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क्या गोदी मीडिया का काम ही किसानों के लिए नफ़रत फ़ैलाना है? 

अगर किसानों का नब्बे फ़ीसदी आंदोलन शानदार रहा तो गोदी मीडिया ने नफ़रत भरने का काम क्यों किया?
क्या गोदी मीडिया का काम ही किसानों के लिए नफ़रत फ़ैलाना है? 

आंदोलनों में कभी कभार ऐसे पड़ाव आते हैं जहां पर आंदोलनों की सफलता और असफलता मापी जाती है। तकरीबन दो महीने से चल रहे किसान आंदोलन में 26 जनवरी का दिन एक ऐसा ही पड़ाव था। जहां पर आंदोलन की सफलता और असफलता पर बातचीत होना तय था। न चाहते हुए भी यह जिम्मेदारी बड़े-बड़े मीडिया घरानों के पास ही चली जाती है। क्योंकि वही अपनी तामझाम लाव-लश्कर के साथ जनता आंदोलन और सरकार के बीच सबसे बड़ी संचार प्लेटफार्म की भूमिका निभाती हैं। अगर इस प्लेटफार्म ने बड़ी ईमानदारी से अपना काम किया तो आंदोलन का सही मूल्यांकन करना बड़ा आसान हो जाता है लेकिन अगर इस प्लेटफार्म ने बेईमानी से काम किया जैसा कि वह अब तक करते आई है तो एक अभूतपूर्व शानदार अद्भुत आंदोलन भी जनता की निगाहों में कमतर आयोजन की तरह पहुंचता है।

अब हिंदी के अखबारों को ही ले लीजिए। बड़े अखबार जिनकी पहुंच करोड़ों लोगों तक है। उन अखबारों की हेडिंग है- गणतंत्र की गरिमा पर प्रहार, ट्रैक्टर परेड ने रौंदा भरोसा, लाल किले पर कब्जा, लहराया अपना झंडा। हिंदी के बड़े अखबार के हेडिंग क्या बतलाते हैं? क्या इनकी मंशा ऐसी है कि वह अपने पाठकों तक सही सूचना पहुंचा रहे हैं? ठीक ऐसी ही हालात टेलीविजन की भी है। लाखों की संख्या में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे किसानों को छोड़कर केवल उन जगहों को बार-बार दिखाया गया जहां पर हिंसा और झड़प की घटनाएं हुई। 

किसान नेताओं का कहना है कि तकरीबन 90 फ़ीसदी किसान परेड शांति के साथ गुजरा। लेकिन टीवी को इससे कोई से मतलब नहीं होता है। टीवी को देख कर तो किसी जागरूक दर्शक को यह भी लग सकता है कि अगर झड़प और हिंसा न होती तो टीवी वाले किसान आंदोलन को शायद दिखाते भी नहीं।

इसलिए किसान की परेड का आंदोलन का सही तरह से मूल्यांकन करने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि मीडिया जिस तरह से किसान आंदोलन को प्रस्तुत कर रही है, उससे अलग जाकर भी आंदोलन को परखा जाए।

अगर हम आंदोलन और आंदोलन के ज़रिए को परखें तो कुछ ऐसे पैमाने बनाए जाएंगे जिस पर इन्हें परखा जाए। और यह पैमाने इमानदारी से बने होने चाहिए। आंदोलन की अगुवाई जनता नहीं करती न ही कुछ नेता करते हैं, आंदोलन की अगुवाई आंदोलन की मांग करती है। अगर मांग जायज है तो आंदोलन जायज है। इसके बाद आंदोलन से जुड़े नेता और जनता का नंबर आता है। 

