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महिलाओं के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ उनका हक़ है, पितृसत्तात्मक समाज का नहीं!

आधुनिक दौर में महिलाएं आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं लेकिन सत्ता में बैठे महिला विरोधी सोच के लोग उन्हें बार-बार धर्म, परंपरा और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर पीछे धकेलने की कोशिश में लगे हैं। कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री का बयान भी महिला अधिकारों पर सीधा हमला है, जिसकी आलोचना जरूरी है।
मंत्री के.सुधाकर
image credit- Social media

‘No Uterus, No Opinion' यानी 'गर्भाशय नहीं, तो राय भी नहीं'

ये डायलॉग मशहूर अमेरिकी सीरियल F.R.I.E.N.D.S. की कैरेक्टर रेचल ग्रीन का है। रेचल की इस एक लाइन से माई बॉडी, माई रॉइट कैंपेन का पूरा कॉन्सेप्ट क्लियर हो जाता है। महिलाएं शादी करना चाहती हैं, नहीं करना चाहतीं, वे बच्चा चाहती हैं, नहीं चाहती ये सब उनका अपना अधिकार है, क्योंकि शरीर उनका है, इसलिए जाहिर है इससे जुड़े फैसले भी उनके ही होंगे। हालांकि दशकों की लड़ाई और लंबे संघर्ष के बाद आज भी महिलाएं अपने फैसले लेने के लिए जैसे ही एक कदम आगे बढ़ाती हैं, फिर कोई घटना या किसी नेता का एक बयान उन्हें वापस वहीं लाकर खड़ा कर देता है, जहां से कभी उन्होंने शुरुआत की थी।

आज भी महिलाओं के शरीर पर उनका हक है या नहीं, इसपर सालों से बहस जारी है। महिलाएं आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं लेकिन सत्ता में बैठे महिलाविरोधी सोच के लोग उन्हें बार-बार धर्म, परंपरा और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर पीछे धकेलने की कोशिश में लगे हैं। हाल ही में कर्नाटक के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री के सुधाकर ने महिलाओं पर एक विवादास्पद बयान दिया। फिर चौतरफा आलोचना के बाद स्पष्टीकरण भी दिया। लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था और उनकी पितृसत्तातमक सोच जगजाहिर हो चुकी थी।

बता देंं कि जिस समय स्वास्थ्य मंत्री को मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने की जरूरत थी, उस समय वो 'आधुनिक भारतीय महिलाओं' की आलोचना में लगे थे। मेंटल हेल्थ के कार्यक्रम में मंत्री जी महिलाओं को शादी और बच्चा करने के पाठ पढ़ा रहे थे। उन्होंने रेप सर्वाइवर्स, घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएं, मां बनने में असमर्थ या मां बनने के बाद पोस्टपार्टम डिप्रेशन का सामना कर रही महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कोई बात नहीं की। लेकिन उन्होंने ये जरूर कह दिया कि आज मॉडर्न महिलाएं सिंगल रहना पसंद करती हैं, महिलाएं बच्चे नहीं पैदा करना चाहतीं, लेकिन उन्होंने इसपर कुछ नहीं कहा कि इस देश में मदरहुड चुनने वाली महिलाओं की हालत क्या है।

ध्यान रहे कि आज भी देश में महिलाओं तक कम स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच के चलते हजारों महिलाओं को डिलीवरी के दौरान कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, और कइयों की इस दौरान मौत भी हो जाती है। UNICEF के मुताबिक, चाइल्ड बर्थ के दौरान महिलाओं की मौत में कमी आ रही है, लेकिन फिर भी 2018 में 26,437 महिलाओं की इस दौरान मौत हो गई।

क्या है पूरा मामला?

रविवार 10 अक्टूबर को के सुधाकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (NIMHANS) के 25वें दीक्षांत समारोह में शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम में कर्नाटक के सीएम बसवराज बोम्मई और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया भी मौजूद थे। समारोह में शामिल लोगों को संबोधित करते हुए के सुधाकर पहले तो मेंटल हेल्थ पर बात कर रहे थे। फिर वे संयुक्त परिवार के महत्व पर फोकस दिखे। ये भी कहा कि भारत को दुनिया को सिखाना चाहिए कि स्ट्रेस जैसी समस्याओं से कैसे निपटा जाए। लेकिन फिर उनकी बात का रुख महिलाओं की तरफ हो गया।

के सुधाकर ने कहा, “मैं ये कहने से पहले माफी चाहता हूं। आज बहुत सी मॉडर्न महिलाएं सिंगल रहना पसंद करती हैं। शादी के बाद भी कुछ महिलाएं बच्चों को जन्म देना नहीं चाहतीं। वे सरोगेसी को पसंद करती हैं। ये हमारे आदर्शों और हमारी सोच को बदल रहा है जो कि सही नहीं है।

उन्होंने आगे कहा, "हम भारतीयों पर वेस्टर्न इन्फ्लुएंस इतना ज्यादा है कि अब लोग अपने पैरेंट्स को भी अपने साथ रखने से कतराते हैं। ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हम वेस्टर्न कल्चर को अपनाते हुए अपने ही पैरेंट्स को साथ रखना पसंद नहीं करते, तो ग्रैंडपैरेंट्स की तो बात ही दूर हैं।”

लोगों का क्या कहना है?

