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'वन रैंक वन पेंशन' में जवानों को धोखा और अफ़सरों को फ़ायदा?

बात-बात में जवानों के नाम पर वोट मांगने वाली मोदी सरकार को संसद और पीएमओ से महज़ कुछ दूरी पर बैठे इन जवानों की बात भी सुननी चाहिए।
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राजधानी के जंतर-मंतर पर चल रहे अनेको प्रदर्शन में से एक इनदिनों सेना के रिटायर्ड जवानों का प्रदर्शन है, जो वन रैंक वन पेंशन के दूसरे अध्याय की अधिसूचना विसंगतियों को लेकर बीते 20 फरवरी से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। ये वो सैनिक हैं, जो कभी देश की सरहद पर दुश्मनों से लोहा ले रहे थे लेकिन आज अपनी पेंशन और तमाम दिक्कतों के चलते सड़कों पर उतरने को मज़बूर हैं। इन रिटायर्ड जवानों का दावा है कि नयी 'ओआरओपी' में सेवानिवृत्त जवानों की अनदेखी कर केवल अधिकारियों को लाभ पहुंचाने का काम किया गया है, जो उनके साथ धोखा है।

बता दें कि दिल्ली के जंतर मंतर पर देश के कोने- कोने से एकत्र हुए इन रिटायर्ड जवानों और उनकी 27 संगठनों ने एक साझा मोर्चा बनाकर इस संबंध में अपना विरोध दर्ज करवाने के साथ ही प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को भी ज्ञापन सौंपा है। इन पूर्व सैनिकों का कहना है कि नए 'ओआर-ओपी' के लागू होने के बाद सेवानिवृत्त कनिष्ठ पद पर काम करने वाले सैनिकों और अफ़सरों को मिलने वाली पेंशन में 'ज़मीन और आसमान' का फ़र्क हो गया है, जो बिल्कुल भी जायज़ नहीं है। ये उन सभी भूतपूर्व सैनिकों के साथ धोखा है, जो देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं।

क्या है पूरा मामला?

देश में लंबे समय से भारतीय सेना से रिटायर हुए फौजी 'ओआर-ओपी' यानी 'वन रैंक वन पेंशन' की मांग करते रहे हैं। ये मांग उन्हें मिलने वाले मासिक पेंशन में समानता की है। स्वतंत्रता के बाद से फ़ौज से रिटायर होने वालों को उनकी रिटायरमेंट के समय के नियमानुसार ही पेंशन मिलती रही थी। यानी इन पूर्व सैनिकों की देश के लिए सेवा तो एक जैसी थी, लेकिन पेंशन में भेदभाव था। करीब एक साल तक पूर्व सैनिकों के आंदोलन और धरना-प्रदर्शनों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने सितंबर 6, 2015 को वन रैंक वन पेंशन का ऐलान किया था।

हालांकि अब जो पूर्व सैनिक धरने पर बैठे हैं उनका कहना है कि सरकार ने 2006 में लागू हुए 'वन रैंक वन पेंशन' में 42 हज़ार 500 करोड़ के आस पास का प्रावधान रखा था। जिसमें तीनों सेनाओं के कनिष्ठतम सैनिक से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों की पेंशन से लेकर सेवा के दौरान घायल होकर विकलांग होने वालों के लिए पेंशन निर्धारित की थी। इसके अलावा कार्य करते हुए मारे गए जवानों और अधिकारियों की विधवाओं को दी जाने वाली पेंशन में भी बढ़ोतरी की थी। इसमें जवानों की पेंशन में 298 रुपए से लेकर 1900 रुपए तक की वृद्धि हुई थी। जो की बहुत मामूली थी। अब नयी 'ओआरओपी' जिसकी घोषणा इसी साल 20 जनवरी को हुई है, उसमें सिपाही और जवानों की पेंशन में सिर्फ़ 2300 रुपए तक की ही बढ़ोतरी की गयी है। और 23 हज़ार करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया है, जो पहले के लगभग आधा है।

जवानों को धोखा, अफ़सरों को फ़ायदा?

इस पूरे मामले को आसान भाषा में समझाते हुए न्यूज़क्लिक से बातचीत में अलिगढ़ से आए नायक सूबेदार सुखदेव सिंह बताते हैं, "सेना में अधिकारी केवल तीन प्रतिशत हैं, जबकि जवान कुल बल के 97 प्रतिशत। जब ओआर-ओपी आंदोलन की शुरुआत हुई थी, तो इसमें मेन मसला जवानों का ही था, अफसर केवल साथ दे रहे थे। लेकिन अब जो नई अधिसूचना सामने आई है, इसमें फायदा अफसरों को हुआ है और जवान बेहाल हो गए हैं।

आंकड़ों का खोल समझाते हुए सुखदेव बताते हैं साल 2006 में टीएस नायक, जो पेंशन 4 हज़ार 46 रुपए की पेंशन लेता था, उसे अब 2023 में 20 हज़ार रुपए किया गया है। लेकिन जो टीएस कर्नल जो जो तब14 हज़ार 600 रुपए पेंशन लेता था, वो आज 95 हज़ार रुपए तक पहुँच गया है। इसके अतिरिक्त 38 प्रतिशत उन्हें महंगाई भत्ता अलग। यानी जवानों को मामूली बढ़ोतरी और अधिकारियों को ज़्यादा फ़ायदा दिया गया।

सरकार की वाहवाही करने में अधिकारी आगे!

साल 1982 में आर्मी से रिटायर्ड राज सिंह बताते हैं कि वेज बोर्ड की जब मीटिंग होती है, तो उसमें अधिकारी जाते हैं, सरकार के सलाहकारों में अधिकारी नियुक्त हैं, जो बड़ी आसानी से अपना काम निकलवा लेते हैं और सरकार भी इसमें खुश रहती है, क्योंकि ये संख्या बल में कम हैं और वाहवाही करने में आगे।

राज सिंह के मुताबिक दूसरे कई देशों में जवान हों या अफ़सर दोनों के शरीर का मूल्य बराबर होता है। वहां युद्ध में अफसर या जवान जो भी घायल हो सबको एक जैसी विकलांग पेंशन मिलती है। लेकिन हमारे यहां अगर जवान सौ प्रतिशत तक विकलांग हो जाता है, तो उसे 18 हज़ार रुपए 'डिसेबिलिटी पेंशन' मिलती है। वहीं पर यदि कोई अफ़सर घायल और विकलांग हो जाता है तो उसे 2.5 लाख रुपए पेंशन का प्रावधान किया गया है। जबकि ये सरकार भी जानती है कि लड़ाई के मैदान में ज्यादातर जवान ही घायल और शहीद होते हैं।

भारतीय सेना से साल 1994 में सेवानिवृत्त हुए हवलदार सतेंद्र सिंह बताते हैं कि वो बीते 23 दिनों से जंतर-मंतर पर बैठे हैं, क्योंकि नई ओआर-ओपी पेंशन स्कीम में उनका और उनके जैसे लाखों फौजी भाईयों का हक़ मारा जा रहा है। वो कहते हैं कि ओआरओपी' में ज़्यादा लाभ जवानों को दिया जाना चाहिए था क्योंकि इनकी सेवा अवधि बहुत कम होती है। ज्यादातर जवान 32 से 40 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाते हैं, जबकि अधिकारी अपनी पूरी सर्विस करके 58 से 60 वर्ष की आयु में रिटायर होते हैं।

सतेंद्र एक ओर महत्वपूर्ण गैप की ओर ध्यान दिलाते हुए भारी मन से कहते हैं, “आप सोचिए जो बॉर्डर पर जान गवां आया उसके परिवार का सहारा ये पेंशन ही तो होती है, क्योंकि ज्यादातर जवानों की औरतें और उनका परिवार अकेले उसी पर निर्भर होता है, लेकिन यहां भी भारी भेदभाव है। एक लेफ्टिनेंट कर्नल पद के अधिकारी की विधवा को साल 2006 में पेंशन के रूप में 5880 रुपए मिलते थे। वहीं सैनिकों की विधवाओं को न्यूनतम पेंशन 3500 रुपए मिलती थी, इसमें ज्यादा फर्क नहीं था। लेकिन आज की डेट 2023 में सैनिकों की विधवाओं को 11 हज़ार 45 रुपए ही बतौर पेंशन मिल रहे हैं जबकि लेफ्टिनेंट कर्नल की विधवा को 54 हज़ार रुपए। इसके अलावा महंगाई भत्ता भी मिलेगा, जो कुल मिलाकर 72 हज़ार रुपए से भी ज़्यादा हो सकता है। ये तुलना अपने आप में भयंकर है।

गौरतलब है कि जंतर-मंतर पर इन पूर्व सैनिकों और इनके संगठन 'साबका' ने कई पोस्टर्स भी लगाए हैं, जिसमें तमाम विसंगतियों के साथ ही केंद्र सरकार पर सैनिक जवानों की अनदेखी और अफ़सरों को लाभ देने के आरोप लगाए गए हैं। हालही में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सुनवाई में ओआरओपी के बकाया भुगतान को लेकर रक्षा मंत्रालय को कानून हाथ में न लेने की नसीहत दी है। जाहिर है बात-बात में जवानों के नाम पर वोट मांगने वाली मोदी सरकार को संसद और पीएमओ से महज़ कुछ दूरी पर बैठे इन जवानों की बात भी सुननी चाहिए, जो एकटक लगाए, उनकी ओर आशा से देख रहे हैं, अपनी फरियाद सुना रहे हैं।

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