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जस्टिस अरुण मिश्रा के फ़ैसले से रिलायंस जियो को फ़ायदा, वोडाफोन को झटका

जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट की बेंच के हालिया फ़ैसले, जो उनके रिटायरमेंट से पहले के कुछ आख़िरी फ़ैसलों में से एक है, कथित एजीआर या समायोजित सकल राजस्व मामले पर दिया गया फ़ैसला है।उनके इस फ़ैसले से भारत के दूरसंचार क्षेत्र में दो ही कंपनियों का एकाधिकार रह जाने की आशंका है।
जस्टिस अरुण मिश्रा के फ़ैसले से रिलायंस जियो को फ़ायदा, वोडाफोन को झटका

1 सितंबर को जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और एमआर शाह की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल को लेकर पिछले भुगतान से जुड़े उस कथित एजीआर (या समायोजित सकल राजस्व) मुद्दे पर फ़ैसला सुनाया है, जिसके लिए दूरसंचार विभाग (DoT) निजी कंपनियों से भुगतान की मांग कर रहा है।

2 सितंबर को सेवानिवृत्त होने से पहले न्यायमूर्ति मिश्रा के कुछ आख़िरी फ़ैसलों में से एक यह फ़ैसला, दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा दायर की गयी याचिकाओं और अक्टूबर,2019 के न्यायालय के पहले वाले उस फ़ैसले से सामने आये दूरसंचार कंपनियों द्वारा सरकार को बकाये राशि के समयबद्ध भुगतान अनुसूची की अनुमति देने को लेकर था। उस फ़ैसले ने ग़ैर-दूरसंचार राजस्व को शामिल करने के लिए एजीआर की विस्तारित परिभाषा को स्वीकार कर लिया था।

हालांकि दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा 20-वर्षीय अनुसूची प्रस्तावित करने के बाद पिछले बकाये के लिए दूरसंचार कंपनियों ने 15-वर्षीय भुगतान अनुसूची की मांग की थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इन दूरसंचार कंपनियों (telcos) को सिर्फ़ 10-वर्ष की भुगतान अनुसूची प्रदान की।

डेढ़ दशक पहले सरकार के लाइसेंस शुल्क व्यवस्था से हटने और राजस्व-साझाकरण व्यवस्था में प्रवेश करने के बाद, टेलीकॉम कंपनियों ने लाइसेंस फ़ीस और स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क के रूप में अपने एजीआर का एक निश्चित प्रतिशत दूरसंचार विभाग (DoT) को देने पर सहमति व्यक्त की थी।

अक्टूबर 2019 के अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दूरसंचार विभाग (DoT) की दलीलों से सहमति जतायी थी और ऐलान किया था कि एजीआर की गणना स्पेक्ट्रम धारक द्वारा अर्जित सभी राजस्व को मिलाकर की जायेगी, जिसमें स्पेक्ट्रम का प्रत्यक्ष उपयोग शामिल नहीं है।

नतीजतन, दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा टेलीकॉम कंपनियों से बड़े पैमाने पर पैसों की मांग की गयी थी, ये रक़म वोडाफ़ोन/आइडिया से 58,254 करोड़ रुपये, एयरटेल से 43,980 करोड़ रुपये और टाटा टेलीसर्विसेज़ से 16,798 करोड़ रुपये (जिसे एयरटेल द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया है) थी।

हालांकि, शीर्ष अदालत ने इस सवाल पर फ़ैसला करने से इंकार कर दिया कि क्या राष्ट्रीय कंपनी क़ानून न्यायाधिकरण (NCLT) के सामने उन कंपनियों द्वारा रखे गये स्पेक्ट्रम उन कार्यवाहियों के तहत बेचे जा सकते हैं, और कौन से पक्ष एजीआर द्वारा देय राशि के लिए उत्तरदायी होंगे। यह अहम मुद्दा अनसुलझा रह गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रिब्यूनल इस विवादास्पद प्रश्न पर निर्णय लेने वाला उपयुक्त मंच है। और महत्वपूर्ण रूप से इसने फ़ैसला सुनाया कि कोई भी कंपनी,जो स्पेक्ट्रम शेयरिंग और ट्रेडिंग समझौतों के तहत इन दिवालिया कंपनियों द्वारा अधिकृत स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल नहीं कर रही है, वह बाद के एजीआर बक़ाया के लिए ज़िम्मेदार होगी।

