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''नवंबर, मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है''

अली सरदार जाफ़री एक अकेले शख़्स का नाम नहीं, बल्कि एक पूरे अहद और तहरीक का नाम है।
Ali Sardar Jafri

नवंबर, तरक़्क़ीपसंद शायर अली सरदार जाफ़री की पैदाइश का महीना है। अपनी एक नज़्म में वे इस बात का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं, ‘‘नवंबर, मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है/इसी माहे-मन्नवर में/मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी/मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी।’’

अली सरदार जाफ़री एक अकेले शख़्स का नाम नहीं, बल्कि एक पूरे अहद और तहरीक का नाम है। उनका अदबी काम, सियासी-समाजी तहरीक में हिस्सेदारी और तमाम तहरीरें इस बात की तस्दीक करती हैं।

वे न सिर्फ़ एक जोशीले अदीब, इंक़लाबी शायर थे, बल्कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में भी उन्होंने सरगर्म हिस्सेदारी की। अली सरदार जाफ़री तरक़्क़ीपसंद तहरीक के बानियों में से एक थे और आख़िरी वक़्त तक वो इस तहरीक से जुड़े रहे।

मशहूर अफ़साना निगार कृश्न चंदर उनकी अज़्मत को कम्युनिस्ट पार्टी की निशानी हंसिया हथौड़ा के तौर पर देखते थे। वो उनके बारे में यहां तक कहते थे, ‘‘उसके चेहरे पर हंसिया हथौड़े का निशान है।’’

सज्जाद ज़हीर की नज़र में भी सरदार जाफ़री का बड़ा मर्तबा और एहतराम था। उनके बारे में ज़हीर का ख़याल था,‘‘सरदार हमारी तहरीक की शमशीर-ए-बेनियाम हैं।’’

अली सरदार जाफ़री ने अपनी पूरी ज़िंदगी अदब और आंदोलनों के नाम कर दी थी। चाहे आजा़दी का आंदोलन हो, कामगार— मज़दूरों के धरने-प्रदर्शन, स्टूडेंट्स मूवमेंट हो या फिर अदीबों का आंदोलन वे इन सभी आंदोलनों में हमेशा पेश-पेश रहते थे।

अली सरदार जाफ़री का संघर्ष मुल्क की आज़ादी तक ही महदूद नहीं रहा, आज़ादी के बाद उन्होंने एक अलग लड़ाई लड़ी। यह लड़ाई थी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता और अखंडता क़ाइमी की। देश की समृद्ध विरासत और गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने की।

शायर—नग़मा निगार निदा फ़ाज़ली ने अपने एक लेख में अली सरदार जाफ़री के बारे में क्या ख़ूब कहा है, ‘‘सरदार जाफ़री, नाम से मुसलमान थे, लेकिन अपने काम से लम्बी तारीख़ के सेक्युलर हिंदुस्तान थे।’’

सरदार जाफ़री ने जब अपनी पहली नज़्म ‘समाज’ लिखी, तो जैसे उसने उनके अदब की पूरी दिशा ही तय कर दी थी, ‘‘तमन्नाओं में कब तक ज़िंदगी उलझाई जाएगी/खिलौने दे के कब तक मुफ़लिसी बहलाई जाएगी/नया चश्मा है पत्थर के शिगाफ़ों से उबलने को/ज़माना किस क़दर बेताब है करवट बदलने को।’’

अली सरदार जाफ़री के दिल में मेहनतकशों की जानिब सहानुभूति बचपन से ही थी। अवध के सामंती निज़ाम में उन्होंने किसानों का शोषण देखा था। उनका कहना था,‘‘मेहनतकश चाहे खेत के खुले वातावरण में काम करने वाला किसान हो या मिल की कफ़स में कार्यरत मज़दूर, शोषण तो उनका हर जगह होता है। सब से अधिक दुख तो इस बात का है कि बाल श्रमिक भी इस शोषण से नहीं बच पाया है।’’

