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ख़बरों के आगे-पीछे: बंगाल में दलबदल का अजीब-ओ-ग़रीब खेल!

ऐसा लग रहा है कि अघोषित रूप से दोनों पार्टियों में यह सहमति बन गई है कि उनके नेता एक-दूसरे की पार्टी में आते-जाते रहेंगे और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।
Bengal Politics

पश्चिम बंगाल में दलबदल का ऐसा अजीबोग़रीब खेल चल रहा है कि उसमें दलबदल विरोधी कानून का भी कोई मतलब नहीं रह गया है। एक पार्टी के विधायक और सांसद दूसरी पार्टी में शामिल हो रहे हैं, लेकिन किसी की सदस्यता ख़त्म नहीं हो रही है। न लोकसभा सचिवालय और न ही विधानसभा सचिवालय किसी शिकायत पर सुनवाई कर रहा है। मुकुल रॉय का ड्रामा शुरू हुआ तो यह कमाल की राजनीति दिखी। मुकुल रॉय तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए थे। 2021 के विधानसभा चुनाव में वे भाजपा के टिकट पर विधायक बने लेकिन बाद में पार्टी छोड़ कर तृणमूल में चले गए। भाजपा ने उनकी शिकायत की और सदस्यता समाप्त करने को कहा लेकिन वे विधायक बने रहे और अब कह रहे है कि वे भाजपा में ही हैं। हालांकि भाजपा विधायक दल के नेता शुभेंदु अधिकारी ने उनको अपनी पार्टी का मानने से इनकार कर दिया है। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गए अर्जुन सिंह फिर तृणमूल में वापस लौट गए हैं। वे भाजपा के टिकट पर 2019 में बैरकपुर सीट से सांसद बने। मई 2022 में वे तृणमूल में लौट आए और फिर भी सांसद बने हुए हैं। उनसे पहले यह कारनामा अधिकारी पिता-पुत्र ने किया। तृणमूल छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए और रातो रात बंगाल भाजपा के सबसे बड़े नेता बन गए। शुभेंदु अधिकारी के पिता शिशिर अधिकारी और भाई दिव्येंदु अधिकारी दोनों 2019 में तृणमूल कांग्रेस से सांसद चुने गए और 2021 में भाजपा में शामिल हो गए। तृणमूल ने दोनों की सदस्यता समाप्त करने की अपील की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इस तरह ऐसा लग रहा है कि अघोषित रूप से दोनों पार्टियों में यह सहमति बन गई है कि उनके नेता एक दूसरे में आते-जाते रहेंगे और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।

मोदी को मस्जिद से परहेज़ है, चर्च से नहीं?

भाजपा पिछले कुछ समय से ईसाई और मुस्लिम समुदाय तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिशों में लगी है। इन्हीं कोशिशों के तहत कुछ समय पहले आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने दिल्ली में एक प्रमुख मस्जिद के इमाम से मुलाकाल की थी और एक मुस्लिम धर्मगुरू की मज़ार पर गए थे। बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कार्यकर्ताओं से पसमांदा यानी पिछड़े वर्ग के मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने की बात कही थी। इस सिलसिले में इसी महीने की नौ तारीख को ईसाइयों के पर्व ईस्टर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के सेक्रेड हार्ट कैथेडरल कैथोलिक चर्च पहुंचे और वहां कैंडल सेरेमनी में हिस्सा लिया। इस मौके पर पादरियों ने मोदी का शॉल ओढ़ा कर और गुलदस्ता व स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मान भी किया। देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के नेता ईसाइयों के बीच गए और उन्हें ईस्टर की बधाई दी। उम्मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री जिस तरह ईस्टर के मौके पर चर्च गए उसी तरह ईद के मौके पर भी वे राजधानी की किसी बड़ी मस्जिद में जाकर मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलेंगे और उन्हें ईद की बधाई देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मस्जिद से प्रधानमंत्री मोदी ने अपना परहेज़ बरकरार रखा। अलबत्ता उन्होंने हमेंशा की तरह ट्वीट करके ईद की बधाई ज़रूर दी। जिस तरह प्रधानमंत्री किसी मस्जिद में नहीं गए उसी तरह उनकी पार्टी ने भी इस मौके पर मुस्लिम समुदाय से दूरी बनाए रखी।

