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भारतीयकरण की मांग अगर संविधान के साथ धोखा नहीं, तो कम से कम फ़रेब तो है ही

भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 13 के ज़रिये उस तत्कालीन मौजूदा क़ानूनी प्रणाली को अर्थहीन घोषित करने का हमें वह रास्ता दिखा दिया था, जो क़ानूनी प्रणाली मौलिक अधिकारों के साथ असंगत थी।
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एम.पी. राजू लिखते हैं कि भारत ने पहले से ही अपनी सभी विभिन्न क़ानूनी प्रणालियों का भारतीयकरण करने के बजाय उन्हें संवैधानिक बनाने के विकल्प का रास्ता चुना है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 13 के ज़रिये हमें उस तत्कालीन मौजूदा क़ानूनी प्रणाली को व्यर्थ घोषित करने का वह रास्ता दिखा दिया, जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत था। संविधान के शासनादेश को लेकर हमारी जो समझ है,वह बताती है कि तबतक भारतीयकरण या क़ानूनी बहुलवाद और व्यक्तिगत क़ानूनों का ख़ात्मा नहीं हो सकता, जब तक कि वे समग्र संवैधानिक मूल्य-प्रणाली के साथ असंगत नहीं हों।

भारत की क़ानूनी और संवैधानिक व्यवस्था का भारतीयकरण और विउपनिवेशीकरण की मांग सहज और यहां तक कि आकर्षक लग सकती है। ऐसी मांग पर एक नज़दीकी नज़र डालने से एक दूसरी ही तस्वीर दिख सकती है। इस तरह की मांग कोई  नयी नहीं है। हालांकि, हालिया आह्वान इस मायने में थोड़ा अलग है कि यह आह्वान सुप्रीम कोर्ट के कुछ मौजूदा न्यायाधीशों को अपने पाले में लाने में कामयाब रहा है। कुछ न्यायाधीश सावरकवादी और गोलवलकवादी मंच से इस आह्वान के जय-जयकार लगाने वालों के रूप में भी सामने हो सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एस.अब्दुल नज़ीर को 2021 के दिसंबर महीने में “मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पाराशर, याज्ञवल्क्य, और प्राचीन भारत के दूसरे क़ानूनी युगपुरुषों" की प्राचीन भारतीय प्रणालियों के अनुरूप क़ानूनी प्रणाली का भारतीयकरण करने की ज़रूरत का प्रचार करने के लिए अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (ABAP) के मंच पर लाया गया था। एबीएपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की वकीलों की एक ऐसी शाखा है, जो भारत की क़ानूनी और संवैधानिक व्यवस्था को 'भारतीयकरण' के औचित्य को गुपचुप तरीक़े से सावरकवादी-गोलवलकवादी मूल्य-प्रणाली में रूपांतरित करने के अभियान की अगुवाई करती है।

फ़्रंटलाइन के आगामी अंक में प्रो. शमसुल इस्लाम ने आरएसएस के प्रकाशन 'परम वैभव के पथ पर' (1997) का हवाला देते हुए कहा है कि एबीएपी का निर्माण 1992 में भारतीय न्यायिक प्रणाली को... भारतीय संविधान में संशोधन का सुझाव देने... (और) अनुच्छेद 30 में संशोधन करने के लिए... भारतीय संस्कृति के हिसाब से ढालने" के मक़सद से बनाया गया था। इस तरह, भारत की क़ानूनी प्रणाली के उपनिवेशीकरण से मुक्त किये जाने के नाम पर 'भारतीयकरण' की धारणा का मूल तत्व, सीमा और उद्देश्य एक रहस्य नहीं रह जाना चाहिए।

एबीएपी और न्यायमूर्ति नज़ीर के इस आह्वान से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना और सुप्रीम कोर्ट के एक दूसरे मौजूदा न्यायाधीश, पी.एस. नरसिंह ने इस तरह के आह्वान किये थे। इन आह्वानों के पीछे का आधार यही है कि भारतीय क़ानूनी और संवैधानिक व्यवस्था की दुर्दशा का मुख्य और शायद एकमात्र कारण इसके भारतीयकरण की कमी को होना है।

क्या भारतीयकरण की ज़रूरत है?

