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बिहार का सबक: कष्ट में डूबे रहने का अर्थ यह नहीं कि लोग पार्टी के प्रति वफ़ादारी बदल लें  

चुनाव परिणाम एक बार फिर से इस तथ्य को साबित करते हैं कि जातीय पहचान की पकड़ कितनी मजबूत बनी हुई है। कोई भी इसे इतने बढ़िया से नहीं समझा सकता कि क्यों जेडी-यू का वोट शेयर बुरी तरह से कम नहीं हो सका।
बिहार

कुलमिलाकर देखें तो बिहार विधानसभा चुनाव एक बेहद करीबी टक्कर में तब्दील हो गया था, जिसमें राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन ने आख़िरकार महागठबंधन के उपर बढ़त बनाने में सफलता हासिल कर ली है इस सबके बावजूद मैन ऑफ़ द मैच का पुरस्कार राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की संयुक्त ताकत से जमकर लोहा लिया और एनडीए को इस जीत के लिए नाकों चने चबवा दिए एक नए राजनीतिक सितारे का उदय हो चुका है अपने पिता लालू प्रसाद यादव से विरासत के तौर पर मिले उत्तराधिकार को तेजस्वी ने अपने लिए एक स्वतंत्र छवि निर्मित करने में सफलता हासिल कर ली है 75 सीटों के साथ उनका दल सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरा है

बिहार में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन की जीत में दो अन्य संदेश भी छुपे हैं एक यह कि लोग आसानी से अपनी पार्टी के प्रति वफ़ादारी को स्थानांतरित नहीं करते हैं और दूसरा यह कि भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दबदबा बना हुआ है उनके पास अभी भी किसी मुख्यमंत्री पद के दावेदार पर बढ़त बनाये रखने का माद्दा है, भले ही उसका संबंध भारतीय जनता पार्टी से हो या इसके सहयोगी दलों से हो बदले में मोदी इस बात की आशा रखते हैं कि गठबंधन में, जिसका एक सदस्य उनका दल भी है, को खुलकर खेलने की आजादी हो

मोदी और उनकी टीम की इस चाहत ने एनडीए को बिहार विधानसभा चुनाव में तकरीबन हार के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया था व्यापक तौर पर यह माना जा रहा है कि लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान का एनडीए से बाहर निकलने का फैसला दरअसल बीजेपी के इशारे पर लिया गया था उन्होंने जेडी-यू के खिलाफ अपने उम्मीदवारों को खड़ा करने का काम किया, जिसके चलते जेडी-यू को वे वोट हासिल नहीं हो सके जो कि अंततः एनडीए की ही झोली में आने थे यही वह महत्वपूर्ण वजह रही जिसके कारण 2015 में 71 सीट पाने वाली जेडी-यू इस चुनाव में खिसककर 43 सीटों तक ही सिमटकर रह गई है, और इस प्रकार एनडीए में एक वरिष्ठ साझीदार की अपनी हैसियत से भी हाथ धो चुकी है जबकि बीजेपी ने इसकी तुलना में 73 सीटों पर जीत हासिल की है

बदलाव के लिए पूरी तरफ से तैयार 

इन सभी कारकों की वजह से इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव एक आकर्षक चुनावी दंगल में तब्दील हो चुका था इसके बावजूद यदि कोई राज्य बदलाव के लिए पूरी तरफ से तैयार था तो यह 2020 का बिहार ही था आने वाले कई वर्षों तक यदि भारतीय राज्य की गरीबों के प्रति अक्षम्य उदासीनता की तस्वीर को अन्य के साथ परिभाषित किया जाएगा, तो तस्वीर वह बिहारी प्रवासी मजदूरों की होगीमोदी के मात्र चार घंटों के भीतर ही लॉकडाउन के नोटिस दिए जाने के चलते वे शहरों से खुद को बचाते हुए पैदल ही राजमार्ग के रास्ते अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े थे तकरीबन 32 लाख बिहारियों ने अपनी घर वापसी की थी

