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तानाशाही के चंगुल में अब एक उदारवादी लोकतंत्र

इस गिरावट की एक वजह पूंजीवाद और वैश्वीकरण हैं जो धर्म, जाति, नस्ल और भाषायी आधार पर विभाजन को बढ़ा रहे हैं।
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मंगलवार को दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट की जज, जस्टिस कामिनी लाऊ ने "प्रदर्शन के अधिकार" समेत कई दूसरी बातों के पक्ष में कड़ी टिप्पणियां कीं। उनकी टिप्पणियां संसद के हालिया तौर तरीकों के परिप्रेक्ष्य में थीं। वह भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद की ज़मानत याचिका पर सुनवाई कर रहीं थीं।

जस्टिस लाऊ ने तीखी बातें कहीं। चंद्रशेखर की बेल का विरोध करते हुए दिल्ली पुलिस जरूरी सबूत पेश नहीं कर पाई। उन पर दिल्ली में नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में हुई एक रैली में हिंसा में शामिल होने के आरोप लगाए गए थे। जज ने कहा, " जब संसद में जो बातें बोली जानी चाहिए थीं, वह नहीं बोलीं जा रहीं, तो विरोध प्रदर्शन करना हर एक का अधिकार है।" इसलिए जज ने पूछा कि लोग सड़कों पर क्यों हैं? उन्होंने कहा, "हमारे पास अपने विचारों को व्यक्त करने के पूरे अधिकार है, लेकिन हम अपने देश को तबाह नहीं कर सकते।"

जब ज़मानत का विरोध करते हुए सरकारी वकील ने दलील दी कि चंद्रशेखर ने जमा मस्ज़िद पर धरना दिया तो जज  ने कहा, "पुलिस तो इस तरह बर्ताव कर रही है, जैसे जामा मस्जिद पाकिस्तान में है। मस्ज़िद जाने में क्या दिक्कत है? धरना देने में क्या गलत है? यह हर किसी का संवैधानिक अधिकार है। यह हिंसा कहां है? क्या आपने संविधान पढ़ा भी है।" यह बेहद कड़ी बातें थीं।

दूसरे और सुनवाई के आखिरी दिन जज ने इसी सख्ती से और बातें कहीं। उन्होंने अपने ऑर्डर में लिखा, ".... शांति के साथ प्रदर्शन हमारा मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी संविधान देता है।  राज्य द्वारा इसका हनन नहीं किया जा सकता...जब हम इस अधिकार का उपयोग करते हैं तब हमारा कर्तव्य है कि हम इस बात का ध्यान रखें कि किसी दूसरे के अधिकारों का भी हनन ना हो। ऑर्डर में आगे लिखा गया, "हिंसा या तोड़-फोड़ किसी भी प्रदर्शन में बर्दाश्त नहीं की जा सकती। निजी या सरकारी संपत्ति के नुकसान का जिम्मेदार प्रदर्शन का आयोजक होगा और उसे उसकी भरपाई करने होगी।" लेकिन आर्डर में कहा गया कि नुकसान का कोई अंदाजा ही नहीं लगाया गया, ना ही आज़ाद का संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने से कोई सीधा संबंध पाया गया।

दिल्ली पुलिस के वकील ने सुनवाई के दौरान 6  ट्वीट का ज़िक्र किया। इन्हें उसने भड़काऊ बताया। जज ने इनमें से दो पर कॉमेंट किया। एक ट्वीट में आज़ाद ने कहा था, "जब -जब  मोदी डरता है, पुलिस को आगे करता है।" इस पर जज ने कहा कि आज़ाद को इस तरह से पीएम  का अपमान नहीं करना चाहिए। एक और ट्वीट में आज़ाद ने आरएसएस पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया था। ट्वीट में कहा गया था,"जो लोग हिंसा कर रहे हैं, वे आरएसएस से संबंधित हैं।" जज ने इस ट्वीट पर कहा- "आरएसएस या दूसरे संगठनों का नाम क्यों लेना? आप अपने बारे में बात करो. दूसरों के बारे में बात करने से लोग भड़क सकते हैं।"

जज ने चंद्रशेखर के पक्ष में ज्यादा बातें कहीं, बावजूद इसके उन्होंने बेल में बेहद कड़ी शर्तें रखीं। यह शर्तें विलक्षण, बर्बर और पहली नज़र में असंवैधानिक दिखाई पड़ती हैं। उन्होंने आज़ाद को बेल देते हुए कहा : आज़ाद अब "इसी तरह" का कोई अपराध नहीं कर सकता, जबकि जज सामने वाले पक्ष को ख़ारिज करते हुए साफ कर चुकी थीं कि किसी भी तरह का अपराध आज़ाद ने नहीं किया है।

जज ने आगे कहा कि विधानसभा चुनाव के खात्मे तक आज़ाद दिल्ली नहीं आ सकते, सिवाए इलाज करवाने के। यह भी कहा गया कि आज़ाद को अपने गृह जिले सहारनपुर में फतेहपुर स्टेशन के प्रभारी के सामने उपस्थित होना पड़ेगा।

यहां गौर करने लायक है कि जज ने हुई सुनवाई के दौरान जो ऑब्जर्वेशन दिए, उनका बेल ऑर्डर से काफी विरोधाभास है। यह समझना रोचक होगा कि ऐसा क्या बदला की 24 घंटों में इतना अंतर आ गया।

