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भारत का लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होगा, जितना इसके संस्थान ताक़तवर होंगे

फ़्रांस के एक NGO 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' द्वारा प्रकाशित 'वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स' 2021 में भारत को फिर 180 देशों में 142वें पायदान पर रखा गया है।
भारत का लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होगा, जितना इसके संस्थान ताक़तवर होंगे

पूर्व कैबिनेट सचिव और योजना आयोग के सदस्य रह चुके बी के चतुर्वेदी लिखते हैं कि किसी भी राष्ट्र की ताकत उसके संस्थानों पर निर्भर करती है। इन संस्थानों का स्वतंत्र होना और अपने कर्तव्यों के पालन में बौद्धिक अखंड़ता और शक्ति का प्रदर्शन किया जाना जरूरी है। भारत एक सुचारू संसदीय लोकतंत्र है, लेकिन इसके संस्थान चुनौतियों के सामने घुटने टेकते हुए नज़र आ रहे हैं। हमें संस्थानों को ज़्यादा मजबूत करने की जरूरत है, ताकि वे ज़्यादा प्रभावी हो सकें। 

इस हफ़्ते G-7 की एक कॉन्फ्रेंस के दौरान साझा वक्तव्य में भारत ने लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया है। भारत द्वारा हस्ताक्षरित यह वक्तव्य कहता है, "हम एक बेहद नाजुक मोड़ पर हैं, जहां आज़ादी और लोकतंत्र को उभरती तानाशाही, चुनावों में छेड़छाड़, भ्रष्टाचार, आर्थिक दबाव, जानकारी से छेड़छाड़, ऑनलाइन चुनौतियों और सायबर हमलों, राजनीतिक तौर पर प्रेरित इंटरनेट शटडॉउन, मानवाधिकार उल्लंघन और उत्पीड़न, आतंकवाद और हिंसक कट्टरवाद से ख़तरा पैदा हो गया है।"

वक्तव्य में शामिल चीजें हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की पुष्टि करती हैं। लेकिन हाल में कुछ भारतीय नीतियों ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चिंता पैदा की हैं।

एक फ्रेंच NGO 'रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स (RSF)' द्वारा प्रकाशित 2021 की 'वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स' में भारत 180 देशों में 142 वें पायदान पर रहा। रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2020 में अपने काम के चलते चार पत्रकारों की हत्या हुई है, "अब सही तरीके से काम करने वाले पत्रकारों के लिए भारत सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है।"

जब अमेरिका में स्थित एक संगठन 'फ्रीडम हॉउस' ने मार्च में लोकतांत्रिक देशों में लोकतंत्रों के संचालन पर रिपोर्ट निकाली, तो उसमें भी भारत की स्थिति को नीचे कर "आंशिक स्वतंत्र" वर्ग में डाल दिया गया। रिपोर्ट कहती है, "लोकतांत्रिक व्यवहार का आदर्श बनने और चीन जैसे देशों की तरह, तानाशाही व्यवस्था वाले देशों का प्रभाव कम करने वाली प्रतिरोधी ताकत बनने के बजाए, मोदी और उनकी पार्टी भारत को तानाशाही की तरफ ले जा रही है।"

इन विश्लेषणों के साथ दिक्कतें भी हो सकती हैं और कोई भी इन संगठनों के विचारों का वैधानिक विरोध भी कर सकता है। लेकिन यह रिपोर्टें अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारतीय लोकतंत्र को देखने के कुछ लोगों के नज़रिए को पूरी तरह साफ़ करती हैं।

इससे इतर, एक राष्ट्र की ताकत इसपर निर्भर करती है कि उसके भिन्न लोकतांत्रिक संस्थान अपने कर्तव्यों के पालन करने के क्रम में कितनी स्वतंत्रता और बौद्धिक अखंडता का प्रदर्शन करते हैं।

हमारे देश में पिछले सात दशकों से सुचारू संसदीय लोकतंत्र है, लेकिन इसके बावजूद कुछ संस्थान अपनी मजबूत जड़ें नहीं जमा पाए हैं। फिर कुछ संस्थान कई बार बड़ी चुनौतियां आने वाले पर बौद्धिक अखंडता का प्रदर्शन नहीं करते। एक अहम मुद्दा भ्रष्टाचार का बड़ा स्तर है, जिससे हमारे देश के संस्थान और उनका प्रभाव कमजोर हुआ है।