अली सरदार जाफ़री की यह क्रांतिकारी सोच ही थी कि वो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के सरगर्म मेंबर बन गए। अंग्रेज़ हुक़ूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन और साम्राज्य विरोधी नज़्मों की वजह से उन्हें कई मर्तबा ज़ेल भी जाना पड़ा।

सरदार जाफ़री की शायरी में कई मर्तबा विचार इतना हावी हो जाता था कि कुछ रूमानी-इश्किया शायरी करने वाले शायरों को उनके शायर होने पर भी एतराज़ था। लेकिन अपनी इन आलोचनाओं के बाद भी जाफ़री ने अपनी शायरी का मौजू़ और स्टाइल नहीं बदला। जो उनके दिल को सही लगा, वही लिखा। उन मसलों और मुद्दों पर भी लिखा, जिसे शायर ग़ज़ल या नज़्म का मौजू़ नहीं मानते। मिसाल के तौर पर उनके इन अशआर पर नज़र डालिये,‘‘गाय के थन से निकलती है चमकती चांदी/धुएं से काले तवे भी चिंगारियों के होठों से हंस रहे हैं।’’

अली सरदार जाफ़री, मिज़ाज से इंक़लाबी शायर हैं। उन्होंने ग़ज़लों के बजाय ज़्यादातर नज़्में लिखीं और उनकी इन नज़्मों में वर्ग चेतना साफ तौर पर दिखलाई देती है। ‘‘मां है रेशम के कार-ख़ाने में/बाप मसरूफ़ सूती मिल में है/कोख से मां की जब से निकला है/बच्चा खोली के काले दिल में है/जब यहां से निकल के जाएगा/कार-ख़ानों के काम आएगा/अपने मजबूर पेट की ख़ातिर/भूक सरमाए की बढ़ाएगा।’’

सरदार जाफ़री सियासी और समाजी मसलों को यथार्थवादी नज़रिए से देखते हैं। दुनिया भर के घटनाक्रमों पर उनकी नज़र रहती थी। लिहाज़ा कहीं पर भी कुछ ग़लत होता, किसी के साथ नाइंसाफ़ी और ज़ुल्म होता उनकी क़लम आग उगलने लगती।

‘नई दुनिया को सलाम’ नज़्म में वे मेहनत और मेहनतकशों की अहमियत का जिक्र इन अल्फ़ाज़ के साथ करते हैं, ‘‘चांद की तरह गोल और सूरज की मानिंद गर्म/आह ये रोटियां आसमानों में पकती नहीं हैं/ये हैं इंसान के हाथों की तख़लीक़/उसकी सदियों की मेहनत का फल।’’ वहीं ‘जमहूर’ नामक अपनी सियासी मसनवी में वो किसानों और कामगारों को आवाज़ देते हुए लिखते हैं,‘‘मसीहा के होंठों का एज़ाज़ हम/मुहब्बत के सीने की आवाज़ हम/हमारी ज़बीं पर है मेहनत का ताज/हमीं ने लिया है ज़मीं से ख़िराज।’’

साल 1944 में आए अली सरदार जाफ़री के पहले शायरी के मजमुए ‘परवाज़’ में ऐसी कई नज़्में मिल जाएंगी, जिनमें किसानों और मज़दूरों की बदहाली की ही अकेली अक्कासी नहीं है, बल्कि इन नज़्मों के आख़िर में वो उन्हें इंक़लाब के लिए आवाज़ भी देते हैं।

सरदार जाफ़री यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मुल्क में यदि जम्हूरियत की क़ाइमगी होगी, तो वह इन्हीं के दम पर मुमकिन होगी। अली सरदार जाफ़री ने अपनी शायरी में धार्मिक आडंबर, रूढ़ियों और कर्मकांडों का भी खुलकर विरोध किया। ‘‘लहू चूसा मजे ले ले के मज़हब ने ख़ुदाई का/बिछाया जाल पीराने कुहन ने पारसाई का।’’