इन 32 लाख को यदि औसत बिहारी परिवारों के 5.5 व्यक्तियों के आकार से गुणा करें तो कुल योग 1.76 करोड़ लोगों का बैठता है, जो कि बिहार की कुल आबादी 10.37 करोड़ (2011 जनगणना) का लगभग 17% हिस्सा है, जिन्हें लॉकडाउन के कारण बेहद कष्टों में जीवन गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा था जब मोदी ने राष्ट्र को लॉकडाउन में डाल दिया था तो शहरों में रह रहे बिहारी प्रवासियों ने उस दौरान घर लौटने के लिए गुहार लगाई थी लेकिन कुमार ने लगातार इस बात पर जोर दिया कि वे जहाँ हैं वहीँ पर बने रहे। उन्होंने यहाँ तक धमकी दे डाली कि उनके बिहार में घुसने से पहले ही ट्रेनों को रोक दिया जायेगा शुरू-शुरू में तो उन्होंने पड़ोसी राज्यों में फंसे बिहारियों को वापस लाने के लिए बसें भेजने से मना कर दिया था आज तक कभी ऐसा मुख्यमंत्री नहीं देखा गया जो हालात के प्रति इतना बेखबर हो, जिसने अपने ही लोगों के प्रति इतनी बेरुखी दिखाई हो

ऐसा प्रतीत होता है कि जब बिहार के कुछ हिस्सों में उफनती ही नदियों के कारण बाढ़ की स्थिति बनी हुई थी तो उस दौरान भी वे पूरी तरह से उदासीन बने रहे करीब 85 लाख लोग इससे प्रभावित बताये जा रहे थे कुमार ने बाढ़ के लिए सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर मढ़ दिया था उनके शराब निषेध की नीति के कारण उनकी सरकार ने पिछले चार वर्षों में 1.5 लाख से अधिक लोगों को जेलों में डाल दिया था यदि तुलना करें तो आपातकाल के दो वर्षों के दौरान पूरे देश भर से 1.11 लाख लोगों को ही जेलों में ठूंसा गया था कुमार के खिलाफ लोकप्रिय जनाक्रोश की लहर बिहार चुनाव अभियान में देखने को मिली थी: कई रैलियों में उन्हें दुत्कारा गया, वे पस्त-हिम्मत दिखे, और तेजस्वी द्वारा उनपर हमला किये जाने पर लोगों द्वारा जमकर ताली पीटी गई

इस सबके बावजूद बिहार ने तेजस्वी को अंगीकार नहीं किया, जैसा कि उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी- और जैसा कि सभी एग्जिट पोल ने भविष्यवाणी की थी संभवतः उनकी राह में और जीत में जो चीज एक बड़ी बाधा के तौर पर खड़ी थी वह जाति थी, जो लोगों की प्रतिबद्धता को राजनीतिक पार्टियों के प्रति परिभाषित करती है ऐसा जाहिर होता है कि अति पिछड़ी जातियों, दलितों और महिलाओं के एक हिस्से के तौर पर कुमार के बुनियादी समर्थकों ने अभी भी अपने भरोसे को उनपर बनाये रखना जारी रखा है मतदाताओं का जितना प्रतिशत उनसे खिसका वह इस इतना काफी साबित नहीं हुआ जो एनडीए की नाव को झकझोर कर रख सके जेडीयू को इस बार 15.4% वोट हासिल हुए हैं, जो कि 2015 में हासिल किये गए 16.83% से कुछ ही कम बैठता है

जबकि वहीँ दूसरी ओर सवर्ण जातियाँ मजबूती के साथ बीजेपी के पीछे बनी रहीं, जिसे वे अभी भी अपने हितों की रक्षा के लिए सबसे बेहतरीन पार्टी के तौर पर देखते हैं बीजेपी ने उनके इस भरोसे को कायम रखते हुए अपने कोटे में आई 110 सीटों में से 46% सीटों पर उच्च जातियों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था ऐसा जाहिर होता है कि साधन-सम्पन्न समूहों ने लॉकडाउन के लिए मोदी को दोषी नहीं ठहराया है, जिसके चलते उन्हें वैसे भी निचली जातियों-वर्गों की तुलना में वे कष्ट नहीं झेलने पड़े थे ऐसा भी जान पड़ता है कि उच्च जातियों को प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा ने उस हद तक भयभीत नहीं किया था यदि वे यह सब देखकर भयभीत भी हुए होंगे तो लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में उनके हाशिये पर धकेल दिए जाने की स्मृतियों ने उन्हें बीजेपी के पीछे एकताबद्ध बने रहने के लिए आधार प्रदान किया होगा