इसलिए टीवी अखबार और किसी के द्वारा जब यह सवाल किया जाए कि आंदोलनकारियों ने हिंसा कर गलत किया तो एक पाठक दर्शक और श्रोता के साथ एक नागरिक होने के नाते पलटकर यह सवाल भी होना चाहिए कि हम मानते हैं कि हिंसा गलत है. लेकिन क्या इस हिंसा की जिम्मेदारी केवल किसानों की है? जायज मांग लेकर तकरीबन दो महीने से ठिठुरते हुई ठंड में दिन और रात एक कर के दिल्ली के बॉर्डर पर अपना घर परिवार छोड़कर किसान डटे हुए हैं। तकरीबन डेढ़ सौ से अधिक किसानों की जान चली गई है। सरकार से विनती कर रहे हैं कि वह तीन कानूनों को वापस ले ले और एमएसपी की लीगल गारंटी दे दे। कई सालों से किसान संगठन कई तरीके से सरकार को यह बता चुके हैं और सरकार को भी इस को मानती है कि किसानों को अपनी उपज का सही दाम नहीं मिलता है। किसानों के सालों साल से नाइंसाफी हो रही है। अगर किसानों के साथ इतनी बड़ी हिंसा सालों साल से चलती आ रही है और अचानक से माइक लिए हुए टीवी स्टूडियो में बैठा हुआ एंकर कहे कि किसान उपद्रवी बन चुके हैं तो आप इसे क्या कहेंगे? अगर आप कुछ भी नहीं जानते हैं तो एंकर की बात मान लेंगे। और अगर आप किसानों की जायज मांग को समझते हैं तो आप उलट कर यह कहेंगे कि मीडिया में ऐसे लोगों को नहीं होना चाहिए। जो सूचनाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं।

तो पहली बात यह कि जो आंदोलन जायज है और जिसके तकरीबन अपनी मांग बताते हुए दो महीने बीत चुके हैं उसमें सवाल आंदोलनकारियों से नहीं बल्कि सरकार से पूछा जाना चाहिए। 

अब आते हैं किसान आंदोलन के नेताओं, समर्थकों और इनके द्वारा उठाए गए कदमों पर। आम जनता नहीं लेकिन मीडिया तो बड़े ध्यान से इस आंदोलन को तकरीबन दो महीने से फॉलो करते आई है। उसे पता है कि आंदोलन के नेताओं ने और समर्थकों ने शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन रखने की अपील बार-बार की है। और इस अपील को समर्थकों ने बड़े ही अच्छे ढंग से स्वीकार भी किया है। इसलिए बिना किसी उठापटक के तकरीबन दो महीने से दिल्ली के कई बॉर्डर पर किसान शांति के साथ अपना विरोध प्रदर्शन करते रहे। कोई हिंसा नहीं हुई।

यानी आंदोलन बिल्कुल सही तरीके से चल रहा था। आंदोलन के नेताओं ने 26 जनवरी को दिल्ली में परेड करने का फैसला किया। 26 जनवरी की परेड को लेकर जितनी भी बैठकें की, उन सभी बैठकों में कहा कि आंदोलन शांतिपूर्ण रहेगा। नेता आवाज देने का काम करता है। समर्थकों को संयमित और नियंत्रित करने का काम करता है। नेताओं की तरफ से एक भी ऐसी बयान नहीं आया जो यह बताता हो कि नेताओं ने शांतिपूर्ण परेड के सिवाय कुछ और बात की है। यही वजह है कि किसानों का तकरीबन बड़ा हिस्सा 26 जनवरी को शांतिपूर्ण परेड का भागीदार रहा। लेकिन कहीं छिटपुट हिंसा भी हुई। इस हिंसा से संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने खुद को अलग किया। इसकी निंदा की। इसकी नैतिक जिम्मेदारी ली। बयान जारी कर कहा कि 26 जनवरी का परेड अभूतपूर्व और शानदार थी लेकिन कुछ अराजक तत्वों की वजह से थोड़ा निराशाजनक ही रहा।

कहने का मतलब यह है कि आंदोलन के नेता तकरीबन दो महीने से लेकर 26 जनवरी तक इस तरीके से बयान देते आ रहे हैं जो गैर जिम्मेदाराना नहीं है। तो अगर हिंसा कि कुछ तस्वीरें आती हैं या कुछ वीडियो दिखते हैं तो यह कैसे कहा जा सकता है कि इसके लिए किसान आंदोलन और किसान नेता जिम्मेदार हैं? जबकि यह स्वाभाविक सी बात है कि जब भी लाखों की भीड़ चलेगी तो उसमें यह संभावना बनी रहेगी कि कुछ तत्व सरकार की तरफ से फेंके हुए पांसे हो या कुछ तत्व बहुत उग्र मिजाज के हो। जो अनियंत्रित और हिंसक काम करने पर उतर आए। यह स्वाभाविक बात है। मानवीय क्षमताओं के नियंत्रण से बाहर की बात है। ऐसे में किसी घटना की तस्वीर और वीडियो देखते ही जब माइक से यह सवाल निकलने लगे कि किसान आंदोलन उपद्रवियों का आंदोलन है। इसके नेता उपद्रवी हैं। इससे यही प्रतीत होता है कि इस भाषा और शैली में जरूर कोई निहित स्वार्थ छिपा हुआ है। और यह कहीं से भी पत्रकारिता नहीं है। 90 फ़ीसदी शांतिपूर्ण आंदोलन को दरकिनार कर केवल यह कहा जाने लगे की किसान आंदोलन उपद्रवियों का आंदोलन हो गया है तो उस समय एक नागरिक के तौर पर मीडिया के इस कथन पर अगर मन में सवाल खड़ा नहीं होता है तब आप यह समझ लीजिए कि आप के नागरिक बोध की हत्या की जा चुकी है।