नतीजतन,रिलायंस जिओ (रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड का हिस्सा, भारत और एशिया के सबसे अमीर शख़्स और दुनिया के सबसे अमीर शख़्सियतों में से एक,मुकेश अंबानी की अगुवाई में देश की सबसे बड़ी निजी कॉर्पोरेट इकाई), जो रिलायंस इनफ़ोकॉम लिमिटेड (जो कभी उस अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली कंपनी थी, जो मुकेश अंबानी के छोटे भाई हैं और जो अब आर्थिक तंगी से घिर चुके हैं) द्वारा अधिकृत स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर रही है और एयरटेल,जो इस तरह के समझौतों के तहत वीडियोकॉन और एयरसेल द्वारा अधिकृत स्पेक्ट्रम का इस्तेमल कर रहे हैं, उन दिवालिया कंपनियों के एजीआर बक़ाया के लिए ज़िम्मेदार नहीं होगा, जिनके स्पेक्ट्रम का वे इस्तेमाल कर रहे हैं। क़ानून की यह व्याख्या निश्चित रूप से विवादास्पद है।

इस फ़ैसले के बाद से वोडाफ़ोन/आइडिया सबसे बड़े वित्तीय बोझ का सामना कर रहा है, जिसकी राशि 54,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की है। इस फ़ैसले के तुरंत बाद, कंपनी के शेयर की क़ीमत भारत के दूरसंचार क्षेत्र के "दो कंपनियों के एकाधिकार" की चर्चा के बीच तेज़ी से गिर गयी। हाल की मीडिया रिपोर्टों में अनुमान लगाया गया है कि अमेरिकी कॉरपोरेट दिग्गज, अमेज़ॉन और वेरिज़ॉन सहित कई विदेशी निवेशकों की तरफ़ से वोडाफ़ोन/आइडिया के अधिग्रहण की चर्चायें हैं।

तक़रीबन 26,000 करोड़ रुपये के बक़ाये भुगतान का सामना कर रही एयरटेल को उम्मीद है कि वह इस दायित्व को पूरा करने में सक्षम होगी, लेकिन इसके लिए उसे बेहद परेशानियों का सामना करना होगा। हालांकि, कंपनी को नये पूंजीगत व्यय के लिए धन आवंटित करने में कठिनाइयों का सामना करना होगा, जो कि 2021 में होने वाली दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा आगामी 5G (पांचवीं जनरेशन) स्पेक्ट्रम नीलामी में भाग लेने की उसकी क्षमता को कम कर देगा। इस बीच रिलायंस जियो का कोई बक़ाया नहीं है, और हाल ही में यह दावा करके कि इसने अपनी 5 जी तकनीक विकसित कर ली है, इसने बाज़ार के ताक़तवर घटक के रूप में आगे बढ़ाने को लेकर ख़ुद की स्थिति को मज़बूत कर लिया है।

एक विवादास्पद पृष्ठभूमि

सुप्रीम कोर्ट ने 2005 से चल रहे एक विवाद में अक्टूबर 2019 के अपने फ़ैसले में यह फ़ैसला करते हुए दूरसंचार विभाग (DoT) का पक्ष लिया था कि दूरसंचार कंपनियों के एजीआर की गणना सभी स्रोतों से अर्जित राजस्व को शामिल करके की जानी चाहिए।

यह फ़ैसला तीन बड़े टेलीकॉम कंपनियों में से दो,एयरटेल और वोडाफ़ोन/आइडिया के लिए एक गंभीर झटका था। उस फ़ैसले का नतीजा यह हुआ कि इन कंपनियों पर सरकार को एक लाख करोड़ रुपये के बक़ाये भुगतान की देनदारी हो गयी। उस फ़ैसले के बाद दूरसंचार विभाग (DoT) ने इन कंपनियों पर बक़ाये की मांग को उठाया और बाद में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इन कंपनियों को 20 सालों में उनके बक़ाये के भुगतान करने की अनुमति मांगी।