राहुल पर मुक़दमा दर्ज करना फैशन बना

राहुल गांधी के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करना एक फैशन हो गया है। वे कहीं भी कुछ बोलते हैं तो देश के किसी न किसी हिस्से में उन पर मुक़दमा हो जाता है। कांग्रेस के वकील नेताओं और राहुल की टीम को भी इसमें मज़ा आ रहा है कि राहुल एक के बाद एक अदालतों में पेश हो रहे हैं। इसमें सबको फायदा दिख रहा है। जो मुक़दमा कर रहा है उसके नाम की चर्चा हो रही है, तो भाजपा उस मुद्दे का अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रही है और कांग्रेस नेताओं को संतोष है कि मुक़दमों के बहाने ही सही राहुल गांधी की ख़बर तो मीडिया में दिख रही है। राहुल के ख़िलाफ़ एक ही मुद्दे पर अलग-अलग अदालतों में मुक़दमा दर्ज होता है और कांग्रेस दोनों को एक जगह करने की मांग नहीं करती है। मोदी सरनेम वाले उनके बयान को लेकर सूरत में एक मुक़दमा दर्ज हुआ था, जिसमें उनको दो साल की सज़ा हुई है तो उसी मामले में एक मुक़दमा पटना में दर्ज हुआ, जहां राहुल को 25 अप्रैल को हाज़िर होना है। सवाल है कि एक ही अपराध के लिए क्या दो जगह सुनवाई और सज़ा हो सकती है? बहरहाल, अब लंदन में दिए राहुल के भाषण पर दिल्ली में एक मुक़दमा हो गया है। उधर महाराष्ट्र में सावरकर के पोते ने राहुल पर मानहानि का केस कर दिया है। महाराष्ट्र के भिवंडी में ही आरएसएस के एक स्वयंसेवक की ओर से दर्ज कराया गया मुक़दमा अभी चल ही रहा है।

तमिलनाडु में ऐसी राजनीति पहली बार!

तमिलनाडु में दिलचस्प राजनीति देखने को मिल रही है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने सत्तारूढ़ डीएमके के नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए तो डीएमके के साथ-साथ मुख्य विपक्षी अन्ना डीएमके भी स्टालिन के समर्थन में उतरी। अन्ना डीएमके के महासचिव और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर हमला करते हुए कहा है कि वे बहुत अपरिपक्व हैं और वे कुछ नहीं जानते हैं। पलानीस्वामी ने कहा है कि अन्नामलाई ने डीएमके नेताओं पर भ्रष्टाचार के जो आंकड़े दिए हैं वे कुछ नहीं हैं, बल्कि सभी डीएमके नेताओं की संपत्ति का ब्यौरा है। इसमें भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं है। हैरान करने वाली बात है कि अपनी धुर विरोधी पार्टी के नेता के प्रति पलानीस्वामी का इस तरह सद्भाव दिखाने का क्या मतलब है? दरअसल इसका मतलब यह है कि दोनों प्रादेशिक पार्टियां नहीं चाहती कि भाजपा को राज्य की राजनीति में जगह मिले। डीएमके और अन्ना डीएमके को यह राजनीति रास आती है कि दोनों बारी-बारी से सत्ता में आएं और राज करें। भाजपा या कांग्रेस के मजबूत होने से दोनों का स्पेस कम होगा। यह राजनीति दूसरे राज्यो में देखने को मिलती। लेकिन तमिलनाडु में पहली बार ऐसा हुआ है कि अन्ना डीएमके के सर्वोच्च नेता ने डीएमके का समर्थन किया है और अपनी सहयोगी भाजपा पर हमला किया है। यह इस बात का भी संकेत है कि भाजपा और अन्ना डीएमके का साथ रहना आसान नहीं होगा। दूसरी ओर डीएमके ने भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई को पांच सौ करोड़ रुपए की मानहानि का कानूनी नोटिस भेजा है।

सिर्फ़ चुनौती दे रहे विपक्षी दलों पर शिकंजा?

केंद्र सरकार की जांच एजेंसियां सिर्फ़ उन्हीं विपक्षी दलों और नेताओं को ज़्यादा निशाना बना रही हैं जो भाजपा और केंद्र सरकार को चुनौती दे रहे हैं या जिनसे चुनाव के बाद ज़रूरत पड़ने पर भाजपा को मदद मिलने की संभावना नहीं है। जो प्रादेशिक क्षत्रप खुलेआम चुनौती नहीं दे रहे हैं या भाजपा को चुनावी नुकसान पहुंचाने में सक्षम नहीं है या जिनके बारे में यह संभावना है कि ज़रूरत पड़ने पर भाजपा के साथ जा सकते हैं, उनके ख़िलाफ़ भी मामले हैं लेकिन कार्रवाई नहीं हो रही है। इस तरह के दलों में जनता दल (एस), तेलुगू देशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, अन्ना डीएमके, बीजू जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल आदि शामिल हैं। यहां तक कि डीएमके, झारखंड मुक्ति मोर्चा और समाजवादी पार्टी को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। दूसरी श्रेणी की जो पार्टियां हैं उनमें कांग्रेस अव्वल है। उसके बाद तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति आदि का नाम लिया जा सकता है। इन पार्टियों के शीर्ष नेताओं को किसी तरह से मुक़दमों में उलझाने और परेशान करने की रणनीति पर काम हो रहा है। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और तृणमूल कांग्रेस के सांसद अभिषेक बनर्जी के आरोपों से भी इसका आभास होता है। दोनों को ऐसे मामलों में पूछताछ के लिए बुलाया जा रहा है, जिनमें पहले उनका नाम नहीं था। इतना ही नहीं उन मामलों में गिरफ़्तार आरोपियों को धमकाए जाने का आरोप भी लगा है। केजरीवाल और अभिषेक ने कहा है कि आरोपियों को उनका नाम लेने के लिए धमकी दी जा रही है। अगर ये दोनों नेता किसी तरह के किसी मामले में फंस जाते हैं तो दोनों पार्टियों की चुनावी तैयारी प्रभावित होगी।

बिना गिनती के सबसे बड़ी आबादी?

भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ का जनसंख्या डैशबोर्ड बता रहा है कि भारत की आबादी 142.86 करोड़ हो गई है, जो चीन से क़रीब 57 लाख ज़्यादा है। लेकिन भारत के पास इसका आधिकारिक आंकड़ा नहीं है क्योंकि 2011 के बाद 2021 में जो जनगणना होनी थी वह नहीं हुई है। सो, आखिरी जनगणना के 12 साल बाद आबादी का आंकड़ा अनुमानों पर आधारित है। सब जानते हैं कि पिछले 12 साल में दुनिया तेज़ी से बदली और आबादी नियंत्रित करने के जो उपाय हुए थे उनका व्यापक असर दिखा है। लेकिन गिनती होती तो पता चलता कि किस समुदाय और किस भौगोलिक इलाके में किस तरह से जनसंख्या संरचना में बदलाव आया है। पहले कोरोना वायरस की महामारी की वजह से जनगणना टली थी और अब लोकसभा चुनाव की वजह से इसके टले रहने की संभावना है। हालांकि जनगणना में देरी का एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि विपक्षी पार्टियां जातियों की गिनती की बात कर रही हैं और जातीय जनगणना से भाजपा को राजनीतिक नुकसान दिख रहा है। विपक्ष का आरोप है कि जातियों की गिनती रोके रखने के लिए जनगणना रोक दी गई है। यह देखना दिलचस्प होगा कि लोकसभा चुनाव के बाद भी गिनती होती है या सीधे 2031 के लिए तैयारी होती है।

