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साम्राज्यवाद अब भी ज़िंदा है

साम्राज्यवादी संबंध व्यवस्था का सार विश्व संसाधनों पर महानगरीय या विकसित ताकतों द्वारा नियंत्रण में निहित है और इसमें भूमि उपयोग पर नियंत्रण भी शामिल है। 
Imperialism

यह एक आम भ्रांति है कि राजनीतिक निरुपनिवेशीकरण के फौरन बाद के दौर में औपनिवेशिक या महानगरीय ताकतों ने अपने पहले के उपनिवेशों के संसाधनों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश की थी और इसके लिए उन्होंने नव-स्वाधीन सरकारों के खिलाफ तख्तापलट कराने से लेकर सशस्त्र दखल देने तक, हर तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया था, पर वह दौर एक वक्त के बाद खत्म हो गया। महानगरीय ताकतों ने अब अपने उपनिवेशों के राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो जाने के तथ्य को स्वीकार कर लिया है। और अब जो भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाएं चलन में हैं, वे विभिन्न देशों के बीच स्वेच्छापूर्ण वार्ताओं का ही प्रतिफल है, न कि कुछ देशों द्वारा दूसरे देशों पर दाब-धौंस के बल पर थोपी गयी है।

इसी के आधार पर यह दलील दी जाती है कि नव-उदारवाद की अवधारणा पचास तथा साठ के दशकों के लिए तो उपयुक्त थी और यह महानगरीय शक्तियों की पहले वाली औपनिवेशिक व्यवस्था को बरकरार रखने की कोशिशों का प्रतिनिधित्व करती थी। इसलिए, कहीं हाल के दौर को साम्राज्यवाद की संज्ञा के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है, जबकि नव-औपनिवेशिक दौर को जरूर, साम्राज्यवादी दौर के हिस्से के तौर पर शामिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में यह कि साम्राज्यवाद को इस तरह परिभाषित किए जाने पर भी कि उसके अंतर्गत उपनिवेशवाद तथा नवउपनिवेशवाद, दोनों ही दौर आ जाएं, आज के दौर में यह संज्ञा प्रासंगिक नहीं रह गयी है।

यह एक भ्रांति है क्योंकि इसमें साम्राज्यवाद की पहचान सिर्फ उसके हिंसक जोर-जबर्दस्ती का सहारा लेने से ही की जाती है, न कि महानगरीय देशों तथा हाशियावर्ती देशों के बीच के संबंधों की प्रकृति के सार के आधार पर। इसमें साम्राज्यवाद की परिभाषा उसके ‘रूप’ के आधार पर  की जाती है, न कि उसके ‘सार’ के आधार पर और इस तरह उसके ‘रूप’ को ही ‘सार’ मान लिया जाता है। साम्राज्यवादी सार वाली संबंध व्यवस्था कायम रखने के लिए अगर अब पहले की तरह हिंसक जोर-जबर्दस्ती की जरूरत नहीं होती है और ऐसी संबंध व्यवस्था को ऊपर-ऊपर से देखने में स्वेच्छा के आधार पर भी चलाते रखा जा सकता है। इससे साम्राज्यवादी संबंध व्यवस्था के बने होने के तथ्य पर रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता है। बेशक, फर्क तो इसके होने से ही पड़ता है।

साम्राज्यवादी संबंध व्यवस्था का सार विश्व संसाधनों पर महानगरीय या विकसित ताकतों द्वारा नियंत्रण में निहित है और इसमें भूमि उपयोग पर नियंत्रण भी शामिल है। पूर्व-उपनिवेशों ने काफी संघर्ष के बाद, अपने संसाधनों पर नियंत्रण हासिल किया था और यह ठीक उसी दौर में किया गया था, जिसे नवउपनिवेशवाद के दौर के  रूप में परिभाषित किया जाता है। वास्तव में यह संघर्ष ही नवउदारवाद की पहचान कराता था। लेकिन नवउदारवादी विश्वीकरण का अर्थ यही है कि तीसरी दुनिया की इन परिसंपत्तियों पर नियंत्रण फिर से महानगरीय पूंजी के हाथों में पहुंच गया है और इसके लिए उस तरह के किसी संघर्ष की जरूरत भी नहीं पड़ी है।