ऐसा इसलिए था,क्योंकि राजस्व की मांग ने इन दो दूरसंचार कंपनियों को दिवालिया होने की कगार पर पहुंचा दिया था और इसके परिणामस्वरूप लंदन स्थित मुख्यालय वाले वोडाफ़ोन ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि अगर तुरंत भुगतान करने के लिए उसे मजबूर किया गया,तो वह भारतीय दूरसंचार बाज़ार से बाहर निकलने के लिए मजबूर हो जायेगी।

केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वोडाफ़ोन की उन बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। और न्यायमूर्ति मिश्रा ने सरकार के वक़ीलों को उस समय कड़ी फ़टकार लगायी, जब इन्होंने भुगतान अनुसूची पर अदालत से उदारता बरतने की वक़ालत की।

शीर्ष अदालत में हो रही सुनवाई ने तब एक दिलचस्प मोड़ ले लिया,जब बेंच ने सवाल उठाया कि दूरसंचार कंपनियों द्वारा उस बक़ाया राशि के लिए कौन उत्तरदायी होगा,जो दिवालिया तो हो गये थे,लेकिन अन्य कंपनियों के साथ मिलकर अपने स्पेक्ट्रम को साझा कर रहे थे या उसका कारोबार कर रहे थे, और क्या यह स्पेक्ट्रम इस समाधान योजनाओं में बिक्री को लेकर दिवालियापन कार्यवाही का हिस्सा हो सकता है। इस सवाल ने सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी, रिलायंस जियो (RJio) को परिदृश्य में ला दिया।

ऐसा इसलिए था,क्योंकि रिलायंस जियो ने दोनों कंपनियों के बीच एक स्पेक्ट्रम साझाकरण समझौते के ज़रिये रिलायंस कम्युनिकेशंस (RCom) को आवंटित स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया था। आरकॉम ने घोषणा कर दी थी कि यह 2018 में दिवालिया हो गयी थी और इस समय एनसीएलटी के सामने उसके दिवालिया होने की कार्यवाही चल रही है। रिलायंस जियो ने कथित तौर पर आरकॉम के लिए एक ख़रीदार तलाशने के लिए एनसीएलटी द्वारा नियुक्त इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल के सामने आरकॉम का अधिग्रहण करने के लिए 25,000 करोड़ रुपये की बोली लगायी है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मतलब था कि आरकॉम पर भी एजीआर की विस्तारित परिभाषा के आधार पर अपने एजीआर से डीओटी को बक़ाया भुगतान की देनदारी है। लेकिन,मौजूदा फ़ैसले ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि आरकॉम के साथ स्पेक्ट्रम-साझेदारी की व्यवस्था के बावजूद, यह यह वित्तीय बोझ रिलायंस जियो के पास नहीं होगा, और एनसीएलटी को यह तय करना बाकी है कि अगर रिलायंस जियो औपचारिक रूप से आरकॉम को अधिग्रहित कर लेता है,तो पुनर्मूल्यांकित एजीआर की देनदारियां रिलायंस जियो पर स्थानांतरित होगी या नहीं।

शीर्ष अदालत का फ़ैसला

सुप्रीम कोर्ट को निम्नलिखित मुद्दों पर फ़ैसला देना था:

1. दूरसंचार कंपनियों को 20 साल की अवधि के लिए वार्षिक किश्तों के ज़रिये अपने शेष बकाये का भुगतान करने की अनुमति दी जा सकती है या नहीं।

इस पर अदालत ने कहा, “हम मानते हैं कि भुगतान के लिए निर्धारित 20 वर्षों की अवधि बहुत ज़्यादा है। हमें लगता है कि यह एक राजस्व साझेदारी व्यवस्था है, और यह दूरसंचार नीति के तहत टीएसपी (दूरसंचार सेवा प्रदाताओं) को संप्रभु अधिकार प्रदान करती है। हमें लगता है कि वित्तीय दबाव और बैंकिंग क्षेत्र की भागीदारी को देखते हुए कुछ वाजिब समय दिया जाना चाहिए। हम समान वार्षिक किश्तों में इस बकाय़ा राशि का भुगतान करने के लिए समय की सुविधा देना वाजिब समझते हैं। दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को 1.4.2021 से लेकर 31.3.2031 तक प्रत्येक क्रमिक वित्तीय वर्ष के 31 मार्च तक इस देय राशि का वार्षिक किश्तों में भुगतान करना होगा।"

2. क्या इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC) के तहत स्पेक्ट्रम एनसीएलटी के सामने पेश किये जाने वाली कार्यवाही का विषय हो सकता है ?

इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत ने कहा, “… यह न्यायालय इन कार्यवाहियों में इस सीमित प्रश्न की जांच कर सकता है कि क्या इस कार्यवाही का इस्तेमाल एजीआर बकाया के भुगतान से बचने के लिए एक बहाने के रूप में किया जा रहा है या नहीं, और यह एनसीएलटी को तय करना है कि क्या लाइसेंस/स्पेक्ट्रम को हस्तांतरित किया जा सकता है और क्या यह कोड के प्रावधानों के तहत शुरू की गयी संकल्प प्रक्रिया का एक हिस्सा हो सकता है। क्या दूरसंचार सेवा प्रदाताओं से सम्बन्धित परिसंपत्ति के रूप में स्पेक्ट्रम प्रक्रिया/लाइसेंस के लिए (इस) समाधान प्रक्रिया के अधीन किया जा सकता है, और क्या एजीआर बक़ाया कोई परिचालन बक़ाया हैं और क्या इससे एनसीएलटी द्वारा आईबीसी के प्रावधानों के तहत निपटा जाना चाहिए।”

ग़ौरतलब है कि आईबीसी के तहत समाधान और रिकवरी प्रयासों के लिए ज़मानती लेनदार पहली प्राथमिकता हैं, असुरक्षित लेनदारों के बाद, और इस कोड के तहत कंपनियों द्वारा देय एजीआर बक़ाया को "परिचालन ऋण" के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो प्राथमिकताओं की सूची में और भी नीचे है। ऐसे में मुद्दा यह है कि क्या सरकार का बकाया,परिचालन ऋण की इस श्रेणी में आयेगा।

सवाल इस बात लेकर है कि क्या दूरसंचार विभाग (DoT) ऐसी स्थिति का सामना कर रहा है, जिसमें उसे इन्सॉल्वेंसी कार्यवाही के ज़रिये नहीं चुकाये गये बक़ाये को वापस पाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि एनसीएलटी (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) मुख्य रूप से बैंकों और अन्य (सरकार सहित) वित्तीय संस्थानों (उधारदाताओं) के हितों की रक्षा के लिए ही होता है।

3. अलग-अलग टेलीकॉम कंपनियों द्वारा स्पेक्ट्रम के व्यापार और साझेदारी के मामलों में एजीआर बकाया का भुगतान कैसे किया जाता है?

इस बिंदु पर अदालत ने कहा,“ ट्रेडिंग और शेयरिंग व्यवस्था के सिलसिले में साझाकरण व्यवस्था के तहत विभिन्न सेवा प्रदाताओं द्वारा किये जा रहे कारोबार या साझे स्पेक्ट्रम की सीमा तक दिशानिर्देशों के मुताबिक़ यह देनदारी सम्बन्धित दूरसंचार सेवा प्रदाताओं द्वारा वहन की जानी चाहिए।”

रिलायंस जियो का असली लाइसेंसधारी कौन है?

एक मुद्दा,जो उच्चतम न्यायालय के सामने नहीं आया, वह यह है कि आरजेआई द्वारा अधिगृहीत आरकॉम के स्पेक्ट्रम का जो एजीआर बक़ाया है, उसकी गणना रिलायंस जियो की मूल कंपनी, रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड (RIL) द्वारा या फिर रिलायंस जियो के ख़ुद के राजस्व के आधार पर की जानी चाहिए कि नहीं। इस सवाल का जवाब तय करने का मतलब इस सवाल का जवाब देना होगा कि स्पेक्ट्रम का असली लाइसेंस धारक कौन है- रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड (RIL) या फिर रिलायंस जियो?

