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बिहार में क्या सचमुच भाजपा का समय आ गया है?

समूचे उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा आज तक अपने बूते सरकार या अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है। वह सत्ता में साझेदार जरूर रही है और आज भी है लेकिन सरकार का नेतृत्व कर सकने जैसी हैसियत उसे अभी भी हासिल नहीं हो सकी है।
भाजपा
Image courtesy: Instagram

बिहार में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। नई सरकार भी बन चुकी है। चुनाव नतीजों को लेकर कई तरह के विश्लेषण हुए हैं और कई तरह के निष्कर्ष चर्चा में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यू) और दो अन्य छोटी पार्टियों के गठबंधन (एनडीए) को जैसे-तैसे मिले बहुमत को एक तरह से भाजपा की जीत बताया है।

लगातार चौथी मर्तबा मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ने भले ही बिहार में जीत का जश्न नहीं मनाया, लेकिन भाजपा ने दिल्ली में एक मेगा शो यानी बड़े जलसे का आयोजन किया। इस जलसे में प्रधानमंत्री मोदी ने 'भाजपा की ऐतिहासिक जीत’ का महत्व का बताया और बिहार की जनता को धन्यवाद दिया।

चुनाव नतीजों से संबंधित तथ्य बता रहे हैं कि बिहार में भाजपा को न तो अपने दम पर बहुमत आया है और न ही वह सबसे बड़ी पार्टी बन पाई है। वह पिछली बार के मुकाबले इस बार 21 सीटें ज्यादा जीतने और जद (यू) की सीटों में भारी कमी आने से गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी जरूर बन गई है। लेकिन इसके बावजूद पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार उसका वोट प्रतिशत गिरा है और कुल प्राप्त मतों में भी कमी आई है। ऐसे में सवाल है कि प्रधानमंत्री ने इतना बड़ा जलसा करके आखिर क्या संदेश देना चाहा है?

इस सवाल का जवाब हाल के सालों के दौरान तमाम राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन पर नजर डालने पर मिलता है। उसने 2019 के लोकसभा चुनाव में भले ही भारी जीत दर्ज की हो, मगर राज्यों में पिछले तीन साल के दौरान एकाध अपवाद को छोड़ दें तो वह हर जगह हारी है। गुजरात में उसे जैसे-तैसे ही बहुमत मिल पाया। हरियाणा में भी उसकी सीटें कम हुईं और वह सहयोगी पार्टी के सहारे ही सरकार बना सकी।

इसके अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखंड आदि सब जगह पार्टी हारी है। सो, बिहार की जीत को बड़ा बना कर दिखाना था। फिर बिहार में इस बार मोदी ने खुद खूब मेहनत की थी। पार्टी के मुख्य चुनावी रणनीतिकार अमित शाह इस बार बिहार चुनाव से बाहर थे। इसलिए सारी जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी के कंधों पर थी। इसीलिए उन्होंने बिहार चुनाव के नतीजों के बाद मेगा शो किया। उन्होंने इस शो के जरिए बिहार में भाजपा का समय आ जाने का ऐलान भी किया।

दरअसल समूचे उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में बिहार ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा आज तक अपने बूते सरकार या अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है। वह सत्ता में साझेदार जरूर रही है और आज भी है लेकिन सरकार का नेतृत्व कर सकने जैसी हैसियत उसे अभी भी हासिल नहीं हो सकी है। अपने गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सूबे के सामाजिक समीकरणों और राजनीतिक मजबूरी के चलते मुख्यमंत्री का पद उससे दूर है।
 
तो सवाल है कि क्या सचमुच बिहार में भाजपा का समय आ गया है? दरअसल तीन दशक पहले तक बिहार की राजनीति में भाजपा या उसके पूर्व संस्करण जनसंघ की वह हैसियत कभी नहीं रही जो उसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और अन्य हिंदी भाषी राज्यों में प्राप्त हो चुकी थी। बिहार में जनसंघ की मौजूदगी नाममात्र की थी। इसकी वजह यह थी कि बिहार की विशिष्ट सामाजिक संरचना और वहां कांग्रेस और समाजवादी तथा वामपंथी आंदोलनों की मजबूती के चलते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह वहां अपनी जड़ें नहीं जमा पाया था।

