Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या अब राष्ट्रीय एकता परिषद जैसी संस्थाओं की ज़रूरत नहीं रही?

आज़ादी के 75 वर्ष पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाए जा रहे हैं। इसे अमृतकाल कहा जा रहा है। ऐसे में यह और ज़रूरी हो जाता है कि महज़ झंडे से एकता के प्रयासों की बजाय हिंदुस्तान जैसे देश की बहुलता और उसके सामने चुनौतियों पर गंभीर विमर्श हो।
india
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: हिन्दुस्तान

भारत जैसे विशाल लोकतन्त्र की भौगोलिक, सामाजिक, भाषायी और सांस्कृतिक विविधतता उसकी ताक़त बाद में हो सकती है पर व्यावहारिक तौर पर यह एक चुनौती रही है जो अब पहले से कहीं विकट रूप में हमारे सामने है।

इस चुनौती का आंकलन देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आज़ादी के कुछ समय बाद ही कर लिया था। आज़ादी इस बात की गारंटी नहीं थी कि सदियों से अपने अपने दायरों में सीमित रहा भारतीय समाज यकायक तमाम भाषाओं, क्षेत्रीयताओं, संस्कृतियों और सबसे ज़्यादा मज़हबों के प्रति उदार हो जाएगा। राजनैतिक और कानूनी रूप से भले ही देश ने संविधान के रूप में एक सुंदर, समावेशी और उदार संकल्प लिया हो लेकिन सदियों से जातियों में बंटा बहुसंख्यक समाज और उसका अन्य मज़हबों व संस्कृतियों के प्रति बर्ताव स्वत: लोकतान्त्रिक नहीं हो जाएगा।

इसी व्यावहारिक चुनौती को देखते हुए और भारत जैसे बहुभाषी, बहु-धार्मिक देश में एकता को पुनर्परिभाषित करने और सरकार द्वारा उसे विविधतता का सम्मान करते हुए नए सिरे से एकता के निर्माण के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। इसी उद्देश्य से सन 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद के गठन की ज़रूरत पैदा हुई। इसे देश के गृह मंत्रालय के अधीन रखा गया जिसकी अध्यक्षतता स्वयं देश के प्रधानमंत्री को सौंपी गयी।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस परिषद के गठन पर ही देश के लिए एकता के मायने स्पष्ट किए जो उनके शब्दों में विविधतता में एकता के सूत्र के रूप में अब भी जब तब सुनाई देता है। हिंदुस्तान केवल एक धर्म, मजहब या भूगोल का देश नहीं है। यहाँ ‘हर तीन कोस पर पानी बदलता है और पाँच कोस पर वाणी यानी भाषा’। एकता की परिकल्पना केवल इन्हीं विविधतताओं को आत्मसात करके की जा सकती है। एक नागरिक के रूप में हर नागरिक को इन तमाम विविधतताओं के प्रति न केवल उदार और सहिष्णु होने की ज़रूरत है बल्कि इसके संदेश को फैलाने की ज़िम्मेदारी भी है।

1961 में गठित हुई इस स्वनदर्शी संस्था के काम काज की स्थिति कतई ठीक नहीं रही और इसके लिए बीते पचहत्तर सालों में आयीं गईं तमाम सरकारें जिम्मेदार हैं लेकिन इससे इस संस्था की परिकल्पना और उसके उद्देश्यों की प्रासंगिकता कभी कम नहीं हुई बल्कि बदलते हालत में इस और इस जैसी कई संस्थाओं की बेतहाशा ज़रूरत ही पेश आ रही है।

इस परिषद की अब तक कुल 15 बैठकें ही हुई हैं जो इसके शुरुआती उद्देश्यों के साथ साथ समय पर पैदा हुई चुनौतियों और देश के सामने इस मोर्चे पर आ रहे संकटों को भी अपने एजेंडे में शामिल करती रही हैं।

जब 1961 में इस परिषद का गठन हुआ तब इसके उद्देश्य बहुत साफ थे। इनमें सांप्रदायिक टकराव या सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषायी टकराव और संकीर्ण मानसिकता को चुनौतियों के तौर पर देखा गया था और इनसे निपटने के लिए एक ठोस पहल इस परिषद के माध्यम से की गयी थी। इन उद्देश्यों को लेकर इस परिषद की पहली बैठक 1962 में सम्पन्न हुई थी।

1968 तक आते आते इसके उद्देश्यों में स्पष्टता आयी और जिसे इसी साल सम्पन्न हुई इसकी दूसरी बैठक में परिषद ने एक प्रस्ताव के जरिये आत्मसात किया। इस बैठक के प्रस्ताव में लिखा गया कि – “हमारे राष्ट्रीय जीवन की बुनियाद है साझा नागरिकता, विविधतता में एकता की भावना, धर्म की स्वतन्त्रता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक न्याय और सभी समुदायों के बीच भाईचारा व बहनापा। यह परिषद इन मूल्यों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते हुए इन्हें सार्वजनिक जीवन में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है”।

इस परिषद में प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के साथ साथ अन्य राजनैतिक दलों के नेताओं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष और 7 प्रभावशाली व्यक्तित्वों को इसमें प्रधानमंत्री द्वारा शामिल किया गया।

1968 में इसकी दूसरी बैठक हुई जिसमें इसमें शामिल सदस्यों की संख्या बढ़ाई गयी अब यह संख्या 39 से 55 हो गयी। इस बैठक में देश में बढ़ते सांप्रदायिक माहौल के लिए सांप्रदायिकता पर एक समिति पर गठन किया, भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद भाषायी टकरावों के मद्देनजर भाषावाद पर एक समिति बनाई गयी और एक समिति क्षेत्रवाद के बढ़ते खतरों को देखते हुए क्षेत्रवाद पर भी बनाई गयी।