हमारी क़ानूनी व्यवस्था उस संवैधानिक योजना का हिस्सा है, जिसे हमने तक़रीबन 72 साल पहले अपनाया था, और इस समय भी वह अपनी सभी कमज़ोरियों और ताक़त के साथ काम कर रही है। यह उस समग्र मूल्य प्रणाली पर आधारित है, जिसके हिस्से के रूप में विभिन्न विचारधारायें हैं। हालांकि, कुछ विचारधाराओं को इस समग्र मूल्य-प्रणाली का हिस्सा इसलिए नहीं माना जाता है, क्योंकि वे इसके साथ पूरी तरह से असंगत हैं, लेकिन साथ ही साथ इसके साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं और इसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। सावरकरवादी-गोलवलकरवादी विचारधारा इसकी एक मिसाल हो सकती है।

विचारधाराओं या मूल्य-प्रणालियों की यह टकराहट, और वास्तविक और असली भारतीय विरासत और परंपरा के एकमात्र उत्तराधिकारी या वंश परंपरा के रूप में ढोंग करने वाले एक समूह की इस तरह की क़वायद स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी सक्रिय रही थी। भारतीयकरण के नाम पर यह समूह कभी कमज़ोर,या कभी मज़बूत रही प्राचीन काल से प्रचलित स्त्री-विरोधी और जन-विरोधी मूल्य-व्यवस्थाओं के आधिपत्य को क़ायम रखना चाहता था।

ये आवाज़ें संविधान सभा में भी गूंजती रही थीं। इनका विरोध करते हुए डॉ. बी.आर. अम्बेडकर को संविधान सभा को चेतावनी देनी पड़ी थी कि संवैधानिक नैतिकता को विकसित किया जाना ज़रूरी है, और भारतीय जनता के बीच इस नैतिकता को विकसित करने के लिए फ़ायदेमंद औपनिवेशिक ढांचों और क़ानूनों को अपनाना आवश्यक हो सकता है। संविधान सभा में 4 नवंबर, 1948 को संविधान का मसौदा पेश करते हुए और भारत के लोगों में संवैधानिक नैतिकता को विकसित करने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए डॉ अंबेडकर ने सुविदित रूप से कहा था, "भारत में लोकतंत्र उस भारतीय ज़मीन पर महज़ खाद डालने की तरह है, जो अनिवार्य रूप से अलोकतांत्रिक है।" उन्हें ख़ासकर भारत सरकार अधिनियम, 1935 के एक अच्छे हिस्से पर भरोसा करते हुए संविधान के मसौदे पर 'औपनिवेशिक मानसिकता' पर हो रहे हालिया हमलों की तरह ही हमले का सामना करना पड़ा था।

अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर और विश्वंभर दयाल त्रिपाठी जैसे कुछ लोगों ने तो बाबासाहेब के इस विचार का विरोध संविधान सभा में ही कर दिया था। हालांकि, 17 मई, 1949 को जवाहरलाल नेहरू ने हमारी भारतीय परंपराओं को लेकर ज़्यादा यथार्थवादी तरीक़े से बात की और भारत को लोकतंत्र और क़ानूनी व्यवस्था के मामले में विश्वगुरु के रूप में मानने के झूठे गौरव के ख़िलाफ़ चेतावनी दी। उन्होंने कहा:

“मुझे इस बात से डर लगता है हम सबको ख़ुद को या अपने दोस्तों को फ़रिश्ता समझने और दूसरों को फ़रिश्तों के उलट मानने की आदत है। हम सभी यह सोचने के लिए तैयार हैं कि हम प्रगति और लोकतंत्र की ताक़तों के लिए खड़े हैं और दूसरा कोई कारण नहीं है। मुझे यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारत और उसके लोगों पर अपने गर्व किये जाने के बावजूद मैं प्रगति या लोकतंत्र के अगुआ होने के सिलसिले में बात करने को लेकर और ज़्यादा विनयशील हो गया हूं।”

