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जम्मू-कश्मीर : विश्व का सबसे लंबा रेल पुल हिमालय के गांवों के लिए बना उदासी का कारण 

जम्मू और कश्मीर के रियासी ज़िले में दुनिया का सबसे बड़ा रेल पुल बनने जा रहा है इसको जोड़ने वाली सुरंगों के निर्माण ने पहाड़ के गांवों को बिना पानी के और बेउम्मीद छोड़ दिया है।
jammu and kashmir
राजिंदर सिंह अपने गांव सिरमघन में बेकार और अब जीर्ण पड़ी लकड़ी और पत्थर की पानी की मिल में बैठे हैं।

जम्मू और कश्मीर के रियासी ज़िले की शिवालिक पहाड़ियों में अगला "मानव निर्मित-आश्चर्य" बनने वाला है। इंजीनियरिंग का यह चमत्कार नई दिल्ली के क़ुतुब मीनार की ऊंचाई से पांच गुना और पेरिस में प्रतिष्ठित एफिल टॉवर से 35 मीटर लंबा होने जा रहा है। चनाब रेलवे पुल – जिसके 2022 तक पूरा होने की संभावना है - माना जाता है कि यह क्षेत्र में पर्यटन, उद्योग और विकास को बढ़ावा देगा।

लेकिन पुल के इर्द-गिर्द मीडिया की चकाचौंध के बावजूद – जिसे कि चनाब नदी के पानी से 359 मीटर की ऊँचाई पर बुक्कल और कौरी के बीच बनाया जा रहा है - भोमग ब्लॉक के निवासी महत्वाकांक्षी रेलवे परियोजना जो कश्मीर घाटी को शेष भारत से जोड़ेगी से अधिक उत्साहित नही हैं। क्योंकि पुल ग्रामीणों के लिए केवल उदासी लाया है।

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रियासी ज़िले के बक्कल गांव में निर्माणाधीन रेलवे पुल का एक दृश्य।

कभी पानी के झरनों और प्राचीन जलस्रोतों से भरपूर रहने वाले इस क्षेत्र को अब अपने इतिहास के सबसे बड़े जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। रेलवे सुरंग के निर्माण की वजह से – जिसका लक्ष्य आगामी पुल को जोड़ना है – ने भोमग ब्लॉक के गांवों में सभी ताज़ा पानी के स्रोत पूरी तरह से सुखा दिए हैं।

स्थानीय निवासियों के अनुसार, पानी जो सुरंग से बाहर निकलता है, सुरंग के अंदर स्प्रे कंक्रीट के भारी उपयोग के कारण रसायनों के साथ मिश्रित होने से यह न तो पशु और न ही फसलों के लिए उपयोगी है।

पानी के संकट ने शहरवासियों का सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। 42 साल की शकुंतला देवी को अब प्रतिदिन पानी लाने के लिए खड़ी और ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पटरियों के जरिए पांच से छह घंटे की दूरी तय करनी पड़ती है। उनके पति प्रेम नाथ, 48 वर्षीय है, भी बिजली मिल पर अनाज पीसने के लिए उस ही रास्ता से जाते हैं जो बिजली की खराबी के कारण दिन के दौरान केवल कुछ घंटों के लिए कार्यात्मक रहता है। और उनके पड़ोसी, 38 वर्षीय, राजिंदर सिंह, जो एक समय पानी से चलने वाली लकड़ी और पत्थर की चक्की के एक गौरवशाली मालिक थे, को गुजर-बसर के लिए छोटे-मोटे रोजगार ढूँढने पड़ पड़ रहे हैं।

सुरंग 5 के पास सरमेघन में रहने वाले 45 वर्षीय जगजीवन राम ने बताया, “जब निर्माण कार्य शुरू हुआ, तो हमें बताया गया था कि पुल के बनने से गाँव में समृद्धि आएगी। हमें नौकरी मिलेगी और पर्यटन का विकास होगा।" उन्होंने आरोप लगाया, “लाभ मिलना तो दूर, विकास ने हमें संकट में डाल दिया है। भला पानी के बिना कोई कैसे खुशी से रह सकता है?”

