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बुनियादी ढांचा क्या वाक़ई पूजनीय गाय है?

बुनियादी ढांचे की मांग एक वर्गीय मुद्दा है। बुनियादी ढांचे को पवित्र गाय की तरह लेने का अर्थ है, इस वर्गीय मुद्दे को, विकास की वर्गीय प्रकृति को ही छुपाना।
 Infrastructure
प्रतीकात्मक तस्वीर। | चित्र साभार: shapernet

कुछ इस तरह की छवि बनी हुई है, जिससे अनेक प्रगतिशील बुद्घिजीवी तक सहमत नजर आते हैं कि जिसे ‘‘भौतिक बुनियादी ढांचा’’ कहा जाता है, वह एक ऐसी चीज है जिसे बढ़ाने की हरेक देश में हमेशा ही जरूरत होती है और किसी भी देश में वर्तमान वास्तविक बुनियादी ढांचा हमेशा ही, जरूरत की तुलना में कम ही रहता है। दूसरे शब्दों में बुनियादी ढांचे में कितना ही निवेश क्यों न किया जाए, उसके ‘बहुत ज्यादा होने’ जैसी कोई चीज तो होती ही नहीं है।

विकास रणनीति से बंधी है बुनियादी ढांचे की मांग

इसका नतीजा यह है कि अक्सर, इस तरह के बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए लगाए जाने वाले संसाधनों के परिमाण के संबंध में, कोई आपत्ति की ही नहीं जा सकती है। इसके बजाए, ढांचागत योजनाओं के मामले में जो आलोचनाएं सामने आती भी हैं कि उनमें भी अक्सर संबंधित योजनाओं की व्यावहार्यता जैसे मुद्दों पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है; जैसे कि क्या संबंधित योजनाएं वास्तव में पूरी की जा सकेंगी, क्या उनके लिए तय किया गया खर्च वास्तव में किया भी जा सकेगा, आदि। लेकिन, इस तरह की योजनाओं की वांछनीयता पर शायद ही कभी कोई चर्चा होती है।

हाल के संघीय बजट के मामले में भी, जिसमें सरकार द्वारा किए जाने वाले ढांचागत निवेश में एक उल्लेखनीय बढ़ोतरी का प्रावधान किया गया है, जो थोड़ी-बहुत आलोचनाएं सामने आयी भी हैं, उनमें भी आम रुझान इस पर केंद्रित होने का ही रहा है कि जितना पैसा इसके लिए तय किया गया है, सरकार वास्तव में खर्च नहीं कर पाएगी। इस पर कोई जोर नहीं रहा है कि सरकार ने इसके लिए इतना पैसा रखा ही क्यों है? यह बात तो बहस में अब तक आयी ही नहीं है कि बुनियादी ढांचे पर इतना अधिक खर्च करना, सरकार की प्राथमिकताओं के गड़बड़ होने का भी मामला हो सकता है। संक्षेप में यह कि भारत में बुनियादी ढांचे को आम तौर पर पवित्र गाय जैसा कुछ माना जाता है, जिसमें कुछ गलत तो हो ही नहीं सकता है।

लेकिन, बुनियादी ढांचे को पवित्र गाय जैसा कुछ मानना, पूरी तरह से ही अवांछित है। इस स्तंभ में इससे पहले भी हम यह बात कह चुके हैं। फिर भी चूंकि इस तरह का अनालोचनात्मक रुख बना ही हुआ है, इस नुक्ते को दोहराना अनुपयोगी नहीं होगा। किसी भी समय पर किस पैमाने पर भौतिक बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है, यह उस समय लागू की जा रही आर्थिक रणनीति पर निर्भर करता है। भौतिक आर्थिक ढांचे की जरूरत कोई संबंधित अर्थव्यवस्था की निरपेक्ष या तयशुदा जरूरत नहीं होती है। किसी खास प्रकार के बुनियादी ढांचे की जरूरत सबसे बढ़कर इससे पैदा होती है कि किसी खास आर्थिक रणनीति पर चला जा रहा होता है।