डॉ अम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को अपने आख़िरी भाषण में ख़ुद ही लोकतांत्रिक सरकार वाली भारत की जड़ों को स्वीकार किया था और इस बात को दोहराया था कि वे परंपरायें खो गयी हैं और इसके फिर से खो जाने का ख़तरा है। वह इस बात को लेकर एकदम साफ़ थे कि प्राचीन काऩूनी व्यवस्था उस स्वस्थ विरासत से भटक गयी थी, जो सिर्फ़ बौद्ध परंपराओं, कथित निम्न-जातियों और आदिवासी समुदायों की विभिन्न परंपराओं में बची हुई थी। मनु, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य और दूसरे विधिशास्त्रियों की क़ानूनी प्रणालियों के ज़रिये जीवित रहने वाले भारतीयकरण ने व्यक्ति की गरिमा को कम करके और समुदायों, वर्णों और जातियों को निरंकुश शक्ति केंद्र और विनाश के स्रोत बनाकर भारत के विनाश के लिए भारतीय ग्राम गणराज्यों को ज़िम्मेदार बना दिया था। भारत के इन 'भारतीयकृत' और 'विउपनिवेशित' या पूर्व-औपनिवेशिक ग्राम गणराज्यों को लेकर डॉ अम्बेडकर का कहना भी कुछ इसी तरह था:

“मैं मानता हूं कि ये ग्राम गणराज्य भारत की बर्बादी कर रहे हैं। इसलिए मुझे हैरत है कि जो लोग प्रांतीयता और सांप्रदायिकता की निंदा करते हैं, वे गांव के समर्थक के रूप में आगे आ रहे हैं। गांव है क्या, महज़ स्थानीयता का परनाला, अज्ञानता, संकीर्णता और सांप्रदायिकता का अड्डा ? मुझे ख़ुशी है कि संविधान के मसौदे ने इस गांव को त्याग दिया है और व्यक्ति को अपनी इकाई के रूप में अपना लिया है।”

इस तरह, यह स्पष्ट हो जाता है कि 'औपनिवेशिक मानस' का कम से कम यह आंशिक योगदान तो था, जिसने व्यक्ति को भारत के संविधान और क़ानूनी प्रणाली की मूल इकाई के रूप में अपनाने दिया। इस तरह के ग़ैर-भारतीयकरण ने हमें भाईचारे को बढ़ावा देने और राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए व्यक्ति की गरिमा को पूर्व-प्रतिष्ठित करने के रूप में फिर से स्थापित करने में भी मदद की थी। इसलिए, कम से कम उस हद तक हमें भारतीयकरण और उपनिवेशवाद से मुक्ति के ख़िलाफ़ इस तरह के 'औपनिवेशिक मानस' की रक्षा करने की ज़रूरत है।

संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने उद्देश्य प्रस्ताव पर बोलते हुए आदिवासी लोगों की लोकतांत्रिक परंपराओं पर प्रकाश डाला था और कहा था: "उस सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास, जिसकी मैं एक संतान हूं, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि ये वही नये आगंतुक हैं, जो आप में से ज़्यादातर है और जो घुसपैठिए हैं- जहां तक मेरा सम्बन्ध है,तो ये नए आने वाले ही हैं, जिन्होंने मेरे लोगों को सिंधु घाटी से भगाकर जंगलों में शरण लेने के लिए खदेड़ दिया है। यह प्रस्ताव आदिवासियों को लोकतंत्र सिखाने वाला नहीं है। आप जनजातीय लोगों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते; आपको उनसे लोकतांत्रिक तरीक़े सीखने होंगे। वे धरती पर रहने वाले सबसे ज़्यादा लोकतांत्रिक लोग हैं…।” उन्होंने आगे कहा था, 'महोदय, मैं कहता हूं कि आप मेरे लोगों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते। क्या मैं इस बात को फिर से दोहरा सकता हूं कि यह उस इंडो-आर्यन भीड़ का आगमन ही तो है, जो लोकतंत्र के अवशेषों को नष्ट करती रही है …।”