भारत में भी यही हुआ था। यह विचार कि प्राकृतिक संसाधन शासन के हाथों में रहने चाहिए, उन पर शासन की मिल्कियत होनी चाहिए तथा शासन द्वारा उनका विकास किया जाना चाहिए, इसे 1931 के कांग्रेस के कराची प्रस्ताव में शामिल किया गया था। इस प्रस्ताव में पहली बार स्वतंत्र भारत का स्वरूप कैसा होगा इसकी रूपरेखा पेश की गयी थी। कराची प्रस्ताव में जो संकल्पना पेश की गयी थी, वह तब तक भारत की आधिकारिक नीति बनी रही थी, जब तक ‘उदारीकरण’ का अवतरण नहीं हो गया। लेकिन, नवउदारवादी व्यवस्था में फिर से विदेशी पूंजी को आमंत्रित किया जा रहा है कि आए और (घरेलू इजारेदारों के साथ मिलकर) देश में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का विकास करे।

विकसित दुनिया की पूंजी के प्रति रुख का इस तरह से पलटा जाना, जो इस दौर में भारत की ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के दूसरे अनेक देशों की पहचान रहा है, इन देशों पर वास्तव में तीन अंतर्राष्टï्रीय संगठनों द्वारा थोपा गया है, जो वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी की ओर से काम करती आयी हैं। ये संगठन हैं--अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ)। इस प्रक्रिया में आइएमएफ तथा विश्व बैंक की भूमिका तो एक जानी-मानी बात है। लेकिन, इस सिलसिले में विश्व व्यापार संगठन की भूमिका उतनी जानी-पहचानी नहीं है। विश्व व्यापार संगठन ने इसके लिए इस पूरी तरह से बदनाम सिद्घांत का सहारा लिया है कि मुक्त व्यापार, इस व्यापार के सभी साझेदारों के लिए लाभदायक होता है और उसने इस सिद्घांत का सहारा इस तथ्य के बावजूद लिया है कि उपनिवेशवाद के दीर्घ अनुभव ने स्पष्टï रूप से मुक्त व्यापार के सत्यानाशी, निरुद्योगीकरणकारी नतीजे सारी दुनिया के सामने लाकर रख दिए थे। इस बदनाम सिद्घांत के सहारे उसने तीसरी दुनिया के देशों पर एक ऐसी व्यापार व्यवस्था को थोप दिया है, जो पूरी तरह से विकसित दुनिया के ही हक में पड़ती है।

इस व्यापार निजाम का एक नतीजा--यहां हम इस एक नतीजे पर ही खुद को केंद्रित करेंगे--यह हुआ है कि हाशिये पर पडऩे वाले देशों में खाद्य आत्मनिर्भरता को पूरी तरह से नष्टï कर दिया गया है, ताकि ये देश, विकसित देशों में पैदा होने वाले अतिरिक्त खाद्यान्न के लिए बाजार मुहैया करा सकें और अपने यहां के भूमि उपयोग को सब्जी-तरकारियों से लेकर फल-फूल तक, ऐसी अनेक फसलें पैदा करने की ओर मोड़ सकें, जो विकसित देशों में या तो पैदा ही नहीं हो सकती हैं या फिर पर्याप्त मात्रा में पैदा नहीं हो सकती हैं। खाद्यान्न आत्मनिर्भरता का खात्मा, जैसाकि मिसाल के तौर पर अफ्रीकी देशों में हुआ है, तीसरी दुनिया को एक ओर तो अकालों के लिए वेध्य बनाता है और दूसरी ओर साम्राज्यवाद की दाब-धोंस के सामने कमजोर बनाता है।