सामाजिक न्याय बनाम आर्थिक न्याय 

लेकिन यह तेजस्वी थे जिन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव को बेहद करीबी मुकाबले में तब्दील कर दिया, हालाँकि एनडीए से चिराग का अलग होना भी एक महत्वपूर्ण कारक था हालाँकि तेजस्वी ने भी शायद ही कभी सामाजिक न्याय के पक्ष में न बोलकर एक गलती की इसे दूसरे शब्दों में कहें तो निचली जातियों की गरिमा के लिए संघर्ष करने के दृढ निश्चय को जाहिर करने में कमी ने, एक ऐसा कार्य जिसे उनके पिता ने अपने 15-वर्षीय कार्यकाल में शानदार और दुस्साहसिक ढंग से कायम रखा था

इस बात का अंदाजा लगाना बेहद आसान है कि क्यों तेजस्वी ने अपना सारा ध्यान सामाजिक न्याय के बजाय आर्थिक न्याय पर बनाये रखने को चुना उनकी पार्टी का जनाधार मुख्य तौर पर मुसलमानों और यादवों के बीच में है, जो बिहार की कुल जनसंख्या का 30-31% बैठते हैं यह संख्या हमेशा ही आरजेडी को चुनावी दंगल में जिंदा रखने में समर्थ है, लेकिन बाकी के जातीय समूहों को लुभाए बिना वे कभी भी जीत हासिल नहीं कर सकते हैं यहाँ तक कि 25 मार्च को जब राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू हो रहा था, तो उससे पहले भी वे राज्य-व्यापी बेरोजगारी हटाओ यात्रा निकाल रहे थे

तेजस्वी के आर्थिक न्याय के अजेंडे को लॉकडाउन ने और बल दिया, जिसने जाति के वर्गीय आयाम को सामने ला खड़ा कर दिया था लॉकडाउन के पहले तक प्रवासी मजदूर किसी एक जाति या अन्य से खुद को जोड़कर देखते थे लॉकडाउन से उपजे दुखद अनुभव ने उनकी चेतना में इस भावना को पैदा करने का काम किया कि हिन्दू सामाजिक सीढ़ी में भले ही उनकी हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो, लेकिन देश की उत्पादन प्रक्रिया में उनकी भूमिका कमोबेश एक सी थी: शोषण से जख्मी हो चुके शरीर और आत्माओं को इस भयावह कोरोनावायरस और निर्मम लॉकडाउन में खुद ही अपनी चिंता करने के लिए छोड़ दिया गया था

तेजस्वी ने अचानक से जाति के वर्गीय आयाम से मिल रहे समर्थन पर अपना भरोसा जमा रखा था, जो हमेशा पदानुक्रम की तलाश में रहता है जाति में एक तेज धार होती है, लेकिन यह एकता को भी कमजोर करने का काम करता है तेजस्वी को सामाजिक न्याय को लेकर कुछ ख़ास कहने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि इसके प्रमुख लाभार्थियों में से - निचली जातियाँ काफी हद तक लॉकडाउन में हुए साझे अनुभवों के कारण एक दूसरे से घुलमिल गए थे और इस अनुभव ने उन्हें बता दिया था कि अगर बिहार को विकसित किया जाता है और उन्हें नौकरियाँ मुहैय्या कराई जाती हैं तो उन्हें उन हृदयहीन शहरों में शोषित होने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा यही वजह थी कि 10 लाख नई नौकरियां देने के उनके वादे की ऐसी अनुगूंज सुनने को मिल रही थी

विधानसभा चुनाव के नतीजों ने दर्शा दिया है कि जातीय पहचान की पकड़ आज भी वर्गीय पहचान की तुलना में कहीं ज्यादा मजबूती से जकड़े हुए है जेडीयू के वोटों के शेयर में क्यों अभूतपूर्व तौर पर कमी देखने को नहीं मिली, शायद इससे बेहतर इस बात को नहीं समझा जा सकता है

