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जम्मू: नई मीडिया पॉलिसी के हिसाब से पत्रकारों का काम सिर्फ़ ‘सत्ता की शान में क़सीदे पढ़ना भर है’

नई “मीडिया पॉलिसी-2020” सरकार को समाचारों की विषय-वस्तु की जाँच करने और यह तय करने कि कौन सी ख़बर “झूठी, राष्ट्र-विरोधी और अनैतिक” है, की बेलगाम ताक़त प्रदान करने का काम करती है।
जम्मू
श्रीनगर, कश्मीर में न्यू मीडिया पॉलिसी 2020 के खिलाफ विरोध प्रदर्शन. | फ़ोटो साभार: ट्विटर

जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा पिछले महीने जिस नई मीडिया पॉलिसी को अमल में लाया गया है उसको लेकर जम्मू में पत्रकारों के बीच में से भी तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। जहाँ इस पॉलिसी को कश्मीर के पत्रकारों के बीच में भारी आलोचना का शिकार होना पड़ा है, और उन्होंने तत्काल इसे वापस लिए जाने की मांग की है, वहीं जम्मू से भी कुछ पत्रकार इसके खिलाफ मजबूती से सामने आए हैं।

नई "मीडिया पॉलिसी-2020" सरकार को इस बात को निर्धारित करने के असीमित अधिकार प्रदान करती है जिसमें वह समाचार रिपोर्टों की सामग्री की जांच करने से लेकर यह निर्धारित करने कि कौन सी खबर "झूठी, राष्ट्र-विरोधी और अनैतिक" है, के लिए स्वतंत्र है।

यह नई नियमावली सूचना और जनसंपर्क विभाग (डीआईपीआर) को मीडिया की निगरानी करने की अनुमति प्रदान करती है, और इसके तहत किसी भी व्यक्ति या संगठन के खिलाफ एक्शन लिया जा सकता है।

53-पेज के इस पॉलिसी डॉक्यूमेंट में लिखा है "किसी भी व्यक्ति या समूह के फर्जी समाचार, अनैतिक या राष्ट्रविरोधी गतिविधियों या यहां तक कि चोरी में लिप्त पाए जाने की स्थिति में उनका डी-एम्पैनेल्ड किया जा सकता है और साथ ही उनके खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई की जा सकती है।"

जम्मू से निकलने वाले प्रमुख समाचार पत्र द न्यूज़ नाउ के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार ज़फ़र चौधरी का कहना था "जब से यह पॉलिसी लागू हुई है, तबसे एक संपादक के नाते मेरे सामने जो भी स्टोरी आती है, और जिस भी स्टोरी को मैं देखता हूँ, तो हर समय मेरे दिमाग में यही ख्याल सताता रहता है कि अगर यह स्टोरी छपने दी तो कहीं मेरा रिपोर्टर सलाखों के पीछे न डाल दिया जाए।"  वे आगे कहते हैं “सरकार कौन होती है यह पता लगाने के लिए कि कौन सी खबर फर्जी है और कौन सी देश-विरोधी। फर्जी खबरों के बारे में तय करने का काम स्वतंत्र निकायों को करना चाहिए जो कि मुख्यधारा की मीडिया और सरकारी नियन्त्रण से मुक्त हों।”

एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार जोकि एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र के साथ सम्बद्ध हैं, का कहना था कि इस नए पॉलिसी के जरिये “पत्रकारों की आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है। सरकार चाहती है कि पत्रकार उनके भोंपू की तरह काम करना शुरू कर दें। कल को यदि मैं कोई ऐसी खबर प्रेषित कर दूँ जिसे सरकार के लिए हजम करना मुश्किल होने लगे तो बेरहम कानूनों के तहत वे मुझे हिरासत में डाल सकते हैं। यह पॉलिसी प्रेस की स्वतंत्रता के पर करतने का एक प्रयास है।”

पत्रकारिता की सांसों को घोंटने का प्रयास  

नई मीडिया पॉलिसी अखबारों के "इम्पैनलमेंट" (मनोनयन) किये जाने के लिए एक विस्तृत तंत्र का विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें किसी अख़बार/न्यूज़ पोर्टलों को "सरकार की ओर से विज्ञापन जारी करने" के पात्रता के लिए इम्पैनल करने के लिए उनकी "पृष्ठभूमि के बारे में जांच" का उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि पत्रकारों तक को मान्यता प्राप्त होने से पहले "संबंधित अधिकारियों की सहायता से किए गए सत्यापन" में शामिल होना पड़ेगा। इस प्रक्रिया का उद्देश्य इस बात को सुनिश्चित करना है कि किसी भी न्यूज़ आउटलेट को विज्ञापन जारी करने से पहले उसके बारे में यह सुनिश्चित कर लिया जाए कि वे सरकार द्वारा निर्धारित निर्दिष्ट मानकों को पूरा कर रहे हैं या नहीं।