बहरहाल, अगर तीसरी दुनिया में खाद्य आत्मनिर्भरता का नष्टï किया जाना खतरनाक है,  इस काम के लिए जिस औजार का इस्तेमाल किया गया है, वह तो इतना अतार्किक है कि उसके इस्तेमाल किए जाने पर विश्वास ही नहीं होता है। इस अतार्किकता का पहला तत्व है, संबंधित सरकारों द्वारा किसानों को दी जाने वाली मदद में, डब्ल्यूटीओ द्वारा किया जाने वाला उचित या परमिसिबल और अनुचित या इम्पर्मिसिबल का भेद। इस विभाजन में, अगर सरकार द्वारा किसानों को प्रत्यक्ष नकद भुगतान किया जाता है तो वह तो उचित सहायता है, लेकिन अगर सरकार द्वारा मूल्य-समर्थन के जरिए किसानों को सहायता दी जाती है, तो वह अनुचित है। अब अमरीका जैसे किसी देश में तो, जहां किसान कुल आबादी का बहुत ही छोटा हिस्सा हैं, उनके लिए प्रत्यक्ष नकद भुगतान करना आसान होता है, लेकिन भारत जैसे किसी देश में, जहां किसानों की संख्या करोड़ों में है, किसानों की मदद करने के लिए मूल्य समर्थन का ही तरीका कारगर हो सकता है। इसलिए, उचित तथा अनुचित हस्तांतरणों के बीच किया जाने वाला यह भेद ही, जिसकी हिमायत आर्थिक सिद्घांत की किसी सरासर अवैध धारा की दुहाई के सहारे की जाती है, अपनी प्रकृति से ही भारत जैसे देशों के किसानों के खिलाफ काम करने वाला भेद है।

अतार्किकता का दूसरा तत्व, उचित हस्तांतरणों के परिमाण की गणना की पद्घति से निसृत होता है। इस नुक्ते को स्पष्टï करने के लिए हम, विश्व व्यापार संगठन में अमरीका द्वारा भारत के खिलाफ दर्ज करायी गयी एक ठोस शिकायत को ले लेते हैं। गणना के आधार वर्ष में, जो कि 1986-88 की कीमतों का औसत है, चावल तथा गेहूं का डालर में एक खास अंतर्राष्ट्रीय भाव था और आधार वर्ष में रुपए तथा डालर का जो विनिमय मूल्य था उससे गुणा करने पर, इन पैदावारों के लिए आधार वर्ष का रुपए का बैंचमार्क दाम निकल आता है। अमरीका का दावा है कि इस बैंचमार्क कीमत तथा संबंधित वर्ष के न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच का अंतर, इन फसलों के लिए भारत में दी जा रही सब्सीडी है और संबंधित फसलों की कुल पैदावार का इस अंतर से गुणा करने पर, हमारे यहां किसानों को दी जा रही कुल सब्सीडी निकल आती है। और यह कथित सब्सीडी अगर इन फसलों के कुल मूल्य के एक खास अनुपात से ज्यादा बैठती है, तो इसे डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन माना जाएगा। इसी तरह की गणना के आधार पर अमरीका ने दावा किया था कि 2013-14 में भारत का गेहूं का बैंचमार्क दाम 360 रु0 प्रति क्विंटल होना चाहिए था, जबकि एमएसपी थी, 1390 रु0 प्रति क्विंटल!