डॉ. के सुधाकर के इस बयान से बवाल मच गया है। स्वास्थ्य मंत्री की इस बात को अलग-अलग रेस्पॉन्स मिल रहा है। सोशल मीडिया पर उनकी राय दो पक्षों के बीच बहस का मुद्दा बन गई है। एक पक्ष उनकी बात का सपोर्ट कर रहा है तो दूसरा महिलाओं को उनकी जिंदगी उनके तरीकों से जीने देने का समर्थन।

आम लोगों के अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव ने भी लगभग यही बात कही है। के सुधाकर के बयान का एक तरह से समर्थन करते हुए सीटी रवि ने मीडिया से कहा, “उनके (डॉ. के सुधाकर) स्टेटमेंट में ये कहा गया है कि हर महिला ऐसी नहीं हैं। कुछ पढ़ी-लिखी और जॉब करने वाली, खासकर IT या अन्य क्षेत्रों में काम करनेवाली महिलाओं की (इस तरह की) मनोस्थिति ज्यादा बढ़ गई है। हर महिला ऐसी है क्या? हर महिला ऐसी नहीं है। ये सोचने की बात है, हमें सोचना पड़ेगा।"

सीटी रवि ने आगे कहा, “वेस्टर्न इन्फ्लुएंस ज्यादा होने के कारण और छोटी फैमिली होने के कारण ऐसा हो रहा है। थोड़ा गंभीर होकर हमें सोचने कि जरूरत है। सभी या हर महिला ऐसी है, ऐसा भी नहीं है। आज भी फैमिली के बारे में आस्था ज्यादा है हमारे देश में। हमारा देश अमेरिका या इंग्लैंड जैसा नहीं है।”

हालांकि कुछ लोगों ने इस तरह की टिप्पणियों में पश्चिमी देशों की संस्कृति को कोसने की आदत पर तंज कसते हुए कहा कि आखिरकार हमारे देश में भी महिलाओं ने शादी और मां बनने से अलग सोचना शुरू कर दिया।

कईयों ने लिखा कि पश्चिमीकरण और अमेरिका को बलि का बकरा बनाना तो ठीक है, पर हमारे यहां महिलाओं को अपनी पसंद की जिंदगी जीने के लिए किस तरह से लताड़ा जाता है, खरी-खोटी सुनाई जाती है ये तो भली भांति सब जानते हैं। यही वजह है कि इन देशों के मुकाबले हम अभी तक सोच में बहुत पिछड़े हैं।

के सुधाकर का बयान सेक्सिट है!

सेंटर फ़ॉर सोशल रिसर्च की निदेशक और महिलावादी रंजना कुमारी मंत्री के बयान को सेक्सिट बताते हुए मीडिया से कहती हैं कि औरतों का शरीर उनका अपना है और वो तय करेंगी कि क्या करना है।

वे कहती हैं, ''मातृत्व को रोमांटिक ढंग से ग्लोरिफ़ाई किया जाता है, लेकिन वास्तव में वो बहुत मेहनत का काम होता है। साथ ही एक माँ पर सारी ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है क्योंकि भारतीय समाज में ज्वाइंट पैरेंटिंग या माता-पिता बच्चे को एक साथ पाले जैसी संकल्पना ही नहीं है।"

वे कहती हैं कि आज मंत्री सरोगेसी की बात कर रहे हैं लेकिन ना जाने उनकी जैसी संस्थाओं ने कितनी ही बार सरोगेट माँ की मदद करने की अपील की है और ऐसी चीज़ों को कमर्शियल ना होने देने की बातें कहीं हैं, लेकिन तब कोई मंत्री क्यों नहीं आकर बात करते थे।

ट्विटर पर डॉ सुधाकर के नाम के उनके अकाउंट पर प्रत्याक्षा सिंह लिखती हैं, "सर आपका महिलाओं को लेकर दिया गया बयान सही नहीं है। कोई भी महिलाओं की पवित्रता को लेकर मानक परिभाषित नहीं कर सकता। अगर वो अकेली रहना चाहती हैं तो रह सकती है। आपकी जानकारी के लिए भारत पहले ही जनसंख्या की समस्या से जूझ रहा है। यहाँ सिंगल पुरुष सब बर्दाशत कर लेते हैं, लेकिन सिंगल महिला बर्दाश्त नहीं होती।"

मर्द और औरत अपने शरीर पर बराबर हक़ रखते हैं!