अब उस घटना पर बात करते हैं जिस पर सबसे अधिक चर्चा हुई। जिस घटना ने सरकार की रहनुमाई में डूबी मीडिया को वह तस्वीर दे दी जिसके सहारे वह पूरे आंदोलन को खारिज कर सके। यह घटना है लाल किले पर निशान साहिब झंडा फहराने की। 

अगर यह कहा जाए कि लाल किले पर तिरंगे की जगह निशान साहिब झंडा फहराया गया। तो यह बिल्कुल गलत होगा। क्योंकि लाल किले का तिरंगा तो अपनी जगह पर लहरा रहा था। उस झंडे को हटाने की कोई कोशिश नहीं की गई।

झंडे तक कोई गया भी नहीं। लाल किले के बिल्कुल बीचों-बीच में तिरंगा झंडा लहरा रहा था। एक खाली जगह पर निशान साहिब का झंडा लगाया गया। जो हर गुरुद्वारे में लगा होता है। 

इसे पढ़ें : फैक्ट चेक:लाल किले पर प्रदर्शनकारी किसानों ने न तिरंगा हटाया न खालिस्तानी झंडा फहराया

सच का यह पूरा संदर्भ बताने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि लाल किले में तिरंगे के अलावा दूसरा झंडा लगाने की कोशिश गलत नहीं थी। यह बिल्कुल गलत थी। संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से इसकी निंदा भी की गई। लेकिन मीडिया की तरफ से क्या कहा गया? मीडिया ने खुलकर कहा कि उपद्रवियों ने देश का मान घटा दिया? झंडे की एक तस्वीर को दिखा कर पता नहीं आंदोलन के खिलाफ मीडिया वालों ने क्या-क्या कहा? जब निशान साहिब के साथ भारत का झंडा दिख रहा था तो भारत के झंडे को हटाकर तस्वीर दिखाई गई। हिंदुस्तान जैसे अखबार में लाल किले पर झंडा फहराने वाली घटना के साथ इस शीर्षक के साथ खबर छपी की गणतंत्र पर प्रहार हुआ है। जबकि सच सबके सामने आ चुका था। दीप सिद्धू नामक पंजाबी कलाकार ने झंडा फहराया था। जिसे संयुक्त किसान मोर्चा ने अलगाववादी रुझान की वजह से बहुत पहले से बाहर रखा हुआ है।

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इस सच को मीडिया ने जोर देकर नहीं बताया। मीडिया ने पुलिस के कामकाज पर सवाल खड़े नहीं किए? यह नहीं पूछा कि कैसे लाल किले की तरफ आने वाली बैरिकेडिंग खुली हुई थी? बस एक सुर में राग अलापना शुरू कर दिया कि किसान आंदोलन ने देश को शर्मसार कर दिया है। और इस एक घटना को लेकर किसानों की जायज मांग को छोड़कर दिनभर चर्चा हुई। यह बात सही है कि देश के प्रतीकों का बहुत महत्व है। वह एक देश के आन बान और शान की पहचान है। लेकिन इन प्रतीकों का इस्तेमाल कर अगर आमजन की बुद्धि और निगाहें कुंद करने की कोशिश की जाए तब क्या कहा जाएगा? क्या यह सच नहीं है कि लाल किले को डालमिया को देखरेख के नाम पर सौंप दिया गया है? क्या यह सच नहीं है कि लाल किले पर फहराते हुए झंडे को हटाने की कोई कोशिश नहीं की गई? क्या यह सच नहीं है कि राष्ट्रीय ध्वज से जुड़े किसी भी नियम का उल्लंघन नहीं हुआ ?

