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सुस्पष्ट भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा के साथ किसान-आंदोलन अगले चरण में

तीन महीने से जारी किसान आंदोलन स्थायित्व ग्रहण कर चुका है, और एक नए चरण में प्रवेश के संक्रमण काल से गुजर रहा है। एक ओर आंदोलन अधिक गहराई और विस्तार में जा रहा है, दूसरी ओर सरकार पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी है।

सुस्पष्ट भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा के साथ किसान-आंदोलन अगले चरण में

आंदोलन के 97वें दिन संयुक्त किसान मोर्चा ने मार्च  की अपनी बैठक में एक अत्यंत महत्वपूर्ण  एलान करते हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ राजनैतिक मोर्चा खोल दिया है और विधानसभा चुनावों में जनता से उसे दंडित करने की अपील  की है :

"जिन राज्यों में अभी चुनाव होने वाले हैउन राज्यों में संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) भारतीय जनता पार्टी (BJP) की किसान-विरोधीगरीब-विरोधी नीतियों को दंडित करने के लिए जनता से अपील करेगा। एसकेएम के प्रतिनिधि भी इस उद्देश्य के लिए इन राज्यों का दौरा करेंगे और विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेंगे।"

बेशकइस घोषणा के साथ सुस्पष्ट भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा लेकर किसान-आंदोलन अगले चरण में प्रवेश कर गया है। इसका देश की आने वाले दिनों की राजनीति पर दूरगामी असर पड़ेगा।

वैसी ही दूरगामी  महत्व की दूसरी घोषणा के अनुसार किसान और मजदूर मिलकर 15 मार्च को पूरे देश में "कॉरपोरेट विरोधी दिवस" और "निजीकरण विरोधी दिवस" मनाएंगे। 26-27  नवम्बर की संयुक्त कार्रवाई के बादजिस दिन किसानों ने राजधानी दिल्ली में दस्तक दी थीयह किसानों और मजदूरों के कारपोरेट विरोधी ज्वाइंट एक्शन का अगला चरण होगा :

"केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर 15 मार्च 2021 को 'निजीकरण विरोधी दिवसका समर्थन करते हुए सयुंक्त किसान मोर्चा द्वारा विरोध प्रदर्शन किए जाएंगे। एसकेएम इस दिन को 'कॉरपोरेट विरोधीदिवस के रूप में देखते हुए ट्रेड यूनियनों के इस आह्वान का समर्थन करेगाऔर एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन किया जाएगा।"

जाहिर हैयह किसान आंदोलन और सेंट्रल ट्रेड यूनियनों द्वारा कृषि कानूनों,  MSP की कानूनी गारंटीबिजली बिललेबर कोड की वापसी और सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण के विरुद्ध संयुक्त लड़ाई का एलान है। 

देश में आज एक ओर  अमित शाह के बेटे के नेतृत्व में अहमदाबाद का नरेंद्र मोदी स्टेडियम अम्बानी-अडानी छोर के बीच शतको के लिए तैयार किया गया हैदूसरी ओरउसके बरअक्स राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर मार्च को किसानों के बेटे अपने आंदोलन का शतक पूरा करने जा रहे हैं। इन दो शतकीय मैदानों की कहानी आज भारत मे जो महाभारत लड़ा जा रहा हैउसका रूपक है। ये आज के भारत को परिभाषित करने वाले दो सबसे ताकतवर प्रतीक हैं।

पौराणिक महाभारत के कुरुक्षेत्र के निकटराजधानी दिल्ली की सीमाओं परजो नये महाभारत का महाकाव्य रचा जा रहा हैउसमें अनगिनत गाथाएं हैंशौर्य की-धैर्य कीदमन की-प्रतिरोध कीगहन निराशा और उद्दाम आशा कीसाजिश के ध्वंस कीसाहसपूर्ण सृजन की...!  300 के आसपास शहादतें हो चुकी हैंजेलमुकदमेयातना-प्रताड़ना की तो कोई गिनती नहीं। इस सबका कुल नतीजा यह है कि आंदोलन लहरों में बढ़ता पूरे देश को अपने आगोश में लेता जा रहा है। आंदोलन के विविध आयाम उभर रहे हैं।

