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जम्मू कश्मीर: भूमि कानून में सुधारों के नाम पर छल-कपट स्थानीय लोगों को सम्पत्ति से बेदखल कर देगा!

किसी विशिष्ट राज्य के अनिवासियों को जमीन की खरीद की इजाजत न देना सिर्फ जम्मू कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे की स्थिति तक सीमित नहीं है। अन्य राज्यों में भी इसको लेकर रोकथाम के उपाय अपनाए गए हैं, ऐसे कानून हैं जिसने स्थानीय कृषक आबादी को मदद पहुँचाई है।
जम्मू कश्मीर
फाइल फोटो।

कुछ ही लोग होंगे जिन्होंने 5 अगस्त 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर के तथाकथित एकीकरण और संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए के खात्मे का अर्थ यहाँ के लोगों के अपनी जमीनों से हाथ धोने के तौर पर अंदाजा लगाया होगा। इससे पहले कि कोई इस तत्कालीन राज्य में 27 अक्टूबर को भूमि कानूनों में किये गए संशोधनों के पीछे के मकसद को भांपने की कोशिश करे, इस बात उल्लेख करना और समझना आवश्यक है कि वो कौन हैं जो जम्मू-कश्मीर में जमीनों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं।

कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का व्यापक हिस्सा यहाँ से बाहर जा चुका है और आज तक वापस नहीं लौट सका है। इस स्थिति को देखते हुए यह जानना आवश्यक है कि वे कौन से कारक हैं जो इस क्षेत्र में जमीन की बिक्री को स्वीकृति दिए जाने को अधिकृत कर रहे हैं? 

इसको लेकर कश्मीर घाटी की तुलना में जम्मू में कहीं अधिक आक्रोश व्याप्त है क्योंकि इस क्षेत्र को जो सुरक्षा अभी तक हासिल थी वह अब खत्म हो चुकी है। आज वे अपनी जमीनों के मालिकाना हक को खोने को लेकर घाटी में रह रहे लोगों की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षित हैं। जहाँ कुछ ही लोग ऐसे होंगे जो घाटी में जमीनें खरीदने की पहल करेंगे, वहीँ जम्मू इस प्रकार की खरीद-फरोख्त के लिए कहीं ज्यादा खुला होगा।

‘गुपकर अलायन्स’ जिसमें इस क्षेत्र की सभी गैर-बीजेपी राजनीतिक दल शामिल हैं, ने केंद्र के इस फैसले की निंदा की है और इसे “बिक्री के लिए जम्मू-कश्मीर” करार दिया है। सभी दलों ने इस बात की आशंका जताई है कि सरकार इस क्षेत्र, विशेषकर कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी को प्रभावित करने का इरादा रखती है। इस सबके बावजूद मुख्य प्रश्न यह है कि: वहाँ पर कौन जमीन की खरीद-फरोख्त करेगा? ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि वर्तमान परिस्थिति में घाटी के भीतर के इलाकों में कुछ पूर्व सैनिकों को बसाया जा सकता है, जिन्हें सरकार की ओर से पर्याप्त सुविधा मुहैय्या कराई जायेगी। लेकिन यह कब और कैसे होगा, इसके लिए हमें इंतजार और कयास लगाते रहना होगा!

हालाँकि इस संशोधन के क्या मायने हैं? सामान्य शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है कि भारत का कोई भी नागरिक, भले ही वह जम्मू कश्मीर का स्थायी निवासी न हो, वह अब इस क्षेत्र में जमीन खरीद सकता है और बस सकता है। जैसा कि बीजेपी आईटी सेल का इसके बारे में कहना है कि बहस इस बात को लेकर थी कि जब देश के किसी अन्य हिस्से में जमीन खरीदी जा सकती है तो जम्मू-कश्मीर में क्यों नहीं? सुनने में यह काफी लोकतान्त्रिक लग सकता है। लेकिन वास्तविकता में यह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध है जिसकी वजह से ही इस प्रकार के कानूनों का आविर्भाव हुआ था, जो कि न सिर्फ जम्मू- कश्मीर बल्कि कई अन्य राज्यों में भी इसको लेकर प्रावधान बनाए गए हैं।

