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क्या 'रेवड़ी' संस्कृति लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रही है?

मुफ्त रेवड़ियों या ‘फ्रीबी’ की संस्कृति पर बहस आसानी से उन ढांचागत मुद्दों को भूला देती है जो यह यह मान लेती है कि लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं जो उन्हें सबसे अधिक रेवड़ियों की पेशकश करती है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

जुलाई 2022 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'रेवड़ी संस्कृति' की अवधारणा की आलोचना की और राजनीतिक दलों पर आरोप लगाया कि वे ‘रेवड़ियाँ’ बांटकर वोट के लिए मतदाताओं को लुभा रहे हैं। इस दौरान इस पर बहस और कई चर्चाएं हुई, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि ‘रेवड़ियाँ’  किसी भी राजनीतिक दल की जीत की गारंटी नहीं है और यदि मतदाता को विकल्प दिया जाता है तो वे रेवड़ियों के झांसे में आने के बजाय सम्मानजनक कमाई का चुनाव करेंगे।
केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता लगातार मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियों के ज़रिए लुभाने की कोशिश करने के लिए विपक्षी दलों की आलोचना कर रहे हैं। ऐसा कर भाजपा खुद अंतर्विरोधों में फस गई है, जिसने हर तरह भ्रम पैदा किया और साथ ही कई सवाल भी खड़े हो गए हैं।

आम चुनावों के दौरान, 1999 से भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा जारी किए गए चुनाव घोषणापत्रों पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि भाजपा कभी भी सब्सिडी और आय हस्तांतरण का वादा करने से कतराई नहीं है- फिर चाहे वह मातृत्व देखभाल या वृद्धावस्था पेंशन का मसला ही क्यों न हो। युवा उद्यमियों और महिलाओं को टैक्स छूट, ब्याज मुक्त ऋण और विशेष आर्थिक पैकेज की पेशकश करना फिर चाहे उनकी जाति या वर्ग कुछ भी हो, अकसर उनके घोषणापत्र का वादा रहा है।

2019 के आम चुनाव में जारी ताज़ा घोषणापत्र में, भाजपा ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत सभी किसानों को वित्तीय सहायता देने, छोटे और सीमांत किसानों के लिए एक पेंशन योजना शुरू करने और ब्याज मुक्त किसान क्रेडिट कार्ड ऋण का वादा किया था। इसमें उद्यमियों के लिए 50 लाख रुपये तक का संपार्श्विक-मुक्त ऋण का भी प्रावधान किया गया था, जिसमें सरकार द्वारा महिला उद्यमियों के लिए कर्ज़ की राशि का 50 प्रतिशत और पुरुष उद्यमियों के लिए 25 प्रतिशत तक की गारंटी का वादा किया गया था। फिर, सब्सिडी वाले खाद्यान्न में हर महीने 13 रुपये प्रति किलो चीनी, और सभी छोटे दुकानदारों को कवर करने के लिए एक पेंशन योजना शुरू की जानी थी। जबकि यहाँ, घोषणापत्र में किए गए वादों में से कुछ ही का जिक्र है, पार्टी ने तीन साल के भीतर चुनावी वादों के मामले में यू-टर्न क्यों लिया यह एक पहेली ही बनी हुई है।

अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने कहा, "मुफ्त रेवड़ियों का मुद्दा एक ऐसी सरकार के प्रधानमंत्री ने उठाया है जो खुद मुफ्त रेवड़ियाँ बांटने में बड़ी शेख़ी बघारते हैं।"

जबकि मुफ्त रेवड़ियों पर चर्चा अभी ताज़ा थी और चल ही रही थी, तभी सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) का तीन महीने के लिए विस्तार किया, जो हर महीने 80 करोड़ गरीबों को प्रति व्यक्ति 5 किलो गेहूं या चावल मुफ्त देता है। आलोचकों का मत है कि यह कदम गुजरात और हिमाचल प्रदेश में होने वाले राज्य चुनावों की वजह से लिया गया है। यदि ऐसा है, तो विपक्षी दलों के चुनावी घोषणा-पत्रों में किए वादों अपर हमला क्यों किया जा रहा है। सरकार अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सहायता प्रदान करने और जन-समर्थक नीतियों को लागू करने में दोहरे मापदंड क्यों अपना रही है। 

किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल के वर्षों में गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्य और स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा ने कई बार गलत तरीके से दावे किए कि कई राज्यों में चल रही कल्याणकारी नीतियां मूल रूप से केंद्र सरकार की नीतियां हैं। 

न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत करते हुए, पूर्व राज्यसभा सांसद और कांग्रेस नेता राजीव गौड़ा ने कहा कि: "बिहार चुनाव में, निर्मला सीतारमण (वित्तमंत्री) ने सबसे पहले बिहार के लोगों के लिए मुफ्त टीकों की घोषणा की थी। यह भाजपा का दोगुलापन है।"

यह विचार- कि केंद्र सरकार राज्यों द्वारा अपनाई जा रही सभी नीतियों की संरक्षक और नियंत्रक है, यह एक संघीय हुकूमत का मिथक है- जिस पर विभिन्न विपक्षी और क्षेत्रीय दलों ने सवाल उठाया है।

घोषणापत्र की ताक़त 

चुनाव से पहले घोषणापत्र जारी करना बहुदलीय लोकतंत्र का एक सामान्य अभ्यास है। यह एक अवधारणा नोट के रूप में काम करता है जो बताता है कि हर पार्टी सत्ता में चुने जाने पर क्षेत्र के विकास की क्या कल्पना करती है। यह केवल तर्कसंगत है कि विभिन्न दल ये बताएं कि वे  जीतने पर विकास और कल्याणकारी नीतियों को कैसे लागू करेंगे। वादे पूरे नहीं होने की स्थिति में इसका इस्तेमाल सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए भी किया जा सकता है। निम्नलिखित अवधि में चुनावों के माध्यम से उन्हें जवाबदेह ठहराना एक सुंदर प्रथा है जो लोकतंत्र को उसका वास्तविक अर्थ प्रदान करती है।

राजनीतिक दलों द्वारा किए गए वादों के एवज़ में वोट मिलना लोकतंत्र में यकीनन सही तरीका है। अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए कोई किसी खास पार्टी को वोट क्यों नहीं देगा? हम क्यों सोचते हैं कि सबसे अधिक पेशकश करने वाली पार्टियों को वोट देना गलत प्रथा है? जब यह सभी सेवा प्रदाताओं के लिए सही है, तो सरकार चुनने के मामले में इसे  अलग क्यों होना चाहिए? इसके अलावा, एक घोषणापत्र में न केवल कल्याण बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, विधायिका आदि के संबंध में संभावित सरकार के सामान्य कामकाज के बारे में विवरण होता है। केवल मुफ्त उपहारों पर ध्यान केंद्रित करना एक हताशा को उजागर करता है।

नारीवादी कार्यकर्ता कविता कृष्णन का कहना है कि 'फ्रीबी' यानि रेवड़ियों जैसे शब्द का इस्तेमाल अपने आप में लोगों का अपमान है।

उनका कहना है कि, "नागरिक विभिन्न सेवाओं और सुविधाओं के हकदार हैं - चाहे वह भोजन हो या परिवहन या शौचालय। इसे सरकार से हासिल करने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, न ही किसी फ्रीबी के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार द्वारा इसे देना उसका कर्तव्य है। वे इसे किसी व्यक्तिगत धन से नहीं दे रहे हैं, सरकार टैक्स वसूल करती है, जिसे सबसे गरीब व्यक्ति भी साबुन की खरीदने पर भी चुकाता है।" 

उनके अनुसार, वास्तविक मुफ्त उपहार या रेवड़ियाँ वे हैं जो टैक्स छूट और सस्ते कर्ज़ के ज़रिए कॉर्पोरेट्स को प्रोत्साहन के नाम पर दी जाती है।  

