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सोशल सिक्योरिटी के बिना सोशल डिस्टेन्सिंग का लक्ष्य प्राप्त करना नामुमकिन

एक कुशल नेतृत्व कर्ता वही होता है जो इस शत प्रतिशत सोशल डिस्टेन्सिंग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक चरणबद्ध रणनीति बनाता है। वह देश के आर्थिक सामाजिक ढांचे की विसंगतियों से अवगत होता है और जो समुदाय हाशिए पर हैं उनके लिए सहानुभूति से परिपूर्ण होता है।
सोशल सिक्योरिटी के बिना सोशल डिस्टेन्सिंग का लक्ष्य प्राप्त करना नामुमकिन
Image courtesy: Twitter

मानव कल्याण और विकास के विभिन्न अनुशासनों से जुड़े शोधकर्ताओं के एक समूह कोव-इंड 19 ने यह आशंका व्यक्त की है कि मई 2020 के मध्य तक भारत में कनफर्म्ड कोरोना केसेस की संख्या एक लाख से तेरह लाख के बीच हो सकती है। शोधकर्ताओं ने यह भी कहा है कि प्रारंभिक चरण में भारत ने बीमारी के नियंत्रण के लिए बहुत अच्छी कोशिश की है और हम इटली और यूएस से कनफर्म्ड केसेस के मामलों में इस चरण में बेहतर करते दिख रहे हैं किन्तु सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम वास्तविक रूप से कोरोना प्रभावित लोगों की सही सही संख्या बताने वाले टेस्ट करने के मामले में बहुत पीछे रहे हैं। जब हम कोरोना पीड़ित लोगों की कम संख्या होने का दावा करते हैं तब हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमने टेस्टिंग किस पैमाने पर की है, हमारा सैंपल साइज क्या है, कितनी फ्रीक्वेंसी पर यह टेस्ट किए जा रहे हैं और इनकी एक्यूरेसी कितनी है।

कोव-इंड 19 की रिपोर्ट कहती है- अब तक भारत में उन लोगों की संख्या जिनका कोरोना टेस्ट किया गया है बहुत छोटी है। व्यापक टेस्टिंग के अभाव में कम्युनिटी ट्रांसमिशन का सही सही आकलन करना असंभव है। जब तक व्यापक टेस्टिंग नहीं होगी तब तक यह जान पाना असंभव होगा कि हेल्थ केअर फैसिलिटीज और अस्पतालों के बाहर कितने लोग कोरोना संक्रमित हैं। इस प्रकार हमारे एस्टिमेट्स को अंडर एस्टिमेट्स ही कहना होगा जो कि बहुत प्रारंभिक आंकड़ों पर आधारित हैं।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकार को कठोरतम उपाय (ड्रेकोनियन मेजर्स) करने होंगे और यह उसे बहुत जल्द करने होंगे क्योंकि एक बार कोरोना कम्युनिटी ट्रांसमिशन के स्तर पर पहुंच गया तो स्थिति भयावह हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च से 21 दिनों के टोटल देशव्यापी लॉक डाउन की घोषणा की है। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन तथा जॉन होपकिन्स यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने यह भी कहा है कि भारत के कठोर कदमों को देखते हुए उनके पूर्वानुमान से बहुत कम लोग भी अगले एक डेढ़ माह में संक्रमित हो सकते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने लॉक डाउन की घोषणा करके वही सर्वोत्तम कार्य किया जो वे इन परिस्थितियों में कर सकते थे। वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1000 नागरिकों पर हॉस्पिटल बेड्स की संख्या 0.7 है जबकि यूएस में यह 2.8, इटली में 3.4, चीन में 4.2, फ्रांस में 6.5 और दक्षिण कोरिया में 11.5 है।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार देश में 32000 शासकीय, सेना और रेलवे के अस्पताल हैं।  प्राइवेट हॉस्पिटल्स की संख्या 70000 है। यदि डायग्नोस्टिक सेन्टर, कम्युनिटी सेंटर और प्राइवेट हॉस्पिटल्स को भी मिला लिया जाए तो करीब 10 लाख बेड्स होते हैं।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के यह आंकड़े हमें बताते हैं कि हमारे 1700 नागरिकों के लिए एक बेड की उपलब्धता बनती है। 