महीने से जारी किसान आंदोलन स्थायित्व ग्रहण कर चुका हैऔर एक नए चरण में प्रवेश के संक्रमण काल से गुजर रहा है। एक ओर आंदोलन अधिक गहराई और विस्तार में जा रहा हैदूसरी ओर सरकार पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी है। खेती का समय होने के कारण किसान अब आंदोलन और खेती के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे हैं तो सरकार सामने खड़े महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव और आंदोलन के बीच संतुलन बैठाने में।

इसी बीच डीजल,पेट्रोलगैस के तेजी से बढ़ रहे दामबढ़ती मंहगाई आग में घी का काम कर रहे हैं और बेरोजगारी टॉप ट्रेंड कर रही है। पिछले दिनों GST के खिलाफ उसे काला कानून करार देते हुए व्यापारियों का राष्ट्रव्यापी बंद हुआ। बैंक कर्मियों की हड़ताल हुई। 

मार्च को बिहार की राजधानी पटना में 19 लाख नौकरियों के नीतीश सरकार के वायदे को पूरा करने की मांग लेकर AISA-RYA के नेतृत्व में छात्र-युवाओं का जुझारू मार्च हुआजिसका नेतृत्व और समर्थन करते हुए कई युवा, भाकपा (माले) विधायक भी घायल हुए। इसी बीच इलाहाबाद जो देश में प्रतियोगी छात्रों का प्रमुख केंद्र हैवहाँ हजारों प्रतियोगी युवक-युवतियों के प्रदर्शन पर योगी सरकार की पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया और उनके नेताओं को गिरफ्तार किया गया। इलाहाबाद युवाओं का सुसाइड ज़ोन बनता जा रहा हैजहां एक महीने के अंदर 10 के आसपास युवक-युवतियां बेरोजगारी के भयानक दबाव में खुदकशी कर चुके हैं। ठीक इसी तरह BHU के छात्रों को गिरफ्तार किया गया जो विश्वविद्यालय खोलने और पढ़ाई की मांग कर रहे थे। खतरनाक आयाम ग्रहण करती बेरोजगारी के खिलाफ देश में बड़े छात्र-युवा आंदोलन की सुगबुगाहट है। ये युवक-युवतियां किसान आंदोलन का समर्थन कर रही हैं क्योंकि इन सबका निशाना एक ही है- मोदी राज की कॉरपोरेटपरस्त नीतियां जो सारे संकटों के मूल में हैं।

समाज के सभी तबके आज ऐतिहासिक किसान आंदोलन से प्रेरणा लेकर अपने अपने सवालों पर  आंदोलन की राह पर बढ़ते जा रहे हैं और इनके बीच एक लड़ाकू एकता उभर रही हैजो आने वाले दिनों में नई उम्मीदों के द्वार खोल सकती है। 

किसान आंदोलन की राजनैतिक सम्भावनाओं को लेकर तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।

किसान आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी सशंकित हैं कि  इस आंदोलन से मोदी को फायदा होगा। उनका यह अनुमान इस मूल्यांकन पर आधारित है कि यह धनी और जाट किसानों का आंदोलन हैइनके खिलाफ ग्रामीण समाज के अन्य तबके मोदी-भाजपा के साथ गोलबंद हो जाएंगे और इससे उनका नेट फायदा होगा। 

पर यह निष्कर्ष superficial है और अंकगणितीय समझ पर आधारित हैजो गहराई में आंदोलन के प्रभाव और उसके रसायन-शास्त्र को न समझने से पैदा होता है। सच्चाई यह है कि आंदोलन के गढ़ों में  सभी किसानों की यह आम अनुभूति बन चुकी हैचाहे वे जिस भी श्रेणी या समुदाय के होंकि ये कानून मोदी सरकार कॉरपोरेट के फायदे के लिए ले आयी है और हमारी जमीन खतरे में हैवह छिन जाएगी। जिन्हें अब तक सरकारी मंडी में MSP पर खरीद का लाभ मिला हैउनके अंदर यह भय है कि इससे अब वे वंचित हो जाएंगे और मध्य उत्तर प्रदेशपूर्वांचल या देश के जिन इलाकों के किसान अब तक MSP से वंचित हैंउनके अंदर पंजाब-हरियाणा के किसानों की समृद्धि से यह आकर्षण पैदा हुआ है कि MSP को कानूनी दर्जा मिल जाय तो उनकी भी स्थिति बेहतर हो जाएगी।