मुफ्त उपहार या रेवड़ियाँ बांटने के ज़रिए मतदाताओं को "लुभाने" की कोशिश पर विपक्षी दलों पर आरोप लगाने से जुड़े कई मुद्दे हैं। सबसे पहले, ऐसा माना जाता है कि, यह मतदाताओं को मतदान के निर्णय, उनके विचार और स्वतंत्र भावना को प्रभावित करता है। इसलिए सत्ता में बैठे लोग तर्कसंगत निर्णय लेने की लोगों की क्षमता पर सवाल उठाते हैं। यह समाज के उस पदानुक्रम की तरफ इशारा करता है जो दावा करता है कि साधन और संसाधनों वाले लोग ही अपने लिए निर्णय लेने में बेहतर हैं, जबकि आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित लोग ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं कि उनके लिए क्या बेहतर है और इसलिए उन्हे कुछ भी तय करने के मामले में असमर्थ मान लिया जाता हैं।
 
दूसरा, राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में मुफ्त उपहारों या कल्याणकारी नीतियों के खिलाफ आलोचना कोई नई बात नहीं है। यहां तक ​​कि लोकप्रिय फिल्म उद्योगों में ऐसी फिल्में बनाई जाती है जिनमें "सुपर-ह्यूमन" नायक, "गंदी राजनीति" को बादल रहे होते हैं और भ्रष्ट राजनेताओं के लिए लालची मतदाताओं को दोषी ठहराते हैं।

लोकतंत्र की पवित्रता को नष्ट करने वाले मुफ्त उपहारों से लाभान्वित होने वाले गरीबों के बारे में मध्यम वर्ग और अमीर तबके की आम धारणा एक विशेषाधिकार के अलावा और कुछ नहीं है। यहां तक कि "फ्रीबी" शब्द भी इस धारणा को दर्शाता है। यह विचार कि समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक पदानुक्रम कभी नष्ट नहीं होगा, इन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए यह विलाप का कारण हो सकता है।

तीसरा, फ्रीबी के विरोधी, अक्सर गरीबों को होने वाले लाभ को 'मुफ्त उपहार' के रूप में देखते हैं। जबकि कॉर्पोरेट को टैक्स छूट, टैक्स हॉलिडे, कॉरपोरेट पक्षपात, और बैड लोन को बट्टे खाते में डालने को अक्सर अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जरूरी घटक माना जाता है। देश का सबसे अमीर आदमी कुछ समय के भीतर ही दुनिया का दूसरा सबसे अमीर आदमी बन गया, जबकि पूरा देश महामारी के कारण लगे लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था में छाई मंदी से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहा है। रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत ने 2020-21 में हर महीने पांच अरबपति जोड़े, जबकि गरीबी दोगुनी हो गई है। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि देश में अमीर कॉरपोरेट्स को सरकार से मिलने वाली महत्वपूर्ण सहायता है, और उन्हें शायद ही कभी मुफ्त कहा जाता है।

मुफ्तखोरी का सवाल तभी उठता जब सिर्फ गरीब ही इसका फायदा उठाते। लेकिन सबसे पहले तो गरीबों को इस मुफ्तखोरी की जरूरत क्यों है? ये अक्सर बहस में भुला दिए जाने वाले ढांचागत मुद्दे हैं जो लोगों को सरकार से "लाभ" की प्रतीक्षा करने के लिए मजबूर करते हैं जबकि वास्तव में सम्मानजनक जीवन उनका संवैधानिक अधिकार है।

रेवड़ियाँ बनाम कल्याण 

क्या 'मुफ्त उपहार' और कल्याणकारी योजनाओं के बीच कोई पतली रेखा है? मुफ्त उपहारों पर चर्चाओं में अक्सर ऐसी राय दिखाई जाती है जो बताती है कि उत्पादक कल्याणकारी योजनाएं ठीक हैं जबकि कुछ मुफ्त उपहार तर्कहीन हैं। ऐसा लगता है कि मुफ्त और कल्याण के बीच मौजूद यह काल्पनिक रेखा काफी व्यक्तिपरक है।

जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार मुफ्तखोरी के मामले में एक स्पष्ट अंतर रखते हैं। उनके अनुसार, मुफ्त उपहार या रेवड़ियाँ व्यक्ति को लाभान्वित करते हैं, जबकि कल्याणकारी योजनाओं का समाज पर व्यापक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वे कहते हैं, "फ्रीबी या रेवड़ियाँ वे तब है जब जनता को उन्हे बिना किसी सारजनिक उद्देश्य के दिया जाता है। कल्याणकारी तब है जब आप व्यापक अर्थ की अपेक्षा करते हैं। वे ऐसी चीजें हैं जो जनता के लिए बेहतर परिणाम देती हैं।"
 