यह 1927 और 1932 के दौर की बात है जब डोगरों (राजपूतों) और कश्मीरी पंडितों (दोनों ही इससे अधिक प्रभावित थे और भूमि उपयोग की महत्ता के प्रति जागरूक थे) के लगातार दबाव के चलते तत्कालीन महाराजा हरि सिंह द्वारा दो अधिसूचनाएं जारी की गई थीं, जिसमें नौकरियों सहित उनकी जमीनों और जम्मू-कश्मीर के लोगों की पहचान को बचाने का मुद्दा शामिल था। ‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ कश्मीरी पंडितों और डोगरों का नारा हुआ करता था और तत्कालीन संप्रभु शासक हरि सिंह ने इन दो अधिसूचनाओं को अपने शासनकाल में लागू कराने का काम किया था, ताकि इस क्षेत्र के लोगों की जमीनों एवं अन्य अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। विक्टोरिया स्कोफील्ड द्वारा लिखित पुस्तक ‘कश्मीर इन कनफ्लिक्ट’ के अनुसार राजा ने एक वैधानिक आदेश पारित करवाया जिसमें वंशानुगत को एक राज्य के विषय के और पर परिभाषित किया गया और सरकारी विभागों में नियुक्ति और जमीन की खरीद-फरोख्त के लिए “वंशानुगत राज्य विषय” को अनन्य अधिकारों से लैस कर दिया गया था। इस प्रकार यहाँ के मूल निवासियों के लिए भूमि का मालिकाना हक उस दौर में ही अधिकृत कर दिया गया था, जब हम आजादी भी हासिल नहीं कर सके थे। 

किसी विशिष्ट राज्य के अनिवासियों को जमीन की खरीद की इजाजत न देना सिर्फ जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे की स्थिति तक ही सीमित नहीं है। यह विचार किसान आंदोलनों और उसमें ‘जमीन जोतने वाले की’ जैसे नारों से भी उपजा था। पूर्व मुख्यमंत्री और फारूक अब्दुल्लाह के पिता शेख अब्दुल्लाह ने ही असल में जम्मू-कश्मीर में भूमि सुधारों एवं किसानों को जमीन का मालिकाना हक दिलवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। यह जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा थी जिसने द बिग लैंड एस्टेट्स एबोलिशन एक्ट, 1950 को पारित किया और ‘जमीन जोतने वाले को’ अमली जामा पहनाने का काम किया था। इसी प्रक्रिया के दौरान यह नारा भी उभरा कि जमीन यदि एक बार किसान को सौंप दी गई तो उसे ‘भू माफियाओं’ से भी सुरक्षित करने के विषय में सोचना होगा। डर इस बात को लेकर था कि जमींदार-किसान सम्बन्धों के बजाय वे नए किस्म के भूमि संबंधों को आकार दे सकते हैं।  

हिमाचल एक बेहतरीन मिसाल के तौर सामने है 

एक दूसरा जीवंत उदाहरण हिमाचल प्रदेश के तौर पर हमारे सामने है जहाँ किसानों के हाथ में जो जमीनें हैं उसकी सुरक्षा के इंतजामात किये गए हैं। इसे या तो भूमि सुधारों एवं किरायेदारी कानूनों के जरिये सुरक्षित किया गया है या 1970 के दशक में लागू किये गए भूमि वितरण के जरिये जिसमें सरकार ने सभी भूमिहीन किसानों को ‘नई जमीनें’ (नौ तौर) मुहैय्या कराई थी। इनमें से ज्यादातर लाभार्थी अनुसूचित जातियों एवं अन्य पिछड़े तबके के कृषक वर्ग से ताल्लुक रखते थे। जम्मू कश्मीर के विपरीत जहाँ पिछले कानून के तहत वहां के स्थायी निवासी को राज्य में भूमि खरीदने का अधिकार हासिल था- जबकि हिमाचल प्रदेश में भले ही कोई राज्य का पिछले 100 वर्षों से स्थाई निवासी ही क्यों न हो, इसके बावजूद वे राज्य में जमीन के मालिकाना हक के हकदार नहीं हो सकते, और आज भी कानून वैसा ही बना हुआ है।

हिमाचल प्रदेश राज्य में जमीन खरीदने के लिए किसी का भी किसान होना आवश्यक शर्त है। कोई कितने वर्षों से यहाँ रह रहा हो, वह इस बिना पर यहाँ पर जमीन खरीदने का हकदार नहीं बन जाता है। जहाँ इस विचार के खिलाफ भी तर्क दिए जात्ते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि जिस दौरान राज्य की परिकल्पना दूरदर्शी सोच वाले डॉ वाई. एस. परमार- जो कि यहाँ के पहले मुख्यमंत्री भी थे - ने विधान सभा में विभिन्न बहसों में किसानों के लिए भूमि अधिकारों की रक्षा के पक्ष में कई तर्क पेश किये थे। इसमें सबसे प्रमुख था कि यदि राज्य को अपने बलबूते पर खड़ा करना है तो इसकी मूल संपत्ति को यहाँ के किसानों के पास ही बने रहने देना चाहिए।

इसी तरह कुछ साल पहले पड़ोसी राज्य उत्तराखंड द्वारा भी गैर-राज्य अधिवासियों को भूमि की बिक्री को प्रतिबंधित किये जाने वाले कानूनों को प्रख्यापित किया। हालाँकि इससे पहले यहाँ पर किसी के लिए भी खरीद-फरोख्त की खुली छूट थी। जिसका परिणाम, दिवंगत प्रोफेसर आर. एस. टोलिया जो कि राज्य के पूर्व मुख्य सचिव थे, के अनुसार 50% से अधिक संपत्ति पहले से ही गैर-राज्य के व्यक्तियों के हाथों में जा चुकी थी। 