इसे समझने के लिए रिलायंस जियो के अस्तित्व में आने की पृष्ठभूमि में जाना ज़रूरी है। जून, 2016 में प्रकाशित इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के पहले के लेख में इन लेखकों ने रिलायंस जियो के गठन के पीछे की कहानी को विस्तार से बताया था।

इसका मूल इनफ़ोटेल ब्रॉडबैंड सर्विस प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक छोटी सी कंपनी है,जो 2010 में सुर्खियों में आयी थी। तीसरी जेनरेशन (3G) ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस स्पेक्ट्रम की नीलामी में महज़ 2.49 करोड़ रुपये की क़ीमत वाली इस कंपनी ने 12,847.77 करोड़ रुपये के स्पेक्ट्रम को हासिल कर लिया था।

आरआईएल के पक्ष में 252.5 करोड़ रुपये की (कथित रूप से एक संदिग्ध तरीके से प्राप्त) बैंक गारंटी के साथ इन्फ़ोटेल के स्पेक्ट्रम अधिग्रहण को सहारा दिया गया था,और आरआईएल ने स्पेक्ट्रम की बड़ी लागत को पूरा करने के लिए इस कंपनी को वह ऋण भी प्रदान किया था,जिसे उसने नीलामी में हासिल किया था। नीलामी के बाद के दिनों में आरआईएल ने इन्फ़ोटेल में बड़ी हिस्सेदारी ले ली थी और 2013 में कंपनी का नाम बदलकर रिलायंस जियो कर दिया गया था।

एक टेलीकॉम कंपनी के एक पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर इस लेख के लेखकों में से एक से बात करते हुए कहा कि,"असली लाइसेंसधारी" का ख़ुलासा करने के लिए इन्फ़ोटेल पर से "कॉर्पोरेट वाले पर्दे " को उठाने की ज़रूरत है।

उन्होंने आरोप लगाया कि अगर असली लाइसेंसधारी आरआईएल है, तो इसका मतलब यह है कि उसके और इन्फ़ोटेल के बीच का लेनदेन "बेनामी" था। वे इस बात को लेकर हैरत जताते हैं कि एजीआर की गणना में आख़िर आरआईएल के पूरे राजस्व पर क्यों नहीं विचार किया जाना चाहिए।

वे पूछते हैं, "23 अगस्त को दूरसंचार विभाग (DoT) ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि इस बकाया राशि की गणना अंतिम नहीं है, और कि एजीआर उस टेलीकॉम कंपनी द्वारा सृजित 'संपूर्ण राजस्व पर आधारित है, और महज़ स्पेक्ट्रम से सृजित राजस्व पर निर्भर नहीं है।'

सवाल है कि अपनी ख़ुद की बतायी गयी स्थिति के बावजूद, दूरसंचार विभाग (DoT) ने 2010 से अब तक के संपूर्ण राजस्व के आधार पर अब तक जुर्माने और ब्याज़ के साथ आरआईएल के एजीआर से क्यों नहीं निपट पाया है?

वे बताते हैं, “दूरसंचार विभाग (DoT) ने महज़ जियो के एजीआर से निपटने तक ख़ुद को ग़लत तरीके से सीमित किया हुआ है, जो कि एक नये नाम के तहत इनफ़ोटेल ही है और वास्तविक लाइसेंसधारी आरआईएल के साथ रहने वाले स्पेक्ट्रम का उपयोग कर रहा है।”

इसमें इस बात को भी जोड़ा जा सकता है कि यदि आरआईएल के सभी ग़ैर-दूरसंचार राजस्व को एजीआर की गणना में शामिल कर लिया जाता है, तो इसमें रिफ़ाइनिंग, पेट्रोकेमिकल और पॉलिएस्टर फ़ाइबर सहित उसके विभिन्न अन्य व्यवसायों से अर्जित राजस्व भी शामिल होगा। 2010 के बाद ब्याज़ और जुर्माने सहित आरआईएल का बक़ाया 7 लाख करोड़ रुपये तक का होगा!

हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में कहा गया है कि टेलीकॉम द्वारा एजीआर बक़ाये के आकलन को लेकर किसी तरह की कोई चुनौती स्वीकार्य नहीं होगी,इस फ़ैसले में यह भी कहा गया है कि दूरसंचार विभाग (DoT) के मौजूदा आकलन महज़ "प्रारंभिक" आकलन हैं। इसकी ओर इशारा करते हुए पूर्व सीईओ ने कहा, “आज तक दूरसंचार विभाग (DoT) ने सुप्रीम कोर्ट के सामने जो कुछ भी रखा है, वह एजीआर की एक 'प्रारंभिक' गणना है। इसलिए यह मुद्दा अब भी बना हुआ है।”

