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एमएसपी सुरक्षा पर सिर्फ आश्वासन किसानों को मंजूर नहीं

नकद हस्तांतरण या खाद्य स्टाम्प गरीबों को बड़े व्यापरियों द्वारा दाम में उतार-चढ़ाव और हेरफेर की नौबत के हवाले कर देंगे।
एमएसपी सुरक्षा पर सिर्फ आश्वासन किसानों को मंजूर नहीं

क्या तीन नए कृषि-कानूनों ने भारत की उस दीर्घकालिक रणनीति से समझौता किया है जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को कृषि से जोड़ती है और ग्रामीण आजीविका की रक्षा करती है? यह जुड़ाव 1990 के दशक की शुरुआत से उदारीकरण के बाद के तीन दशकों से विश्व व्यापार संगठन में भारत का घोषित स्टेंड रहा था और देश की गरीब और आर्थिक रूप से वंचित आबादी के हितों की रक्षा करता था। लेकिन अब इस सुरक्षा को विवादास्पद क़ानूनों को जो कृषि को वैश्विक बाजार के लिए खोल देते हैं, उनको लाया गया है।

आलोचकों के अनुसार, यह कदम किसानी के लिए मनहूस है और कृषि से जुड़े समुदायों के कतई भी हित में नहीं है। एक हालिया अध्ययन, जिसका शीर्षक ‘भारत ने किया अपनी डब्ल्यूटीओ रणनीति पर सम्झौता: 2020 कृषि बाजार सुधार पर एक गंभीर अध्ययन’ में कई चिंताओं का विवरण दिया गया है। ग्लोबल साउथ (फोकस) पर थिंक टैंक फोकस द्वारा प्रकाशित विश्लेषण, जिसे रोजा लक्जमबर्ग स्टिफ्टंग-दक्षिण एशिया कार्यालय की सहायता से और जर्मन फेडरल मिनिस्ट्री फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट द्वारा वित्त पोषण से चलाया जाता है, ने दर्ज़ किया है कि कृषि क्षेत्र जिसमें मुख्यत सीमांत किसानों की भरमार है वह "आयात प्रतिस्पर्धा और वैश्विक बाजार की अनिश्चितताओं के कारण बाजार में आने वाली बाधाओं का सामना करने में सक्षम नहीं हो सकता है"।

रिपोर्ट के अनुसार, इन क़ानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र पर नियंत्रण “निर्यात को बढ़ावा देने और भारत को कृषि हब बनाने” के लिए किया जा रहा है। लेकिन यह ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के भयंकर जोखिम को साथ लाता है, जिनकी पहले से मांग है कि व्यापार का स्तर समान होना चाहिए और उन्हें भारत में व्यापार करनी की अनुमति दी जाए। यह कृषि क्षेत्र की कमजोरियों के दोहन का रास्ता तैयार करेगा जो भारत के 60 प्रतिशत कार्यबल को रोजगार मुहैया कराता है।

कृषि-कानूनों का फोकस भारत के पहले के रुख से भिन्न है। डब्ल्यूटीओ में हुए अब तक के विचार-विमर्श में वह रुख बना हुआ था कि इसकी नीतियां "गैर-व्यापार" चिंताओं पर आधारित थीं, और आवश्यक कृषि जींसों या खेती की नस्लों के आयात शुल्क को कम करने वाली वार्ताओं से बाहर रखा जाना चाहिए। फोकस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व व्यापार संगठन में भारत के हस्तक्षेप ने विकासशील देशों के हित में खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के महत्व पर प्रकाश डाला था।

18 नवंबर 1998 को जारी इस मुद्दे पर अपने पहले बयान में, भारत ने तर्क दिया था कि "कृषि उदारीकरण के बारे में यह मानना बहुत ही सरल होगा कि यह एक विशाल ग्रामीण आबादी वाले विकासशील देशों की खाद्य सुरक्षा की समस्याओं को दूर करने में सक्षम होगा।"

चूंकि कृषि-कानून सितंबर में पारित किए गए थे, इसलिए सरकार जोर देकर कह रही है कि नए कानूनों में किसानों की सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम है। लेकिन सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बिस्वजीत धर द्वारा लिखी गई फोकस रिपोर्ट बताती है कि क़ानूनों के वर्तमान स्वरूप में किसानों को कोई वास्तविक सुरक्षा प्रदान नहीं की गई है।

इन कानूनों में से पहला कानून जिसे, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम, 2020  किसानों का (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता कहा गया है वह सरकार के मत के मुताबिक बड़े व्यापारियों और कृषि-व्यवसाय से जुड़ी फर्मों से निपटने में किसानों को "सशक्त बनाता है"। लेकिन यह इसका उद्देश्य बताया गया है। लेकिन धर की रिपोर्ट कहती है: “स्पष्ट है कि इस   कानून में किसानों को प्रभावी रूप से संरक्षित या सशक्त करने का कोई प्रावधान नहीं है। सरकार ज्यादातर मुद्दों पर ’आवश्यक दिशा-निर्देशों के साथ-साथ मॉडल फार्मिंग एग्रीमेंट्स’ कर सकती है, जिससे किसानों को लिखित कृषि समझौतों में प्रवेश करने में सुविधा होगी। जबकि कानून लागू होने की दहलीज पर है, लेकिन मॉडल खेती समझौते के प्रारूप को को अभी तह अधिसूचित नहीं किया गया है।”