1980 में इस परिषद की अगली बैठक हुई जिसमें इसका दायरा बढ़ाया गया और इसमें उद्योग जगत, व्यावसाय जगत और ट्रेड यूनियन के सदस्यों को भी शामिल किया गया। धीरे धीरे इसमें शामिल सदस्यों की संख्या और विभिन्न क्षेत्रों से लोगों को शामिल करते हुए इसका दायरा बढ़ाया गया। इसके अलावा पूर्वोत्तर में बिगड़ती स्थिति को लेकर ठोस पहल लेने और नयी और समावेशी शिक्षा नीति की ज़रूरत पर बल दिया गया।

अगली बैठक 1986 में हुई। इस बैठक में इस परिषद का एक तरह से पुनर्गठन हुआ। इसमें अन्य सदस्यों को भी जोड़ा गया और पंजाब की नाज़ुक होती स्थिति को देश की एकता के लिए खतरा बताया गया।

1990 में इसकी अगली बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस परिषद को पुनर्गठित किया। इसके दायरे को बढ़ाते हुए इसकी सदस्य संख्या 101 तक बढ़ा दी। अब इसमें अकादमिक जगत के लोगों, पत्रकारों, महिला प्रतिनिधियों और सार्वजनिक क्षेत्र में अलग अलग क्षेत्रों में पहचान बना चुके लोगों को भी शामिल कर लिया गया। 1992 में इस परिषद की एक और बैठक हुई जिसमें कश्मीर में अलगाववाद और अयोध्या राम जन्म भूमि को लेकर तीव्र हो रहे विवाद को लेकर कुछ संकल्प लिए गए।

2005 में जब कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी तब इसे फिर से पुनर्गठित किया गया। इसके सदस्यों की संख्या अब 103 हो गयी। इसकी अगली बैठक 2008 में हुई जिसमें कई राज्यों में हुईं साम्प्रादायिक घटनाओं और अल्पसंख्यकों व अनुसूचित जाति-जनजाति की स्थितियों से जुड़े मुद्दों पर संकल्प लिए गए।

इस परिषद की पंद्रहवीं बैठक 2011 में और अभी तक हुई सोलहवीं और अंतिम बैठक 2013 में हुई। इन बैठकों में भी देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव और अनुसूचित जाति जनजाति समुदायों की स्थितियों पर चर्चा विमर्श हुआ।

2013 में हुई परिषद की बैठक में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और तब तक भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार और अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शामिल न होना ज़रूर सुर्खियां बटोर ले गया लेकिन इस परिषद ने वाकई कोई ठोस कदम 1961 से लेकर अब तक उठाया हो इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते।

हालांकि नरेंद्र मोदी ने इस बैठक में न शामिल न होकर इस बात पर ही मुहर लगाई थी कि सांप्रदायिक दंगे या तनाव को लेकर उन्हें कोई सरोकार नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि यह बैठक उत्तर प्रदेश में मुज्जफरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में हो रही थी।

2014 के बाद से आठ साल बीत जाने के बाद भी इस परिषद का न तो पुनर्गठन ही हुआ है और न ही इसकी कोई बैठक। इस बाबत 2021 में राज्य गृह मंत्री नित्यानन्द राय ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया। उन्होंने कहा कि – यह सरकार निरंतर राष्ट्रीय एकता परिषद के उद्देश्यों के लिए प्रयास करती है इसलिए इसके पुनर्गठन को लेकर कोई प्रस्ताव नहीं है। समय समय पर इस परिषद की बैठकें होती हैं। अंतिम बैठक 23 सितंबर 2013 को हुई थी।

ऐसे दौर में जब देश की एकता और विविधतता को लेकर देश का माहौल ज्वालामुखी पर बैठा है। विविधतता को सम्मान देने की बजाय जबरन एक रंग, एक झण्डा, एक भाषा, एक खान-पान और यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों व दलित और आदिवासी समुदायों को निरंतर भय के साये में जीना पड़ रहा है, इस सरकार की प्राथमिकता में राष्ट्रीय एकता परिषद जैसी संस्था के प्रति उपेक्षा का रवैया न तो ठीक है और न ही अपेक्षित।

आज़ादी के 75 वर्ष पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। इसे अमृतकाल कहा जा रहा है। हर घर तिरंगा, घर घर तिरंगा जैसे अभियान पूरे जोश खरोश के साथ चल रहे हैं ऐसे में यह और ज़रूरी हो जाता है कि महज़ झंडे से एकता के प्रयासों की बजाय हिंदुस्तान जैसे देश की बहुलता और उसके सामने चुनौतियों पर गंभीर विमर्श हो और इस संस्था के उद्देश्यों को मौजूदा परिदृश्य में ठोस पहलकदमी के साथ अमल में लाया जाए।

इस संस्था ने अपने अनियमित रवैये से भले ही कोई ठोस पहल सार्वजनिक रूप से न की हो या उसके बहुत ठोस अपेक्षित परिणाम भी सामने न आए हों लेकिन इतना तो इसके गठन के समय से ही तय है कि राष्ट्रीय एकता महज़ एक भावुक कल्पना नहीं है बल्कि इस विशाल देश के लोकतन्त्र के लिए इस एकता के निर्माण की कोशिशें लगातार होते हुए दिखना चाहिए। मौजूदा सरकार चूंकि यह मान चुकी है कि अभी इसकी ज़रूरत नहीं है तब हमें नए सिरे से इस सरकार की प्राथमिकताओं को भी देखना चाहिए।

(लेखक लंबे समय से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। यहाँ व्यक्त विचार निजी हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest