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कश्मीरः राधा कुमार-मदन लोकुर की रिपोर्ट क्या कहती है

फ़ोरम ने अपनी इस रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा है केंद्र की सरकार से कश्मीर घाटी की जनता का ‘लगभग पूरा अलगाव’ हो गया है। इस अलगाव को दूर करने के लिए केंद्र की कोई पहल नहीं दिखायी देती।
Kashmir
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार: The Hindu

जम्मू-कश्मीर के हालात के बारे में पिछले दिनों एक मानवाधिकार समूह की ओर से जारी की गयी रिपोर्ट लगभग अनदेखी रह गयी और इस पर चर्चा नहीं हुई। फ़रवरी 2021 में जारी की गयी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर में विद्रोह व चरमपंथ का मुक़ाबला करने की चिंता सरकार की प्राथमिकता बन गयी है और सार्वजनिकनागरिक व मानव सुरक्षा का सवाल उसकी (सरकार की) चिंता व सरोकार के दायरे से बाहर हो गया है। राज्य में मानवाधिकारों का उल्लंघन आम बात बन गयी है। कश्मीर घाटी पर ख़ास फ़ोकस किया गया है।

जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार फ़ोरम (फ़ोरम फॉर ह्यूमन राइट्स इन जम्मू ऐंड कश्मीर) ने यह रिपोर्ट जारी की है। इसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज मदन बी लोकुर और स्त्रीवादी विचारक व लेखक राधाकुमार हैं। राधाकुमार 2010-11 में केंद्र सरकार द्वारा गठित जम्मू-कश्मीर वार्ताकार समूह की सदस्य रह चुकी हैं। तब केंद्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार थी।

फ़ोरम ने अपनी दूसरी रिपोर्ट इस साल फ़रवरी में जारी की। पहली रिपोर्ट उसने पिछले साल (2020) में जारी की थी। अपनी ताज़ा रिपोर्ट में फ़ोरम ने कहा है कि 5 अगस्त 2019 से 18 महीनों तक की अवधि में मनमानी गिरफ़्तारियां जारी रही हैंआपराधिक दंड संहिता 1973 की धारा 144 के तहत सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगी हुई हैऔर छोटे बच्चों व जम्मू-कश्मीर के निर्वाचित विधायकों-समेत सैकड़ों लोगों को निवारक नज़रबंदी में रखा गया है।

यहां बता दिया जाये कि 5 अगस्त 2019 को केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य की हैसियत देने वाले संवैधानिक अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया और राज्य को दो केंद्र शासित क्षेत्रों—जम्मू-कश्मीर व लद्दाख—में बांट दिया। इस तरह पूर्ण राज्य के तौर पर जम्मू-कश्मीर का अस्तित्व ख़त्म कर दिया गया।

जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार फ़ोरम ने अपनी दूसरी रिपोर्ट में कहा है कि जम्मू-कश्मीर में जनता से जुड़े विभिन्न मसलों—जैसेः मानवाधिकारमहिला व बाल अधिकारभ्रष्टाचार-विरोधसूचना का अधिकार—की सुनवाई और समाधान के लिए स्वतंत्र संवैधानिक व क़ानूनी संस्थाओं की बहाली अभी तक नहीं हुई हैजबकि केंद्र-शासित क्षेत्र ऐसी संस्थाओं के लिए अधिकृत है।

फ़ोरम ने अपनी इस रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा है केंद्र की सरकार से कश्मीर घाटी  की जनता का ‘लगभग पूरा अलगाव’ हो गया है। इस अलगाव को दूर करने के लिए केंद्र की कोई पहल नहीं दिखायी देती। रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि जम्मू की जनता का अलगाव इस स्तर पर नहीं हैलेकिन वह भी आर्थिक व शैक्षिक नुकसानों को लेकर चिंतित है। केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लिए जो नयी आवास नीति व नयी ज़मीन नीति लागू की हैउसे लेकर जम्मू के बाशिंदों में भी चिंता है।

फ़ोरम ने मानवाधिकारस्वास्थ्यसमाचार माध्यम व नागरिक सुरक्षा को लेकर और महिलाओं व बच्चों की स्थिति पर गहरी चिंता जतायी हैऔर सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की है। फ़ोरम ने बहुत सख़्त जन सुरक्षा क़ानून (पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट) को ख़त्म करने की मांग की है।

फ़ोरम ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से कहा है कि वह भारतीय सेना के कैप्टन भूपेंद्र व उसके दो सहयोगियों पर हत्या का मुक़दमा चलाने के लिए अनुमति दे। इन तीनों पर जुलाई 2020 में शोपियां में तीन नौजवान मज़दूरों को फ़र्जी मुठभेड़ में मार डालने का आरोप है।

फ़ोरम की यह रिपोर्टउसकी पिछली रिपोर्ट की तरहजम्मू-कश्मीर—ख़ासकर कश्मीर घाटी—के बारे में उन्हीं तल्ख़ सच्चाइयों को हमारे सामने एक बार फिर लाती हैजिनसे हममें से कई लोग आम तौर पर परिचित रहे हैं। लेकिन ऐसी रिपोर्ट काथोड़े-थोड़े अंतराल पर सामने आना बहुत ज़रूरी हैताकि कश्मीर हमारे दिमागी मानचित्र से ग़ायब न हो जाये। कश्मीर के बारे में केंद्र की हिंदुत्ववादी सरकार के आख्यान (नैरेटिव) की काट पेश करना हमारी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी है।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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