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव

हाल में पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनावों ने हमारे देश के कुछ संस्थानों की कमजोरी को सामने रखा है। बीते दशकों में हमारे चुनाव आयोग ने एक बहुत मजबूत और स्वतंत्र संस्था होने की साख बनाई थी। लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में ऐसा दिखाई नहीं दिया। आठ चरणों में चुनावों करवाए जाने का फ़ैसला किया गया। जबकि पश्चिम बंगाल में बड़े स्तर पर सुरक्षाकर्मियों की तैनाती थी, ऐसे में आठ चरणों में चुनाव करवाने का फ़ैसला समझ से परे रहा। 

ऐसे आरोप लगाए गए कि ऐसा केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में किया गया, ताकि उसके नेता आखिर तक ज़्यादा विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार कर सकें। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी की छवि एक बेहद लोकप्रिय नेता की है, ऐसे में बीजेपी को इस चुनाव को जीतने के लिए एक लंबे चुनावी अभियान की जरूरत थी। ऊपर से यह चुनाव तब कराए गए, जब देश सबसे बदतर महामारियों में से एक सामना कर रहा था। 

चुनाव आयोग को पश्चिम बंगाल चुनाव में सुरक्षा शर्तों को लागू करवाने में बहुत कड़ाई दिखानी थी, लेकिन ऐसा नहीं दिखा। बड़े स्तर की चुनावी रैलियां हुईं, जिनमें शारीरिक दूरी और मास्क संबंधी नियमों की खुल्लेआम धज्जियां उड़ाई गईं। 

हाल में पश्चिम बंगाल में आए चक्रवात और उससे हुए नुकसान के परीक्षण के लिए प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भी हमारे संस्थानों ने संविधान की आत्मा के हिसाब से काम नहीं किया, जबकि एक मजबूत लोकतंत्र में ऐसा किया जाना चाहिए था। हमारे देश में बाढ़ या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान झेल रहे राज्यों का दौरा आमतौर पर प्रधानमंत्री करते ही रहे हैं।

इन यात्राओं के दौरान मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव समेत उनके अधिकारियों के साथ बैठक की परंपरा रही है। आमतौर पर जनता के प्रतिनिधियों के साथ भी बैठक की जाती है। अगर ऐसा किया जाता तो अच्छा रहता। लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव की कड़वाहट ने इस यात्रा को प्रभावित किया। 

प्रधानमंत्री मोदी को दस्तावेज सौंपने के बाद मुख्यमंत्री ने बैठक में रुकना जरूरी नहीं समझा। वे अपने मुख्य सचिव के साथ चक्रवात प्रभावित इलाकों में वापस आ गईं। जहां यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने जल्दी बैठक से जाने का फ़ैसला लिया, लेकिन इसके ठीक बाद भारत सरकार द्वारा मुख्य सचिव को तुरंत वापस केंद्र में बुलाए जाने से अखिल भारतीय सेवा शर्तों का उल्लंघन हुआ। 

राज्य सरकार या संबंधित अधिकारी से किसी भी तरह की सलाह नहीं ली गई। जबकि दो दिन पहले ही भारत सरकार, राज्य के मुख्य सचिव को तीन महीने का कार्यकाल विस्तार दिए जाने पर राजी हुई थी। इस पूरी घटना से संस्थानों के अच्छे ढंग से संचालित ना होने का इशारा मिलता है। 

न्यायालय

भारत में सुप्रीम कोर्ट उच्चतम न्यायिक मंच है। कुछ समय पहले इसके चार न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कोर्ट के संचालन के प्रति चिंता जताई थी। जब जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का खात्मा किया गया और जनता के कई प्रतिनिधियों को जेलों में डाल दिया गया, तब न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हीबियर कॉर्पस) की कई याचिकाएं दाखिल की गईं थीं। इस तरह की याचिकाओं पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत होती है, क्योंकि यहां मानवीय स्वतंत्रता दांव पर होती है। लेकिन दुखद ढंग से इन याचिकाओं को कई महीनों तक लंबित रखा गया। न्यायालय ने इनका संज्ञान नहीं लिया। 

जनवरी में किसानों की समस्याओं पर सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति बनाई। इस समिति में जितने भी सदस्यों की नियुक्ति की गई, उन्हें आमतौर पर तीनों कृषि कानूनों के पक्ष में देखा गया था, जबकि किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे थे। 

इसी तरह 2017 से इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ा हुआ है, जबकि इसका अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों में पहुंचने वाले पैसे पर अहम प्रभाव है। फिर एक सरकार समर्थक टीवी एंकर की ज़मानत याचिका पर जिस तेजी से सुनवाई हुई, उससे इस विश्वास को बल मिला कि सरकार का कोर्ट पर मजबूत प्रभाव है।