भारतीय रेलवे वर्तमान में ज़िले के भीतर एक दर्जन से अधिक सुरंगों का निर्माण कर रही है और स्थानीय अधिकारियों के अनुसार, बाकी इलाकों के लोगों को भी समान समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जब इलाके के जल स्रोत धीरे-धीरे सूखने लगे, तो ग्रामीणों ने कहा, प्रशासन की तरफ से उन्हें बताया गया था कि ताज़ा जल स्रोत अपने आप पुनर्जीवित हो जाएंगे। उन्होंने दावा किया कि पारिस्थितिक आपदा  की वास्तविकता उन पर सात मानसून के बाद ज़ाहिर हुई है।

वास्तव में, स्थानीय निवासियों के आवाज़ उठाने के बाद, काम में लगी एजेंसियों कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड, उत्तर रेलवे और स्थानीय प्रशासन ने ट्रक टैंकरों के माध्यम से पीने के पानी की आपूर्ति शुरू की है।

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रियासी जिले के भोमग ब्लॉक में सिरमघन गांव में एक सूखी नदी का दृश्य।

भोमग के ब्लॉक अध्यक्ष अशोक ठाकुर ने कहा, “प्रत्येक गाँव और रिहायश की पीने के पानी की आवश्यकता दैनिक आधार पर 10-12 पानी के टैंकर हैं, जबकि निवासियों को केवल 2-3 टैंकर मिलते हैं। फिर भी आपूर्ति नियमित नहीं है। गाँव के आधे हिस्से को अब पानी इकट्ठा करने के लिए रोजाना पाँच से छह घंटे तक का समय लगाना पड़ता है।”

उन्होंने आगे कहा, "लेकिन टैंकर पानी के प्राकृतिक स्रोतों का कोई विकल्प नहीं हो सकते हैं," उन्होंने कहा, "मेरे ब्लॉक में 14 से अधिक पानी की मिलें ख़राब हैं। सिर्फ कंसार और बक्कल गांव में ही किसान अब 62 एकड़ से अधिक खेत में धान नहीं उगा सकते क्योंकि उनके पास खेतों की सिंचाई करने के लिए कुछ भी नहीं है। अब  यहाँ की कृषि पूरी तरह से बारिश पर निर्भर हो गई है।”

हालांकि पुल का काम 2004 में शुरू हुआ था, लेकिन तब से, विभिन्न मौकों पर सुरक्षा चिंताओं के अलावा  कई मुद्दों पर काम ठप हुआ है।

शुरू में, गाँव की आबादी उन दो समूहों में विभाजित हो गई थी जो मानते थे कि परियोजना उनके लिए निर्माण स्थल पर रोज़गार का साधन बनेगी और वे लोग जो इस परियोजना के ख़िलाफ़ थे। आज, ग्रामीणों की शिकायत है कि निर्माण कंपनियां उन्हें निर्माण स्थल पर कोई भी नौकरी नहीं दे रही हैं।

45 वर्षीय मोहन लाल, जो स्थानीय निवासियों के बीच बैठे थे और कुछ साल पहले निर्माणाधीन पुल की साइट पर एक दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते थे, ने बताया, “वे बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के मज़दूरों को पसंद करते हैं। क्योंकि ठेकेदार अपनी मर्जी के अनुसार आसानी से उनका शोषण कर सकते हैं। बाहरी होने के कारण, वे अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते। लेकिन, स्थानीय मजदूरों को अपने अधिकारों का दावा करने के लिए कुछ समय के भीतर ही  संगठित किया जा सकता है, अगर वे समय पर उन्हे उनकी मजदूरी नहीं मिलती हैं। शुरुआत में, आसपास के गाँवों के स्थानीय मजदूर निर्माण गतिविधियों में लगे हुए थे।” अन्य लोगों ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई। 