क्या कहता है ऐतिहासिक अनुभव

मिसाल के तौर पर बंदरगाहों का निर्माण तभी एक उजागर अपरिहार्यता बना, जब उपनिवेशवाद ने अपनी जड़ें जमा लीं। भारत पर औपनिवेशिक विजय ने, उसकी अर्थव्यवस्था के दरवाजे अंतरराष्ट्रीय समुद्रपारीय व्यापार में उछाल के लिए खोल दिए, क्योंकि उसे अब विकसित पूंजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था के लिए प्राथमिक या कच्चे मालों के लिए स्रोत मुहैया कराने थे और इन विकसित पूंजीवादी केंद्रों के विनिर्मित मालों के लिए, बाजार मुहैया कराने थे। इस तरह, एक उपनिवेश के रूप में भारत में जिस आर्थिक रणनीति पर चला जा रहा था, वह रणनीति ही इसका तकाजा करती थी कि पहले की स्थिति को देखते हुए, अतुलनीय पैमाने पर बंदरगाहों का निर्माण किया जाए।

इसी प्रकार, सोलहवीं सदी के बादशाह, शेरशाह सूरी ने भी काफी ज्यादा संसाधन बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के निर्माण पर लगाए थे। लेकिन, उन्होंने मुख्यत: सड़कें बनायी थीं न कि बंदरगाह बनाए थे क्योंकि उस दौर की आर्थिक रणनीति सड़क के जरिए लंबी दूरी तक परिवहन की ही मांग करती थी, न कि समुद्री जहाजों के जरिए परिवहन की।

औपनिवेशिक दौर में भारत में रेलवे का विकास भी उन्हीं लक्ष्यों के लिए किया गया था, जिनके लिए बंदरगाहों का विकास किया गया था। आर्थिक इतिहासकार, दिवंगत इआन मैक्फर्सन का यह दावा था कि प्राथमिक मालों का परिवहन ही, भारत में रेलवे के ताने-बाने के निर्माण का मुख्य लक्ष्य था। बहरहाल, हमें यहां इसकी बहस में जाने की जरूरत नहीं है कि इसके लक्ष्य में, विनिर्मित मालों के लिए बाजार हासिल करने के उद्देश्य का वजन ज्यादा था या प्राथमिक मालों को हासिल करने के उद्देश्य का। यहां हमारा नुक्ता यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के उपनिवेशीकरण ने ही रेलवे के निर्माण में निवेश को आवश्यक बना दिया था। इसी के चलते तो औपनिवेशिक निजाम, इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए, निजी कंपनियों को उनके निवेश पर एक निश्चित दर से लाभ की गारंटी तक देने के लिए तैयार हो गया था।

किसी को भी यह लग सकता है कि चूंकि रेलवे किसी भी देश के लिए एक उपयोगी चीज ही होती है, इसलिए उसे अगर किसी खास मकसद से बनाया भी गया हो तो यह मकसद अप्रासांगिक ही होगा। वास्तव में इस लिहाज से किसी को यह भी लग सकता है कि ढांचागत निर्माण को, उस समय चलायी जा रही आर्थिक रणनीति के साथ जोडऩे का, पूरा का पूरा मुद्दा ही अप्रासांगिक है क्योंकि बुनियादी ढांचा तो हर सूरत में ही उपयोगी होता है और इसलिए, उसके निर्माण की जरूरत तो हमेशा रहती ही है। संक्षेप में यह कि ढांचागत क्षेत्र में निवेश तो हमेशा अपने आप में ही एक अच्छी चीज होता है। जाहिर है कि यह नजरिया, मैं यहां तक जो कह रहा था, उससे ठीक उल्टा होगा।

भारतीय रेलवे का निर्माण: किस की प्राथमिकता?