हमारे देश में दैनिक प्रशासन का काम कार्यपालिका करती है। लेकिन यहां भी बड़ी समस्याएं हैं। जैसे राज्यों के राज्यपालों का काम करने का ढंग लंबे वक़्त से चिंता का विषय रहा है। बीते कई सालों से लगातार मुख्यमंत्री कई राज्यपालों के व्यवहार के बारे में शिकायत करते रहे हैं।

जुलाई, 2016 में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के व्यवहार की सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी आलोचना की थी, जिन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। कुछ वक़्त पहले ही एक दिन अचानक महाराष्ट्र में राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति शासन हटाया और राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को सुबह 8 बजे ही शपथ ग्रहण करवा दी थी!

चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र रहने की जरूरत है। लेकिन हाल में देखा गया है कि सीबीआई, ईडी और आयकर प्रशासन को विपक्षी दलों के प्रत्याशियों पर छापामारी के लिए लगा दिया जाता है। इन छापों के वक़्त को देखकर इन संस्थानों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठता है। 


राज्य विधानसभा और संसद

राज्य विधानसभाओं और संसद के संचालन पर भी कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे बुनियादी सवाल यह है कि हमारे सांसद जनता के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए संसद में कितने दिन बैठते हैं। दुखद है कि ना तो राज्य विधानसभाएं और ना ही संसद पर्याप्त मात्रा में अपनी बैठकें आयोजित करवा रही हैं।

हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 19 राज्य विधानसभाएं ऐसी हैं, जो एक साल में औसतन सिर्फ़ 29 दिनों के लिए सत्र में रहीं। ऐसा साल जब हमारी संसद का 100 दिन से भी ज्यादा का सत्र चला हो, ऐसा पिछली बार 1988 में हुआ था! जबतक जनता के प्रतिनिधि मिलेंगे नहीं और कार्यपालिका को जवाबदेह नहीं बनाएंगे, लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। 

स्वतंत्र संस्थान क्या हासिल कर सकते हैं, यह कुछ महीने पहले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में देखने को मिला था। अलग-अलग राज्यों से चुनाव के विरोध में 50 मुक़दमे दायर किए गए। लेकिन जजों ने बहुत तेजी से सारे मुक़दमों को खारिज़ कर दिया। रिपोर्ट्स के मुताबिक़ 86 जजों और अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने मिलकर उन मुक़दमों को खारिज़ किया, जो चुनाव को चुनौती दे रहे थे। कार्यपालिका ने भी चुनावी प्रक्रिया पर बहुत स्वतंत्रता के साथ प्रतिक्रिया दी। 

बल्कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने व्यक्तिगत तौर पर हस्तक्षेप किया और एक राज्य के गवर्नर से चुनावी नतीज़ों को रोकने और प्रमाणित ना करने की अपील की, तो गवर्नर ने इंकार कर दिया। एरिजोना के रिपब्लिकन पार्टी के गवर्नर डग हॉब्स ने सभी तरह के दवाबों को नकार दिया और चुनाव नतीज़ों को प्रमाणित किया। 

2020 के चुनाव नतीज़ों के बाद अमेरिकी कार्यपालिका ने नियम व शर्तों के तहत ही काम किया, जब कार्यपालिका पर बहुत ज़्यादा दबाव था। लेकिन ना तो फ़ैसलों में देर की गई और ना ही दस्तावेज़ों को अपने पास लंबित रखा गया। यहां तक कि अमेरिका की जांच संस्था FBI और एटॉर्नी जनरल भी अपनी जगह पर अडिग रहे। 

अमेरिका के एटॉर्नी जनरल विलियम बार्र ने कहा, "आजतक हमने इतने बड़े स्तर पर फर्जीवाड़ा नहीं देखा, जो चुनाव में अलग परिणाम को प्रभावित कर सकता हो।" अपनी टिप्पणी के कुछ दिन बाद ही उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया। 

हमारे लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि इसके संस्थान स्वतंत्रता और बौद्धिक अखंडता के साथ काम करें। इस तरह की कार्यप्रणाली को हर राजनीतिक दल से समर्थन मिलना चाहिए। कानून के शासन पर इसका बहुत मजबूत सकारात्मक प्रभाव होगा। इससे हमारा देश मजबूत बनेगा। 

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(लेखक पूर्व कैबिनेट सचिव और योजना आयोग के पूर्व सदस्य रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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