बिहार में जनसंघ का 'दीपक’ पहली बार हल्के से तब टिमटिमाया जब 1962 के विधानसभा चुनाव में उसके तीन उम्मीदवार जीते। इससे पहले 1952 में हुए विधानसभा के पहले चुनाव में तो उसे उसका कोई नामलेवा उम्मीदवार तक नहीं मिला था। 1957 के विधानसभा चुनाव में भी वह महज 16 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार खड़े कर सका, लेकिन जीता कोई नहीं। तीसरी विधानसभा यानी 1962 के चुनाव में पहली बार उसका खाता खुला। उसने 318 सदस्यों की विधानसभा के लिए 75 उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन उनमें से सिर्फ 3 ही जीत पाए थे।
 
जनसंघ को पहली बार उल्लेखनीय सफलता 1967 के चुनाव में मिली। उस दौर में पूरे उत्तर भारत में डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे ने बहुत असर दिखाया था। बिहार में भी गैर कांग्रेसवाद का रंग खूब जमा। कांग्रेस सबसे ज्यादा 128 सीटें जीतने के बावजूद बहुमत से बहुत दूर रह गई। सोशलिस्ट पार्टी सबसे बडी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी और उसे 68 सीटें मिली। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने भी 18 सीटें जीतीं। उस समय तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई का भी विभाजन हो चुका था और सीपीएम यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी अस्तित्व में आ चुकी थी। उस चुनाव में सीपीआई को 24 और सीपीएम को 4 सीटें मिलीं।

अन्य विपक्षी दलों के सहयोग से भारतीय जनसंघ के भी 26 उम्मीदवार जीतने में सफल रहे। लोकसभा चुनाव में भी बिहार से उसका खाता इसी साल खुला और उसका एक सदस्य लोकसभा के लिए चुना गया। इस चुनाव से पहली बार यह तथ्य स्थापित हुआ कि बिहार में जनसंघ अपने आप में कोई ताकत नहीं है। किसी सामाजिक आधार वाली राजनीतिक पार्टी की मदद के बगैर वह चुनावी सफलता अर्जित नहीं कर सकती।

तात्कालिक रणनीति के तौर पर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के इस प्रयोग ने 1967 में लोहिया की मृत्यु के साथ ही दम तोड़ना शुरू कर दिया। राज्यों में बनी संयुक्त विधायक दल (संविद) की गैर कांग्रेसी सरकारें अपने अंतर्विरोधों के चलते गिरने और नई बनने लगीं। कुल मिलाकर वह प्रयोग कारगर साबित नहीं हुआ। उधर कांग्रेस में भी राष्ट्रीय स्तर विभाजन हो गया। एक कांग्रेस की अगुवाई इंदिरा गांधी कर रही थीं और दूसरी के नेता मोरारजी देसाई थे।
 
गैर कांग्रेसवाद के प्रयोग की सबसे ज्यादा दुर्गत बिहार में ही हुई, जिसकी वजह से 1969 में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव भी हुए। गैर कांग्रेसवाद का प्रयोग भले ही असफल हो गया लेकिन जनता में कांग्रेस के प्रति नाराजगी कम नहीं हुई। यही वजह रही कि मध्यावधि चुनाव में भी किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में जरूर उभरी लेकिन उसकी सीटें 128 से घटकर 118 रह गईं। भारतीय जनसंघ की ताकत में जरूर इजाफा हुआ। उसने 303 उम्मीदवार खडे किए थे, इसलिए उसके वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई और वह अपने 34 उम्मीदवार जिताने में भी सफल रही।

कांग्रेस के नेतृत्व में फिर मिलीजुली सरकार बनी लेकिन राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। नतीजा यह हुआ कि तीन साल में तीन मुख्यमंत्री देने के बाद 1972 में फिर विधानसभा भंग हो गई।
गैर कांग्रेसवाद के प्रयोग की विफलता और कांग्रेस के विभाजन की पृष्ठभूमि में ही 1972 के विधानसभा चुनाव हुए। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बिहार सहित सभी राज्यों में कांग्रेस की धमाकेदार वापसी हुई। विपक्षी एकता छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। सो, भारतीय जनसंघ ने पिछले चुनाव में अपनी ताकत जितनी बढ़ाई थी, वह इस चुनाव में फिर कम हो गई। उसकी सीटें 34 से घटकर 25 रह गईं। इससे एक साल पहले 1971 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार से उसकी ताकत में कोई इजाफा नहीं हुआ।
 
आपातकाल के बाद 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में बिहार सहित समूचे उत्तर भारत में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई। जनता पार्टी की सरकारें बनीं। सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के विलय से बनी जनता पार्टी एक तरह से एक दशक पुराने गैर कांग्रेसवाद का प्रयोग का ही विस्तार थी। जनसंघ घटक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से इस प्रयोग का भी भरपूर फायदा उठाया और अपनी ताकत बढ़ाई। बिहार में भी उसकी ताकत में जबर्दस्त इजाफा हुआ। जनता पार्टी में सोशलिस्ट घटक के बाद सबसे ज्यादा विधायक जनसंघ के ही थे। लोकसभा में भी उसके 7 सदस्य जनता पार्टी के टिकट पर जीत कर पहुंचे थे।

हालांकि जनता पार्टी का प्रयोग भी संविद सरकारों की तरह असफल ही रहा। दोहरी सदस्यता यानी जनसंघ घटक के लोगों की आरएसएस से संबद्धता के सवाल पर जनता पार्टी विभाजित हो गई। नतीजतन केंद्र सहित उत्तर भारत के सभी राज्यों में जनता पार्टी की सरकार का पतन हो गया।

देश को एक बार फिर मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। पहले केंद्र की सत्ता में कांग्रेस ने वापसी की और फिर राज्यों में भी। अन्य राज्यों के साथ बिहार में भी विधानसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। कांग्रेस स्पष्ट बहुमत हासिल करने में कामयाब रही। विपक्षी दलों में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाला लोकदल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरा। दूसरे नंबर पर रही जनता पार्टी को 34 सीटें मिली जो भाजपा के रूप में जनसंघ के अलग हो जाने के बाद 13 रह गईं। यानी 21 विधायक भाजपा के हो गए। लोकसभा में भी जनता पार्टी के 30 सदस्यों में 12 भाजपा के हिस्से में आ गए, जिनमें से दो बिहार के थे।

पांच साल बाद 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। इस चुनाव में भाजपा की ताकत और सिमट गई। वह सिर्फ 16 सीटें ही जीत सकी। 1984 के लोकसभा चुनाव में तो उसका बिहार में खाता ही खुल सका था। इससे इस तथ्य की बार फिर पुष्टि हुई कि बिहार में भाजपा अपने आप में कोई राजनीतिक ताकत नहीं है और 1967 तथा 1977 में उसको चुनावी सफलताएं गैर कांग्रेसवाद के प्रयोग से हासिल हुई थीं।

चुनावी सफलता के लिहाज से 1989 का लोकसभा चुनाव और 1990 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बेहद अहम रहा। इन चुनावों में भ्रष्टाचार के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह के अभियान से देशव्यापी राजनीतिक माहौल कांग्रेस के खिलाफ था। दूसरी ओर भाजपा भी अपने गांधीवादी समाजवाद के मुखौटे को हटाकर अपने असली रंग में आ चुकी थी। पार्टी की कमान लालकृष्ण आडवाणी के हाथों में थी और उन्होंने पार्टी को औपचारिक तौर पर अयोध्या आंदोलन से जोड़ दिया था।

उधर शाहबानो और अयोध्या मसले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के फैसलों ने कांग्रेस को उसके पारंपरिक जनाधार से दूर कर दिया था। कांग्रेस के कमजोर होने का काफी कुछ लाभ भाजपा को भी हुआ। लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या 2 से सीधे 89 पर पहुंच गई। बिहार से भी उसे आठ सीटें मिलीं। तीन राज्यों में उसकी सरकार भी बनी। बिहार विधानसभा में भी 39 सदस्यों के साथ वह तीसरी बड़ी पार्टी बन गई। 1995 के विधानसभा चुनाव में भी उसकी यह ताकत 41 सीटों के साथ बरकरार रही। कांग्रेस की ताकत बहुत ज्यादा घट जाने की वजह से भाजपा को मुख्य विपक्षी पार्टी की हैसियत भी हासिल हो गई। 1996 के लोकसभा चुनाव में भी वह इस राज्य से 18 सीटें जीतने में कामयाब रही।

यह ताकत हासिल कर लेने के बाद भाजपा को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा, क्योंकि उसे पहले समता पार्टी/ जद (यू) और फिर 2014 आते-आते लोक जनशक्ति पार्टी जैसी पार्टी का साथ मिल गया। समाजवादी धारा की इन पार्टियों के पास पिछड़ी और दलित जातियों का अपना ठोस सामाजिक आधार था। सवर्ण कही जाने वाली जातियां पहले ही कांग्रेस से छिटक कर अयोध्या के मुद्दे पर बनी उग्र हिंदुत्व की लहर में भाजपा के साथ आ चुकी थीं।

वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव में इन पार्टियों का गठजोड़ सत्ता में भले ही न आ सका पर उसने अच्छी खासी ताकत विधानसभा में अर्जित कर ली। पांच साल बाद 2005 के विधानसभा चुनाव में यह गठबंधन स्पष्ट बहुमत पाने में कामयाब हो गया। जद (यू) को 88 और भाजपा को 55 सीटें मिलीं। जद (यू) का साथ भाजपा को बहुत रास आया। 2010 के विधानसभा चुनाव में वह 91 सीटें जीतने में सफल हो गई, जो कि उसकी अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है। हालांकि तब भी 115 सीटों के साथ सबसे बडा दल जद (यू) ही था।

2013 में जद (यू) का भाजपा से गठबंधन टूट चुका था, इसलिए 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को महज 53 सीटें ही मिल सकीं। एक बार फिर इस तथ्य की पुष्टि हुई कि बिहार में किसी पुख्ता सामाजिक आधार वाली पार्टी की मदद के बगैर भाजपा सत्ता में नहीं आ सकती।
2015 के चुनाव में लगभग तीन चौथाई बहुमत हासिल करने वाला महागठबंधन महज डेढ़ साल बाद 2017 में टूट गया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने जद (यू) के साथ फिर भाजपा के हमजोली हो गए। भाजपा को बैठे-बिठाए जद (यू) के साथ सत्ता में भागीदारी मिल गई।
 
2020 के चुनाव में भाजपा का लक्ष्य बिहार में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना था। चुनाव उसने जरूर नीतीश कुमार के चेहरे को आगे रखकर लड़ा, लेकिन उसकी पूरी रणनीति इस लक्ष्य पर ही केंद्रित रही कि उसे हर हाल में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना है। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ना भी उसकी रणनीति का ही हिस्सा था। भाजपा की रणनीति पूरी तरह कामयाब रही। हालांकि वह सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत तो हासिल नहीं कर सकी, लेकिन अपने गठबंधन में वह पहली बार सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब हो गई।

गठबंधन की बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसने अपने से बहुत कम सीटें हासिल करने वाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया है। यह उसकी उदारता नहीं बल्कि मजबूरी है और रणनीति भी। दरअसल भाजपा जानती है कि मुख्यमंत्री के रूप में 69 वर्षीय नीतीश कुमार की यह अंतिम राजनीतिक पारी है। उन्होंने अपनी पार्टी में कोई ऐसा नेतृत्व भी तैयार नहीं किया है, जो उनकी जगह पार्टी संभाल सके। इसलिए भाजपा का मकसद नीतीश कुमार को अपने साथ रखते हुए उनके जनाधार को हथियाना है।

उसे लगता है कि आने वाले चुनाव तक वह अपने सवर्ण जनाधार और नीतीश कुमार के बनाए सामाजिक आधार के बूते बिहार की सबसे बड़ी पार्टी भी बन जाएगी और वह अपना मुख्यमंत्री भी बना सकेगी। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा को इस बार मिली सफलता को ऐतिहासिक बताते हुए कह रहे हैं कि बिहार में अब भाजपा का समय आ गया है।

सवाल यही है कि भाजपा का जो वर्गीय चरित्र है, वह नीतीश कुमार के बनाए सामाजिक आधार को अपने में आसानी से समायोजित कर पाएगा? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि पिछले 15 वर्षों के दौरान बिहार की अतिपिछड़ी और महादलित जातियों ने जिस तरह नीतीश कुमार पर भरोसा किया है, वैसा ही भरोसा वे भाजपा पर कर पाएंगी? यह सवाल इसलिए है कि इस चुनाव से बिहार की राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत हुई है।

भाजपा और जद (यू) के मुख्य प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय जनता दल के नए और युवा नेतृत्व ने भाजपा के विभाजनकारी मुद्दों का जवाब सामाजिक न्याय जैसे अमूर्त मुद्दे के बजाय पूरा चुनाव रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई जैसे बुनियादी और साकार मुद्दों को उठाकर दिया है। इसमें उसे खासी सफलता भी मिली है।

बिहार में इस बार के चुनाव में वामपंथी दलों ने भी ठीक-ठाक स्थिति में वापसी की है। लंबे समय बाद उन्हें मिली कामयाबी ने भी बिहार की राजनीति में नई शुरुआत का संकेत दिया है। इसलिए कहा जा सकता है कि भाजपा ने नीतीश कुमार को आगे रखकर सरकार भले ही जैसे-तैसे बना ली हो, मगर उसके लिए खुद की सरकार बनाने का सपना आसानी से साकार नहीं होगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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