इंडियन सोसाइटी ऑफ क्रिटिकल केअर के अनुसार हमारे देश में 70,000 आईसीयू बेड्स मौजूद हैं जबकि वेंटिलेटर की संख्या भी महज 40,000 है।

यदि विशेषज्ञों के पूर्वानुमानों पर विश्वास करें तो हमें आगामी एक माह में कोरोना के सामुदायिक संक्रमण की दशा में अतिरिक्त 2 लाख सामान्य बिस्तर और 70 हजार आईसीयू बिस्तरों की आवश्यकता पड़ सकती है।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2018 की स्थिति में एलोपैथिक डॉक्टर्स की संख्या साढ़े ग्यारह लाख है। डब्लूएचओ के नॉर्म्स के अनुसार प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है। 135 करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश में 11.5 लाख एलोपैथिक डॉक्टर्स की संख्या निहायत ही कम और नाकाफ़ी है।

कोरोना का प्राणघातक प्रभाव सीनियर सिटीजन्स पर अधिक देखा जा रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 10.4 करोड़ लोग 60 वर्ष से अधिक आयु के थे। एक अनुमान के अनुसार अब इनकी संख्या 15 करोड़ के आसपास होगी। कोरोना से हुई मृत्यु के आंकड़ों का विश्लेषण दर्शाता है कि उच्च रक्तचाप से प्रभावित लोगों की मृत्यु दर सर्वाधिक है।

भारत में लगभग 30 करोड़ लोग उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं। यदि कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या कोव-इंड 19 के प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार बढ़ती है तो हमारा हेल्थकेयर सिस्टम न केवल इससे मुकाबला करने के लिए नाकाफ़ी होगा बल्कि इसके ध्वस्त हो जाने की भी पूरी पूरी आशंका है। 

कम्पलीट लॉक डाउन का फैसला लेने में देरी करने का खामियाजा ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और स्पेन जैसे बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधा संपन्न देश उठा रहे हैं तब भारत में लॉक डाउन में देरी का परिणाम क्या होता इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

नव उदारवाद के युग में विशेषकर विकासशील देशों में सरकारों ने एजुकेशन और हेल्थकेयर से अपने हाथ खींचे हैं और अंधाधुंध निजीकरण को बढ़ावा दिया है। भारत कोई अपवाद नहीं है। संसाधनों की कमी और भयानक भ्रष्टाचार से जूझती हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं और मुनाफे के पीछे पागल अमानवीय निजीकृत स्वास्थ्य व्यवस्था ने हमें इतनी दयनीय स्थिति में पहुंचा दिया है कि सरकार  अप्रत्यक्ष रूप से यह कहती प्रतीत होती है कि देश के निवासियों को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी।

जब लोगों में जन जागरूकता के अभाव की दुहाई देता सरकारी तंत्र लॉकडाउन का उल्लंघन कर रहे लोगों के साथ कठोरता से पेश आता है तो इससे सरकार की देशवासियों के प्रति चिंता तो जाहिर होती है लेकिन इस चिंता के आवरण के पीछे स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से  उपजी सरकार की हताशा एवं खीज को भी बड़ी आसानी से देखा जा सकता है।

विशेषज्ञों की राय बहुत मूल्यवान होती है और उस पर अमल होना चाहिए। किंतु प्राथमिकताओं के चयन और परिस्थिति के समग्र आकलन का प्रश्न तब भी बना रहता है। हर विशेषज्ञ उस विधा को अथवा उस अनुशासन को सर्वश्रेष्ठ  और सबसे महत्वपूर्ण मानता है जिसमें उसकी विशेषज्ञता होती है। पूरी दुनिया के चिकित्सा विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि सोशल डिस्टेन्सिंग ही कोरोना से बचाव का एकमात्र तरीका है और इसे प्राप्त करने के लिए लॉकडाउन से लेकर मेडिकल इमरजेंसी तक हर तरीका जायज है। किंतु एक कुशल नेतृत्व कर्ता वही होता है जो इस शत प्रतिशत सोशल डिस्टेन्सिंग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक चरणबद्ध रणनीति बनाता है।