शिव सेना आशंकित है पवार से

शिव सेना को आशंका है कि शरद पवार की पार्टी भाजपा के साथ जा सकती है। हालांकि पार्टी के नेता खुल कर यह बात नहीं कह रहे हैं। वे आशंका जता रहे हैं कि अजित पवार भाजपा के साथ जा सकते हैं। बताया जा रहा है कि उनकी भाजपा नेताओं से बात हुई है और सरकार में शामिल होने के फॉर्मूले पर चर्चा हुई है। असल में शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट के 16 विधायकों की अयोग्यता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना है। बताया जा रहा है कि उनकी सदस्यता समाप्त हो सकती है। ऐसे में शिंदे सरकार को बाहरी मदद की ज़रूरत होगी। इसलिए कहा जा रहा है कि अजित पवार वह मदद मुहैया करा सकते हैं। हालांकि यह काम वे शरद पवार की मर्ज़ी के बगैर करेंगे या उनकी सहमति से यह तय नहीं है। शिव सेना और कांग्रेस दोनों उम्मीद कर रहे हैं कि शरद पवार महाविकास अघाड़ी में बने रहेंगे। संजय राउत ने ‘सामना’ के अपने कॉलम में लिखा है कि शरद पवार ने पिछले दिनों उद्धव ठाकरे से मुलाकात में कहा कि जो भाजपा के साथ जाएगा वह आत्मघात करेगा। हो सकता है कि पवार सचमुच ऐसा सोचते भी हों। लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि शरद पवार और अजित पवार दोनों ने शिव सेना के नेताओं से कहा है कि केंद्रीय एजेंसियों का ख़तरा परिवार के ऊपर मंडरा रहा है। हालांकि अजित पवार पिछले रविवार को नागपुर में हुई महाविकास अघाड़ी की रैली में शामिल हुए। फिर भी उनकी मंशा को लेकर संदेह जताया जा रहा है।

भाजपा के लिए जैसे शिंदे वैसे अजित पवार

भाजपा का एकनाथ शिंदे से मोहभंग हो रहा है। पिछले क़रीब एक साल की राजनीति से भाजपा को अंदाज़ा हो गया है कि शिंदे के पास वोट नहीं है। भले चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को असली शिव सेना मान लिया है लेकिन शिव सैनिक अब भी उद्धव ठाकरे के साथ हैं और उन्हीं की पार्टी को असली शिव सेना मान रहे हैं। बृहन्नमुंबई महानगर निगम यानी बीएमसी का चुनाव इसी चिंता में टल रहा है कि शिंदे गुट भाजपा को फायदा पहुंचाने की स्थिति में नहीं है। अगले साल के लोकसभा चुनाव में भी शिंदे गुट की स्थिति ऐसी नहीं है कि उसके साथ मिल कर भाजपा 41 सीटें हासिल कर सके। पिछले चुनाव में राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से भाजपा और शिव सेना ने मिल कर 41 जीती थी। भाजपा को अकेले 23 सीटें मिली थीं। भाजपा की चिंता अपनी 23 सीटें बचाने की है, जिसमें एकनाथ शिंदे गुट से ज़्यादा मदद मिलती नहीं दिख रही है। इस बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि अजित पवार भाजपा के साथ आ सकते हैं। सवाल है कि अजित पवार भाजपा के साथ जाकर उसे क्या फायदा पहुंचाएंगे? जिस तरह शिव सेना में शिंदे के पास वोट नहीं है वैसे ही एनसीपी में अजित पवार के पास वोट नहीं है। अजित पवार की ताकत तभी तक है, जब तक वे एनसीपी में हैं। सो, जिस तरह से भाजपा ने शिंदे की मदद से सरकार तो बना ली लेकिन वोट का फायदा नहीं हो रहा है उसी तरह अजित पवार की मदद से सरकार तो बच सकती है लेकिन वोट का फायदा नहीं होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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