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साम्राज्यवाद पर किसानों की जीत

किसानों की यह जीत, बुनियादी तौर पर साम्राज्यवाद के लिए एक धक्का है। इसलिए, इससे हमें रत्तीभर अचरज नहीं होना चाहिए कि पश्चिमी मीडिया, किसान आंदोलन के सामने झुकने के लिए मोदी सरकार की इतनी आलोचना कर रहा है।
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बहुत बार किसी खास लड़ाई का महत्व उसके फौरी संदर्भ से कहीं बहुत बड़ा होता है। हो सकता है कि उस समय पर खुद इस लड़ाई में हिस्सा लोगों को भी अपनी लड़ाई के इस महत्व का एहसास ही नहीं हो। प्लासी की लड़ाई एक ऐसी ही लड़ाई थी। बल्कि कहना चाहिए कि वह तो एक प्रकार से लड़ाई भी नहीं थी क्योंकि एक पक्ष के सेनापति को तो दूसरे पक्ष द्वारा लड़ाई छिड़ने से पहले ही खरीदकर, इसके लिए राजी किया जा चुका था कि वह लड़ाई में, दूसरे पक्ष के खिलाफ अपनी सेना का नेतृत्व ही नहीं करेगा। इसके बावजूद, इस लड़ाई के दिन प्लासी में जो कुछ हुआ था, उससे विश्व इतिहास के एक पूरे नये युग की ही शुरूआत हुई थी।

किसान आंदोलन और मोदी सरकार के बीच की लड़ाई, इसी कोटि की लड़ाइयों में आती है। सबसे स्वत:स्पष्ट स्तर पर तो इस लड़ाई में आंदोलनकारी किसानों द्वारा प्रदर्शित अकल्पनीय दृढ़ता के सामने, मोदी सरकार को झुकना पड़ा है। एक अन्य स्तर पर, इस लड़ाई में नवउदारवाद को भी एक धक्का लगा है। आखिरकार, किसानी खेती को कार्पोरेटों के अधीन बनाकर, कृषि क्षेत्र पर कार्पोरेटों का बोलबाला कायम करना, जोकि विवादित कृषि कानून करने जा रहे थे, नवउदारवादी एजेंडा का ही तो एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

ये दोनों ही धारणाएं पूरी तरह से सही हैं। लेकिन, इनसे भी आगे एक तीसरे स्तर पर भी किसानों की इस जीत का बहुत भारी महत्व है, जिस पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। इसका संबंध इस तथ्य से है कि किसानों की यह जीत, एक बहुत ही बुनियादी अर्थ में साम्राज्यवाद के लिए एक धक्का है। इसलिए, इससे हमें रत्तीभर अचरज नहीं होना चाहिए कि पश्चिमी मीडिया, किसान आंदोलन के सामने झुकने के लिए मोदी सरकार की इतनी आलोचना कर रहा है।

जिस तरह साम्राज्यवाद, दुनिया भर के सारे खाद्य तथा कच्चे माल संसाधन अपने हाथों में लेना चाहता है, जिस तरह वह दुनिया के सारे खनिज ईंधन संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है, उसी प्रकार वह दुनिया भर के भूमि-उपयोग के समूचे पैटर्न पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है। साम्राज्यवाद, तीसरी दुनिया में भूमि-उपयोग पर तो खासतौर पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है क्योंकि तीसरी दुनिया का ज्यादातर हिस्सा उष्ण-कटिबंधीय तथा समशीतोष्ण कटिबंधीय इलाकों में आता है और इसलिए वहां ऐसी फसलेें पैदा की जा सकती हैं, जो उन ठंडे इलाके में नहीं उगायी जा सकती हैं, जहां विकसित पूंजीवादी दुनिया अवस्थित है।