दक्षिणायनी वेलायुदान ने हमारी इस लोकतांत्रिक परंपराओं के बारे में भी कुछ इसी तरह बताते हुए कहा था, “हमारी प्राचीन राजनीति में निरंकुश राततंत्र के सिद्धांत और गणतंत्रवाद के बीच संघर्ष थे। सत्तावादी राजनीतिक राज्यों ने गणतंत्रवाद की धीमी लौ को बुझा दिया था। लिच्छवी गणराज्य हमारे पूर्वजों की लोकतांत्रिक प्रतिभा की बेहतरीन अभिव्यक्ति था। वहां हर नागरिक को राजा कहा जाता था। आने वाले भारतीय गणराज्य में सत्ता लोगों से आयेगी..." उन्होंने आगे कहा, "मैं कल्पना करती हूं कि दलित ही भारतीय गणराज्य के शासक होंगे।" हरिजनों की ओर से उन्होंने कहा था, "हम अपनी सामाजिक अक्षमताओं को दूर करना, तत्काल उससे मुक्त होना चाहते हैं। सिर्फ़ एक स्वतंत्र समाजवादी भारतीय गणराज्य ही हरिजनों को स्वतंत्रता और समानता का दर्जा दे सकता है। हमारी आज़ादी महज़ ब्रिटिश सरकार से ही नहीं,बल्कि भारतीयों से मिल सकती है।"

संविधान सभा में 26 नवंबर 1949 को दिये गये अपने आख़िरी भाषण में अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने हमारी संवैधानिक और क़ानूनी प्रणाली के उस अनूठे ग़ैर-भारतीय चरित्र पर ज़ोर दिया था, जिसे हमने अपनाया था:

“बहरहाल, किसी भी पर्यवेक्षक को आकर्षित करने वाली पहली और सबसे दीगर हक़ीक़त यही है कि हमारे पास एक गणतंत्र होगा। भारत को पिछले पुराने दिनों में गणराज्यों के बारे में पता था, लेकिन वह 2,000 साल या उससे ज़्यादा पहले की बात है और वे गणराज्य छोटे-छोटे गणराज्य थे। हमारे पास उस गणतंत्र जैसा कुछ भी नहीं था, जो अब हमारे पास होने जा रहा है, हालांकि उन दिनों भी मुग़ल काल के दौरान जैसे ऐसे साम्राज्य थे, जिनमें देश के बहुत बड़े हिस्से शामिल थे। इस गणतंत्र का राष्ट्रपति निर्वाचित राष्ट्रपति होगा। हमारे पास कभी भी इस तरह के राज्य का कोई निर्वाचित प्रमुख नहीं रहा था, जिसमें भारत के इतने बड़े इलाक़े शामिल रहे हों। और यह पहली बार है कि देश के सबसे साधारण और आख़िरी छोर पर रह रहे नागरिकों के लिए यह अवसर खुला हुआ है कि वे भी इस बड़े राष्ट्र का राष्ट्रपति या मुखिया बनें, जो आज दुनिया के सबसे बड़े राज्यों में गिना जाता है। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है।"

सवाल है कि क्या हम अपनी इस क़ानूनी और संवैधानिक व्यवस्था के इस गणतांत्रिक चरित्र का विउपनिवेशीकरण और भारतीयकरण करना चाहते हैं ? हमारी संवैधानिक और क़ानूनी व्यवस्था से किस तरह का भारतीयकरण ग़ायब है ? जैसा कि डॉ अंबेडकर, मुंडा, वेलायुधन और डॉ प्रसाद ने पहले ही उजागर कर दिया था कि हमने संविधान सभा में ही महिला-विरोधी और जन-विरोधी मूल्य-व्यवस्थाओं की धर्मशास्त्रीय विरासत को खारिज कर दिया था। यह अस्वीकृति संविधान के हर एक अनुच्छेद और क़ानून के प्रावधानों, मूल और प्रक्रियात्मक दोनों में ही कहीं ज़्यादा व्यापक है। व्यक्तिगत क़ानूनों और प्रथागत क़ानूनों सहित चल रहे संशोधनों और संहिताओं के के ज़रिये शेष उलटफेर को धीरे-धीरे दूर कर दिया गया है।

हमने औपनिवेशिक क़ानूनी प्रणालियों और विचारधाराओं से कई उपयुक्त तत्वों को भी अपनाया है। यह सच है कि हमने अब तक न्यायाधीशों को "माई लॉर्ड", या "योर लॉर्डशिप" से संबोधित करने या औपनिवेशिक काल की वर्दी जैसे कुछ ऐसे अवांछनीय तौर-तरीक़ों को दूर करने से इनकार कर दिया है, जो औपनिवेशिक मानस के तत्व प्रतीत होते हैं। "मीलॉर्ड" या "योर लेडीशिप" की जगह "पंडितजी", "महाराज", या "आर्यपुत्र श्री" को लाकर हम बहुत कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं। वे ख़िताब शायद औपनिवेशिक मानस के प्रति हमारी लत के कारण नहीं, बल्कि हमारी जातिवादी और सवर्ण-मानसिकता, और उन सामंती और कुलीन आदतों के कारण हैं, जिन्हें अभारतीयकरण करने की ज़रूरत है।

