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लद्दाख गतिरोध: नज़रिये में प्रगति?

भारत को एक स्थायी सीमा बंदोबस्त की तलाश में चीनी नेतृत्व के साथ गहन रणनीतिक बातचीत में शामिल होने की किसी भी प्रगति का इस्तेमाल करना चाहिए।
लद्दाख
लद्दाख में सैन्य दलों को आपूर्ति करता हुआ भारतीय सेना का काफ़िला।

पूर्वी लद्दाख में सैन्य गतिरोध को सुलझाने वाली वार्ता पर 15 अक्टूबर को नई दिल्ली में विदेश मंत्री एस.जयशंकर की टिप्पणी सतर्क रूप से आशावादी अनुमान का यह संकेत देती है कि सामने गंभीर प्रस्ताव हैं और किसी नये घटनाक्रम से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसमें शक नहीं कि जयशंकर ने बड़े ही आधिकारिक बोध के साथ यह टिप्पणी की होगी, क्योंकि वह जिस किसी बात को रखेंगे, उसकी चर्चा भारत ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होगी।

छ: महीने पुराने गतिरोध के खत्म होने के अच्छे आसार दिखायी देते हैं।

रचनात्मक कार्य के जिस रास्ते को जयशंकर ने सितंबर में मास्को में अपने चीनी समकक्ष और विदेश मंत्री, वांग यी के साथ हुई बैठक में खोला था, वह अपने नतीजे की तरफ़ बढ़ता हुआ दिख रहा है।

"जयशंकर की खींची गयी रेखा" की तार्किक प्रगति का पहला संकेत तब दिखायी दिया, जब एक वरिष्ठ भारतीय राजनयिक 21 सितंबर को सेना कमांडरों की बैठक (6वें दौर) में शामिल हुए।

13 अक्टूबर को चुशुल में सोच विचार कर शानदार तरीक़े से उठाया गया यह क़दम न सिर्फ़ अंतिम दौर की बातचीत (7वें दौर) में भी जारी रहा, बल्कि चीनी विदेश मंत्रालय ने मंगलवार को वार्ता में शामिल होने के लिए बीजिंग से एक वरिष्ठ राजनयिक को नियुक्त करके इस भारतीय क़दम का अनुसरण भी किया।

इसी तरह, सेना के कमांडरों की बैठक में दूसरी बार एक संयुक्त बयान जारी किया गया।

बेशक, कुछ धमकाने-डराने की कूटनीति जारी तो रही है। लेकिन, इसमें भी कोई शक नहीं कि इसके बावजूद सार्वजनिक धारणायें अहम हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भारत के उत्तरी सीमाओं पर तनाव पैदा करने के लिए एक पूर्व-कल्पित चीन-पाकिस्तानी "मिशन" की संभावना के बारे में जोरदार अटकलें लगायी थीं, जिसके जवाब में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि बीजिंग भारत के हिस्से के रूप में लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं देता है, जिसके बदले भारतीय प्रवक्ता ने पलटकर सीधे-सीधे कहा कि बिल्कुल नहीं, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश वास्तव में भारत के अभिन्न अंग हैं।

दरअसल, आम लोगों की धारणाओं को प्रतिबिंबित करना एक गंभीर समस्या बनी रहेगी, क्योंकि हित समूहों का एक बड़ा गिरोह उस शोरबे को बिगाड़ने पर तुला हुआ है, जिसे जयशंकर तैयार कर रहे हैं- मीडिया में चीन से डराने वाली विचारधारा पर पूर्व-सैनिकों और पूर्व-राजनयिकों के एक समूह और सर्वव्यापी "क्वाड के दोस्तों" की पकड़ है। (जयशंकर की उस टिप्पणी के बाद बैनर की सुर्खियों वाली रिपोर्ट में कुछ डर पैदा करने वाले मीडिया ने इस बात का ऐलान कर दिया कि चीन के साथ सीमा वार्ता ख़त्म हो गयी है।)

इसी बीच, वाशिंगटन इस बहु-प्रतीक्षित बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौते (BECA) पर एक गिद्ध-दृष्टि से देख रहा है, जो कि राष्ट्रपति ट्रम्प के चुनावी अभियान के लिए एक दुर्लभ विदेश-नीति की जीत का संकेत होगा।