वे बताते हैं,"जस्टिस मिश्रा की बेंच के इस फ़ैसले ने ‘वास्तविक लाइसेंसधारी’ के अलावा,उस इकाई की एजीआर देनदारी की व्याख्या नहीं की है, बल्कि वह अपनी होल्डिंग कंपनी के साथ रहने वाले स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल कर रही है और स्पेक्ट्रम से राजस्व पैदा कर रही है।" सामान्य समझ यही कहती है कि एजीआर यहां भी संलग्न है। लेकिन, यह सरकार और दूरसंचार विभाग (DoT) पर निर्भर करता है कि उन ग़ैर-लाइसेंस, स्टेप-अप / स्टेप-डाउन इकाइयों के लिए एजीआर को किस तरह से व्यावहारिक तौर पर शामिल करता है और इसकी व्याख्या किस तरह करती है,जो लाइसेंस प्राप्त स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल करते हैं।”

क्या डुओपॉली या दो कंपनियों का एकाधिकार अभी दूर की कौड़ी है?

दूरसंचार क्षेत्र पर शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के निहितार्थ को लेकर उद्योग के जानकारों ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए इस बारे में अपनी आशंका जतायी है।

भारत के दूरसंचार उद्योग के एक स्वतंत्र जानकार महेश उप्पल का कहना है, “मौजूदा संकट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था और इस स्थिति के पैदा होने देने के लिए सरकार (डीओटी) और उद्योग दोनों ही ज़िम्मेदार हैं। नौकरशाह किसी भी फैसले पर कोई सुध नहीं लेना चाहते, जिसका नतीजा सरकारी राजस्व में नुकसान के तौर पर हो सकती है।”

उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा, “उद्योग भी निरापद नहीं रह सकता है। जब उद्योग लाइसेंस शुल्क व्यवस्था से राजस्व की साझेदारी वाली व्यवस्था के साथ आगे बढ़ता गया है, तो इसतका तमलब है कि इसने दूरसंचार और गैर-दूरसंचार राजस्व दोनों को शामिल करने के लिए एजीआर की व्यापक परिभाषा को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद, तक़रीबन 15 वर्षों तक कई क़ानूनी विवाद होते रहे हैं। नियामक प्राधिकरण (भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण या ट्राई और दूरसंचार विवाद निपटान अपीलीय न्यायाधिकरण या टीडीएसएटी) ने साफ़ तौर पर स्वीकार कर लिया कि टेल्कॉम कंपनियों के पास एजीआर की परिभाषा बदलने का एक मामला था।”

उप्पल बताते हैं, "जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस लाइसेंस समझौते की वस्तुतः व्याख्या करने के लिए चुना।"

वे आगे बताते हैं, “इसके निष्पक्ष होने की स्थिति तो यही थी कि अदालत यह तय नहीं कर सकती थी कि समझौता पारदर्शी, न्यायोचित या उपयुक्त था या नहीं। हालांकि, जो कुछ अपमानजनक था, वह यही था कि इस बेंच ने जुर्माना, ब्याज़ और विलंब शुल्क के साथ पिछले बक़ाय़े की वसूली पर ज़ोर दिया था। इस समय उद्योग जिस भारी गड़बड़ी की स्थिति में है,उसके लिए यह ज़िम्मेदार है।”

वे बताते हैं, “मेरा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला आइडिया-वोडाफ़ोन को अपर्याप्त राहत देता है। आइडिया/वोडाफ़ोन और सार्वजनिक क्षेत्र के भारत संचार निगम लिमिटेड और महानगर टेलीकॉम निगम लिमिटेड के संयोजन की ख़राब वित्तीय स्थिति को देखते हुए इस समय हम दो कंपनियों के एक एकाधिकार के उद्योग बनने की एक अलग संभावना का सामना कर रहे हैं। जबकि इस क्षेत्र में अभी भी बहुत बड़ी संभावनायें हैं, लेकिन आइडिया/वोडाफ़ोन में निवेशकों की दिलचस्पी को इसकी भारी देनदारियों को देखते हुए हतोत्साहित किया जायेगा।”