उपनिवेशवाद ने ही विकसित पूंजीवादी दुनिया को ऐसा आदर्श औजार मुहैया कराया था, जिसके सहारे वह अपने ही लाभ के हिसाब से, दुनिया भर में भूमि उपयोग को नियंत्रित कर सकता था। इस हथियार का, भारत जैसे देशों में नंगई से इस्तेमाल किया गया था। चूंकि किसानों को कुछ तयशुदा तारीखों तक औपनिवेशिक सरकार का लगान भरना पड़ा था, जिसमें नाकाम रहने पर भूमि पर उनके बचे-खुचे अधिकार भी जब्त कर लिए जाते थे, उन्हें इन भुगतानों को पूरा करने के लिए व्यापारियों से पेशगी भुगतान लेना पड़ता था और इसके बदले में इन व्यापारियों की मर्जी की फसल उगानी पड़ती थी, जिसे पहले से तय दाम पर उन्हें इन व्यापारियों को बेचना होता था। ये व्यापारी उनसे उन्हीं फसलों की पैदावार कराते थे, जिनके लिए विकसित पूंजीवादी दुनिया में ज्यादा मांग होती थी, जिसका पता उन्हें बाजार के संकेतों से मिलता था। अन्यथा, मिसाल के तौर पर अफीम के मामले में, ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट सीधे-सीधे किसानों को पेशगी भुगतान करते थे, जिसके जरिए उनका अफीम की खेती ही करना सुनिश्चित किया जाता था।

इस तरह, भूमि का उपयोग विकसित पूंजीवादी दुनिया से नियंत्रित हो रहा था और नील, अफीम तथा कपास जैसी फसलें, ऐसे इलाकों में उगाई जा रही थीं, जहां पहले कभी ये फसलें नहीं उगायी गयी थीं और ये फसलें खाद्यान्न उत्पादन की जगह ले रही थीं। विकसित पूंजीवादी दुनिया को ये पैदावारें मुफ्त ही मिल रही थीं क्योंकि किसानों को अपनी इस  पैदावार का दाम, उसी पैसे में से दिया जाता था, जो खुद इन किसानों ने ही लगान के तौर पर औपनिवेशिक शासन को दिया होता था। और उपनिवेशक देशों में इस तरह के माल, जो वे अपने-अपने उपनिवेशों से निचोड़कर निकालते थे, उनमें से हरेक की अपनी जरूरतें पूरी करने के बाद, व्यापार में लगा दिए जाते थे। इन जरूरतों में, त्रिपक्षीय व्यापार के जरिए अपने घाटों की भरपाई भी शामिल थी। मिसाल के तौर पर जो अफीम भारत में जबरन पैदा करायी जाती थी, उसे चीन को जबरन खपाने पर मजबूर किया जाता था, ताकि उसके साथ ब्रिटेन के व्यापार घाटे की इसके जरिए भरपाई हो सके। जाहिर है कि इस सब के बीच किसानों का निर्ममता से शोषण किया जाता था। नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा का, दीनबंध मित्र के उन्नीसवीं सदी के बंगाली नाटक, ‘नील दर्पण’ में इतने यथार्थ तथा मार्मिक तरीके से चित्रण किया गया था कि महान समाज सुधारक, ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने, जो इस नाटक के प्रदर्शन के दौरान श्रोताओं के बीच मौजूद थे, नाटक में नील की खेती कराने वाले प्लांटर-व्यापारी की भूमिका कर रहे कलाकार को, गुस्से में अपनी चप्पल फेंककर मारी थी!

किसानों से एक खास तारीख तक लगान की वसूली, इस वसूली के लिए व्यापारियों द्वारा किसानों को अग्रिम राशि दिया जाना तथा इसके सहारे उनकी पैदावार का पैटर्न तय किया जाना और अंतत: किसानों से वसूल किए गए राजस्व से ही, उनकी इन पैदावारों का खरीद लिया जाना; यह पूरी व्यवस्था अब विकसित दुनिया को उपलब्ध नहीं रह गयी है। इसके ऊपर से, स्वतंत्रता के बाद इन देशों में नियंत्रणात्मक आर्थिक निजाम आए हैं, उन्होंने अपने यहां किसानी खेती को संरक्षण मुहैया कराए हैं, जिन्होंने खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए, समर्थन मूल्य की व्यवस्था का रूप लिया है। इस सबके चलते, इन देशों के किसान अपने उत्पाद मिश्रण के संबंध में, विकसित दुनिया के फरमानों को अनदेखा कर रहे हैं।