यह बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौते (BECA) एक ऐसा भू-स्थानिक समझौता है, जो भारतीय सशस्त्र बलों को अमेरिका का पिछलग्गू बना देगा, जैसा कि एडवर्ड स्नोडेन ने अपने ख़ुलासे में भारतीय सैन्य संचालन योजना के गढ़ में एक स्थायी अमेरिकी ठिकाने के जोड़ने की बात कही है।

अमेरिका मानता है कि एक वास्तविक अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन के लिए बीईसीए एक शुरुआती क़दम हो सकता है।

एक वरिष्ठ चीनी विशेषज्ञ ने पिछले हफ्ते लिखा था कि भले ही भारत बीईसीए पर हस्ताक्षर कर दे, लेकिन इसमें कुछ बातें बची रहेंगी और आगे बढ़ने के लिए इसे "अंजाम तक पहुंचाने वाली बातचीत" होती रहेगी।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत की चीन रणनीतियां इस समय एक चौराहे पर हैं।

सैन्य वापसी और बफ़र ज़ोन के निर्माण को लेकर पूर्वी लद्दाख में हो रही बातचीत की प्रगति आगे सर्दियों में भी सैन्य तैनाती की ज़रूरत से दोनों देशों को बचा लेगी।

यह बातचीत भारत को ऐसे समय में उसके दुर्लभ संसाधनों के ख़र्च होने से बचायेगा, जब भारतीय अर्थव्यवस्था 10 प्रतिशत से ज़्यादा (आईएमएफ के अनुमान के मुताबिक़) सिकुड़ गयी है और कोरोनावायरस महामारी की देश भर में चल रही "पहली लहर" पर क़ाबू पाना अब भी बाक़ी है।

साफ़ तौर पर इस समय की राष्ट्रीय प्राथमिकता पूर्वी लद्दाख में तनाव को ख़त्म करना है।

हालांकि, इस समय जो प्रगति हो रही है,वह एक बड़े उद्देश्य को भी पूरा कर सकती है।

हमें एक स्थायी सीमा बंदोबस्त की तलाश में चीनी नेतृत्व के साथ गहन रणनीतिक बातचीत में शामिल होने वाले किसी भी प्रगति का इस्तेमाल करना चाहिए।

प्रधानमंत्री मोदी के पास चीन-भारतीय सीमा पर अपनी दिशा को तय करने और चीन के साथ एक नये प्रकार के रिश्ते बनाने को लेकर 2024 में होने वाले आम चुनावों से पहले पूरे तीन साल हैं।

अब तक,भारत में चीन से डराने वाली सर्वनाश से जुड़ी भविष्यवाणियों का कोई मतलब नहीं रहा है, क्योंकि

•  चीन भारतीय क्षेत्र को हथियाने के लिए कोई विस्तारवादी अभियान नहीं चला रहा है;

•  चीन भारत के साथ सीमित युद्ध नहीं चाह रहा है;

•  चीन लद्दाख में सीमित गतिरोध के दायरे को व्यापक बनाने की कोशिश नहीं कर रहा है;

• चीन पाकिस्तान के साथ सांठ-गांठ नहीं कर रहा है; और,

• चीन के भीतर इस समय कोविड-19 के चलते आंतरिक अव्यवस्था निराशाजनक स्थिति में है।

चीनी को लेकर हमारे डर अपने अनुमान के अंधेरे में तीर चला रहे हैं कि चीन भारत के साथ सीमा समझौते में ही दिलचस्पी नहीं रखता है, बल्कि वह दिल्ली पर दबाव बनाते हुए सीमा पर बने तनाव का फ़ायदा भी उठाना पसंद करेगा।

हमें इस तरह के अनुमानों पर यक़ीन करना बंद करना होगा और इसके बजाय नेतृत्व के उच्चतम स्तर पर चीनी इरादों का परीक्षण करना होगा।

किसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में त्रासदी तो यही है कि हमने वैसा कुछ नहीं किया, जैसा कि मॉस्को के एक के बाद एक आने वाले नेतृत्व-मिखाइल गोर्बाचेव से लेकर, बोरिस येल्तसिन और व्लादिमीर पुतिन ने किया। उन्होंने चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक ज़ोरदार राजनीतिक पहल की थी और इस नींव पर एक नयी संरचना को खड़ा करने की कोशिश की थी, जिसे जर्मनी के लोग समय की मांग या युग-चेतना (zeitgeist) कहते हैं।

