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लोकतंत्र और राष्ट्र-राज्य के वजूद के लिए हेट स्पीच पर नकेल कसना क्या चांद मांगने जैसा है?

"राजनीति और धर्म के घालमेल को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी का महत्व, इस पर आ रही व्यापक प्रतिक्रियाओं से बखूबी समझा जा सकता है। 'हेट न्यूज' के खात्मे के लिए ही नहीं, लोकतंत्र और राष्ट्र-राज्य के वजूद के लिए भी जरूरी है राजनीति और धर्म का अलगाव। लेकिन क्या यह चांद के मांगने जैसा है?"
supreme court
फ़ोटो साभार: PTI

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने ट्वीट कर कहा है कि "राज्य (राष्ट्र-राज्य) और धर्म' का अलगाव सिर्फ 'हेट न्यूज' के खात्मे के लिए ही जरूरी नहीं, यह हमारे लोकतंत्र और राष्ट्र-राज्य के वजूद के लिए भी जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी का अभिनंदन करते हुए उसके दायरे को और विस्तृत करके देखा और लागू किया जाना चाहिए। पर यह करेगा कौन? इसी तर्ज पर वरिष्ठ वकील और देश के पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल की एक टिप्पणी आई है। 

उच्चतम न्यायालय द्वारा राजनीति में नफरती भाषण पर की गई टिप्पणी के एक दिन बाद पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री एवं राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने कहा कि जिन लोगों की राजनीति नफरत पर ही टिकी हुई है, उनसे ऐसी अपेक्षा करना ‘चांद मांगने जैसा’ होगा।

उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को नफरती भाषणों को गंभीरता से लेते हुए कहा था कि जिस पल राजनीति व धर्म अलग हो जाएंगे और नेता राजनीति में धर्म का इस्तेमाल बंद कर देंगे, उस समय ऐसे भाषण समाप्त हो जाएंगे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सिब्बल ने ट्वीट किया, ‘उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल बंद होने से नफरती भाषण खत्म हो जाएंगे। यह तो चांद मांगने जैसा है।’ पूर्व विधि मंत्री एवं वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल ने कहा, ‘याद है… 1. (लाल कृष्ण) अडवाणी जी की रथ यात्रा। 2. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) आरएसएस के प्रमुख की 2018 की श्मशान-कब्रिस्तान वाली टिप्पणी। 3. वर्ष 2020 में गोली मारो… वाला बयान आदि। कुछ लोगों की राजनीति नफरत पर ही आधारित है।’

ऐसे में अगर सरकार भी मानती है कि सभी धर्मावलंबियों की तरफ से नफरती भाषण दिए जा रहे हैं, तो वह खुद इनके साक्ष्य इकट्ठा कर कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है? क्या यह सचमुच में चांद मांगने जैसा ही है। क्या सरकार ऐसा करेगी? क्यों नफरती भाषणों के साक्ष्य किसी याचिकाकर्ता को क्यों इकट्ठे करने चाहिए? बहुतेरे सवाल हैं।

कभी न्यायिक टिप्पणियों को सरकार की जवाबदेही तय करने का एक प्रमुख माध्यम समझा जाता था। प्रतिकूल टिप्पणियां सरकारों की शर्मिंदगी का कारण बनती थीं और कई बार तो मंत्रियों को इनकी वजह से इस्तीफा देने की नौबत आ जाती थी। लेकिन यह तब की बात है, जब भारतीय लोकतंत्र को एक जीवंत प्रयोग के रूप में देखा जाता था। अगर वह दौर होता, तो नफरती भाषणों के मामले में सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणियां केंद्र सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन जातीं। आखिर कोर्ट ने यह कह दिया कि ऐसे भाषणों को रोकने में सरकार निशक्त साबित हुई है। एक जज ने यह सवाल भी उठाया कि अगर यह सब खुलेआम चल रहा है, तो आखिर सरकार है किसलिए? पिछले साल अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा था कि संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में देखता है। कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकारों को अभद्र भाषा के मामलों पर सख्त कार्रवाई करने और शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना दोषियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने का निर्देश दिया था। जबकि ताजा मामले में याचिकाकर्ता की तरफ से महाराष्ट्र में कई रैलियों में दिए गए नफरती भाषणों के संबंध में प्रकाशित समाचार का हवाला दिया।

तब कोर्ट ने कहा- “हम समझते हैं कि क्या हो रहा है, यह गलत समझ नहीं बननी चाहिए कि हम चुप हैं।” सरकार की तरफ से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल ने मामले को दूसरी दिशा देने की कोशिश की। उन्होंने  कहा- “अगर हम वास्तव में इस मुद्दे के बारे में गंभीर हैं तो कोर्ट कृपया याचिकाकर्ता को निर्देश दे कि वह सभी धर्मो में नफरत फैलाने वाले भाषणों को इकट्ठा करे और समान कार्रवाई के लिए अदालत के समक्ष रखे।” बहरहाल, यह सवाल सरकार से पूछा जा सकता है कि यह काम किसी याचिकाकर्ता को क्यों करना चाहिए? सरकार अगर मानती है कि सभी धर्मावलंबियों की तरफ से नफरती भाषण दिए जा रहे हैं, तो वह खुद इनके साक्ष्य इकट्ठा कर कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है? ऐसे सवालों को भटकाने की कोशिश से दरअसल सरकार की मंशा पर सवाल उठते हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि क्या यह सचमुच चांद मांगने जैसा है?