अली सरदार जाफ़री ने न सिर्फ़ साम्राज्यविरोधी, फ़ासीवाद विरोधी शायरी की बल्कि अपनी शायरी में सामंतवाद और सरमायेदारी की भी पुर—ज़ोर मुख़ालफ़त की। ‘जमहूर’ शीर्षक मसनवी में वे सरमायेदारों को यह कहकर ख़िताब करते हैं, ‘‘ये हैं फ़ख्र हैवानित के लिए/ये हैं कोढ़ इंसानियत के लिए।’’

अली सरदार जाफ़री की नज़्मों की कोई भी क़िताब उठाकर देख लीजिए, उनमें इंक़लाबी नज़्में ज़रूर मिलेंगी। यही नहीं सियासी बेदारी की वजह से देश-दुनिया में जब भी कोई बड़ा वाक़िआ होता,अली सरदार जाफ़री उसे अपनी नज़्म में ज़रूर ढालते।

‘बग़ावत’, ‘अहदे हाज़िर’, ‘सामराजी लड़ाई’, ‘इंक़लाबे रूस’, ‘मल्लाहों की बग़ावत’, ‘फ़रेब’, ‘सैलाबे चीन’, ‘जश्ने बग़ावत’ आदि नज़्मों में उन्होंने अपने समय के बड़े सवालों की अक्कासी की है। सच बात तो यह है कि उन्होंने अपने आसपास की समस्याओं से कभी मुंह नहीं चुराया, बल्कि उसकी आंखों में आंखें डालकर बात की।

अली सरदार जाफ़री का नाम, मुल्क की उन बावक़ार हस्तियों में भी शुमार होता है, जो हिंद-पाक दोस्ती के बड़े हामी थे और इस दोस्ती के लिए उन्होंने ख़ूब काम भी किया। पाकिस्तान में कई मर्तबा सद्भावना यात्राएं करने के अलावा उन्होंने दोनों मुल्कों के सियासतदां और अवाम को आपस में मिलाने के लिए कोशिशें कीं। उनकी नज़्म ‘गुफ़्तगू’ इसी पसमंज़र में लिखी गई है,‘‘गुफ़्तगू बंद न हो/बात से बात चले/सुबह तक शामे मुलाकात चले/हम पे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले/......हाथ में हाथ लिये सारा जहां साथ लिये/तोहफः-ए-दर्द लिये प्यार की सौगात लिये/रहगुज़ारों से अदावत के गुज़र जाएंगे/खूं के दरयाओं से हम पार उतर जाएंगे।’’

वहीं अपनी एक और नज़्म ‘अहमद फ़राज़ के नाम’ में वे कहते हैं,‘‘तुम्हारा हाथ बढ़ा है, जो दोस्ती के लिए/मिरे लिए है वो इक यारे-ग़मगुसार का हाथ/वो हाथ शाखे-गुले-गुलशने-तमन्ना है/महक रहा है मिरे हाथ में बहार का हाथ/.....करें ये अहद कि औजारे-जंग जितने हैं/उन्हें मिटाना है और ख़ाक में मिलाना है/करें ये अहद कि अर्बाबे-जंग हैं जितने/उन्हें शराफ़तो-इंसानियत सिखाना है।’’

अली सरदार जाफरी एक सच्चे इंसाफ़ पंसद और इंसान—दोस्त शायर थे। उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में इंसानियत और भाईचारे की पैरोकारी की। उनकी शायरी इंसान—दोस्ती और इंसानियत की एक बेहतरीन मिसाल है। उनकी नज़्में, ग़ज़ल, तमाम मज़ामीन और तक़रीरें हमारे दिल में एक नई उम्मीद जगाती हैं। मुस्तक़बिल के लिए उनमें एक पैग़ाम है। इस अज़ीम शायर ने अपनी पूरी ज़िंदगानी मज़लूम और मेहनतकश इंसानों के हक़ और इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी। उनके रंज-ओ-ग़म, समस्याओं को अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में आवाज़ दी। आज भले ही सरदार जाफ़री हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में वे हमेशा ज़िंदा रहेंगे।‘‘मैं सोता हूं और जागता हूं/और जाग कर फिर सो जाता हूं/सदियों का पुराना खेल हूं मैं/मैं मर के अमर हो जाता हूं।’’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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