कमीशन लेकर औने-पौने दाम पर पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया। नतीजा ये हुआ कि लोकतांत्रिक अधिकारों का क्षरण होता चला गया। साल 2017 के बाद स्थिति और ज़्यादा बदतर हुई है। मौजूदा दौर में सरकार की हर संभव कोशिश है कि नागरिकों को आज्ञापालक बनाया जाए, समाज में साम्प्रदायिक ज़हर घोला जाए और कानून के राज की जगह ‘ठोक दो’ की प्रशासनिक संस्कृति विकसित की जाए।"

"कुर्सी पर काबिज़ रहने के लिए राजनीतिक गतिविधियों को ठप किया जा रहा है। यहां शांतिपूर्ण धरने, प्रदर्शन, यात्रा और सम्मेलन तक की गतिविधियों पर किसी न किसी बहाने प्रतिबंध लगाया जा रहा है। संविधान के मूल तत्व न्याय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए पहल लेना सरकार की नज़र में असंवैधानिक हो गया है। सांप्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा शिकार लोकतंत्र ही हुआ है। लोग राजनीतिक, सामाजिक कर्म से विमुख हो जाएं इसके लिए कठोर कानून बना दिए गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020 है।"

आईपीएफ दावा करता है, "यदि आप सरकार के आलोचक हैं तो आपको किसी आंदोलन में शरीक न होते हुए भी आंदोलन खड़ा करने के षड्यंत्र के अभियुक्त के बतौर आईपीसी की धारा 120 बी के तहत गिरफ्तार कर महीनों जेल में रखा जा सकता है। शारीरिक प्रताड़ना और सार्वजनिक रूप से बदनाम करने के साथ ही आपकी सम्पत्ति को ज़ब्त करने की कार्रवाई इस वसूली अधिनियम के तहत हो सकती है।"
 
"स्वतंत्र भारत में आंदोलन के दमन का यह एक नया हथियार है। इस तरह के कानून से नागरिक आमतौर पर भयभीत हैं। जिसका प्रभाव उनकी राजनीतिक सामाजिक गतिविधियों पर पड़ रहा है। रासुका, गुंडा और गैंगस्टर एक्ट जैसे काले कानूनों का भारी पैमाने पर दुरूपयोग हो रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करके और नागरिक अधिकारों की रक्षा करके ही प्रदेश में समावेशी विकास की गारंटी हो सकती है।"

क्यों पिछड़ रहा यूपी?
 
आईपीएफ की पड़ताल के मुताबिक, "सामाजिक न्याय के क्षेत्र में दो समुदाय आदिवासी और अति पिछड़ों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। यदि कोल जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल कर लिया जाए तो आदिवासियों की आबादी प्रदेश में लगभग 25 लाख हो जाएगी। विडंबना यह है कि 7.50 लाख की आबादी वाले आदिवासी कोल को अभी तक जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया गया है। यूपी से किसी भी आदिवासी का प्रतिनिधित्व संसद में नहीं है। नगर पंचायतों में इन्हें महज एक सीट दी गई है, वह भी इटावा जिले के बकेवर नगर पंचायत में जहां एक भी आदिवासी नहीं है। दूसरी बड़ी आबादी अतिपिछड़ों की है उनका भी प्रतिनिधित्व आबादी के हिसाब से नौकरियों और पंचायतों में कम है। उन्हें उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। पंचायतों में उनकी हिस्सेदारी की व्यवस्था बिहार मॉडल पर हो सकती है जिसमें अति पिछड़ों और महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व है। जातीय जनगणना प्रदेश सरकार को भी कराना चाहिए।"

सत्ता का विकेंद्रीकरण एक प्रमुख जनवादी मांग रही है। पंचायती राज व्यवस्था प्रदेश में ज़रूर कायम है, लेकिन ये लोकतांत्रिक संस्थाएं नौकरशाही के भारी दबाव में हैं। जिला पंचायतों के अध्यक्ष और ब्लाक प्रमुखों के चुनाव में भारी पैमाने पर खरीद फरोख्त होती है। यहां भी सीधे मतदान हो और लोग चुने जाएं। पंचायतों का जनतंत्रीकरण और चुने हुए प्रतिनिधियों की संस्थाओं का पूर्ण वित्तीय अधिकार सुनिश्चित करना होगा।

अदालतों में बड़ी तादाद में मुकदमें लंबित हैं। बिना ट्रायल के ढेर सारे लोग जेलों में बंद हैं। त्वरित और सस्ते न्याय के लिए न्यायिक व्यवस्था को पंचायतों तक विकसित करना होगा और यदि मुकदमों का निस्तारण निचले स्तर पर न्यायिक पंचायतों से हो जाए तो सबसे बेहतर होगा।

यूपी सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार एक ट्रिलियन डालर यानी 80 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य लेकर काम कर रही है। सरकार कहने को तो कुछ भी कह सकती है, लेकिन सच्चाई यह है कि जिस ग्लोबल निवेश का सपना प्रदेश सरकार दिखा रही है, उसमें इस राज्य में कोई बड़ा निवेश करने नहीं आ रहा है।