लेकिन, किसी खास ढांचागत परियोजना के भविष्य में उपयोगी साबित होने का भी मतलब यह नहीं होता है कि आज उसके निर्माण पर इतने संसाधन लगाए जाना जरूरी है। इसके बावजूद, अगर संबंधित ढांचागत परियोजना पर खासे बड़े पैमाने पर संसाधन खर्च किए जाते हैं, तो ऐसा किए जाने का संबंध उस खास आर्थिक रणनीति से होगा ही, जिस पर कि आज चला जा रहा है। आखिरकार, संसाधन तो सीमित ही होते हैं और किसी खास काम के लिए उनके लगाए जाने में, संसाधनों के उपयोग के दावेदार दूसरे किसी या किन्हीं कामों के लिए उनका उपलब्ध नहीं होना भी शामिल होता है। इसलिए, संसाधनों का उपयोग किस तरह किया जाता है, यह चयन का मामला होता है और यह चयन तय होता है, उस आर्थिक रणनीति से, जिस पर चला जा रहा होता है।

आम तौर पर ऐसा लगता है कि कार्ल मार्क्स चूंकि ‘‘आधुनिकता’’ के पक्षधर थे, कम से कम उन्होंने जरूर ऐसी परियोजनाओं का अनुमोदन किया होगा, जो फौरी तौर पर भले ही आम आदमी के हित नहीं साधती हों, फिर भी आगे चलकर उसके हित साधने जा रही थीं। मिसाल के तौर पर भारत में रेल के निर्माण के मामले में उन्होंने जरूर इसका समर्थन किया होगा, क्योंकि तब भले ही इससे उपनिवेशकों के ही स्वार्थ सधने जा रहे हों, पर दीर्घावधि में तो इससे भारतीय अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण ही होने जा रहा था। लेकिन, यह उल्लेखनीय है कि मार्क्स इस मामले में तथाकथित ‘‘आधुनिकतावादी रुख’’ से ठीक उल्टा रुख ही अपनाते हैं। न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में भारत के संबंध में अपने लेखों में से एक में वह तो भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद द्वारा निर्मित रेलवे को ‘हिंदुओं (यानी भारतीयों) के लिए बेकार’ तक कह देते हैं!

जाहिर है कि मार्क्स का आशय, इस टिप्पणी के शाब्दिक अर्थ से नहीं रहा होगा। रेलवे की वर्तमान उपयोगिता की बात अगर छोड़ भी दें, तब भी रेलवे तो जब नयी-नयी बनी थी, तब भी भारतीयों के लिए कुछ न कुछ उपयोगी तो रही ही होगी। उसके निर्माण का उद्देश्य भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे औपनिवेशिक शोषण के लिए खोलना रहा हो, फिर भी रेलवे को भारतीयों के लिए ‘‘बेकार’’ की चीज कहना, अतिशयोक्तिपूर्ण ही लगता है। लेकिन, मार्क्स तो वास्तव में इसी तथ्य का जिक्र कर रहे थे कि रेलवे का ताना-बाना निर्मित करना, तब भारतीय जनता की अपनी प्राथमिकता नहीं थी। उसका निर्माण करना तो औपनिवेशिक निजाम की ही प्राथमिकता थी और इसीलिए, उन्होंने भारत में रेलवे का निर्माण किया था। दूसरी ओर, भारतीय जनता को उस समय रेलवे के इस ताने-बाने की जरूरत नहीं थी और अगर वह स्वतंत्र होती तो उसे अपने इतने सारे संसाधन इस पर खर्च करने के लिए मजबूर नहीं किया गया होता।

नवउदारवादी दौर और बुनियादी ढांचे की तंगी

इस पर जोर देना कि किसी देश की बुनियादी ढांचे की मांगें, वहां लागू की जा रही आर्थिक रणनीति पर निर्भर करती हैं, तंगियों के बारे में कुछ नहीं कहता है। लेकिन, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, धारणा तो यह है कि बुनियादी ढांचे के मामले में ‘जरूरत से ज्यादा निवेश’ जैसी तो कोई चीज होती ही नहीं है। लेकिन, सामान्यत: इसकी जरूरत इस आधार पर बतायी जाती है कि प्रकटत: हमेशा ही बुनियादी ढांचे की तंगी रहती है, जिससे निवेश के जरिए उबारा जाना होता है। किसी भी प्रकार की आर्थिक रणनीति में, उसके अनुरूप एक खास प्रकार के बुनियादी ढांचे की मांग होती है और कभी भी यह बुनियादी ढांचा पर्याप्त नहीं होता है। इसीलिए, बुनियादी ढांचे में निवेश हमेशा ही ‘उचित’ नजर आता है। लेकिन, यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह ‘औचित्य’ अपने आप में, आर्थिक रणनीति के सापेक्ष होता है।