बाराबंकी जैसे जिले के कुर्मी किसान बहुल इलाके में किसान पंचायत की सफलता ने यह साफ संकेत दिया है तमाम कृषक जातियां जो पिछले दिनों भाजपा के साथ चली गयी थींवे किसान-आंदोलन के प्रवाह में उससे दूर छिटक सकती हैं। सच तो यह है कि पहचान-आधारित (Identity- based) जो वैमनस्य ग्रामीण समाज में हाल के वर्षों में मौजूद थेउदाहरण के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश में हिन्दू व मुस्लिम समुदाय के बीचउनको किसान आंदोलन ने मिटाने का काम किया है।

किसानों की सभी श्रेणियों को तो जाति-समुदाय की पहचान के पार इस आंदोलन ने एकताबद्ध किया ही हैग्रामीण समाज में मजदूरोंव्यापारियोंनौकरीपेशा लोगों को भी प्रभावित किया हैजिनका जीवन अनेक रूपों में कृषि-अर्थव्यवस्था  से जुड़ा रहता है। यहाँ तक कि शहरी मजदूरोंगरीबोंमध्यवर्ग के संवेदनशील हिस्सों तक यह संदेश पहुंचता जा रहा है कि चंद कॉरपोरेट घरानों के हाथ खाद्यान्न के असीमित भंडारण की इजारेदारी (monopoly ) कायम होने के बाद मंहगाई आसमान छूने लगेगी।

कुछ बुद्धिजीवियों का यह सुझाव है कि आंदोलन को खुलकर राजनीतिक स्वरूप में सामने आना चाहिएवरना इसका कोई सार्थक राजनीतिक प्रतिफलन नहीं होगा। आंदोलन या तो विपक्ष की राजनीति के साथ खुलकर खड़ा हो अथवा किसान आंदोलन स्वयं एक भाजपा-विरोधी राजनीतिक मंच का एलान करे। दरअसलऐसा कहने वालों के मन में अतीत के आंदोलनोंविशेषकर 74 के जेपी आंदोलन या फिर अन्ना आंदोलन जैसे मॉडल हैंजब छात्रों-युवाओं के सवालों से शुरू हुए आंदोलनों  या भ्रष्टाचारतानाशाहीलोकपाल के लिए कानून जैसे मुद्दों से शुरू हुए आंदोलनों से विपक्षी दल जुड़ गएनए दलों का जन्म हुआ और आंदोलन का अंत सत्ता परिवर्तन में हो गया।

परअतीत के  बड़े आंदोलनों सेजो सत्ता परिवर्तन तक गएइस आंदोलन का एक बुनियादी फर्क है। यह पहली बार हो रहा है कि उत्पादन के बुनियादी ढांचे और उस पर मालिकाने का प्रश्न,  बेसिक स्ट्रक्चर का सवाल इस  आंदोलन की चिंताओं के केंद्र में है। इसके पहले के बड़े आंदोलन हमेशा superstructural सवालों परभ्रष्टाचार जैसे  सवाल परया फिर नए कानून बनाने के लिएमसलन लोकपाल के लिए हुए।