भारतीयकरण का हौआ

हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से बड़ी चतुराई के साथ तैयार किये गये भारतीयकरण के इस हौए को भारतीय राज्य-व्यवस्था से बार-बार नकारे जाने के बावजूद बार-बार सिर चढ़कर बोलता रहा है। यह एक कथित रूप से भारतीय परंपरा, संस्कृति या धर्म पर आधारित एक बहुत ही अलग और नये संविधान, और क़ानूनी प्रणाली तैयार करने का आह्वान है। इस हौए को जिलाये रखने के लिए कुछ लोग जब-तब हवा देते रहते हैं।

आरएसएस मौजूदा संविधान से नाख़ुश रहा है और चाहता रहा है कि इसकी जगह मनुस्मृति (शाब्दिक रूप से, 'मनु संहिता') हो। इसकी पत्रिका, ऑर्गनाइज़र ने विशेष रूप से 30 नवंबर, 1949 को एक संपादकीय ('संविधान') में इस भावना को अभिव्यक्त किया था और लिखा था: "भारत के नये संविधान को लेकर सबसे बुरी बात यह है कि इसमें भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है।"

1940 से 1973 तक आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक (अर्थात प्रमुख) रहे एम.एस. गोलवलकर ने अपनी किताब- 'बंच ऑफ़ थॉट्स' (1966) में इसी तरह की भावना व्यक्त की थी, जिसमें कहा गया था कि हमारे संविधान में "ऐसा बिल्कुल कुछ भी नहीं है, जिसे हमारे स्वयं का कहा जा सके और यह कि इसमें संयुक्त राष्ट्र चार्टर के कुछ बेकार हो चुके सिद्धांत शामिल हैं, और अमेरिकी और ब्रिटिश संविधानों की कुछ ऐसी विशिष्टतायें हैं, जिन्हें "बस गोलमोल तरीक़े से ले आया गया है।" उन्होंने झूठा गर्व जताते हुए कहा था, “हमारी मातृभूमि में हमारा अपना ही एक स्वतंत्र और समृद्ध राष्ट्रीय जीवन था। हमारे पास एक अनूठी सामाजिक व्यवस्था और बेहद विकसित राजनीतिक संस्थान थे।"

6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस किये जाने से पहले और बाद में भी आरएसएस की ओर से संविधान को "हिंदू विरोधी" के रूप में निरूपित करने वाली पुस्तिकायें जारी करने और इसके परिकल्पित संविधान के एक आदर्श रूप को सामने रखने के उदाहरण सामने आते रहे हैं। 14 जनवरी, 1993 को, आरएसएस नेता राजेंद्र सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल एक नये संविधान की मांग की थी, क्योंकि उनका मानना था कि भारत "एक मिश्रित संस्कृति वाला देश नहीं" है।

वरिष्ठ हिंदी पत्रकार और इस समय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABP-एबीवीपी आरएसएस से संबद्ध छात्र संगठन है) के पूर्व महासचिव राम बहादुर राय ने जून 2016 में आउटलुक के साथ दिये गये अपने एक साक्षात्कार में ज़ोर देकर कहा था कि मौजूदा संविधान "हमारी ग़ुलामी का एक नया वसीयतनामा" है। उन्होंने यह भी इच्छा जतायी थी कि 16वीं लोकसभा को एक नया संविधान बनाने के लिए स्वयं को एक संविधान सभा में परिवर्तित कर देना चाहिए।

हाल ही में संविधान से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ विशेषताओं को हटाने और समान नागरिक संहिता के झूठे बहाने की आड़ में प्रमुख समुदाय के अलावा अन्य क़ानूनी बहुलवाद को ख़त्म करने के प्रयास किये जाते रहे हैं और धमकियां दी जाती रही हैं। इस समय भारतीयकरण और उपनिवेशवाद से मुक्ति के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को मनु, कौटिल्य, कात्यायन और दूसरे अन्य लोगों के राजदूत के रूप में बाहर भेजा जाता है।