पंजाब विश्वविद्याल के अंतर्गत आने वाले एक गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज की पूर्व प्रचार्या अनीता कौशल कहती है कि हमारा समाज महिलाओं को आज भी एक आज़ाद परिदृश्य में नहीं देख पाता। उन्हें बार-बार धर्म, परंपरा और पारिवारिक मूल्यों के पीछे धकेल दिया जाता है। औरतों के अधिकार की जब भी बात आती है, तो औरतों को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है। हमें ये समझने की जरूरत है कि मर्द और औरत अपने शरीर पर बराबर हक़ रखते हैं।

अनीता सवाल करती हैं कि आखिर हम हर बार औरत के ही बारे में क्यों बात करते हैं, फिर शादी हो या बच्चा। हर बार उन्हीं के ईर्द-गिर्द क्यों हमारी सारी समस्याएं घूम रही होता हैं। ऐसे वक्तव्य कभी मर्दों के बारे में क्यों नहीं दिए जाते, क्यों नहीं समाज को कोई दिक्क़त कभी उनसे होती है।

बता दें कि कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री का बयान महिलाओं की आजादी और उनके रिप्रोडक्टिव (प्रजनन) अधिकारों पर सीधा-सीधा हमला है। दुनियाभर में महिलाएं इन अधिकारों को लेकर सड़कों पर हैं। अमेरिका से लेकर पोलैंड तक महिलाएं लड़ाई लड़ रही हैं। वहीं, भारतीय समाज आज भी महिलाओं के अस्तित्व को बच्चों से अलग देखने को राजी नहीं है। इस देश में पुरुष महिलाओं की आजादी को अपनी जागीर समझते हैं, कि उन्हें उड़ने तो देंगे, लेकिन डोर अपने हाथ में रखेंगे!

के सुधाकर का स्पष्टीकरण

इस मामले में चौतरफा किरकिरी के चलते के सुधाकर ने सफाई दी है। उन्होंने कहा कि उनका मकसद केवल ये संदेश देना था कि हमारे युवा मेंटल हेल्थ से जुड़े इशू का समाधान निकाल सकते हैं और हमारे पारंपरिक परिवारों से जुड़े दुख को कम कर सकते हैं जो हमें एक जरूरी सपोर्ट सिस्टम ऑफर करते हैं। स्वास्थ्य मंत्री ने साफ किया कि महिलाओं को टार्गेट करने का उनका कोई इरादा नहीं था।

उन्होंने कहा, “पहले तो मैं ये बताना चाहूंगा कि मैं खुद एक बेटी का गौरवान्वित पिता हूं। मैं एक मेडिकल डॉक्टर भी हूं। तो मैं महिलाओं से जुड़ी संवेदनशीलताओं को समझता हूं। साथ ही उन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की चिंता करता हूं जो हमारे सामने हैं।”

सुधाकर ने अपनी सफाई में कहा, "युवा पीढ़ी के शादी और रिप्रोडक्शन से दूर हटने के बारे में मेरा बयान भी एक सर्वे पर आधारित है। YouGov-Mint-CPR मिलेनियल सर्वे के रिजल्ट से पता चलता है कि मिलेनियल्स में, 19% लोग बच्चे या शादी नहीं चाहते।"

द क्विंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक कार्यक्रम में जिस सर्वे के आधार पर स्वास्थ्य मंत्री ये दावा कर रहे थे, उसमें पुरुष या महिलाओं को कैटेगराइज नहीं किया गया है, लेकिन अपनी सहूलियत से उन्होंने ऐसा जरूर कर दिया और सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी।

महिलाओं को बच्चे नहीं चाहिए, तो यही कारण काफी है!

गौरतलब है कि एक बेटी के पिता होने से कोई प्रगतिशील सोच का नहीं बन जाता और नाहीं इस तरह के बयानों में कहीं भी महिलाओं के लिए कोई संवेदनशीलता नज़र आती है। आजाद महिलाओं को हमेशा से ही पितृसत्तात्मक समाज दुश्मन के तौर पर देखता आया है। वो महिलाएं, जो अपने हिसाब से अपनी जिंदगी जीना चाहती हैं, वे हमेशा ही समाज के ठेकेदारों के आँखों में खटकती हैं। रूढ़िवादी समाज की तमाम बंदिशों को तोड़ते हुए 'माई बॉडी, माई राइट' कैंपेन भी आज़ाद महिलाओं का ही एक प्रयास था अपने ही शरीर पर अपना हक़ जताने का।

द न्यूयॉर्क टाइम्स ने कुछ महीनों पहले अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अमेरिका का बर्थ रेट गिर रहा है, और महिलाएं कम बच्चे पैदा कर रही हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे करियर, आर्थिक स्थिति, परिवार का सपोर्ट न होना, सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलना आदि। वैसे दुनियाभर में ऐसी महिलाओं की तादाद बढ़ रही है, जिन्हें या तो बच्चा नहीं चाहिए, या फिर वो बच्चे में देरी कर रही हैं। इसके लिए महिलाएं खुद खुलकर बोल रही हैं और बिना किसी से डरे अपने लिए फैसले भी ले रही हैं। बहरहाल, कारण कोई भी हो लेकिन इन सबसे बड़ी बात ये है कि अगर महिलाओं को बच्चे नहीं चाहिए, तो यही कारण काफी है। उन्हें इसके पीछे समाज को तर्क देने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि महिलाओं के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ उनका हक़ है किसी और का नहीं।

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