एक उदाहरण लिया जा सकता है। नवउदारवादी निजाम में आर्थिक असमानताओं में भारी बढ़ोतरी हुई है और इसने मांग का एक खास पैटर्न पैदा किया है। इस मांग की विशेषता तो यही है कि हवाई यात्रा में भारी बढ़ोतरी हुई है और इसके लिए देश भर में हवाई अड्डों का निर्माण करने, उनका विस्तार करने तथा उनका नवीनीकरण करने की जरूरत होती है। ऐसा नहीं करने का अर्थ होगा, हवाई यात्रा के लिए भारी भीड़ होना और विमान यात्रियों को असुविधा होना। यही तथ्य हवाई अड्डों में बड़े पैमाने पर निवेश करने को औचित्य प्रदान करता है। ऐसा लगता है कि इस तरह के निवेश के खिलाफ तो कोई दलील दी ही नहीं जा सकती है। और इस तरह का निवेश चाहे जैसे भी किया जाए, भले ही यह खर्च सार्वजनिक निवेश के माध्यम से किया जाए या फिर निजी पहल के रूप में, इस तरह का निवेश पूरी तरह से तर्कसंगत नजर आता है। लेकिन, निवेश की यह तार्किकता, नवउदारवादी आर्थिक रणनीति के संदर्भ में ही है। अगर आर्थिक विकास की वैकल्पिक रणनीति अपनायी गयी होती, जो कहीं ज्यादा समतापूर्ण होती, तो हवाई यात्रा की मांग कहीं कम होती, हवाई अड्डों पर भीड़ कहीं कम होती और हवाई अड्डों के विस्तार तथा नवीनीकरण पर इतना सारा खर्च करने की जरूरत ही नहीं हुई होती।

बुनियादी ढांचे की मांग वर्गीय मुद्दा है

इस तरह, बुनियादी ढांचे की मांग को, लागू की जा रही आर्थिक रणनीति से काटना, इस मांग की अंतर्निहित वर्गीय प्रकृति को ही छुपाने का ही तरीका है। दूसरे शब्दों में, बुनियादी ढांचे की मांग एक वर्गीय मुद्दा है। बुनियादी ढांचे को पवित्र गाय की तरह लेने का अर्थ है, इस वर्गीय मुद्दे को, विकास की वर्गीय प्रकृति को ही छुपाना।

यहां एक खास द्वंद्वात्मकता भी काम करती है। अक्सर सरकारों की तरफ से यह दलील दी जाती है कि स्वास्थ्य रक्षा के लिए पर्याप्त धन नहीं लगाया जा सकता है (यहां तक कि सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च के लिए जीडीपी का 3 फीसद तक नहीं लगाया जा सकता है) या शिक्षा के लिए पर्याप्त धन नहीं लगाया जा सकता है (सार्वजनिक शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसद भी खर्च नहीं किया जा सकता है) क्योंकि संसाधनों की कमी है। जो संसाधन जुटाए भी जा जाते हैं, उनके लिए कई अन्य क्षेत्रों की भी मांगें सामने आ जाती हैं और बुनियादी ढांचा, संसाधनों के इन दावेदारों में एक बड़ा दावेदार है। इस तरह, सार्वजनिक शिक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य की जो उपेक्षा की जा रही होती है, वह असमानताकारी आर्थिक रणनीति के पक्ष में झुकाव को ही और प्रबल बनाती है। इस तरह, गरीबों को और निचोड़ा जाता है और इन क्षेत्रों में तगड़ी कमाई वाले निजी कारोबार के लिए नये अवसर पैदा किए जा रहे होते हैं।

इस द्वंद्वात्मकता को, आर्थिक रणनीति को बदलकर, पलटा भी जा सकता है। इसके लिए जाहिर है कि मेहनतकशों की वर्गीय लामबंदी की जरूरत होगी। लेकिन, इस तरह की गोलबंदी के लिए पहले यह समझ होना जरूरी है कि ढांचागत निवेश के पैटर्न का खुद ही, उस आर्थिक रणनीति का हिस्सा है, जिसके खिलाफ लड़ाई है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Demand for Infrastructure is Also a Class Issue

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