इस मामले में सिन्हा की राय अलग है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, उन्होंने सब्सिडी वाली वस्तुओं और मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं के बीच अंतर किया। उनका मानना ​​है कि सब्सिडी कल्याणकारी उपाय के रूप में स्वीकार्य है, जबकि बाद वाला, विशेष रूप से विलासिता की वस्तुओं के मामले में, एक फ्रीबी है और इससे बचना चाहिए।

दूसरी ओर, अर्थशास्त्री और केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इसाक का मानना है कि ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे हम दोनों के बीच अंतर कर सकें।

इसहाक ने टिप्पणी की कि,"यह एक व्यक्तिपरक मूल्यांकन है, और इसके लिए वस्तुनिष्ठ मानदंड नहीं मिल सकते हैं।" 

कई अध्ययनों में पाया गया है कि मध्याह्न भोजन योजना, जिसे मूल रूप से 1960 के दशक में तमिलनाडु ने शुरू किया था, वह स्कूलों में बच्चों के दाखिले में बढ़ोतरी का करना बना था।  कार्यक्रम की सफलता के परिणामस्वरूप सरकार ने इसे देश भर में शुरू किया। लेकिन इस योजना पर अक्सर कम ही चर्चा की जाती है। कई राज्यों ने छात्राओं को साइकिल दी।  इस पर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि छात्राओं को साइकिल देने से माध्यमिक स्कूल शिक्षा में उनके दाखिलों में भी वृद्धि हुई है और लिंग अंतर को कम करने में मदद मिली है। यहां जिस बिंदु पर ध्यान केंद्रित किया जाना है वह यह है कि, दी जा रही वस्तु का संदर्भ और उसकी जरूरत।
 
हमारे देश में लड़कियों की तो बात ही छोड़िए, घरों की जरूरतों की टोकरी में साइकिल नहीं है, फिर भी यह एक सच्चाई है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद अक्सर लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। इसके कई कारणों में से, एक हाई स्कूल या हायर सेकेंडरी स्कूल का उनके गाँवों से दूर होना, सार्वजनिक परिवहन की कमी, हमले या दुर्व्यवहार का डर, और अंतर्निहित पितृसत्ता विचार सभी लड़कियों को शिक्षा से वंचित होने के कारणों में से कुछ हैं। मौद्रिक प्रोत्साहनों के विपरीत, साइकिल ने न केवल प्रत्यक्ष प्रोत्साहन के रूप में काम किया, बल्कि ग्रामीण लड़कियों की गतिशीलता को भी बढ़ाया, जिनसे युवावस्था में पहुंचने पर अक्सर घर के भीतर रहने की उम्मीद की जाती है। साइकिल के साथ गतिशीलता आई, जबकि पहले लड़कियों को शिक्षा से वंचित कर दिया जाता था, लेकिन अब उन्हें शिक्षित होने और न केवल अपने गांवों में बल्कि सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी पर भी आगे बढ़ने का अवसर मिला है।

इसी तरह, मुफ्त या रियायती राशन, लोगों को लंबे समय तक भूख और भुखमरी से लड़ने में मदद करता है। यह भी हक़ीक़त है कि, सब्सिडी वाले राशन से घर की अर्थव्यवस्था पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। खाद्यान्नों पर बचे धन का आइस्तेमाल, लोग बेहतर शिक्षा या स्वास्थ्य के लिए कर सकते हैं, खासकर ऐसे समय में जब स्वास्थ्य खर्च और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं। यह खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में भी मदद करता है और इस तरह अर्थव्यवस्था को स्थिर रहने में भी मदद करता है।

कल्याण नीति क्या है और क्या वह फ्रीबी के दायरे में आती है, यह केवल लाभार्थियों के जीवन पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करके ही तय किया जा सकता है। यदि लोगों के सामान्य कल्याण में वृद्धि हुई है, तो उन्हें मुफ्त उपहार देने से रोकने की कोशिश करने का कोई कारण नहीं है। गरीबी की परिभाषा ने बुनियादी भरण-पोषण की कमी से लेकर गरिमापूर्ण जीवन जीने में असमर्थता तक का लंबा सफर तय किया है जिसमें क्षमता वृद्धि और उन्हें प्रयोग करने की स्वतंत्रता भी शामिल है। जब विकास के इस विचार पर आम सहमति बन रही है, तो सरकार द्वारा कोई भी उपाय जो लोगों की क्षमता को समृद्ध करता है और उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने में मदद करता है, उसे अवांछित या अनुत्पादक फ्रीबी कैसे कह सकती है?

राजकोषीय चिंताएं

फ्रीबी या रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ मुख्य विरोध इसलिए है कि यह सरकारी खर्च में वृद्धि करता है और सार्वजनिक कर्ज़ को बढ़ाता है। वर्तमान में देश का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। राजकोषीय घाटे और बढ़ते सार्वजनिक कर्ज़ की चिंता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

फ्रीबीज राजस्व खर्च के अंतर्गत आते हैं। चूंकि राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के तहत, राज्यों को राजस्व घाटे को खत्म करने की जरूरत है, राज्यों के पास राजस्व खर्च के लिए सीमित संसाधन हैं, इसलिए फ्रीबी के लिए उपलब्ध धन के इस्तेमाल को रोकने के एक कोशिश है। 

जबकि, विपक्ष ने एफआरबीएम मानदंडों के उल्लंघन के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की है, क्योंकि, राज्य सरकारों ने ज्यादातर वित्तीय अनुशासन का पालन किया है। थोमक इशाक  लिखते हैं, "... 2010-11 से 2016-17 के दौरान, राज्यों का सकल घरेलू उत्पाद में राजकोषीय घाटा औसत 2.48 प्रतिशत था जबकि केंद्र सरकार का 3.16 प्रतिशत था। 2017-18 में, केंद्र का राजकोषीय घाटा- जीडीपी अनुपात में- जिसमें केंद्र के राजस्व के रूप में जीएसटी उपकर, आईजीएसटी में राज्यों की हिस्सेदारी और एचपीसीएल लिमिटेड के विनिवेश का बिल नकदी से भरपूर ओएनजीसी द्वारा भरने, और विनिवेश आय से 91,257 करोड़ रुपये पैदा करने के बाद भी घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 3.5 प्रतिशत था।“ 

वह कहते हैं कि यह केंद्र ही है जो अपनी नीतियों में वित्तीय रूप से अविवेकपूर्ण और विरोधाभासी रहा है। यह फिर से केंद्र में सत्ता में बैठी पार्टी को अनुचित लाभ पहुंचाने को उजागर करता है जबकि राज्य सरकारों पर सख्त प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं।

राजस्व खर्च पूंजीगत संपत्ति नहीं बनाता है जो भविष्य में आय की गारंटी दे सके। हालांकि, कल्याणकारी नीतियों पर पैसा खर्च करना, खासकर जब देश महामारी से प्रेरित मंदी से उबरने की कोशिश कर रहा हो, यह शिकायत का कारण नहीं होना चाहिए। चिंता कल्याण पर खर्च की जाने वाली राशि नहीं है, बल्कि वैनिटी परियोजनाओं, मूर्तियों, मंदिरों और तीर्थों पर खर्च किए गए करोड़ों रुपये हैं। जबकि कोई भी कह सकता है कि इस संभावित खर्च से पर्यटन बढ़ेगा ओर राजस्व बढ़ेगा, और उत्पादकता के तर्क जो फ्रीबी की बहस में लगाए जा रहे हैं वे तर्क आखिर इन खर्चों में क्यों नहीं लगाए जाते है, जो अपने में एक उलझन की बात है। 

