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लखीमपुर हत्याकांडः भारतीय मीडिया के पतन की वही पुरानी कहानी!

मीडिया की इस दशा को समझना आसान नहीं है। यह सिर्फ व्यावासायिक हितों की बात नहीं है। इसमें सांप्रदायीकरण की भूमिका भी एक सीमा तक ही है। असल में, मुख्यधारा का मीडिया लोकतंत्र विरोधी शक्ति में तब्दील हो चुका है। इसकी बनावट अब इसे किसी प्रगतिशील व्यवहार की इजाज़त नहीं देती है।
Lakhimpur Massacre
मीडिया की पथराव की कहानी के विपरीत भाजपा नेताओं की गाड़ी को सुरक्षा के साथ निकलवाते हुए किसान। स्क्रीन शॉट

लखीमपुर खीरी की घटना ने भारत की मुख्यधारा की मीडिया के चेहरे पर एक बार फिर तेज रोशनी डाल दी है। अगर वैकल्पिक मीडिया तथा सोशल मीडिया ने खबरों पर इसका एकाधिकार खत्म नहीं कर दिया होता तो वह जानकारियों को दबाने या  तोड़ने--मरोड़ने में पहले की तरह ही सफल हो जाता। इस कांड के उसके कवरेज ने यही साबित किया है कि मुख्यधारा का मीडिया विश्वसनीयता के संकट से बाहर आने का कोई इरादा नहीं रखता है और अपनी बीमारियों से लड़ने की क्षमता खो चुका है। 

मीडिया की इस दशा को समझना आसान नहीं है। यह सिर्फ व्यावासायिक हितों की बात नहीं है। इसमें सांप्रदायीकरण की भूमिका भी एक सीमा तक ही है। असल में, मुख्यधारा का मीडिया लोकतंत्र विरोधी शक्ति में तब्दील हो चुका है। इसकी बनावट अब इसे किसी प्रगतिशील व्यवहार की इजाजत नहीं देती है।

लखीमपुर हत्याकांड के कवरेज की शुरूआत उसी जाने-पहचाने तरीके से हुई थी जिसका इस्तेमाल हाथरस या  उन्नाव कांड जैसी घटनओं के समय किया गया था। पीड़ित पक्ष को ही अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराने का तरीका। उसकी बात को संदर्भ से काट कर पेश करने का तरीका। इसमें भी ऐसा ही किया गया। मीडिया ने घटना के लिए ‘‘उपद्रवी’’ किसानों को जिम्मेदार ठहराया और यह कहानी ठीक-ठाक आकार भी ले चुकी थी। इस कहानी के अनुसार किसानों के उपद्रव के कारण अफरातफरी मची और कुछ लोग मारे गए। सीधी और सरल दीखने वाली इस कहानी में मंत्री का बेटा ही पीड़ित नजर आता है क्योंकि उसके काफिले पर हमला होता है और लोग अनियंत्रित गाड़ियों की चपेट में आ जाते हैं। आगे भी किसान ही हमलावर हैं और मंत्री के बेटे को ही इसका परिणाम भुगतना होता है। किसान गाडियां जलाते हैं और भाजपा समर्थकों को मार डालते हैं। कहानी को नैतिक आधार देने के लिए खालिस्तानी तत्वों के घुस आने या उपद्रव करने वाले किसान है ही नहीं वाली भाजपा प्रवक्ताओं की नैरेटिव। 

अभी तक लोग तस्वीरों को जोड़ कर किसी घटना की तह में पहुंचते थे। यही रचनात्मकता का तकाजा है। लेकिन मीडिया ने ठीक उलटा किया। उसने तस्वीर के टुकड़े कर दिए और इन टुकड़ों को तय पटकथा के हिसाब से जोड़ दिया। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों ने खबरों को टुकड़े किए। तस्वीर की उतना ही हिस्सा सामने आया जितना किसानों को उपद्रवी बताने के लिए जरूरी था। बाद में, किसी पत्रकार ने ही तस्वीर के लापता टुकड़े को सोशल मीडिया तक पहुंचा दिया और सच्ची कहानी बाहर आ गई। यह शांति से लौट रहे किसानों पर मंत्री के बेटे की गाड़ी से रौंदने की वीडियो क्लिप थी। अभी तक यह सामने नहीं आया है कि खबर को सही रास्ते पर लाने वाली इस वीडियो क्लिप को जारी करने वाला शख्स कौन है। इतना बड़ा साहस किसने दिखाया है?