वह देश के आर्थिक सामाजिक ढांचे की विसंगतियों से अवगत होता है और जो समुदाय हाशिए पर हैं उनके लिए सहानुभूति से परिपूर्ण होता है। जब से लॉकडाउन प्रारंभ हुआ है तब से प्रवासी मजदूरों में हलचल मची हुई है। उनके सामने आजीविका और आवास का संकट है। श्रमिक स्त्री-पुरुष अपने बच्चों के साथ हर उपलब्ध साधन से अपने गृह राज्य लौटने को व्याकुल हैं। उनकी आशंकाओं और भय का चरम बिंदु वह है जब हम उन्हें अपने परिवार के साथ असुरक्षित मार्गों से अनिश्चित भविष्य की यात्रा पर पैदल ही निकलता देखते हैं।

सोशल सिक्योरिटी के बिना सोशल डिस्टेन्सिंग का लक्ष्य प्राप्त करना नामुमकिन है। इन श्रमिकों का जीवन अभावों में बीता है। भूख और गरीबी की मारक शक्ति का अनुभव उन्हें बहुत है। यह परिस्थिति उनके लिए मृत्यु की दो विधियों में से एक का चयन करने जैसी है। जैसी उनकी शिक्षा दीक्षा और परवरिश है यदि वे भूख को कोरोना से अधिक भयंकर मान रहे हैं तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यह देखना अत्यंत पीड़ादायक है कि सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इन्हें अनपढ़, जाहिल और गंवार की संज्ञा दे रहे हैं जो अपनी मूर्खता के कारण न केवल अपना बल्कि समस्त देशवासियों का जीवन संकट में डाल रहे हैं। कई सोशल मीडिया वीर इन्हें राष्ट्र द्रोही की संज्ञा तक दे रहे हैं। कुछ लोग इन्हें डर्टी इंडियंस भी कह रहे हैं मानो वे स्वयं किसी अन्य देश के निवासी हैं।  उनका यह कथन अमानवीय अवश्य है किंतु निराधार नहीं है। यह लोग उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न है, कानून और संविधान पर जो अपना एकाधिकार समझता है और जिसे लंबी मेन्टल कंडीशनिंग के बाद अपनी धार्मिक अस्मिताओं के लिए अत्यंत संवेदनशील बना दिया गया है। निश्चित ही इस वर्ग का राष्ट्रवाद उस मजदूर के राष्ट्रवाद से भिन्न होगा जो रोज अस्तित्व के उसी संकट का सामना करता है जो आज कोरोना के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है।

जब राष्ट्र संकट में होता है तो यह अपेक्षा की जाती है कि जाति-धर्म-सम्प्रदाय, वर्ग और वर्ण की संकीर्णताएं टूटेंगी और हम   नागरिक के रूप में अपना सर्वोत्कृष्ट इस संकट की घड़ी में अपने  राष्ट्र को अर्पित करेंगे। लेकिन जिस राष्ट्रवाद को पिछले कुछ दिनों से आगे बढ़ाया गया है वह इस संकट की घड़ी में काम आने वाला नहीं है।