उनकी इस आशंका को विदेश संचार निगम लिमिटेड के पूर्व प्रमुख बृजेंद्र के.सिंघल और एक अन्य टेलीकॉम उद्योग के जानकार भी सही ठहराते हैं। अपने ट्विटर अकाउंट पर डाले गये पोस्ट में सिंघल ने इस फ़ैसले को एक ऐसी "आपदा" कहा है, जिसके ढांचे में "एक निजी क्षेत्र की कंपनी (रिलायंस जियो) को अपना विस्तार करने” का मौक़ा मिला है और ‘वोडाफ़ोन को मैदान से बाहर करने के लिए’ एक ज़ोरदार “नॉकआउट पंच" दिया गया है।

एक संदिग्ध दुष्परिणाम

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की घोषणा के कुछ ही मिनटों के भीतर, पूंजी बाज़ार ने कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया दिखायी,जिससे कि उस धारणा की पुष्टि हो गयी,क्योंकि वोडाफ़ोन का शेयर मूल्य इतनी तेज़ी से ध्वस्त हो गया कि स्टॉक की सभी बिक्री को रोकते हुए शेयर बाज़ार में "सर्किट ब्रेकर" लगाना पड़ा। वह दिन 13% की गिरावट के साथ बंद हुआ था। इस बीच, एयरटेल के स्टॉक में 6% की मामूली बढ़ोत्तरी देखी गयी।

आईसीआरए (पूर्व में निवेश सूचना और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी) ने इस बात का अंदाज़ा लगाया था कि सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले के बाद, दोनों ही प्रभावित कंपनियों-आइडिया/वोडाफ़ोन और एयरटेल अपने औसत राजस्व को बढ़ाने के लिए मोबाइल उपयोगकर्ता या ARPU के डेटा और टैरिफ़ में बढ़ोत्तरी कर देंगे।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से ठीक दो दिन पहले, एयरटेल के प्रमुख, सुनील भारती मित्तल ने मीडिया को बताया था कि ग्राहकों को "बहुत ज़्यादा भुगतान करने के लिए" तैयार रहना होगा और फ़ैसले के बाद विश्लेषकों को उम्मीद है कि टैरिफ़ यह बढ़ोतरी कम से कम 10% और ज़्यादा से ज़्यादा 40% के बीच होगी।

इस फ़ैसले के दो दिन बाद, एयरटेल और वोडाफ़ोन/आइडिया की दोनों कानूनी टीम सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने के लिए क्यूरेटिव याचिका तैयार कर रही थीं। इस रिपोर्टों में यह भी दावा किया गया है कि अमेरिकी कंपनियां- अमेज़ॉन और वेरिज़ॉन, वोडाफ़ोन/आइडिया को बचाने के लिए 4 बिलियन डॉलर तक का निवेश करने की तैयारी कर सकती है, जिससे डर है कि यह एक "महाकाय" दूरसंचार कंपनी में बदल सकता है।

हालांकि,अभी यह देखा जाना बाक़ी है कि ये विवाद यहां से कहां तक जाते हैं, इसमें कोई शक नहीं है कि जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली बेंच के इस फ़ैसले का असली विजेता तो रिलायंस ही रही है। हाल ही में मुकेश अंबानी ने इस बात का ऐलान किया था कि रिलायंस जियो ने "पूरी तरह से स्वदेशी" 5 G नेटवर्क क्षमता विकसित कर ली है, जिसमें चीन से आयातित किसी भी पुर्जे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। रिलायंस जियो ने जून में अपनी प्रौद्योगिकी का परीक्षण शुरू करने के लिए दूरसंचार विभाग (DoT) की अनुमति के लिए आवेदन दिया है।

हालांकि, एयरटेल ने अपने 5G नेटवर्क की नींव रखने के लिए फ़िनिश कंपनी,नोकिया के साथ अपैल में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, क्योंकि एजीआर वाले फ़ैसले के बाद इसकी देनदारियों को देखते हुए निवेश को लेकर धन जुटाने की इसकी क्षमताओं पर असर पड़ना तो तय है। उद्योग विश्लेषकों का मानना है कि 2021 में संभावित दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा 5G स्पेक्ट्रम नीलामी में प्रभावी रूप से भाग लेने की एयरटेल की क्षमता पर इसका बुरा असर होगा, जिससे इस महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बढ़ाने को लेकर रिलायंस जियो के लिए विशाल मैदान व्यापक तौर पर खुला होगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Justice Arun Mishra’s Verdict to Benefit Reliance Jio, Hit Vodafone

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