एक बड़े अखबार के उत्तर प्रदेश संस्करण में छपी खबर से पता चलता है कि कई पत्रकारों ने पूरी घटना को कवर किया था, लेकिन डर के मारे वे उसे प्रसारित नहीं कर पाए। वीडियो के टुकड़े आते रहेंगे तो सच के और भी आयाम सामने आएंगे। लेकिन इनके प्रसारण को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस वीडियो जारी करने वालों पर कार्रवाई करने की खुली चेतावनी दे चुकी है। 

साल 1988 में प्रसिद्ध चिंतक नोम चोम्स्की ने अपनी किताब ‘मैन्युफैक्जरिंग ऑफ कंसेंट’ (कृत्रिम जनमत तैयार करना) में अमेरिकी मीडिया की पोल खोली है। लेकिन उनका विश्लेषण पूरी दुनिया के मीडिया पर लागू होता है। उन्होंने बताया है कि किस तरह वहां का मीडिया कारपोरेट के वैश्विक हितों और अमेरिकी सेना के लक्ष्यों के पक्ष में काम करता है। वह बताते हैं कि इसके काफी पहले भी मीडिया का इस्तेमाल अमीरों तथा ताकतवर लोगों के पक्ष में करने के लिए ब्रिटेन में मजदूरों और सामान्य लोगों की आवाज उठाने वालें अखबारों पर आर्थिक दंड लगा दिया जाता था। उसे नियंत्रण करने की इस कोशिश में सफलता नहीं मिली तो उन्नीसवीं सदी के मध्य में वि़ज्ञापन शुरू किए गए। इसने तस्वीर ही बदल दी। उद्योगपतियों तथा सरकार के पक्ष में काम करने वाले अखबार विज्ञापन की कमाई के कारण सस्ते में बिकने लगे। विज्ञापन नहीं मिलने के कारण जनता के अखबार महंगे थे और वे आर्थिक दौड़ में पूंजीपतियों के अखबारों से पीछे हो गए और अंत में बंद हो गए। 

नोम चोम्स्की बताते हैं कि विज्ञापन के अलावा सरकार तथा सेना की ओर से मुफ्त खबरें आ जाती हैं। इससे अखबारों को बिना पैसा खर्च किए तैयार खबरें मिल जाती हैं। इससे उनका खर्च और भी कम हो जाता है। यह कॉरपोरेट के नियंत्रण को भी आसान बनाता है। चोम्स्की ने लिखा है कि वैसे विशेषज्ञ चर्चा में बुलाए जाते हैं जो सरकार के पक्ष में तर्क रख सकें। भारत के चैनलों ने तो इसमें महारत हासिल कर ली है क्योंकि एंकर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में इसके प्रवक्ताओं के मुकाबले ज्यादा जोर से बोलता है।

चोम्स्की बताते हैं कि मीडिया ने कम्युनिज्म के विरोध में माहौल तैयार किया। इससे अमीरों तथा ताकतवर लोगों के पक्ष में नीतियां बनाने में मदद मिली। चोम्स्की की नजर में यह वैचारिक नियंत्रण का ही एक तरीका है। अपने देश में भी ठीक इसी तरह ‘‘लुटियंस’’,  ‘‘सिकुलर’’ और ‘‘वामी’’ जैसे विशेषणों के जरिए लोकतंत्र और सेकुलरिज्म के पक्ष में लिखने-बोलने वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ माहौल बनाया गया है। हांलांकि इसमें एक फर्क है कि कम्युनिज्म के मुखालफत करने वालों ने लोकतंत्र की मजबूती से वकालत की। यहां ठीक उलटा चल रहा है कि लोकतंत्र के खिलाफ तानाशाही की वकालत की जा रही है।