जब देश का मीडिया इस संकट के दौर  में पॉजिटिविटी फैलाने के ध्येय से लॉकडाउन के दौरान सेलिब्रिटीज द्वारा की जा रही विचित्र हरकतों को दिखाना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य समझ रहा हो, इस कठिन काल में उच्च मध्यमवर्ग को क्वालिटी मनोरंजन की तलाश हो और इसे उपलब्ध कराने के लिए देश की बेहतरीन प्रतिभाएं दिन रात एक कर रही हों, पाकिस्तान में कोरोना से तबाही और चीन की कोरोना- साजिश पर अनेक निजी चैनलों का प्राइम टाइम न्योछावर किया जा रहा हो, सरकार रामायण और महाभारत जैसे सीरियलों के प्रसारण के लिए इस त्रासद समय को उपयुक्त समझती हो और सरकार के इस निर्णय के औचित्य- अनौचित्य पर देश के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवी घण्टों बहसें कर रहे हों,  राष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में किसी धर्म विशेष को पिछड़ा और अवैज्ञानिक सिद्ध करने हेतु गोमूत्र से कोरोना मिटाते धर्मगुरुओं और कबूतर द्वारा कोरोना का इलाज करते मौलवियों पर घण्टों कार्यक्रम दिखाए जा रहे हों, लॉकडाउन के इस दौर में मंदिरों में भीड़, मस्जिदों में नमाज आदि के वीडियो वायरल किए जा रहे हों और इस धर्म या उस धर्म को नीचा दिखाने की कोशिश हो रही हों, शाहीन बाग़, सीएए, एनआरसी और कोरोना का बदमज़ा कॉकटेल दर्शकों को जबरन परोसा जा रहा हो तब हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमारे मीडिया का एक बड़ा भाग सड़ने लगा है।

नॉन इश्यूज को इश्यू बनाने की सरकार समर्थक मीडिया की यह कोशिशें अनैतिक तो हैं ही इस विपत्ति काल में यह निर्लज्ज और अश्लील भी लगने लगी हैं।

संकीर्ण असमावेशी राष्ट्रवाद के समर्थकों की रणनीति इतनी कामयाब रही है कि उन्होंने अपने विरोधियों को भी आरोप-प्रत्यारोप, दावे-प्रतिदावे, हठधर्मिता तथा भाषिक, वैचारिक और शारीरिक हिंसा के दलदल में घसीट लिया है। किंतु यह नकारात्मक वातावरण किसी भयानक विपत्ति से जूझ रहे राष्ट्र के लिए अत्यंत घातक है।

घृणा का विमर्श बिना शत्रु की उपस्थिति के जीवित नहीं रह सकता। इस विमर्श में किसी आपात परिस्थिति का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन नहीं किया जाता न ही इसका मुकाबला करने का कोई वैज्ञानिक प्रयास किया जाता है। बल्कि इस परिस्थिति के लिए किसी कथित दुश्मन को उत्तरदायी बता दिया जाता है। कोरोना के संबंध में यही हो रहा है।

अनेक धारणाएं हम पर थोपी जा रही हैं यथा इस धर्म या उस धर्म के लोगों की धर्मांधता के कारण रोग का प्रसार होगा अथवा इस धर्म या उस धर्म- एक देश या दूसरे देश की खाद्य आदतों ने कोरोना को जन्म  एवं बढ़ावा दिया है अथवा विदेशों में जाकर ज्यादा पैसे के लोभ में काम करने वाले प्रवासी भारतीय अपने साथ यह रोग लाए हैं या देश के अनपढ़, जाहिल और गंवार लोग जो मुफ्त की योजनाओं का लाभ  उठाकर काहिल बन चुके हैं अपनी गंदगी और नादानी के कारण उन टैक्स पेयर्स का जीवन संकट में डाल रहे हैं जिनके पैसों से ये ऐश करते हैं या फिर कोरोना एक पड़ोसी देश की हमें बर्बाद करने की चाल है अथवा हम तो कोरोना को झेल जाएंगे किन्तु हमारा एक अन्य पड़ोसी मुल्क इससे बर्बाद हो जाएगा।

यदि हमने उसी तरह सोचना शुरू कर दिया जैसा हमें सोचने के लिए बाध्य किया जा रहा है तो यह हमारे लिए आत्मघाती सिद्ध होगा।

बहुत कुछ ऐसा है जो अनुकरणीय है और जिसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। भारत सरकार ने विभिन्न देशों में फंसे भारतीय नागरिकों को चाहे वे जिस भी मजहब के हों अपने देश तक सुरक्षित पहुंचाने का दायित्व बखूबी निभाया है और यह प्रशंसनीय है। बस यह ध्यान रखा जाना चाहिए सरकार और विदेशों से लाए गए नागरिक पर्याप्त सतर्कता बरतें और रोग को प्रसार का अवसर न मिले।