अव्यक्त प्रमुख आधारों के रूप में मूल्य-प्रणाली

एक क़ानूनी प्रणाली मूल्यों की एक शाखा होती है। राजनीतिक नैतिकता सहित विचारधारा, आचारसंहिता और नैतिकता के मामले में भी ऐसा ही है। किसी क़ानूनी प्रणाली या संवैधानिक प्रणाली का कोई विशेष रूप-रेखा या पहचान उन मूल्यों और विचारधारा पर निर्भर करती है, जिनके आधार पर इसे बनाया जाता है और विकसित किया जा रहा होता है।

जैसा कि ब्रिटिश न्यायाधीश लॉर्ड टॉम डेनिंग का मानना था कि न्यायिक प्रणाली अनिवार्य रूप से इसे संचालित करने वाले न्यायाधीशों के संवैधानिक दर्शन को प्रतिबिंबित करेगी, और उनके निर्णय इससे प्रभावित होंगे। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के न्यायाधीशों के चेतन और अवचेतन मन में 'भारतीयकरण' की विचारधारा, जो भारतीय संविधान की समग्र नैतिकता (मूल्य-प्रणाली) के साथ असंगत है, को शामिल करने के दूरगामी परिणाम होंगे।

न्यायमूर्ति नज़ीर ने अमेरिकी न्यायाधीश ओलिवर वेंडेल होम्स को उनके इस इस कथन के साथ उद्धृत करते हुए कहा है कि प्रचलित नैतिक और राजनीतिक सिद्धांत और यहां तक कि स्पष्ट या अचेतन पूर्वाग्रह, "जो न्यायाधीश अपने साथियों के साथ साझा करते हैं, उन नियमों को निर्धारित करने में उस न्यायवाद के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा काम करते हैं, जिनसे लोग शासित होते हैं।" उन्होंने अमेरिकी क़नूनी विद्वान रोस्को पाउंड के नज़रिये का भी ठीक ही उल्लेख किया कि "मौजूदा नैतिक विचार और नैतिक रीति-रिवाज़ अदालतों की ओर से लगातार तैयार किए जाते हैं, हालांकि ऐसा शायद ही कभी जान-बूझकर किया जाता है।"

इस तरह, अगर सावरकरवादी-गोलवलकरवादी विचारधारा की ओर से प्रचारित 'भारतीयकरण' की मूल्य प्रणाली (नैतिकता) कुछ न्यायाधीशों के अवचेतन या चेतन मन में अव्यक्त प्रमुख आधार की जगह ले लेती है, तो भारत की समग्र संवैधानिक नैतिकता (मूल्य प्रणाली) को उखाड़ फेंकने वाले किसी भी व्यक्ति पर भारतीय न्यायपालिका के सामने आने वाली त्रासदी को क़ुर्बान करने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे परिदृश्य में भारत में हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की 'परस्पर सहमति' काफूर हो जाएगी, और इसकी जगह भारतीयकरण की विचारधारा काबिज हो सकती है।

इसी परस्पर सर्वसम्मति को हमारा सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक नैतिकता कहता रहा है। यह संयुक्त मूल्य-प्रणाली भारत की समग्र संस्कृति से सीधे-सीधे आती है (संविधान के अनुच्छेद 51A(f) और 351 देखें)। यही वह राजनीतिक संस्कृति है, जिसे जर्मन दार्शनिक और समाजशास्त्री जुर्गन हैबरमास ने भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाजों की राजनीतिक संस्कृति कहा है: "बहुसांस्कृतिक समाजों में बुनियादी अधिकार और संवैधानिक राज्य के सिद्धांत एक राजनीतिक संस्कृति को ठोस बनाने वाले ऐसे बिंदु हैं, जो सभी नागरिकों को एकजुट करती हैं। ये बदले में विभिन्न समूहों और उपसंस्कृतियों के सह-अस्तित्व का आधार बनाते है, जिनमें से प्रत्येक का अपना मूल और पहचान है। बहुसंख्यक संस्कृति को मसग्र राजनीतिक संस्कृति पर वर्चस्व जमाती परिभाषा की शक्ति का इस्तेमाल से रोकने के लिए एकीकरण के इन दो स्तरों को अलग करने की ज़रूरत है। असल में बहुसंख्यक संस्कृति को ख़ुद को इस राजनीतिक संस्कृति के अधीन कर लेना चाहिए, और अल्पसंख्यक संस्कृतियों के साथ एक बिना ज़ोर-ज़बरदस्ती के आदान-प्रदान की प्रक्रिया में दाखिल हो जाना चाहिए।"