यह भी सच है कि बहुमत के आंकडे को छूने में महागठबंधन इसलिए भी पीछे छूट गया क्योंकि कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, जिसने मात्र 19 सीटें ही जीतीं जब महागठबंधन ने अपने साझेदारों के बीच में सीटों के बँटवारे को लेकर घोषणा की थी, तो ऐसे कई लोग थे जो इस बात से हैरान थे कि कांग्रेस को 70 सीटें आवंटित कर दी गई थीं ऐसा कहा जा रहा है कि जितनी सीटों की माँग कांग्रेस ने रखी थी, वह पूरी न होने की सूरत में कांग्रेस ने गठबंधन से बाहर निकल जाने की धमकी दे रखी थी हालाँकि इसके नेताओं का दावा है कि उन्होंने उन सीटों को चुना जहाँ यदि आरजेडी भी लड़ती तो उसके लिए भी लड़ाई काफी मुश्किल साबित होती

इस तुलना में महागठबंधन में शामिल वाम दलों- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (लिबरेशन), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का प्रदर्शन तुलनात्मक तौर पर काफी बेहतर रहा: जिन 29 सीटों पर वे लड़े, उनमें से कुलमिलाकर वे 16 सीटों को जीतने में सफल रहे कई मायनों में वर्ग पर उनके जोर में तेजस्वी के आर्थिक न्याय के अजेंडे की तुलना में विश्वसनीयता का अंश अधिक था इसके साथ ही उनके कार्यकर्ताओं ने बिहार के कई हिस्सों में गठबंधन के पक्ष में हवा बनाने का काम किया था क्या गठबंधन कुछ और हासिल कर सकता था यदि कांग्रेस के कोटे में से कुछ सीटें इन्हें सौंप दी जातीं? क्या यह समझदारी भरा कदम होता यदि गठबंधन विकासशील इंसाफ पार्टी को अपने दायरे में रख पाने में सफल रहता, जिसे कुछ और सीटों की दरकार थी, जितना कि उसके कोटे में आवंटित किया जा रहा था? शायद...

मोदी और हिंदुत्व 

वाम दलों को यदि छोड़ दें तो तकरीबन सभी राजनीतिक दलों का यह डिफ़ॉल्ट तरीका बना गया है कि वे खुद को हिंदुत्व के खिलाफ बोलने और इससे उत्पन्न होने वाले सामजिक दुराव से बचाए रखने की कोशिश में लगे रहते हैं उनका मानना है कि उनके द्वारा हिंदुत्व की आलोचना से हिन्दुओं में रोष उत्पन्न हो सकता है, मतदाताओं में ध्रुवीकरण और बीजेपी के लिए स्थिति फायदेमंद हो जाती है इसलिए वे हिंदुत्व की आलोचना करने या मुसलमानों के पक्ष में बोलने से कतराते हैं, जैसा कि बिहार में महागठबंधन की रणनीति से भी स्पष्ट था जैसे-जैसे विधान सभा चुनावों में लड़ाई कांटे के टक्कर में तब्दील होती गई, मोदी और बीजेपी ने राम मंदिर, धारा 370, बालाकोट और चीन के खिलाफ सीमा पर झड़पों में बिहारी सैनिकों की मौत पर बोलना शुरू कर दिया था

यह कह पाना कठिन है कि एनडीए को किस हद तक हिंदुत्व ने वोट दिलाने में मदद पहुँचाई लेकिन यह देखते हुए कि हिंदुत्व तेजी से भारत की आम सोच पर हावी होता जा रहा है, मतदाताओं को विशेष तौर पर सवर्णों को याद कराते रहने के सन्दर्भ में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है इस बात की प्रबल संभावना है कि बीजेपी के हिन्दू राष्ट्रवाद ने उन्हें एनडीए से पल्ला छुड़ाने से रोकने में अपनी भूमिका निभाई हो हिंदुत्व के डर से विपक्षी दल मुसलमानों के समर्थन में बोलने से परहेज रखते हैं, यहाँ तक कि जब उनका उत्पीड़न हो रहा होता है, वे दूरी बनाये रहते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी के तौर पर चिन्हित कर दिया जायेगा