सरकार को यह भी चाहिए कि वह अपनी संवेदनाओं का विस्तार  दिहाड़ी पर काम करने वाले उन प्रवासी मजदूरों तक करे जो सोशल सिक्योरिटी नेटवर्क से बाहर हैं और रोजगार की तलाश में पलायन जिनकी नियति रही है। यदि उन्हें सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाना कोरोना के संक्रमण के प्रसार के भय के कारण संभव न हो तो उन्हें और उनके परिवार को भोजन-आवास-चिकित्सा और आर्थिक सुरक्षा उपलब्ध कराना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। 

सरकार ने गरीबों के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने विपक्ष से जुड़े आर्थिक विशेषज्ञों के सुझावों का समावेश अपने पैकेज में किया है और विपक्ष के नेताओं ने भी सरकार की खुल कर सराहना की है।

80 करोड़ गरीबों को 3 माह अतिरिक्त 5 किलो चावल या गेहूं और एक किलो दाल मुफ्त में देना, 8.69 करोड़ किसानों के खाते में अप्रैल के पहले हफ्ते में 2000 रुपए की किश्त डालना, छोटे संस्थानों और कम वेतन वाले कर्मचारियों का ईपीएफ 3 माह तक सरकार द्वारा जमा कराया जाना,  कर्मचारियों को ईपीएफ के 75 प्रतिशत या तीन माह के वेतन में जो भी कम हो उस राशि के आहरण की छूट देना, उज्जवला योजना से जुड़े 8.3 करोड़ परिवारों को अगले 3 माह तक मुफ्त सिलिंडर देना,  महिला जनधन खाता धारकों को तीन माह तक 500 रुपये की राशि देकर 20 करोड़ महिलाओं को लाभ पहुंचाना, वृद्धों, विधवाओं और दिव्यांगों (जिनकी संख्या लगभग 3 करोड़ है) 1000 रुपये की राहत दो किस्तों में देना, मनरेगा से जुड़े 5 करोड़ मजदूरों की दैनिक मजदूरी को 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये करना, महिला स्वयं सहायता समूहों के कोलैटरल फ्री लोन की सीमा 10 लाख रुपये से बढ़ाकर 20 लाख रुपये करना, कोरोना वायरस से जुड़े हर मेडिकल कर्मचारी को 50 लाख रुपये का बीमा कवर देना- जैसी घोषणाएं स्वागत योग्य हैं किंतु सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि इन पर अमल में न देरी हो न कोताही बरती जाए तभी इन घोषणाओं की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

समाज की अंतिम पंक्ति के आखिरी आदमी तक धन और भौतिक मदद  पहुंचाना हमेशा चुनौती पूर्ण रहा है और ऐसे वक्त में जब लॉकडाउन का प्रभाव बैंकिंग तंत्र और इन घोषणाओं को क्रियान्वित करने वाले सरकारी अमले पर भी पड़ रहा है, इनका क्रियान्वयन आसान नहीं होगा। मनरेगा की मज़दूरी में वृद्धि नाम मात्र की है और फिर इसका लाभ काम चलने पर ही मिलेगा। अनेक योजनाओं में दी गई सहायता की राशि बहुत कम और अपर्याप्त है। किंतु शुरुआत हुई तो है। भ्रष्टाचार और इच्छाशक्ति की कमी हमारे शासकीय तंत्र के अनिवार्य दोष हैं और यह अचानक दूर हो जाएंगे यह मान लेना अतिशय आशावादी होना है।

ढेर सारे सुझाव आम जनता और विशेषज्ञों की तरफ से सरकार को दिए जा रहे हैं और उन पर गौर किया जाना आवश्यक है, यथा-