इस समय विकसित दुनिया को खाद्यान्नों की जरूरत नहीं है। लेकिन, वह बाकी दुनिया के किसानों को इसके लिए तैयार नहीं कर सकती है कि खाद्यान्नों का उत्पादन करना छोडक़र, ऐसी फसलेें पैदा करना शुरू कर दें, जिनकी उसे जरूरत है। इसकी वजह यह है कि इन देशों में सरकारें सुनिश्चित तथा पूर्व-घोषित दाम पर, खुद खाद्यान्नों की खरीद करती हैं। इतना ही नहीं, राजकोषीय कमखर्ची के जरिए, इन देशों में कामगारों की वास्तविक आमदनियों को सिकोडऩे के जरिए, जो कि नवउदारवाद का एजेंडा है, इन देशों में खाद्यान्नों की घरेलू मांग घटाना भी, इन हालात में साम्राज्यवाद की मदद नहीं करता है। इसकी वजह यह है कि इससे तो सिर्फ सरकार के हाथों में खाद्यान्न के भंडार जमा होते जाते हैं, लेकिन न खाद्यान्न उत्पादन कम होता है और न भूमि उपयोग के पैटर्न में ही बदलाव आता है। इसलिए, साम्राज्यवाद का तकाजा है कि मूल्य-समर्थन की पूरी की पूरी व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए और किसानों के फसल पैदा करने के निर्णयों को प्रभावित करने के लिए, उसके पास एक वैकल्पिक यंत्र हो।

मोदी सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानून, जो उसकी उन्मत्त राष्ट्रवादी लफ्फाजी की ओट में साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाते हैं, ठीक इसी उद्देश्य से लाए गए थे। ये कानून कृषि का कारपोरेटीकरण करने  के लिए लाने के लिए थे, जिससे तथ्यत: भूमि उपयोग पर विकसित दुनिया का नियंत्रण स्थापित हो जाने वाला था। इनके बाद कारपोरेटों द्वारा किसानों से ऐसी फसलें पैदा करायी जा रही होतीं, जिनके लिए बाजार से उपयुक्त संकेत मिल रहे होते। इसका मतलब होता है, तीसरी दुनिया के किसी देश में भूमि उपयोग को, विकसित दुनिया की मांगों के हिसाब से समायोजित कराना। साम्राज्यवाद ने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी हथकंडे आजमाए थे। इनमें, अकादमिक जगत में और मीडिया में अपने अनुयाइयों से इसका भारी प्रचार कराना भी शामिल था कि सरकार द्वारा मूल्य-समर्थन के जरिए मदद नहीं दिया जाना किसानों के लिए कितना फायदेमंद होगा! लेकिन, ये सारी कोशिशें नाकाम हो गयीं।

इन तीन कानूनों के खिलाफ किसानों के कड़े प्रतिरोध ने अंतत: मोदी सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। लेकिन, सिर्फ इन कानूनों का वापस लिया जाना खुद ब खुद यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि इन कानूनों से पहले वाली स्थिति बहाल हो जाए। यहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य की उस व्यवस्था का बनाए रखा जाना महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसे किसान अब ठीक इसी वजह से एक कानूनी गारंटी का रूप दिलाना चाहते हैं। इन तीन कानूनों के वापस लिए जाने के बाद भी, खाद्यान्नों की मार्केेटिंग पहले की तरह अधिसूचित ठिकानों पर यानी ऐसी मंडियों में होने के बावजूद जहां सरकार के एजेंट पूरी प्रक्रिया पर नजर रख सकते हैं, एमएसपी की व्यवस्था के कायम रहने को छोडक़र, यह सुनिश्चित करने वाली कोई व्यवस्था ही नहीं होगी कि किसानों को अपनी पैदावार के लिए इतना न्यूनतम दाम मिल जाए, जिससे उनकी लागत भी निकल जाए और उनके हाथ में कुछ मुनाफा भी आ जाए।