हम यहां उक्त अमरीकी शिकायत की वैधता के झगड़े में नहीं जाना चाहेंंगे और न ही हम यह कहना चाहते हैं कि विश्व बैंक की व्यवस्था वही कहती है, जैसाकि अमरीका का दावा है। यह विवाद न्यायिक प्रक्रिया के आधीन है और डब्ल्यूटीओ के नियम ठीक-ठीक  क्या कहते हैं, यह आगे-आगे स्पष्ट हो ही जाएगा। बहरहाल, इस मामले में अमरीका का शिकायत करने की स्थिति में होना, दो मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ के नियमों में खोट होने को दिखाता है। पहला तो यह कि पूरी की पूरी पैदावार को ही, एमएसपी पर खरीदा जा रहा क्यों माना जा रहा है तथा पूरी पैदावार की ऐसी खरीद की कल्पना के आधार पर सब्सीडी की गणना क्यों की जा रही है, जबकि सचाई यह है कि कुल पैदावार का बहुत छोटा सा हिस्सा ही एमएसपी पर सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है? दूसरे शब्दों में, डब्ल्यूटीओ द्वारा इस तथ्य को पूरी तरह से अनदेखा ही कर दिया जाता है कि किसानों द्वारा पैदा किए जाने वाले खाद्यान्न का बड़ा हिस्सा तो, उनके अपने उपभोग के लिए ही होता है। और भारत जैसे देशों की खाद्य अर्थव्यवस्था की यह ऐसी विशिष्टता है, जो डब्ल्यूटीओ के नियमों में कहीं आती ही नहीं है। दूसरी बात यह कि एक आधार बैंचमार्क कीमत का विचार मात्र और वास्तव में किसी भी आधार वर्ष कीमत का विचार, वह चाहे एक आधार डालर मूल्य हो या आधार विनिमय दर हो, जो मुद्रास्फीति से कटा हुआ हो (मुद्रास्फीति व्यवहार में इन दोनों ही कीमतों को बढ़ा देगी), एक घोर अयथार्थवादी विचार है। यह ऐसा विचार है जो डब्ल्यूटीओ के नियमों को, तीसरी दुनिया में आत्मनिर्भरता के लिए खाद्य उत्पादन के खिलाफ मोड़ता है और वहां भूमि उपयोग के, विकसित देशों की जरूरतें पूरी करने की दिशा में बदले जाने को बढ़ावा देता है।

इस तरह, सिर्फ विश्व बैंक तथा आइएमएफ ही नहीं हैं जो ‘मुक्त व्यापार’ को बढ़ावा देते हैं और उसके बाद, ‘मुक्त व्यापार’ के रास्ते पर चलने से तीसरी दुनिया के देशों में पैदा होने वाली भुगतान संतुलन की कठिनाइयों का इस्तेमाल, इन देशों पर ‘कटौतियां’ थोपने के लिए करता है और ये कटौतियां प्राथमिक उत्पादों को, विकसित दुनिया में स्थिर कीमतों पर उपयोग के लिए छुड़वाने का काम करती हैं। डब्ल्यूटीओ भी तीसरी दुनिया में भूूमि उपयोग को गैर-खाद्यान्नों की ओर मोड़ता है, जो साम्राज्यवाद के हित साधने का काम करता है।

निरुपनिवेशीकरण के फौरन बाद के दौर में, विकसित ताकतों के सशस्त्र हस्तक्षेपों के जरिए जो कुछ हासिल किया जाना था यानी तीसरी दुनिया में स्थित भूमि समेत प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व, उपयोग के पैटर्न तथा सापेक्ष कीमतों में जो भारी बदलाव कराया जाना था, उसे अब शांतिपूर्ण साधनों से तीसरी दुनिया पर, साम्राज्यवाद के हित में काम कर रही अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा थोपा जा रहा है। वास्तव में नव-उदारवाद के दौर को, जिसकी पहचान विकसित दुनिया के सैन्य हस्तक्षेपों से होती है, पीछे मुड़कर देखने पर हम ऐसे संक्रमणकालीन दौर की तरह देख सकते हैं, जो प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन की जगह लेने के लिए, उपयुक्त संस्थाओं के गढ़े जाने तक के अंतराल के लिए ही था। अब जब उन संस्थाओं को खड़ा किया जा चुका है, किसी सशस्त्र हस्तक्षेप की जरूरत नहीं रह गयी है और नवउपनिवेशवाद की कोई अभिव्यक्तियां देखने को नहीं मिल रही हैं। लेकिन, इन अभिव्यक्तियों की नौमूजदगी को साम्राज्यवाद की ही नामौजूदगी मानना तो, सच को पूरी तरह से देख ही नहीं पाना होगा।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Lasting Essence of Imperialism

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