कुमार ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा कि, "राजकोषीय विवेक अंततः राजस्व जुटाने पर भी निर्भर करता है। 2019 में, कॉर्पोरेट क्षेत्र को 1.6 लाख करोड़ रुपये की रियायत दी गई थी। यदि आप अधिक संसाधन जुटाते हैं, तो आप कल्याणकारी उपायों के लिए बहुत अधिक आवंटित कर सकते हैं। हमारा प्रत्यक्ष कर संग्रह जीडीपी का केवल 6 प्रतिशत है, जो दुनिया में सबसे कम में से एक है। अगर केंद्र अधिक जुटा सकता है, मान लीजिए, कि संपत्ति कर के माध्यम से, तो हमारे पास कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करने के लिए बहुत अधिक धन होगा। यहां तक ​​कि अकेले शेयर बाजार पूंजीकरण पर 1 प्रतिशत का संपत्ति कर 2.5 लाख करोड़ रुपए देगा।"

मार्च 2020 में, केंद्र सरकार ने देश के इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) योजना शुरू की थी। इस योजना के तहत, नैनोचिप्स से लेकर ड्रोन के निर्माण तक इलेक्ट्रॉनिक सामानों के निर्माताओं को 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी की पेशकश की गई थी और बाद में इसे ऑटोमोबाइल, स्टील और फार्मास्यूटिकल्स सहित चौदह क्षेत्रों तक बढ़ा दिया गया था। इस योजना के माध्यम से कुलीन वर्गों को काफी लाभ हुआ और वास्तव में, इससे उन्हें अपने धन को कई गुना बढ़ाने में मदद मिली। जहां एक तरफ सबसे अमीर लोगों को प्रोत्साहन वाली योजनाओं के ज़रिए करोड़ों रुपये की सब्सिडी दी जाती है, वहीं गरीबों के बुनियादी भरण-पोषण की कल्याणकारी नीतियां सवालों के घेरे में क्यों रखा जाता हैं।

लोगों के विकास पर खर्च किया जाने वाला पैसा कभी भी खराब निवेश नहीं होता है। मानव विकास, किसी भी सरकार का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। जबकि नवउदारवादी सरकारें पूंजी निवेश के लिए उधार के पैसे खर्च करने के पक्ष में होती हैं, उन्हे लगता है इससे सब ठीक हो जाएगा, महामारी ने हमें दिखाया है कि देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक बुनियादी ढांचे पर व्यापक खर्च की जरूरत है। 

यह विडंबना ही है कि एक पार्टी जो कथित तौर पर चुनावों के बाद खुलखर खरीद-फरोख्त करती है, वह अब शिकायत कर रही है कि मतदाताओं को मुफ्तखोरी के ज़रिए लुभाया जा रहा है। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सदस्यों की खरीद-फरोख्त करने के लिए सत्ता और संसाधनों का खुले तौर पर दुरुपयोग, लोगों को बेहतर जीवन और आजीविका देने के बजाय  लोकतांत्रिक चुनावों की पवित्रता को अधिक प्रभावित करता है।

ढांचागत मुद्दे 

आठ साल से सत्ता में रही पार्टी द्वारा रेवड़ियों पर इतना हल्ला मचा कर, केवल ढांचागत मुद्दों को संबोधित करने में सरकार की अक्षमता को छिपाने का प्रयास है। भारत में गरीबी के अनुमान संदिग्ध और आलोचना के अधीन हैं। 2011 के आंकड़ों के अनुसार, पांचवीं से अधिक आबादी पूर्ण गरीबी में है। नीति आयोग द्वारा हाल ही में जारी बहुआयामी गरीबी सूचकांक पर रिपोर्ट, जो लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर को ध्यान में रखती है, जो गरीबी के बारे  में एक ज्वलंत समझ पेश करती है।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक

स्रोत-बहुआयामी गरीबी सूचकांक बेसलाइन रिपोर्ट, नीति आयोग, 2021  

एमपीआई (MPI) में प्रत्येक संकेतक पर नज़दीक से नज़र डालने पर गरीबी की एक स्पष्ट तस्वीर उभर कर आती है। फ्रीबीज की जरूरत है या नहीं या फ्रीबी क्या है, इस पर बहस आसानी से खत्म नहीं हो सकती है।