भारत में यह राजनीतिक संस्कृति या समग्र नैतिकता संवैधानिक मूल्यों की इसी प्रणाली के ज़रिये व्यक्त की जाती है, जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं और संरचना का आधार बनती है। इसमें वे सार्वभौमिक मानवीय मूल्य शामिल हैं, जिन्हें हम सभी भारतीय मानते हैं, जो पूरे संविधान में धड़कते हैं, और जिन्हें बहुत ही संक्षेप में प्रस्तावना में घोषित किया गया है।

हालांकि, जैसा कि नैतिक दार्शनिक, राजेंद्र प्रसाद का कहना है कि सभी मूल्य-प्रणालियों को सार्वभौमिक मूल्यों के साथ उनके संबंधों के लिहाज़ से चार समूहों में बांटा जा सकता है। वे हैं (a) सार्वभौमिक, (b) सार्वभौमिक-विरोधी(सार्वभौमिक-विरोधात्मक), (c) सार्वभौमिक-अनुगामी (सार्वभौमिक-अनुकूलित) और (d) सार्वभौमिक-तटस्थ। अगर सभी भारतीय कुछ संवैधानिक मूल्यों को सार्वभौमिक मानने पर सहमत हो सकते हैं, तो इस तरह से ये मूल्य सभी पर सार्वभौमिक रूप से लागू होते हैं, और कोई भी भारतीय किसी भी परिस्थिति में उन मूल्यों का अपवाद नहीं लेगा। इसके उलट, इसका मतलब यह भी होगा कि अगर कुछ मूल्य इन सार्वभौमिक मूल्यों के विपरीत पाये जाते हैं, तो वे सभी मामलों में अवांछनीय हैं और उन्हें किसी भी क़ीमत पर उपेक्षित किया जाना चाहिए।  

इस तरह, अगर भारतीयकरण की विचारधारा हमारी समग्र संवैधानिक मूल्य प्रणाली के विरोधाभासी होने के कारण निषिद्ध श्रेणी में आती है, तो इसका हर तरह से विरोध किया जाना ज़रूरी है; बेशक इस तरह का विरोध ख़ुद समग्र संवैधानिक नैतिकता के मूल्यों का पालन करते हुए किया जाना चाहिए। हम इस भारतीयकरण के हौवे के समर्थकों के नरसंहार की कल्पना भी नहीं कर सकते और न ही इसकी कामना कर सकते हैं।

ऐसे में न्यायाधीशों का उच्च नैतिक कर्तव्य है कि वे भारतीयकरण और उपनिवेशवाद की मुक्ति की सुनामी में फेंके जाने के बजाय इस विरोध के मशाल का वाहक बनें। अन्यथा, हम अपने सबसे क़ीमती मानवाधिकारों और वास्तव में भारतीय समग्र संवैधानिक नैतिकता के इस प्रहरी के बिना तबाह हो जायेंगे। इतिहास ने दिखाया है कि यह भारतीयकरण विचारधारा व्यक्ति की गरिमा, निजता के मौलिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, संघवाद, अल्पसंख्यक अधिकारों, आदिवासी और दलित अधिकारों के द्वंद्वात्मक रूप से विरोधी है। इनमें से सभी को हमारे संविधान की बुनियादी विशेषताओं और संरचना का हिस्सा माना गया है।