अमेरिकी मीडिया वहां के राष्ट्रवाद का पक्ष  लेता है। वह वैश्विक स्तर पर अपने मुल्क के आर्थिक तथा सैन्य हितों की रक्षा के लिए काम करता है। साथ ही साथ वह आम नागरिकों के हित में भी खड़ा रहता है। यही उसकी विश्वसनीयता का राज है। भारत के मीडिया की प्रतिबद्धता सिर्फ सत्ता के साथ है और यह उसकी देश के खिलाफ जाने वाली नीतियों के पक्ष में ही काम करता है।

लखीमपुर खीरी हत्याकांड में मीडिया पर नियंत्रण के वे सारे तरीके अमल में आते दिखाई देते हैं जिसकी चर्चा चोम्स्की ने की है। ये सारे तरीके अपने नग्न रूप में दिखाई देते हैं। लेकिन नियंत्रण का स्वरूप कई मायनों में अलग है। यहां कॉरपोरेट की जगह विज्ञापन सरकार की ओर से आते हैं। यानी जनता के पैसों का इस्तेमाल उसके ही अधिकारों को कुचलने के लिए किया जाता है। लखीमपुर खीरी कांड के समय भी अखबारो में उत्तर प्रदेश सरकार के विज्ञापन, तेजी से आ रहे थे। इसके साथ प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों की खबरें, एयर शो जैसी तैयार खबरें आ रही थी। मीडिया चैनल नारकोट्क्सि ब्यूरो की ओर से आर्यन खान की गिरफ्तारी की खबरों को प्रमुखता दे रहे थे। श्रीनगर में कश्मीरी पंडित दवा विक्रेता की हत्या की खबर आते ही मीडिया भावुक हो गया क्योंकि हिदू-मुस्लिम टकराव को हवा देने का एक बडा मौका उसके हाथ आ गया था। सच्चाई यह है कि कश्मीर में हो रही हत्याओं के शिकार मुसलमान भी हैं। लेकिन मीडिया ने कश्मीर की खबरेां को संपादित कर दिया है और यह तथ्य पीछे चला गया है कि पिछले सप्ताह तीन हिंदुओं के अलावा दो मुसलमान भी आतंकवादियों का निशाना बने हैं। 

भारतीय मीडिया और अमेरिकी मीडिया में बुनियादी फर्क है कि वहां का मीडिया नागरिकों के खिलाफ नहीं खड़ा हो सकता है। यहां ठीक इसका उलटा है। वहां का मीडिया नस्लवाद के विरोध में खड़ा है। वह औरतों की आजादी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों, नागरिको के लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में खड़ा होता है। भारतीय मीडिया इनके खिलाफ खड़ा रहता है।

लखीमपुर खीरी हत्याकांड में मुख्यधारा का मीडिया लोकतंत्र के विरोध में पुराने अंदाज में खड़ा हो गया और हत्याकांड को लेकर विप़़क्ष की प्रतिक्रिया को हत्या पर राजनीति  का आरोप मढ़ने लगा। यही आरोप भाजपा भी लगा रही है। मारे गए किसानों को मुआवजा दिलाने तथा प्राथमिकी दर्ज कराने को लेकर सरकार के साथ किसान नेता राकेश टिकैत के समझौते पर भी सवाल उठाने लगा। एक सीमित उद्देश्यों से किए गए समझौते को किसानों और सरकार के बीच समझौता बताने लगा। लेकिन उसकी नजर में यह बात नहीं आई कि संयुक्त किसान मोर्चा का नेतृत्व विस्फोटक स्थिति पर काबू पाने में सफल रहा। दस महीनों से चल रहे इस आंदोलन को हिंसा की ओर जाने से रोक लिया।

मीडिया ने सभी असुविधजनक सवाल नजरअंदाज कर दिए। उसने नहीं पूछा कि अजय मिश्र के केंद्रीय गुह राज्य मंत्री के पद पर बने रहने के बाद निष्पक्ष जांच कैसे हो सकती है?

लखीमपुर खीरी हत्याकांड में भारतीय मीडिया  ने अपने पतन की कहानी फिर से दोहराई।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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