यह विचार जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के समग्र विकास सूचकांकों पर भी प्रकाश डालने का काम करता है। मुझे याद आता है कि जब उत्तराखंड राज्य के निर्माण का काम हो रहा था तो उस दौरान मैं अक्सर उस राज्य के दौरे पर जाया करता था। राज्य में मौजूद सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के मन में यदि किसी पहाड़ी राज्य के विकास के मॉडल की परिकल्पना कौंधती थी तो वह अक्स हिमाचल प्रदेश का ही होता था। इसके मॉडल के तौर पर यहाँ के लोगों के भूमि अधिकारों को संरक्षित करना और गैर-खेतिहर लोगों द्वारा जमीन की खरीद पर रोक की बात सबसे अहम थी।

भूमि संरक्षण की बात यहीं पर खत्म नहीं हो जाती है। यहाँ तक कि हिमाचल के भीतर भी लाहौल और स्पीति एवं किन्नौर ऐसे दो जिले हैं जहाँ हिमाचल के अन्य इलाकों के किसान तक को जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है।

भूमि कानूनों की सुरक्षा के साथ-साथ किसानों के हितों की सुरक्षा का काम आज भी जारी है। लेह में अब क्या होगा, हम इसके बारे में कयास नहीं लगा सकते। लद्दाख के निवासी अपने भूमि अधिकारों की सुरक्षा को लेकर माँग कर रहे हैं, जिसपर अभी भी अस्पष्टता बनी हुई है कि वे छठी अनुसूची के अंतर्गत आते हैं या नहीं। इस क्षेत्र में आसान शर्तों पर जमीन की खरीद-फरोख्त के पीछे की मुख्य वजहों में से एक यहाँ पर फोटोवोल्टेइक ऊर्जा की अपार संभावनाओं के चलते बनी हुई है। अडानी जैसे बड़े दिग्गजों की मैदान में मौजूदगी के चलते इस क्षेत्र में भी भूमि कानूनों में यदि संशोधन कर दिया जाए तो इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होनी चाहिए।

यहाँ की जमीनों को बेचे जाने के पक्ष में कुछ भलेमानुषों की ओर से जो तर्क पेश किये जा रहे हैं उनमें से एक यह है कि इस प्रकार की जमीनों की बिक्री की अनुमति नहीं दिए जाने की वजह से असल में राज्य के किसानों को उनके वैधानिक लाभ की स्थिति से वंचित करने का काम किया जा रहा है। इसके बारे में कहा जाता है कि यदि यहाँ पर जमीन खुलेआम बेचने की अनुमति होती तो इनके पास पानी की तरह पैसा बहकर आता। लेकिन हकीकत में देखें तो ये भू माफिया हैं जो इस पूंजीवादी विकासात्मक मॉडल में अकूत धन-सम्पत्ति को बटोरते हैं और किसान जो कि बाद में भूमिहीन के तौर पर इसके सबसे बड़े भुक्तभोगी बनकर सामने नजर आते हैं।

इस प्रकार के विकास के मॉडल का रोड मैप कृषक समुदाय की जीवन शैली में आये बदलावों की कहानी खुद बयां करता है। जम्मू-कश्मीर के किसान अपनी केसर और सेव की फसल से अच्छी खासी कमाई करने के तौर पर जाने जाते हैं। हिमाचल में सेव पर निर्भर अर्थव्यवस्था 5,000 करोड़ रूपये सालाना से अधिक की हो चुकी है और ऑफ-सीजन में होने वाली सब्जियों की बिक्री से इसमें दो हजार करोड़ रुपयों का इजाफा हो जाता है।

भूमि कानूनों में संशोधन की बात फिलहाल भले ही गैर-महत्व की जान पड़े, लेकिन जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से बड़े शहरों में जीना दूभर होने लगेगा, इन तीनों राज्यों में बड़े निवेश की गुंजाइश तेजी से बनने लगेगी। इन बड़े भू-माफियाओं को अपना खेल खेलने की इजाजत देने का अर्थ है कि कृषक वर्ग और उनके बच्चों ने, जो कि अब छोटे शहरों में मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से के तौर पर मौजूद है, ने जो कुछ भी अभी तक कमाया है और उन्नति की है, वह सब एक झटके में बर्बाद हो जाने वाला है। 

विकल्प के तौर पर इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य और उसके लोगों के समान विकास को लेकर प्राथमिकता निर्धारित हो। जमीनें यदि हाथ से जाती हैं तो इसका अंत लोगों के कष्टों में जाकर होगा, और राज्य को भी अतीत में जो हासिल हुआ था उससे भी हाथ धोने के लिए अभिशप्त होना पड़ सकता है।

लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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