अब जिन कड़े शब्दों के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने देश भर में अपनाई जा रही नफरत की भाषावली के खिलाफ बात कही है, वह यही दर्शाता है कि पानी नाक तक पहुंच गया है। यह देश की सरकार, उसके विभिन्न अंगों एवं संवैधानिक संस्थाओं के लिये भी पर्याप्त बड़ी चेतावनी है जो इस बात की ओर साफ इशारा कर रही है कि अगर जल्दी ही आग उगलती भाषा और बयानों पर रोक न लगाई गई तो स्थिति हाथ के बाहर चली जायेगी। भारत पिछला कुछ काल अभूतपूर्व हिंसक व नफरती बोलों का ज्वार देश रहा है जो देश व समाज को तोड़ने पर आमादा है।

आजाद भारत ने जिस प्रकार बड़ी कठिनाई से समाज के विभाजन को कम करने की कोशिशें की हैं, उस पर हालिया परिस्थितियां पानी फेरती नज़र आ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि 'राज्य नपुंसक व शक्तिहीन है। प्रदेश हेट स्पीच को रोकने की प्रणाली क्यों विकसित नहीं कर पा रहे हैं?' शीर्ष कोर्ट के ये शब्द उसकी नाराज़गी ही नहीं वरन उसकी चिंता और पीड़ा सब कुछ बयां करने के लिये काफी हैं। यह देश के हर संवेदनशील व समझदार नागरिक की निराशा का प्रतिबिम्ब है जो पिछले कुछ समय से इस तरह के बयानों की बाढ़ को सतत ऊंचा होते देख रहे हैं- लाचारी व भय के साथ।

जस्टिस केएम जोसेफ व जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने ये विचार उस याचिका की सुनवाई के दौरान प्रकट किये जो महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ इस आरोप को लेकर दायर की गई है कि वह रैलियों के दौरान हेट स्पीच के विरूद्ध तत्काल कार्रवाई लेने में नाकाम रही है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि सकल हिन्दू समाज ने महाराष्ट्र भर में करीब 50 रैलियों में एक वर्ग के खिलाफ नफरती व हिंसक भाषा का प्रयोग किया है। बेंच ने इसके पूर्व कार्यपालिका से स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करने के निर्देश दिये और कहा कि वह किसी के द्वारा शिकायत दर्ज करने का इंतज़ार न करे। किसी भी देश और वहां की सरकार के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता कि शीर्ष कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करनी पड़े और इस आशय के निर्देश विशेष रूप से देने पड़ें जिसके बारे में कानून की किताबों में पहले से पर्याप्त प्रावधान हैं और कार्रवाई की स्पष्ट प्रक्रिया है। सवाल यह है कि हालात यहां तक कैसे पहुंचे और उसके लिये दोषी कौन हैं। जनसामान्य में यह बात अब बड़ी स्पष्ट है कि देश की मौजूदा तस्वीर हाल ही में उकेरी गई है।

सामाजिक ध्रुवीकरण में राजनैतिक जीत व सत्ता हासिल करने का सफल नुस्खा ढूंढ़ लेने वाली भारतीय जनता पार्टी की यह साफ तौर पर देन कही जा सकती है। उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक खाद-पानी से सिंचित व विकसित हुई भाजपा की आईडियालॉजी समाज में विभाजन व परस्पर अलगाव को बढ़ावा देती आई है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी 2014 और उसके बाद दोबारा सत्ता सम्भालने वाली भाजपा सरकार ने इस हेट स्पीच को खूब बढ़ावा दिया है। पार्टी के भीतर साम्प्रदायिक व सामाजिक विखंडन की एक प्रभावी प्रणाली तैयार कर दी गई है जिसका सूत्र संचालन मंत्री और बड़े नेता तक करते हैं।

केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा द्वारा दिये गये नफरत भरे भाषणों को कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने विरोधी विचारधारा के लोगों को गोली मारने की बात कही थी। साम्प्रदायिक सौहार्द्र व सामाजिक समरसता की इच्छा रखने वाला नागरिक हो या कानून के राज में विश्वास रखने वाली अवाम तब निराश हो जाती है जब कोर्ट ऐसे लोगों को यह कहकर बरी कर देती है कि 'मुस्कुरा कर किया गया अपराध कोई अपराध नहीं होता।' ऐसे ही, धर्म संसदों के जरिये एक वर्ग विशेष के नरसंहार का आह्वान करने वाले या तो पकड़ में नहीं आते अथवा जल्दी ही जमानत पर बाहर निकल आते हैं- नये सिरे से घृणा और हिंसा फैलाने के लिये। सत्ता चलाने वाले दल ऐसी तेजाबी बात कहने वालों के लिये उन्हें 'फ्रिंज एलीमेंट्स' कहकर उनसे पीछा छुड़ा लेते हैं। देश की आजादी में योगदान दिलाने वालों के खिलाफ भी नफरत फैलाई जाती है और समाज उसे बेबस होकर देखता रहता है।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका ने पहली बार इस मामले पर नाराजगी जताई हो। इसी साल इसी बेंच ने इस प्रवृत्ति को 'गंदगी' बतलाते हुए चेतावनी दी थी कि यह 'राक्षस' का रूप धारण कर लेगी। देखना तो यह है कि क्या भाजपा समाज में अशांति, घृणा व हिंसा की कीमत पर सत्ता बनाये रखेगी या उच्चतम न्यायालय की उक्त टिप्पणी को गम्भीरता से लेकर हेट स्पीच पर ठोस नियंत्रण लाएगी। वैसे उपाय तो शीर्ष कोर्ट ने बताया ही है- धर्म को राजनीति से अलग कर दिया जाये। लेकिन सवाल फिर वही कि क्या यह सचमुच चांद मांगने जैसा है? नहीं! उत्तर सरकार की मंशा में छुपा है!

साभार : सबरंग 

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