इसी तरह, उन्होने आगे बताया कि उन्हें कोई उम्मीद नहीं है कि परियोजना भविष्य में उन्हें रोजगार प्रदान करेगी। “यह शहरों के उन समृद्ध लोगों के लिए है जो निकट भविष्य में यहाँ अपने व्यापार/व्यवसाय स्थापित करेंगे और इसके लिए क्षेत्र में जमीन खरीद रहे हैं। हम फिर से उनके होटल, रेस्तरां और दुकानों में छोटे-मोटे काम करेंगे। निवासियों में से एक ने कहा कि केवल अमीर ही इस क्षेत्र में संभावित पर्यटन से लाभ अर्जित करेंगे।

हाल ही में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने परियोजना की प्रगति की समीक्षा की और इसके शीघ्र पूरा करने के लिए स्पष्ट निर्देश दिए हैं।

ग्रामीणों को डर है कि एक बार जब रेलवे अधिकारी परियोजना को पूरा करने के बाद इलाके से चले जाएंगे, तो उन्हें पीने के पानी की आपूर्ति भी नहीं मिलेगी। ठाकुर ने दावा किया, "कई ग्रामीण, जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं, वे अन्य क्षेत्रों में पलायन करने की योजना बना रहे हैं।"

इस बीच, ज़िला प्रशासन ने केंद्रीय भूजल बोर्ड को एक सर्वेक्षण करने और पानी के वैकल्पिक स्रोत खोजने का निर्देश दिया है। यह सभी जल की कमी वाले गांवों में जल संरक्षण परियोजनाओं पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है।

जिला विकास आयुक्त इंदु कंवल चिब ने कहा, “ज़िले में, रेलवे सुरंगों से आसपास के 14 गाँव (जल संकट से) प्रभावित हुए हैं, जिससे जलवाही स्तर को नुकसान पहुँचा है। यह लंबे समय तक चलने वाली समस्या नहीं है। सुरंग के पूरा होने के समय, संरचना को सील करने के लिए जलरोधी झिल्ली का उपयोग किया जाता है। इससे अंततः भूजल पुनर्भरण यानि दोबारा से भरने लगता है और जल स्रोतों दोबारा से जीवित हो जाएंगे।”

लेकिन विशेषज्ञ संशय में हैं। भट, जो एक भूविज्ञानी है और जम्मू विश्वविद्यालय के भद्रवाह परिसर में रेक्टर हैं, ने बताया, “यदि भूजल चैनल को पूरी तरह से काट दिया गया है या फिर अवरुद्ध कर दिया गया हैं और उसे दूसरी दिशा में मोड़ दिया गया हैं, तो सुरंगों के अंदर जलरोधी झिल्ली की स्थापना के बाद भी पुराने जल स्रोत गांवों में पुनर्जीवित नहीं होंगे। लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि भविष्य में अन्य स्थानों पर पानी अप्रत्याशित रूप से निकल सकता है।"

उन्होंने कहा, “सभी विकास परियोजनाओं के लिए यह अनिवार्य है कि परियोजना के निर्माण से पहले पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन और पर्यावरण प्रबंधन योजना लागू होनी चाहिए। यदि कार्य निष्पादन करने वाली एजेंसियों ने भूवैज्ञानिकों या हाइड्रोलॉजिस्टों की सिफ़ारिशों का पालन किया होता, तो इस संकट से बचा जा सकता था। इंजीनियरों को खुदाई के काम से पहले और बाद में भूमिगत जल स्रोतों को ध्यान में रखना चाहिए था।“

हालाँकि, कई ग्रामीणों ने ज़िला विकास आयुक्त के आशावाद को सही समझा है। वे स्थानीय नाग देवता के मंदिर में लगातार अनुष्ठान कर रहे हैं, यह उस जगह के पास है जहां से एक समय जल की धारा निकलती थी। उन्हें विश्वास है कि उनकी प्रार्थना जल देवताओं तक पहुंचेगी।

लेखक जम्मू-कश्मीर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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