दूसरा कानून, किसानों की फसल/उत्पादन का व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, देश भर में बाधा मुक्त व्यापार के माध्यम से कृषि उपज की बिक्री और खरीद पर "अपनी पसंद और स्वतंत्रता" का अधिकार देता है। तो धर सवाल उठाते हैं कि अगर 86 प्रतिशत किसान जिसके पास केवल दो हेक्टेयर से कम की जोत है, वह बड़े व्यापारियों के साथ धंधे में समान स्तर का खेल कैसे खेल सकते है। किसान मूल्य तय करने की बातचीत में हमेशा नुकसान में होगा और उसके लिए अपनी मेहनत का मूल्य हासिल करने की संभावना कम होगी।

सरकार ने यह भी नोट किया है कि किसानों और बड़े व्यवसायों के बीच समझौते से किसानों को ही लाभ होगा क्योंकि यह कृषि में निवेश को आकर्षित करेगा और "समावेश को बढ़ावा देगा" जो किसानों को आदानों और उसके बाजारों तक पहुंच प्रदान करेगा। तथाकथित सुधारों और उनकी समावेशिता की यह कवायाद गोलमोल और भ्रामक है।

फोकस रिपोर्ट नोट करती है: “विकास पर लिखे साहित्य में जिस तरह से ‘समावेशिता’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, और जताया गया है कि इससे वंचित तबकों की स्थिति में सुधार होगा जबकि इसके माध्यम से सरकार कृषि क्षेत्र में बड़े व्यवसायों और और व्यापारियों के प्रवेश को सुलभ बनाना चाहती है, जो इस अधिनियम को वैध बनाना चाहते हैं।

"कानून का जो आधिकारिक शीर्षक है कि इससे किसानों का संरक्षण और सशक्तिकरण होगा, उसके विपरीत इसमें कई ऐसे प्रावधान हैं जो छोटे किसानों के हितों के खिलाफ हैं...ये कानून  गुणवत्ता, ग्रेड और उत्पादों के मानकों के अनुपालन की शर्तों को लागू करने की अनुमति देते है, जो हो सकता है कि इन्हें 'केंद्र सरकार या राज्य सरकारों की किसी एजेंसी, या इस उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा अधिकृत कोई एजेंसी इसे तैयार करे।''

लेकिन नए कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य के लागू रहने का स्पष्ट उल्लेख न होने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता हैं। वर्तमान में इस अधिनियम के तहत सब्सिडी वाला अनाज ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गरीबों की क्रमशः 75 प्रतिशत और 50 प्रतिशत आबादी को प्रदान किया जाता है।

एनएफएसए ने 2013 में विश्व व्यापार संगठन द्वारा कुछ अंतरिम राहतें हासिल की जिसके तहत विकासशील देशों को इज़ाजत दी कि वे कम संसाधन वाले उत्पादकों से अनाज लें और गरीबों तथा आर्थिक रूप से वंचित तबकों को वितरण करें। इन राहतों को विश्व व्यापार संगठन में चुनौती नहीं दी गई थी। लेकिन यह व्यवस्था भी कुछ शर्तों के साथ आई: पीडीएस की  सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग, डब्ल्यूटीओ की जांच और ऑडिट के अधीन होगी और सब्सिडी वाले स्टॉक को निर्यात नहीं किया जा सकेगा।

फोकस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत कृषि उत्पादों के निर्यात को लेकर "लगातार" सवाल उठाता रहा है। हाल के महीनों में, “कृषि संबंधी समिति” में यह पूछा गया था कि क्या यह गैर-बासमती चावल को निर्यात पर सब्सिडी दी जाती है, और क्या खुले बाजार में सरकार द्वारा भंडारित गेहूं को निर्यात नहीं किया जाता है। भारत वर्तमान में छह देशों द्वारा उठाए गए उस विवाद का सामना कर रहा है जिसमें उन्होनें चीनी को दी जाने वाली सब्सिडी की वैधता पर सवाल उठाया है।"

कई विशेषज्ञों का मानना है, कि एमएसपी के खत्म होने के बाद राशन प्रणाली जैसा कि हम जानते हैं कि इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। वे बताते हैं कि कृषि का विध्वंस सीधे नकदी हस्तांतरण या गरीबों को खाद्य स्टाम्प मुहैया कराने से किया जा सकता है। ऐसा होने पर उन्हें खुले बाजार से अनाज की खरीद करनी होगी जहां बड़े खिलाडी अंधा मुनाफा कमाने के लिए कीमतों में जमकर उतार-चढ़ाव और हेरफेर करेंगे।

अपनी तरफ से सरकार बार-बार इस बात की घोषणा करती रहती है कि एमएसपी को खत्म नहीं किया जाएगा और दूर तक उसकी ऐसी कोई योजना नहीं है। लेकिन किसान तबके का राजनेताओं के वादों से विश्वास उठ चुका है। अब उन्हें मौखिक आश्वासन नहीं बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक मज़बूत कानून चाहिए।

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Assurances Not Enough to Convince Farmers on Security of MSP Regime

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