भारत सरकार द्वारा जारी द स्टेट ऑफ इनइक्वलिटी इन इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, 25,000 रुपये का मासिक वेतन कमाने वाले लोग शीर्ष 10 प्रतिशत हैं। यह हमारे देश में मौजूद असमानता के खतरनाक स्तर की ओर इशारा करता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, एक अवांछित और अनुत्पादक निवेश, जो कुछ के लिए विशेषाधिकार हो सकता है, आम लोगों  के लिए इसका इनकार करने से, कई अन्य लोगों के लिए कम उत्पादकता और खराब जीवन स्तर का स्रोत बन सकता है।

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय और नेशनल कंसोर्टीयम ऑफ सिविल सोसाइटी ओर्ग्निजेशन ऑन नरेगा एंड कोलोबोरेटिव रिसर्च एंड डिसेमिनेशन ने हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता लगाया है कि महामारी के दौरान लोगों की आय का लगभग 80 प्रतिशत मनरेगा ने पूरा किया था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2004, कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का बेरोजगारी उन्मूलन और लोगों को काम का अधिकार मुहैया कराने का एक चुनावी वादा था। इस योजना के ज़रिए लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं, और एजेंसी ने अब इसे एक फ्रीबी करार दिया है। जहां विभिन्न हलकों में भाजपा सरकार द्वारा इस ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम समाप्त करने की संभावना जताई जा रही है, वहीं लोग अधिक कार्य दिवसों की मांग कर रहे हैं, खासकर बढ़ती बेरोजगारी के समय यह मांग तेजी पकड़ रही है।

इसी तरह, लगभग सभी कल्याणकारी योजनाएं, जिन्होंने लाखों लोगों और उनकी आने वाली पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित किया है, चाहे वह मुफ्त या रियायती राशन, आवास, पेयजल, रोजगार, शिक्षा, बीमा आदि हो, वास्तव में उनके बारे में भी चुनावी वादे किए गए थे। केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने विभिन्न चुनावों से इस बाबत चुनाव घोषणापत्र पहले जारी किए थे। कल्याणकारी योजनाओं को मुफ्त के रूप में टैग करने से अंततः उन लाखों लोगों की आजीविका समाप्त हो सकती है जो ज़िंदा रहने का संघर्ष कर रहे हैं। 

गौड़ा ने कहा कि “हम भाजपा सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड से देख सकते हैं कि वे मुद्रास्फीति, बेरोजगारी की रोकथाम और विकास को आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं– ये वही चीजें हैं जिनकी लोगों को सख्त जरूरत है। वे केवल हिंदू-मुस्लिम विभाजन और अल्पसंख्यकों पर हमलों को बढ़ावा देते हैं। जब अर्थव्यवस्था की बात आती है तो यह उनके लिए एक आपदा बन जाती हैं।” 

गरीबी कोई विकल्प नहीं है। समाज और अर्थव्यवस्था में मौजूद ढांचागत खामियों के कारण लोग गरीब हैं। किसी भी सरकार का बुनियादी उद्देश्य अपने लोगों का कल्याण होना चाहिए।  इसलिए हुकूमत के हस्तक्षेप को, बाजार से दूर रखने की कोशिश करने वाला नवउदारवादी विचार आम लोगों की स्थिति को और अधिक खराब ही करेगा।

गौड़ा ने कहा, "लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए कि किसी को उनकी परवाह नहीं है, और इसलिए उन्हें हथियार उठाकर नक्सलियों में शामिल हो जाना चाहिए।"

'फ्रीबी' संस्कृति पर यह बहस, आसानी से उन ढांचागता मुद्दों पर पर्दा डाल देती है जो मान लेते हैं कि लोग उस पार्टी को वोट देते हैं जो सबसे अधिक पेशकश करती है। वास्तव में, लोकतंत्र में, लोगों की पसंद, जिस समझ पर भी वह आधारित हैं, अंतिम है। और यह सरकार का कर्तव्य है कि वह अपने लोगों को एक सभ्य जीवन, एक सम्मानजनक जीवन प्रदान करे। उस पार्टी का चुनाव करना जो उन्हें सबसे अधिक पेशकश करती है, एक सच्चे लोकतंत्र में पेश किया जाने वाला एक सही विकल्प है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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Is ‘Freebie’ Culture Hampering Democracy?

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