मीडिया पॉलिसी के शब्दों में “ऐसे समाचार पत्रों, प्रकाशनों, और पत्र-पत्रिकाओं को किसी भी प्रकार के विज्ञापन जारी नहीं किये जायेंगे जो सांप्रदायिक भावनाओं को उकसाने या उकसाने की कोशिशों को हवा देने के काम में संलग्न हों। हिंसा का समर्थन करने, आमतौर पर शालीनता के व्यापक मानदंडों का उल्लंघन करने या कोई भी ऐसे काम को अंजाम देने या ऐसी किसी भी सूचना को प्रचारित करने में अपनी भूमिका निभा रहे हों, जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के प्रति पूर्वाग्रहों से भरी हो।”

जम्मू की युवा पत्रकार और न्यूज़ पोर्टल स्ट्रेट लाइन की संपादक पल्लवी सरीन माँग करती हैं कि इस पॉलिसी को सरकार द्वारा तत्काल वापस लिया जाना चाहिए। उनका कहना है कि “जब कोई अपने स्वयं के समाचार पत्र या पत्रिका को पंजीकृत कराता है तो उस दौरान भी उन्हें सत्यापन के दौर से गुजरना तो पड़ता ही है। अन्यथा उनके समाचार पत्रों का पंजीयन हो पाना संभव नहीं है। लेकिन इस मीडिया पॉलिसी की वजह से जिस किसी को भी विज्ञापनों की दरकार है, उन्हें इस सत्यापन के दुश्चक्र से एक बार फिर से होकर गुजरना पड़ेगा। मेरे विचार में यह बेहद अजीबोगरीब फैसला है, एक बेमतलब की परेशानी जिससे पत्रकारों को दो-चार होना पड़ रहा है। मेरी व्यक्तिगत राय में, इसे वापस लिया जाना चाहिए।”

नीतिगत दस्तावेज़ पत्रकारिता को दिशा-निर्देशित करने के लिए पूर्ववर्ती राज्य के दौरान कानून और व्यवस्था की समस्याओं का भी हवाला देता है। मीडिया पॉलिसी के अनुसार “जम्मू कश्मीर में कानून व्यवस्था और सुरक्षा सम्बंधी कई महत्वपूर्ण स्थितियों को ध्यान में रखने की जरूरत पड़ती है। इसे लगातार छद्म युद्ध को जारी रखना पड़ रहा है जिसे सीमा पार से लगातार समर्थन और उकसावा दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यह नितांत आवश्यक है कि शांति को बिगाड़ने वाली किसी भी असामाजिक और राष्ट्र-विरोधी तत्वों के प्रयासों को हर हाल में विफल किया जाए।”

कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन का कहना है कि यह पॉलिसी “पत्रकारिता को पूरी तरह से खामोश कर देने, ब्लैकआउट और यहाँ तक कि खत्म कर देने वाली साबित हो रही है।” भसीन आगे कहती हैं कि इसे लागू करने के बारे में दो तरह से सोचा जा सकता था। “पहला तरीका तो यह है कि जो संगठन सरकार के इशारे पर चलने से इंकार कर देते हैं, उनके वित्तीय प्रबन्धन के रास्तों में इतने अवरोधक खड़े कर दिए जाएँ कि उसका दम ही घुटने लग जाए। और दूसरा उन पत्रकारों पर व्यक्तिगत तौर पर फेक न्यूज़ और राष्ट्र-द्रोही होने का इल्जाम लगाकर इसे लागू किया जा सकता है, जो इस नीति के अनुपालन की अवहेलना कर रहे हैं।”

भसीन कहती हैं कि पत्रकारिता जिन मानकों पर खड़ी होनी चाहिए, यह पॉलिसी उसी को धता बताने का काम कर रही है। वे कहती हैं “किसी भी पत्रकार का दायित्व ही यही होता है कि वह जनता के हितों के रक्षक के तौर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे और सरकार को उसकी कमियों के लिए जिम्मेदार ठहराए। जबकि यह पॉलिसी इसके ठीक उलट काम करने के लिए कहती है। यहाँ पर उल्टा सरकार ही पत्रकार को जवाबदेह ठहराने पर तुली हुई है।”