मेडिकल सेवाएं प्रदान करने वाले पेशेवरों को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए आवश्यक पोशाक, उपकरण और दवाओं की व्यवस्था तत्काल होनी चाहिए। यदि कोई डॉक्टर स्वयं संक्रमित हो जाता है तो वह बड़ी संख्या में स्वास्थ्य कर्मियों और अन्य मरीजों को संक्रमित कर सकता है। इटली में 51 डॉक्टर्स भी कोरोना संक्रमण के कारण जान गंवा चुके हैं। अस्पतालों में काम करने वाले नॉन मेडिकल स्टॉफ यथा सफाई कर्मियों और एम्बुलेंस चालकों आदि को भी संक्रमण से बचाने के प्रयास किए जाने चाहिए।

सरकार द्वारा घोषित पैकेज में सफाई कर्मियों के लिए बीमा कवर का प्रावधान नहीं किया गया है जो निहायत ही जरूरी है। यही संक्रमणरोधी उपाय पुलिस कर्मियों, पानी, बिजली और स्वच्छता आदि से जुड़े पेशेवरों के लिए भी किए जाने चाहिए। सीएनएन के अनुसार न्यूयार्क में 512 पुलिस कर्मी कोरोना संक्रमित हो चुके हैं। यदि चिकित्सा सेवा और अन्य आवश्यक सेवाओं तथा जन सुरक्षा और कानून व्यवस्था से जुड़े लोगों में खुद असुरक्षा का भाव घर कर गया और इनमें पैनिक की स्थिति उत्पन्न हो गई तो इसके परिणाम भयावह होंगे।

स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 7.25 लाख बॉडी कवरॉल्स, 60 लाख एन 95 मास्क और एक करोड़ थ्री प्लाई मास्क का आर्डर एचएलएल लाइफ केअर लिमिटेड को दिया गया था। कई विशेषज्ञ इस मात्रा  को अपर्याप्त बता रहे हैं। आल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के अनुसार हमारे हेल्थ केअर वर्कर्स को प्रतिदिन 5 लाख कवरॉल्स की आवश्यकता है। विवाद यह भी चल रहा है कि जो पीपीई किट्स दूसरे मैनुफैक्चरर द्वारा 400-500 रुपये में उपलब्ध कराई जा सकती है उसके लिए एचएलएल को 1000 रुपये की दर स्वीकृत की गई है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस आर्डर को जल्द पूरा करने में भी एचएलएल असफल रही है। इन विवादों को पीछे छोड़कर सरकार को स्वास्थ्य रक्षकों को सुरक्षा के उपकरण तत्काल मुहैया कराने होंगे।

यदि दुर्भाग्यवश कोरोना के सामुदायिक संक्रमण की स्थिति बनती है तो मरीजों की बड़ी संख्या को देखते हुए अस्थायी अस्पतालों की आवश्यकता होगी। इनके निर्माण के विषय में अनेक सुझाव आए हैं, खाली पड़े एयरपोर्ट, प्लेटफार्म, रेल गाड़ी के डब्बों, स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय भवनों मॉल आदि को अस्थायी अस्पताल में बदलने का परामर्श अनेक लोगों द्वारा दिया गया है। अनेक सेवाएं और कार्यालय बन्द हैं। इनके इच्छुक कर्मचारियों को आपात सेवा देने का प्रशिक्षण देकर किसी कठिन परिस्थिति के लिए तैयार रखा जा सकता है। ट्रेन के डिब्बों को आइसोलेशन कोच में बदलने का कार्य शुरू भी हो चुका है।

विश्व के विभिन्न देशों में कोरोना की डायग्नोस्टिक किट तैयार करने का कार्य चल रहा है। दक्षिण कोरिया ने कोरोना से मुकाबला करने के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग से अधिक मॉस टेस्टिंग का सहारा लिया और कामयाब रहा। सेनेगल और ब्रिटेन के वैज्ञानिक भी मॉस टेस्टिंग के लिए सस्ती और कम समय लेने वाली किट के निर्माण में लगे हुए हैं। हमें किसी भी परिस्थिति में कोरोना टेस्टिंग का आसन, सस्ता और कम समय लेने वाला तरीका ढूंढना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख ने भी कहा है कि कोरोना से मुकाबले के लिए केवल सोशल डिस्टेन्सिंग पर्याप्त नहीं है, हमें कोरोना को ढूंढकर मारना होगा।