अश्वत्थामा वाली भ्रमित धारणा

भारत की क़ानूनी प्रणाली के भारतीयकरण का यह आह्वान साफ़ तौर पर एक भ्रम है और झूठे औचित्य के बावजूद संवैधानिक बनाने के आह्वान में शामिल नहीं है। भारतीयकरण के इस आह्वान में सबसे पहले जिन चीज़ों को नुक़सान होना है,उनमें से एक ख़ुद सत्य, ख़ासकर व्याख्यात्मक सत्य है, जो मूल्य के सभी शाखाओं- आचार संहिता, नैतिकता, राजनीतिक संस्कृति और क़ानून का मुख्य आधार है। इस तरह का आह्वान अनिवार्य रूप से अश्वत्थामा के भ्रांति के दुष्परिणाम का पूर्वाभास देता है। ग़ौरतलब है कि महाभारत युद्ध के दौरान जब अश्वत्थामा को एक चाल के तौर पर मारा गया था, तो कुछ लोग अच्छी तरह जानते थे कि यह महज़ एक हाथी था, जो मारा गया था। लेकिन, सबसे सबसे बड़ी बात यह थी कि द्रोणाचार्य सहित प्रमुख लोगों को यह विश्वास दिला दिया गया था कि यह द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ही थे, जिनकी युद्ध में हत्या कर दी गयी थी। भारतीय संविधान के निर्माता इस भ्रांति से अवगत थे और उन्होंने हमें इसके ख़िलाफ़ चेताया था।

यहां तक कि उद्देश्य प्रस्ताव पारित करने से पहले संविधान सभा की शुरुआत में ही 21 जनवरी, 1947 को चर्चा के दौरान उस पर बोलते हुए आर वी धुलेकर ने अहिंसा के साथ सत्य के मूल्य को संविधान के पीछे की भावना के रूप में उल्लेख किया था। उन्होंने महाभारत में असत्य और अश्वत्थामा की भ्रांति के परिणाम की ओर इशारा करते हुए हमारे संविधान में सत्य के मूल पर ज़ोर दिया था:

"मानव इतिहास अपने आप में एक किताब है। यह किताब ख़ुद ही अंतहीन रूप से कठिन तथ्यों को लिखता चला जाता है। यह मज़बूत और कमज़ोर के बीच कोई भेदभाव नहीं करता है। सत्य के अवतार युधिष्ठिर ने अपने जीवन में सिर्फ़ एक बार आधा सच,यानी "नरो वा कुंजारो वा" कहा था; और इस छोटे से इस झूठ के कारण प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत के मशहूर लेखक व्यास की क्रूर कलम ने उन्हें झूठों के साथ खड़ा कर दिया था और इस कारण से उन्हें नरक के कष्टों से गुज़रना पड़ा था। ”

भारत ने पहले ही अपनी सभी विभिन्न क़ानूनी प्रणालियों का भारतीयकरण करने के बजाय उन्हें संवैधानिक बनाने के विकल्प का रास्ता चुना है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 13 के ज़रिये उस तत्कालीन मौजूदा क़ानूनी प्रणाली को अर्थहीन घोषित करने का हमें यह रास्ता दिखा दिया था, जो क़ानूनी प्रणाली मौलिक अधिकारों के साथ असंगत थी। भाग IV में निदेशक सिद्धांतों ने हमें आवश्यक क़ानूनी प्रणाली को विकसित करने के लिए विशिष्ट दिशा-निर्देश दिया था। हिंदू कोड बिल और उसके बाद के संहिताकरण और संशोधन इसके सुबूत हैं।

हमारा क़ानूनी बहुलवाद हमारी समग्र संवैधानिक मूल्य प्रणाली का एक ज़रूरी घटक है। हम भारतीय सही मायने में अपने संविधान के शासनादेश को लेकर हमारी जो समझ है,वह या तो भारतीयकरण या क़ानूनी बहुलवाद और व्यक्तिगत क़ानूनों के तबतक ख़ात्मे की बात नहीं करती, जब तक कि वे समग्र संवैधानिक मूल्य-प्रणाली के साथ असंगत नहीं हों। संविधान को और ज़्यादा संवैधानिक बनाने के आह्वान के बजाय भारतीयकरण या उपनिवेशवाद से मुक्ति का कोई भी आह्वान संविधान के साथ धोखाधड़ी नहीं, तो एक भ्रम तो है ही। चाहे अश्वत्थामा की भ्रांति के रूप में हो या 'धृतराष्ट्र-आलिंगन' की गंदी चाल के रूप में हो, इस भ्रम का कोई भी खेल क़हर ढा सकता है और भारतीय संविधानवाद के सहस्राब्दी पुराने अभियान को तबाह कर सकता है।

(डॉ एम.पी. राजू एक वकील हैं औऱ भारत के सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। वह इंडियाज़ कंस्टिट्युशन: रूट्स,वैल्यूज़ एंड रॉंग्स के लेखक भी हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

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Call for Indianisation is a Fallacy, if Not a Fraud on the Constitution

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