मीडिया की भूमिका

नई मीडिया पॉलिसी मीडिया से जुड़े लोगों को “मीडिया में सरकार के कामकाज के बारे में एक बेहतर नैरेटिव को प्रस्तुत करने पर अपना ध्यान केंद्रित करने" के लिए जोर देती है। मीडिया के रोल के बारे में बताते हुए भसीन का कहना है कि उसकी भूमिका हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज को सामने लाने का है, न कि सरकार की पीआर एजेंसी के बतौर पर खुद को साबित करने का। “पत्रकारिता को चाहिए कि वह शासक और शासित के बीच एक पुल के बतौर स्थापित करे। लेकिन नई मीडिया नियमावली के तहत हमारा काम अब सिर्फ शासक की प्रशंसा के गीत गाना भर रह गया है। यह मीडिया के रोल को पूरी तरह से पीआर एजेंसी तक सीमित कर देना है। जबकि सरकार के पास पहले से ही खुद की पीआर एजेंसी मौजूद है। ऐसे में उसे किसी अन्य की जरूरत क्यों है? वे सवाल करती हैं।

जम्मू के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार ने गुमनाम रहने की शर्त पर बताया है कि अभी तक पत्रकार की भूमिका समाज की कुरीतियों को उजागर करने की थी। “आज सरकार ऐसे पत्रकारों को धमकाने में लगी है जो समाज में व्याप्त बुराइयों पर लिखने का साहस दिखाते हैं। आज पत्रकारों को एक ऐसी स्थिति की ओर धकेला जा रहा है जहाँ उन्हें कुछ भी छापने से पहले इजाजत लेनी पड़ रही है। जहाँ तक जम्मू कश्मीर का प्रश्न है तो वे नहीं चाहते कि यहाँ की असली तस्वीर बाहरी दुनिया को नुमायाँ हो सके” उन पत्रकार का वक्तव्य था।

जम्मू अपनी चुप्पी क्यों नहीं तोड़ रहा है?

इस सिलसिले में दो दिन पहले श्रीनगर में पत्रकारों के एक दल ने एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया था, जिसमें नई मीडिया पॉलिसी को निरस्त किये जाने की माँग की गई थी। कश्मीर में रह रहे पत्रकारों के बीच इस नई मीडिया नीति से उपजने वाले खतरों के बारे में मुखर विरोध तभी से देखने को मिलना शुरू हो गया था, जब 2 जून को इसका अनावरण किया गया था। लेकिन जम्मू इलाके में इसके प्रति प्रतिक्रिया आमतौर पर न के बराबर देखने को मिली है। प्रेस क्लब ऑफ़ जम्मू जैसी प्रमुख ईकाई की ओर से इस बारे में अभी तक कोई भी आधिकारिक बयान जारी नहीं किया जा सका है।

न्यूज़क्लिक ने इस बारे में जब जम्मू प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष अश्वनी कुमार से पूछा तो उनका कहना था कि वे लोग मीडिया पॉलिसी का अध्ययन कर रहे हैं, और कुछ दिनों के बाद ही वे इस स्थिति में होंगे कि इसके बारे में कुछ कह सकें। न्यूज़क्लिक ने इस बीच कई पत्रकारों से भी इस बाबत उनकी चुप्पी के पीछे के कारणों को जानने की कोशिश की। कईयों ने तो टिप्पणी करने से इंकार कर दिया, कुछ पॉलिसी के समर्थन में थे जबकि कई अन्य ने अपनी चिंताओं को व्यक्त किया है।

ज़फ़र चौधरी के अनुसार “कश्मीर की तरह जम्मू में स्वतंत्र पत्रकारों का कोई विशाल समूह नहीं है। ज्यादातर पत्रकार स्थापित समाचार पत्रों से सम्बद्ध हैं, और वे पहले से ही उन्हीं नीतियों का अनुसरण कर रहे थे, जो पहले से ही अघोषित तौर पर यहाँ पर जारी थी।”

चौधरी कहते हैं, “इनमें से अधिकतर अख़बार सरकारी विज्ञापनों और सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे जिन्दा हैं। उनके विचार में यदि वे कोई भी ऐसी स्टोरी प्रकाशित करते हैं जिसे सरकार सही नहीं मानती तो उन्हें दण्डात्मक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में आप कैसे सोच सकते हैं कि कौन इस नियमावली के खिलाफ आवाज उठाने की हिमाकत कर सकता है?”  

अपनी पहचान उजागर न किये जाने की शर्त पर जम्मू के एक अन्य पत्रकार का कहना था कि “हर कोई इस मीडिया पॉलिसी से खुद को ठगा महसूस कर रहा है, लेकिन यहाँ के पत्रकारों को अपनी सीमाएं पता हैं।”

जब यही सवाल जम्मू के एक वरिष्ठ पत्रकार से पूछा गया तो उनका कहना था: "मैं ऐसे किसी भी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता।"

मूल आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Jammu: New Media Policy Wants Journalists to ‘Sing Praises of the Ruler

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