किसान नेताओं की समझ बिल्कुल सही है कि आंदोलन के बुनियादी ढांचागत और नीतिगत सवालों को विपक्षी पार्टियों के भरोसेउनके ऊपर दांव लगा कर बिल्कुल नहीं छोड़ा जा सकताक्योंकि वे सब मूलतः उन्हीं नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थक हैंजिनसे ये कृषि कानून निकले हैंवरना सत्ता परिवर्तन हो जाय तब भी,  उनके आंदोलन का वही हश्र होगा जो अतीत के ऐसे आंदोलनों का हुआ था। बेशकआंदोलन की राजनीतिक परिणति होनी चाहिएसत्ता परिवर्तन जिसका एक परिणाम होगापर उसके साथ ही आर्थिक नीतियों में रैडिकल बदलाव होना चाहिए और किसान की खुशहालीरोजगारआमदनी को केंद्र में रखकर कृषि-विकास का नया नीतिगत ढांचा सामने आना चाहिए। विपक्ष किसान-आंदोलन के साथ खड़ा हो रहा हैसत्ता के दमन का विरोध कर रहा है,यह स्वागतयोग्य है और स्वाभाविक हैपर इसका लक्ष्य राजनैतिक लाभ और सत्ता परिवर्तन के लिए आंदोलन के उपयोग तक सीमित हो सकता है। जबकि किसान आंदोलन का लक्ष्य इसके आगे तक जाता हैवह नीतिगत बदलाव के बिना अधूरा है।

इसीलिए इस बार यह जनांदोलन एक नए गतिपथ पर बढ़ रहा हैइससे अतीत के किसी मॉडल का अनुकरण करने की मांग करना अनैतिहासिक होगा और इसके साथ अन्याय होगा। इस पर कृत्रिम ढंग से अतीत का कोई मॉडल impose करना इसके स्वाभाविक विकासक्रम को बाधित करेगा और काउंटर-प्रोडक्टिव साबित हो सकता है। 

दरअसलआंदोलन का स्वाभाविक विकास हो रहा है। कृषि-क्षेत्र पर कॉरपोरेट कब्जे के खिलाफ खुला वर्गीय टकराव तो पहले से आंदोलन की मूल अन्तर्वस्तु है हीअब यह क्रमशः मोदी-भाजपा सरकार के विरुद्ध अधिकाधिक खुली राजनैतिक दिशा की ओर बढ़ता जा रहा है।

जाहिर हैकृषि के कारपोरेटीकरण  पर मोदी सरकार ने जिस तरह दांव लगा दिया है और किसानों के आक्रोश और नफरत का जिस तरह अब यह निशाना बना चुकी हैकृषि कानूनों को hold कर अथवा वापस कर ज्यादा से ज्यादा वह और अधिक टकराव से किसी तरह बच सकती हैपर किसानों का विश्वास पुनः हासिल कर पाना उसके लिए लगभग असंभव है। किसान-पक्षीय नई नीतियों की इससे उम्मीद तो किसान पहले ही छोड़ चुके हैं। जाहिर हैकिसानों के प्रबल समर्थन से देश राजनैतिक सत्ता परिवर्तन की तरफ बढ़ता जाएगाजिसकी मुखर शुरुआत उप्र के चुनाव परिणाम से हो सकती हैइसका ripple effect मार्च-अप्रैल में होने वाले बंगाल असमतमिलनाडुकेरल आदि चुनावों में भी पड़ना तय है।

पर यह आंदोलन यहीं रुकेगा नहीं। यह अन्य संघर्षरत तबकों के साथ मिलकर वैकल्पिक अर्थनीति और राजनीति की ओर बढ़ने का potential अपने अंदर समेटे हुए है।

किसान-आंदोलन कॉरपोरेट अर्थनीति के बरअक्स केवल जनपक्षीयकिसान-पक्षीय नई अर्थनीति के लिए ही नहीं लड़ रहा हैवरन बहुलतावादी मूल्यों और साझे संघर्षों पर आधारित समावेशी राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र के नए मॉडल के साथ एक नए राजनीतिक तंत्र (polity) के लिए भी लड़ रहा हैजहां राष्ट्र का अर्थ जनता होगाजहां विरोध और असहमति का अधिकार non-negotiable होगाजहां नीति निर्माण का आधार जनता के गरिमामयआजीविका सम्पन्न जीवन के लिए environment-friendly, sustainable विकास होगान कि कॉरपोरेट मुनाफाखोरी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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