दूसरे शब्दों में, जहां मंडियों के अलावा दूसरे ठिकानों पर  खाद्यान्नों की मार्केटिंग की इजाजत देना (जिससे सरकार द्वारा निगरानी की ही नहीं जा सके) यह पक्का करता है कि अगर न्यूनतम  समर्थन मूल्य की बराबर घोषणा भी की जाती रहे, तब भी उसे लागू कराया ही नहीं जा सके, वहीं  इसका उल्टा सही नहीं है। कृषि मार्केटिंग पर सरकार की निगरानी अनिवार्य होने से भी (जो कि इन कानूनों का निरस्त किया जाना सुनिश्चित करेगा), एमएसपी की व्यवस्था खुद ब खुद बहाल नहीं हो जाती है। एमएसपी की व्यवस्था को तो अलग से सुनिश्चित करना होगा। किसान इसके लिए कानून बनवाना चाहते हैं ताकि सरकार के लिए अपनी मर्जी से एमएसपी की व्यवस्था को समेटने का मौका ही नहीं रहे।

भाजपा सरकार की जानी-पहचानी कपट लीला को देखते हुए, यह सुनिश्चित करना और ज्यादा जरूरी हो जाता है। यह ऐसी सरकार है जो कृषि कानूनों को औपचारिक रूप से मंसूख करने के बावजूद, दूसरे उपायों से वही उद्देश्य पूरे करने की अपनी कोशिशें जारी रख सकती है।

फिर भी, जिस हद तक ऐसी कुटिल चालों को दूर बनाए रखा जा सकेगा, किसानों ने एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीत ली है। यह लड़ाई है, इस देश की विशाल उष्ण तथा समशीतोष्ण कटिबंधीय कृषि भूमि को, साम्राज्यवाद के नियंत्रण से परे बनाए रखने की। इस जीत की दो विशेषताएं खासतौर पर ध्यान दिए जाने के काबिल हैं।

पहली विशेषता का संबंध इस तथ्य से है कि नवउदारवाद, जनता को एटमीकृत तत्वों में बांटकर, किसी जन-कार्रवाई की संभावनाओं को बहुत सीमित कर देता है और मीडिया पर तथा अकादमिक जगत पर हासिल अपने नियंत्रण के जरिए, ऐसी किसी भी कार्रवाई के लिए कोई उल्लेखनीय सामाजिक समर्थन खड़ा होने से रोकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस पूरे दौर में अवाम ने आम तौर पर नवउदारवादी कदमों का विरोध, सुदीर्घ हड़तालों या घेरावों जैसे सीधी कार्रवाइयों के जरिए नहीं किया है बल्कि राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण हासिल कर के, परोक्ष राजनीतिक उपायों से किया है, जैसे लातीनी अमरीका में। और नवउदारवाद का विरोध करने वाली सरकारों को, सत्ता में आने पर बहुत भारी बाधाओं का सामना करना पड़ा है, जिसमें विदेशी मुद्रा संकट से लेकर, साम्राज्यवाद द्वारा थोपी गयी पाबंदियां तक शामिल हैं। इन कठिनाइयों को चलते, इनमें से अनेक सरकारों ने तो घुटने भी टेक दिए हैं।

इसी संदर्भ में, भारत का किसान आंदोलन, एक नयी लीग बनाता है। बेशक, उसने आने वाले चुनाव में भाजपा की सरकार को हराने के लिए जोर लगाने की राजनीतिक धमकी का सहारा लिया है, फिर भी उसने प्रत्यक्ष कार्रवाई का सहारा लिया है, जो कि नवउदारवाद के अंतर्गत बहुत ही दुर्लभ है।

दूसरी विशेषता है, किसानों की इस प्रत्यक्ष कार्रवाई की असाधारण रूप से लंबी अवधि। वे पूरे एक साल से दिल्ली के बार्डरों पर डटे हुए हैं। बेशक, आगे आने वाले शोधकर्ता इस पर और रौशनी डालेंगे कि कैसे वे इतना बड़ा कारनामा कर पाए हैं। फिर भी, यह ऐसा कारनामा है जिसकी जितनी सराहना की जाए कम है।   

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Kisan Movement’s Direct Action Defeated not Just Modi Govt, but Imperialist Forces too

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