 विकास के आधारभूत आंकड़ें
 
आईपीएफ ने यूपी के आधारभूत आंकड़ों को विस्तार से रेखांकित किया है। साल 2011 की गणना के अनुसार, "यूपी का क्षेत्रफल 2,40,928 वर्ग किमी, जनसंख्या घनत्व 829 प्रति वर्ग किमी है, जिसमें पुरूष 104480510 और महिलाएं 95331831 हैं। कुल ब्लॉक 827 व कुल ग्राम पंचायतें 59168 हैं। शहरी क्षेत्र में 17 नगर निगम, 199 नगर पालिका और 544 नगर पंचायतें हैं। राज्य में पुलिस के कुल आठ ज़ोन हैं, पर पुलिस आयुक्त सिर्फ सात हैं। यहां 94.08 फीसदी लोग हिन्दी और 5.42 फीसदी लोग उर्दू के जानकार हैं।"
 
"यूपी में 13 फीसदी खेती मानसून के भरोसे होती है। नहर प्रणाली से 21.74 लाख हेक्टेयर (15.2 फीसदी) और नलकूप से 1.06 करोड़ हेक्टेयर (74.6 फीसदी) फसलों की सिंचाई होती है। सूबे में राजकीय नलकूप की संख्या 34401, कुएं 12.58 लाख हेक्टेयर (8.8 फीसदी), तालाब एवं झील आदि 86 हज़ार हेक्टेयर (0.6 फीसदी) और अन्य 1.14 लाख (0.8 फीसदी) हैं। पूर्वी मैदानी क्षेत्र की औसत सालाना बारिश 112 सेमी है। मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र की सालाना बारिश 94 सेमी है और पश्चिमी यूपी के मैदानी क्षेत्र की औसत सालाना बारिश सिर्फ 84 सेमी है। बुदेलखंड में औसत सालाना बारिश 80 सेमी है, लेकिन हाल  के वर्षों में बरसात में गिरावट दिखी है।"

"यूपी में चीनी का 30 फीसदी, खाद्यान्न का 21 फीसदी, फल का 10.8 फीसदी, सब्जियों का 15.4 फीसदी, दुग्ध उत्पादन और डेयरी में 16 फीसदी उत्पादन का योगदान है। राष्ट्रीय कृषि निर्यात में उत्तर प्रदेश का योगदान 7.35 फीसदी है। कुल निर्यात में यूपी की हिस्सेदारी 4.73 फीसदी है। प्रमुख उत्पादों में गेहूं 37.88 फीसदी, भैंस मांस 50.34 फीसदी, प्राकृतिक शहद 26.59 फीसदी,  ताजे आम 4.12 फीसदी, अन्य ताजे फल 15.84 फीसदी, दुग्ध उत्पाद 13.31 फीसदी,  गैर बासमती चावल 4.02 फीसदी,  बासमती चावल 3.21 फीसदी,  पुष्प कृषि उत्पाद 0.57 फीसदी, प्रसंस्कृत फलों और मेवे आदि 0.51 फीसदी का कुल निर्यात में योगदान है। 2021-22 में कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का निर्यात 4.02 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया है। प्रदेश में कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 26 फीसदी है, जबकि जीविका के लिए आबादी का करीब 60 फीसदी कृषि पर निर्भर है। निर्यात में यूपी की हिस्सेदारी 4.73 फीसदी है, जबकि जीडीपी में हिस्सेदारी करीब 8 फीसदी है और जनसंख्या में हिस्सेदारी 15.98 फीसदी है।"

कैसे बदलेगा उत्तर प्रदेश?

आईपीएफ ने अपनी पड़ताल के आधार पर निष्कर्ष यह निकाला है कि सरकार पहले आर्थिक विकास की दिशा बदले। प्रदेश में रिक्त छह लाख पदों को तत्काल भरा जाए और सरकार बेरोज़गार लोगों के लिए नौकरी की गारंटी दे। कृषि, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग को बढ़ावा दिया जाए। किसानों की फसलों की समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी दी जाए। सब्जी के रख-रखाव के लिए स्टोरेज बनाया जाए और रोज़गार पैदा किया जाए।

व्यापारियों की जीएसटी में कमी लाई जाए, ई-कामर्स के बिज़नेस का सही नियमन हो और डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। ठेका मजदूरों व मानदेय कर्मियों को वेतनमान दिया जाए। पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल की जाए। स्वास्थ्य, शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए तभी ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में गति आ सकती है। सामाजिक राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध न लगाया जाए और काले कानून उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020 को रद्द किया जाए। आईपीसी की धारा 120 बी, रासुका, गैंगस्टर व गुण्ड़ा एक्ट का दुरूपयोग रोका जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा, सांप्रदायिकता के आधार पर समाज का विभाजन बंद करें और सदियों से लोगों में बने मैत्री भाव को नष्ट न करें। लोकतांत्रिक वातावरण में यूपी अपने अंतर्निहित क्षमताओं को विकसित कर सकता है और हर क्षेत्र में देश में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।

(लेखक वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest