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स्वतंत्रता दिवस: अनेक बेचैन कर देने वाले सवाल

यह साफ है कि भारत अगर सेकुलर नहीं रहा, तो लोकतंत्र भी यहां जिंदा नहीं रहेगा। सेकुलरवाद और लोकतंत्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और अगर लोकतंत्र खतरे में पड़ता है तो राजनैतिक अधिकारों के साथ साथ समता और सामाजिक न्याय के सारे मूल्य दांव पर लग जाएंगे।
स्वतंत्रता दिवस
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : हरिभूमि 

आज, 15 अगस्त, 2020 को हमें आज़ाद हुए 73 साल हो गए। पर, आज हमारे गणतंत्र पर संकट के काले बादल मंडरा रहे हैं।

अनेक बेचैन कर देने वाले सवाल हवा में तैर रहे हैं।

क्या 5 अगस्त को अयोध्या मे भूमि पूजन के साथ सेकुलर भारत का अंत हो गया? क्या अब इसकी केवल औपचारिक घोषणा बाकी है?

यह साफ है कि भारत अगर सेकुलर नहीं रहा, तो लोकतंत्र भी यहां जिंदा नहीं रहेगा। सेकुलरवाद और लोकतंत्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और अगर लोकतंत्र खतरे में पड़ता है तो राजनैतिक अधिकारों के साथ साथ समता और सामाजिक न्याय के सारे मूल्य दांव पर लग जाएंगे।

5 अगस्त को संघ प्रमुख मोहन भगवत की उपस्थिति में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बाबरी मस्जिद के ध्वंसावशेष पर राम मंदिर के भूमिपूजन/शिलान्यास पर, वामपंथ को छोड़ दिया जाय तो तमाम राजनैतिक दलों की प्रतिक्रिया से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने वैचारिक स्तर पर संघ-भाजपा के हिंदूकरण के एजेंडा के सामने घुटने टेक दिए हैं, भले ही  उनके बीच राजनैतिक प्रतिद्वंदिता मौजूद है।

इस संदर्भ में यह याद करना रोचक है कि हिंदुत्व के मौलिक सिद्धांतकार सावरकर ने  हिन्दू राष्ट्र के अपने political project यानी राजनीतिक परियोजना के लिए यह मंत्र दिया था, "राजनीति का हिंदूकरण करो, हिंदुओं का सैन्यीकरण करो"। (Hinduaise all politics and militarise all hindus".)

क्या RSS ने उक्त लक्ष्य के पहले आधे हिस्से को हासिल कर लिया है ?

दरअसल, भारत मे सेकुलरवाद यूरोप की तरह किसी सफल जनतांत्रिक क्रांति का product (उत्पाद) नहीं रहा है, न ही यूरोप की तरह इसे धर्म और राजनीति के पूर्ण अलगाव के अर्थ में व्याख्यायित किया गया। हमारी आज़ादी की लड़ाई के दौर में सेकुलरवाद धार्मिक मुहावरों/प्रतीकों में लिपटा, वक्त-बेवक्त साम्प्रदयिक ताक़तों से समझौते करता, कभी उनके आगे समर्पण करता, कभी उनसे पोलिटिकल स्पेस के लिए प्रतियोगिता करता लहूलुहान बढ़ता रहा। देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ।

विश्व इतिहास के सबसे लोमहर्षक साम्प्रदयिक दंगों, कत्ले-आम और विराट आबादी के पलायन के बीच हमें आज़ादी मिली।

और उस आज़ादी के लड़ाई के सर्वोच्च नेता को अंततः साम्प्रदयिक ताकतों के हाथों जान गंवानी पड़ी।

इसलिए भारत में कोई आदर्श सेकुलरवाद, धर्म और राजनीति के पूर्ण अलगाव और इहलौकिकता को बढ़ावा देने को स्टेट पालिसी बनाने के अर्थ में, कभी नहीं रहा है, यह हमेशा विकलांग रहा है। स्वतंत्र भारत में इसे सर्वधर्म समभाव के रूप में व्याख्यायित किया गया। आज़ादी के तुरंत बाद ही भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के भूमि पूजन में शामिल हुए थे, नेहरू जी की असहमति के बावजूद।

देश में तमाम सरकारी शिलान्यास/उद्घाटन नारियल फोड़कर, हिन्दू धार्मिक कर्मकांडों के साथ होते रहे और पुलिसबल जैसी महत्वपूर्ण राज्य मशीनरी के कार्यालय-थानों में एक समुदाय के धार्मिक स्थल बनते रहे।

बावजूद इस सबके भारत अगर 1947 में हिन्दू राष्ट्र नहीं बना तो इसके पीछे स्वतंत्रता आंदोलन के सेकुलर लोकतांत्रिक मूल्यों का दबाव था, जनता के बीच अपने नैतिक प्राधिकार के कारण गहराई तक जड़ जमाये गांधी, नेहरू,अम्बेडकर जैसे नेता थे,कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट आंदोलन का ताप था।

लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य तिरोहित होते गए, आधुनिक राष्ट्रनिर्माण का एजेंडा पृष्ठभूमि में चलता गया,  संघ परिवार का साम्प्रदयिक अभियान तो सघन ढंग से आगे बढ़ ही रहा था,  समाज में हर तरह की कट्टरतावादी ताकतें और पहचान की राजनीति सर उठाने लगी।

विडंबना देखिए कि जिस इंदिरा गांधी ने संविधान में सेकुलर शब्द औपचारिक ढंग से जुड़वाया, वही  हिन्दू सेंटिमेंट के तुष्टिकरण हेतु रुद्राक्ष की माला पहनकर, विश्व हिंदू परिषद के हिन्दू एकात्मता यज्ञ में शरीक हुईं और अंततः ऑपरेशन ब्लूस्टार के माध्यम से उन्हीं ने हिन्दू रंग में रंगे अंधराष्ट्रवादी उन्माद की इस परिघटना को चरम पर पहुंच दिया।

शाहबानो प्रकरण के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों को तुष्ट करते और अयोध्या में ताला खुलवाने/ शिलान्यास के माध्यम से राजीव गांधी संघ-भाजपा के साथ इस खतरनाक खेल में प्रतियोगिता में उतर पड़े। कांग्रेस के इसी रुख के चलते अंततः नरसिम्हा राव के कार्यकाल में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ।

भारत में सेकुलरवाद का टेस्टिंग प्वाइंट बने इस विवाद पर 80 के दशक में कांग्रेस के अवसरवादी रुख ने बहुसंख्यकवादी सेंटीमेंट को हवा दिया और संघ-भाजपा के एजेंडा को हिन्दू समाज में व्यापक स्वीकार्यता दिला दी।

संघ-भाजपा ने चालाकी से पूरे मामले को राष्ट्रवाद से जोड़कर, अपने आक्रामक उन्मादी अभियान की मदद से अन्य पार्टियों को राष्ट्रविरोधी व हिन्दू विरोधी साबित करने में कोई कसर न छोड़ी।

वैश्विक पैमाने पर नव उदारवादी नीतियों के आगमन, समाजवाद के अंत , विचारधारा के संकट और बढ़ते इस्लामोफोबिया ने भारत में संघ-भाजपा के तेजी से आगे बढ़ने के लिए अनुकूल वातावरण मुहैया कराया।

RSS के मजबूत सांगठनिक नेटवर्क तथा BJP के बढ़ते जनाधार के बल पर, विशेषकर नई आर्थिक नीतियों से पैदा हुए ताकतवर मध्यवर्ग के बीच, वह चुनावी हार-जीतों से परे भारतीय राजनीति में एक मजबूत ध्रुव बनती गयी। इसने बेहद कुशलता के साथ आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के बल पर उभरे दलित-पिछड़े सामाजिक आधार वाले दलों के एक हिस्से को अपने साथ जोड़कर अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार बना लिया है।

5 अगस्त के भूमिपूजन का प्रतीकात्मक महत्व जरूर है, पर यह निष्कर्ष निकालना कि मंदिर निर्माण से भाजपा के पक्ष में वोटों की बरसात होने लगेगी और अब भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन गया है, एक जटिल परिघटना का सरलीकरण है।

यह देखना रोचक है कि 90 के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद स्वयं उत्तर प्रदेश समेत तमाम राज्यों में भाजपा चुनाव हारी, यहां तक कि उत्तर प्रदेश में तो एक समय वह चौथे नम्बर की पार्टी बन गयी थी, दरअसल मस्जिद विध्वंस के बाद उस मुद्दे का आकर्षण कम हो गया और उसके नाम पर वोट मिलना बंद हो गया।

अटल बिहारी वाजपेयी जहाँ नरसिम्हा राव सरकार के कारनामों के कारण कांग्रेस के कमजोर होने तथा जनतादल के बिखराव के कारण सत्ता तक पहुंचे, वहीं उनके 10 साल बाद मोदी जी मनमोहन सरकार से बढ़ते मोहभंग, विशेषकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कारण रोजगार और विकास का सब्जबाग दिखाते सत्ता तक पहुंचने में कामयाब हुए। ठीक इसी तरह 2019 में मोदी की जीत पुलवामा और बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से बनाये गए अंधराष्ट्रवादी उन्माद के बल पर सम्भव हुई।

मोदी के राज्यारोहण और उनके ताकतवर बने रहने के पीछे एक प्रमुख कारण कारपोरेट घरानों का भारी समर्थन था और है,  जो इस अनुभूति पर पहुंचे हैं कि आर्थिक नीतियों से बढ़ते मोहभंग और संकट के दौर में हिंदुत्व के नायक मोदी ही उनके विश्वस्त सहयोगी के बतौर देश को चला सकते हैं।

मंदिर निर्माण ने अपना पुराना आकर्षण खो दिया है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो  यही है कि 5 अगस्त के पूरे कार्यक्रम को कई दिन पहले से मीडिया द्वारा जबरदस्त हाइप दिए जाने , आरएसएस द्वारा इसके लिए अपनी पूरी मशीनरी को लगाए जाने के बावजूद कोरोना भगाओ के ताली थाली वाले कार्यक्रम की तुलना में  इस बार उत्साह और स्वतःस्फूर्त भागेदारी बेहद कम थी, और जो कुछ दिया-पटाका हुआ,  उसमें एक हिस्सा अराजनीतिक धार्मिक लोगों का था, दूसरा संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा प्रायोजित था।

राजनीतिक दलों ने भले समर्पण कर दिया हो, पर हमारी जनता के मन और दैनन्दिन जीवन में रचा-बसा भाईचारा, हमारे समाज/ संस्कृति /परंपरा में व्याप्त सर्वधर्म समभाव, धर्म/पंथ सहिष्णुता अक्षुण्ण है, ज़िंदा है।

इसलिए बहुतेरे उदारवादियों द्वारा 5 अगस्त के भूमिपूजन के बाद भारत में सेकुलरवाद का मर्सिया पढा जाना over-reaction है और अपनी जनता और परंपरा से अलगाव दिखाता है, यह वही जमात है जिसे एक जमाने में भारतीय सेकुलरवाद में सब कुछ हरा हरा ही दिखता था।

ठीक इसी तरह, कुछ उदार बुद्धजीवियों/ नेताओं का इस निष्कर्ष पर पहुंच जाना कि सेकुलरवाद की हार का कारण यह है कि हमने धर्म के idiom में बात नहीं की, घोड़े के आगे गाड़ी को खड़ा करना है। सच्चाई यह है कि आज यह पूरी दुर्गति ही इसलिए हो रही है कि धर्म और राजनीति का  घालमेल किया गया और इसका प्रभावी ढंग से मुकाबला नहीं किया गया। ऐसी कोई भी रणनीति आत्मघाती ही साबित होगी।

सच्चाई यह है कि भारतीय समाज में मौजूद गहरे सामन्ती अवशेषों, ब्राह्मणवादी विचारप्रक्रिया की जकड़न, वित्तीय पूंजी तथा कारपोरेट के  खुले समर्थन, पाकिस्तान विरोध को भारतीय राष्ट्रवाद का पर्याय बना दिए जाने की रणनीति तथा धर्म राजनीति के अवसरवादी घालमेल ने संघ-भाजपा-मोदी के उभार में निर्णायक भूमिका निभाई है, सेकुलरवाद को इस अंजाम तक पहुंचाया है।

इस पूरे पैकेज के खिलाफ  बहुआयामी विचारधारात्मक-सांस्कृतिक-राजनैतिक प्रतिरोध से ही भारतीय राज और समाज के मुकम्मल जनतंत्रीकरण की राह हमवार होगी। 

और सच्चा सेकुलरवाद इसी जनतांत्रिकरण की प्रक्रिया का सहोदर होगा और इसकी आत्मा होगा।

आज कोरोना महामारी, असाध्य आर्थिक संकट और राष्ट्रीय सुरक्षा व विदेश नीति समेत हर मोर्चे पर चरम विफलता के कारण मोदी सरकार पूरी तरह से घिर गई है। कारपोरेट घरानों और मोदी सरकार का गठजोड़ पूरी तरह बेनकाब हो गया है। सारी राष्ट्रीय सम्पदा/संसाधन कारपोरेट घरानों के हवाले की जा रही है, यहॉँ तक कि कृषि भी, निजीकरण का अभियान युद्धस्तर पर चल रहा है, बेरोजगारी चरम पर है। स्वास्थ्य और शिक्षाव्यवस्था ध्वस्त है।

इसके खिलाफ मेहनतकश, किसान, छात्र-नौजवान सड़क पर उतरने शुरू हो गए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि महामारी के बाद यह एक बड़े जनांदोलन का रूप लेगा।

इसी जनांदोलन के गर्भ से नए गणतंत्र का जन्म होगा, जिसके झंडे पर सबसे ऊपर लिखा होगा-जनतंत्र, सेकुलरिज्म, सामाजिक न्याय, सबके लिए स्वास्थ्य, रोजगार, शिक्षा , सुरक्षा और सम्मान!

आइए, स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर हम शहीदों को नमन करें और उनके सपनों के ऐसे ही हिंदुस्तान को बनाने के लिए अपने को समर्पित करें!

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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