विपक्ष की इस चुप्पी से मुसलमान बुरी तरह से चिढ़े हुए हैं यह बताता है, भले ही आंशिक तौर पर ही सही कि क्यों असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को पाँच सीटें जीत पाने में कामयाबी हासिल हुई हैं, जिसके महागठबंधन में जाने के पूरे आसार थे ओवैसी की मान्यता है कि गैर-बीजेपी दल मुसलमानों के बारे में यह माने बैठे हैं कि मुसलमानों को उनके बगैर कोई ठौर नहीं है मुसलमानों को इन पार्टियों को अपना वोट हर्गिज नहीं देना चाहिए ताकि उन्हें समुदाय के हितों के लिए काम करने के लिए मजबूर किया जा सके बिहार ने संकेत दे दिए हैं कि ओवैसी की इस मान्यता को कर्षण मिलने लगा है यह एक सच्चाई है कि हिंदुत्व ने विपक्षी दलों का, खासतौर पर कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ना है, जब तक कि वे लोगों से बातचीत के स्तर पर नहीं उतरते हैं, एक जिले से दूसरे जिले, गाँव-गाँव में, जिसे उन्हें चुनाव के सर पर आ जाने से काफी पहले से करने पर लगना होगा

हिंदुत्व के अलावा भी मोदी और बीजेपी ने बिहार में अपने प्रभुत्व को स्थापित कर लिया है मोदी ने दिखा दिया है कि भारत में जिस प्रकार की पकड़ उन्होंने बना रखी है, वैसा किसी नेता के बूते में नहीं है वे राष्ट्रीय चेतना पर हावी बने हुए हैं, ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि मुख्यधारा का मीडिया उनकी आलोचना करने से बचता है ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों की जिंदगियों में लॉकडाउन ने जिन मुश्किलातों को ला खड़ा कर दिया है, उसके लिए वे मोदी को दोषी नहीं ठहरा रहे हैं उल्टा उन्हें लग रहा है कि उनकी जिंदगियों की रक्षा के एवज में वे उनके अनुग्रहीत हैं भारत के इतिहास में सरकार की कल्याणकारी योजनाओं ने हमेशा से ही सत्ता पक्ष को फायदा पहुंचाने का काम किया है लेकिन आज से पहले कभी भी कल्याणकारी योजनाओं को इतने वैयक्तिक स्तर पर प्रधानमंत्री के साथ जोड़कर नहीं पहचाना जाता था, जैसा कि यह मोदी के समय में देखने को मिल रहा है शायद यही वजह है कि इतने सारे लोग उनकी नीतियों की वजह से थोपे गए कष्टों के बावजूद उन्हें माफ़ करने के लिए तैयार हैं

बिहार में एनडीए की इस जीत का पश्चिम बंगाल और असम के चुनावों में असर पड़ना लाजिमी है यह देखते हुए कि इन दोनों राज्यों में मुस्लिम आबादी अच्छी खासी संख्या में है, बीजेपी मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए हिंदुत्व के औजार को इस्तेमाल में लायेगी बिहार से बीजेपी को असंतोष के स्वरों को कुचलने के लिए बल मिलेगा और वह अपने विरोधियों को लाइन पर लाने के लिए मजबूर करने के लिए खोजी कुत्तों को पीछे लगा सकती है विरोध के आंदोलनों पर केंद्र द्वारा सख्ती से निपटने के आसार हैं यह नागरिक अधिकारों के आन्दोलन में शामिल लोगों पर सख्ती से कंटिया लगाने के काम को वह जारी रखेगा विपक्ष को बिहार में जीत की सख्त जरूरत थी जिससे कि वह मोदी के बीजेपी पर अभी जितना दबाव है उससे कठिन चुनौती खड़ी कर सके फिर भी तेजस्वी के जोरदार प्रदर्शन ने उसे पूर्ण हताशा में जाने से उबार लिया है वास्तव में देखें तो तेजस्वी ने साबित कर दिखाया है कि विपक्ष के पास चुप्पी साधकर बैठे रहने जैसा कोई विकल्प नहीं है

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Lesson from Bihar: Suffering Does Not Make People Shift Party Loyalties

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