विश्व में वेंटिलेटर बनाने वाली कुल 5-6 कंपनियां ही हैं और इस समय पूरी दुनिया से उनके पास ऑर्डर्स आ रहे हैं। हमें वेंटिलेटर का स्वदेशी उत्पादन करना होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव लव अग्रवाल के अनुसार एक पीएसयू को दस हजार वेंटिलेटर खरीदने का आदेश दिया गया है और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड को भी 30000 अतिरिक्त वेंटिलेटर लेने हेतु कहा गया है।

पूरे विश्व में कोरोना के इलाज के लिए कुछ चुनिंदा दवाओं को चयनित किया गया है। इसमें क्लोरोक्विन, हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन, ओसेलटामिविर, लोपिनाविर और रेटोनाविर जैसी दवाएं हैं। सरकार को इन दवाओं की बड़े पैमाने पर उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। 

सेवानिवृत्त, अध्ययनरत तथा प्रशिक्षु डॉक्टर और नर्सिंग स्टॉफ से चर्चा कर यथा आवश्यकता इनकी  सेवाएं लेने का प्रबंध किया जा सकता है। विभिन्न समाज सेवी संस्थाओं और गैर सरकारी संगठनों से उनकी विशेषज्ञता के अनुसार कार्य लेने की योजना बनाकर उनके प्रशिक्षण का कार्य शुरू किया जाए। सामुदायिक स्वास्थ्य जुड़े कर्मचारियों का उपयोग जनजागरूकता फैलाने, सर्वेक्षण और कोरोना संदिग्धों की निगरानी जैसे कार्यों के लिए किया जा सकता है।

ऑनलाइन डिलीवरी करने वाली कंपनियों यथा अमेज़न और फ्लिपकार्ट के डिलीवरी बॉयज, जोमाटो और स्विगी जैसे खाना पहुंचाने वाली कंपनियों के वितरण कार्यकर्ताओं, भारतीय डाक विभाग के वितरण में दक्ष पोस्टमैन और एक्स्ट्रा डिपार्टमेंटल डिलीवरी एजेंट्स, विद्युत बिल का वितरण और संग्रहण करने वाले कर्मचारियों आदि का एक समूह बनाकर इन्हें आवश्यक वस्तुओं और दवाइयों की स्थानीय दुकानों के साथ संलग्न किया जा सकता है और घरेलू जरूरत के सामानों और दवाओं की होम डिलीवरी बड़े पैमाने पर प्रारंभ कराई जा सकती है।

यह सुनिश्चित करने के लिए भूख और आवासहीनता किसी भी व्यक्ति के लॉक डाउन तोड़ने का कारण न बने स्कूल, कॉलेज, सामुदायिक भवन, रिक्त पड़े सरकारी कार्यालय और आवासों को इनके अस्थायी आवास में बदला जा सकता है। यहां इनके लिए मूलभूत सुविधाएं एकत्रित करना भी सरल होगा और इनके स्वास्थ्य पर निगरानी भी रखी जा सकेगी। 

किसानों के लिए अलग से पैकेज का एलान हो। जो फसल कटने के लिए तैयार है उसकी कटाई और परिवहन तथा प्रोसेसिंग की व्यवस्था की जाए। फसल को नष्ट होने नहीं दिया जा सकता। अनाज, फल, सब्जी और डेयरी उत्पाद लॉक डाउन खत्म होने तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते, इसलिए इनके संग्रहण और प्रोसेसिंग तथा परिवहन के प्रबंध करने ही होंगे। यह न केवल किसानों के लिए जरूरी है बल्कि आम लोगों की दैनिक खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी यह आवश्यक है।

हर विपत्ति का सामना संभव है यदि हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो, कार्ययोजना व्यवहारिक हो और सबसे बढ़कर हमारा इरादा फौलादी और नीयत नेक हो। यदि हम ऐसा कर सके तो कोई कारण नहीं है कि कोरोना से युद्ध में हमें कामयाबी नहीं मिलेगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।) 

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