चीन के साथ भारत के विवाद के मुक़ाबले चीन-सोवियत सीमा विवाद कहीं ज़्यादा दुसाध्य था, क्योंकि इसमें 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बाद से चीनी क्षेत्रों की विशाल पट्टी ज़ारवादी रूस में शामिल थी, जो इस समय रूस के साइबेरिया और सुदूर पूर्व का हिस्सा है।

लेकिन,चीन ने देश के आर्थिक विकास और प्रगति को प्राथमिकता देते हुए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया।

चीनी इरादों का रूसी पूर्वानुमान बिल्कुल सटीक निकला।

और एक बार जब सीमा विवाद का निपटारा हो गया, तो इसके बाद चीन-रूसी सामान्यीकरण ने रफ़्तार पकड़ ली और तब से ये दोनों ही पक्षों के लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हुआ है, इससे दोनों ही देशों के लिए बेहद अस्थिर समकालीन विश्व स्थिति को संचालित करने और हर एक पक्ष के फ़ायेदे की गुंजाइश बनी है।

सवाल है कि आख़िर भारत से कहां चूक हो गयी ? इसका संक्षिप्त जवाब तो यही है कि हमने चीन के लिहाज़ से कुछ भयानक गलत आकलन किये हैं।

दूतावास के परिसर से 1989 के थ्यानमेन स्क्वायर विरोध पर नज़र रखते हुए हमारे गुप्तचरों और राजनयिकों ने पूरी निश्चितता के साथ दिल्ली को बताया कि डेंग का सुधार कार्यक्रम ख़ुद ही ख़त्म हो गया है और अनिवार्य रूप से पश्चिमी प्रतिबंधों का सामना करते हुए चीन तबाह हो जायेगा।

जबकि, गोर्बाचेव, जो उस समय भी बीजिंग में ही थे, वे एक बेहद संवेदनशील घटनाक्रम के एक गवाह के तौर पर एक विपरीत निष्कर्ष के साथ मास्को लौट आये थे। उनका मानना था कि चीन लगातार आगे बढ़ रहा है, डेंग थ्यानमेन स्क्वार घटना के बावजूद सुधारों को लेकर आगे बढ़ते दिखायी देंगे, और मॉस्को का दीर्घकालिक हित इसी में है कि वह बीजिंग के साथ अपने रिश्तों के सामान्य बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाये।

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16 मई, 1989 को बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ़ द पीपल हॉल के बैंक्वेट हॉल में सोवियत राष्ट्रपति, मिखाइल गोर्बाचेव (बायें) और उनकी पत्नी रायसा का हाथ थामे हुए चीनी नेता देंग शियाओपिंग ।

हालांकि गोर्बाचेव और येल्तसिन ज़्यादातर अहम मुद्दों पर कभी भी साथ नहीं हुए, लेकिन वे इस बात पर सहमत थे कि 1990 के दशक की शुरुआत में अपनी विदेश नीतियों में "पाश्चात्यवादी" नीतियों की लड़खड़ाहट के बावजूद मास्को का चीन के साथ रिश्ते बनाना उस दौर की अनिवार्यता थी। बाकी सब तो इतिहास है।

जैसा कि इस समय दिख रहा है कि शुरुआती 1990 के दशक के मुक़ाबले विश्व राजनीति में एक बार फिर से एक निर्णायक मोड़ आ गया है। भारत को तीन दशकों में दूसरी बार आये इस मौक़े को फिर से गंवाना नहीं चाहिए।

मेरे विचार से चीनी नीतियां बहुत तर्कसंगत हैं और राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अपने देश के प्रति चीन के सपने को पूरा करने की प्रतिबद्धता को लेकर बरती जा रही ईमानदारी में बिल्कुल संदेह में नहीं है, क्योंकि 2049 में चीनी क्रांति का शताब्दी वर्ष क़रीब आ रहा है।

भारत को अपने सपनों को लेकर उम्मीद का साहस दिखाना चाहिए और हमारे देश के लोगों के बेहतर जीवन का निर्माण करने को लेकर भारत को चीन के उभार के साथ तालमेल बनाना चाहिए। सकारात्मक ऊर्जा के आधार पर ही विदेशी नीतियां बनायी जानी चाहिए।

साभार: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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