इस तरह से अगर समग्रता में देखा जाए तो 26 जनवरी की किसान परेड शानदार रही है। कुछ हिंसक घटनाओं को लेकर पूरे आंदोलन को खारिज करते हुए दिखाना बिल्कुल गलत है। आंदोलनकारियों ने अहिंसक रवैया अपनाते हुए शानदार परेड किया लेकिन जिस तरीके से मीडिया ने तस्वीर उकेरी उससे किसान आंदोलन उपद्रवियों का आंदोलन होकर प्रस्तुत होने लगा।

कहने का मतलब यह है कि अगर पूरी अहिंसक तरीके से पूरी ईमानदारी से आंदोलन काम करें लेकिन मीडिया उसे सही ढंग से न दिखाए  तो देश में एक ऐसा माहौल भी बनते दिख सकता है की जायज मांग भी नाजायज दिखने लगे। और यही सबसे अधिक चिंता की बात है।

इंडियन इस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के प्रोफेसर आनंद प्रधान से इस विषय पर न्यूज़क्लिक की बात हुई। आनंद प्रधान का कहना था कि इस पूरे मुद्दे को वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। यानी यहां क्लास का भी एंगल है। मीडिया इस पर बड़ा ध्यान देता है। यह आज से नहीं हो रहा है। बहुत पहले से होता आ रहा है। टीवी न्यूज़ रूम में तो बकायदे यह कहा जाता है कि जहां पर दस पंद्रह हजार रुपये से कम आमदनी वाले लोगों की बात आएगी, उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं देना है। इसलिए एक समय के लिए अगर किसान आंदोलन को छोड़ दें और पूरे मीडिया जगत को सिलसिलेवार तरीके से देखें, तो यहां होने वाली सभी बहसें आम लोगों के लिए जरूरी बहसों से अलग होती हैं। यहां मजदूर और किसान की बात न के बराबर होती है। सरकारी नीतियों को भी इस पैमाने पर नहीं कसा जाता कि क्या इससे आम लोगों को फायदा होगा या नहीं?

यही वजह है कि जब किसानों, मजदूरों सरकारी दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारियों और सरकार के बीच भिड़ंत की बात आती है तो मीडिया वाले सीधे सरकार का पक्ष चुन लेते हैं। भ्रष्टाचार बहुत जरूरी मुद्दा है। भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिए। लेकिन जब यह मध्यवर्ग की आवाज बना तो मीडिया ने इसे सुना। लेकिन यही बात किसानों के साथ नहीं हो रही है। उसके साथ मौजूदा समय में सरकार का मीडिया पर कब्जा तो पूरे माहौल को और अधिक निराशाजनक बना देता है। ऐसे माहौल में वह बात बहुत सार्थक हो जाती है कि अगर मीडिया से निकली बातों पर बड़े ध्यान से गौर नहीं किया गया तो वह शोषकों से प्यार करना और उत्पीड़ित से नफरत करना सिखाने के काम में हिस्सेदार बना देती है। ऐसे आंदोलन और जनवादी आवाजें इसलिए दिख पा रही है क्योंकि अल्टरनेटिव प्लेटफार्म का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस प्लेटफार्म को और अधिक सशक्त करने की जरूरत है। नहीं तो अनसुने लोगों की चीखती हुई आवाजें अनसुनी ही रह जाएंगी।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल भी मीडिया में मौजूद इसी वर्ग विभाजन पर ट्वीट करते हुए लिखते हैं कि मैं देश के सभी हिंदी-इंगलिश न्यूज़ चैनलों को चैलेंज करता हूँ कि क्या आपके यहाँ कोई कृषि संवाददाता है? खेल संवाददाता है। फ़िल्म रिपोर्टर है। क्राइम रिपोर्टर है। कृषि रिपोर्टर क्यों नहीं है, जबकि देश की 65% आबादी किसानी से जुड़ी है? आप भी इनसे पूछिए।

इसलिए अंत में अगर आप सोचे कि किसान आंदोलन की तरह मीडिया सुधार आंदोलन की भी जरूरत है तो तो आप बिल्कुल सही निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं। नहीं तो मौजूदा मीडिया किसान और मजदूरों के लिए नफरत और शोषण करने वालों के लिए समर्थन का काम करती रहेगी।

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