कश्मीर में इंटरनेट बंद और धारा 144 को लगाए किए जाने के मामले में 10 जनवरी, 2020 को सुप्रीम कोर्ट के ऑब्जर्वेशन और फैसले में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। कोर्ट ने अपने ऑब्जर्वेशन में कहा कि संविधान के तहत कई आधारों पर इंटरनेट तक पहुंच के आधार को सुरक्षा मिली है। कोर्ट ने सरकार से इंटरनेट बंद पर रीव्यू करने के लिए कहा। वहीं कोर्ट ने धारा 144 पर कहा कि इसे तभी न्यायोचित माना जा सकता है, जब आपात स्थिति बनी हो। इसका इस्तेमाल अभिव्यक्ति या किसी लोकतांत्रिक अधिकार को दबाने के लिए नहीं हो सकता।

जहां तीस हजारी कोर्ट में जज खुद अपने ऑब्जर्वेशन से विरोध में चली गई, वहीं सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर वक़्त के अनुकूल नहीं आया। यह बेंच की गलती नहीं है। सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि मामले की सुनवाई आगे बढ़ती रहे।

सरकार कश्मीर में उन संवैधानिक बदलाव, जिनका बचाव नहीं किया जा सकता था, उन्हें डर और जबरदस्ती लागू कर अपनी मंशा हासिल कर चुकी है। इस मामले कि सुनवाई कश्मीर बंद के बाद पांच महीनों तक चलती रही।

यह दो न्यायिक कार्रवाई गिरते सांस्थानिक दर्जे की तरफ इशारा करते हैं, जिनसे भारत के उदारवादी लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही है। ज्यादा लंबा वक्त नहीं गुजरा है, जब कहा गया कि CBI समेत  दूसरी जांच एजेंसियों को दवाब में लाकर भ्रष्ट किया का सकता है। कानूनी संस्थाएं जैसे - CVC, CAG यहां तक कि इलेक्शन कमीशन को भी दबाया का सकता है। आखिर इन सबकी नियुक्ति तो केंद्र सरकार के हाथ में ही होती है। इस ताकत का इस्तेमाल इनके निरपेक्ष रहने की स्थिति पर किया का सकता है। फिर भी कुछ नागरिकों को लगता था कि न्यायपालिका संवैधानिक प्रशासन के लिए मजबूती से खड़ी रहेगी।

यह सिर्फ इन दो मामलों की बात नहीं है। जैसे कश्मीर मामले की सुनवाई को बिना तर्क के बढ़ाया जाता रहा, उसी तरह CAA और NRC पर आधारित याचिकाओं को टाला जा रहा है। ताकि सरकार को राष्ट्र के सामने मामले को ऐसे दिखाने का वक़्त मिल जाए, जैसे एक बहुत बड़े काम को बिना चुनौतियों के संपन्न करा लिया गया है।  NRC  के मामले में पहली याचिका 18 दिसंबर,2019 को दर्ज की गई थी, लेकिन इसकी पहली सुनवाई की तारीख 22 जनवरी, 2020 को रखी गई। 13 जनवरी  को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने कहा था कि नागरिकता संशोधन कानून और आर्टिकल  370 की  सुनवाई को अभी इंतजार करना होगा, क्योंकि सबरीमाला केस को पुराने होने के चलते प्राथमिकता दी जाएगी।

नागरिकता संशोधन कानून का मामला बुनियादी अहमियत का है, क्योंकि इससे भारतीय राज्य के चरित्र में बदलाव किया जा रहा है और प्राथमिक नजर में यह असंवैधानिक है। कश्मीर का मामला भी बुनियादी है। यहां अहमियत को नजरंदाज कर नए -  पुराने की लिस्ट बनाने से कोई मतलब नहीं है।

इसी तरह 16 दिसंबर, 2019 को मुख्य न्यायधीश शरद ए बोबडे ने जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस बर्बरताओं पर याचिका कि सुनवाई से इनकार कर दिया था। इसके लिए दिया गया उनका कारण बेहद हास्यास्पद था। उन्होंने कहा था, "हम ये नहीं कहते की हिंसा के लिए जिम्मेदार कौन है, पुलिस या छात्र। हम कहते हैं को पहले हिंसा रुकनी चाहिए। एक जज के तौर पर हमारे पास बहुत अनुभव है, हम जानते हैं कि कब हिंसा शुरू होती है और प्रदर्शनकारियों के अधिकार क्या हैं। यह सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना क्या है? जब चीजें शांत होंगी, तब हम ठंडे दिमाग से मामले का संज्ञान लेंगे।

कोई भी आसानी से समझ जाए कि यही इनका फैसला है। क्योंकि जामिया केस में छात्रों को पुलिस की बर्बरता सहन करनी पड़ी थी।  उन्होंने तब भी दावा किया था कि ना तो उन्होंने दंगा किया, ना ही सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। दरअसल यह सब पुलिस और सरकार या बीजेपी समर्थित लोगों ने किया, जिसकी जांच होना जरूरी है। आखिर इसी वजह से तो सुप्रीम कॉर्ट का दरवाजा खटखटाया गया था।

अब जब न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी खतरे में है, तब हम एक पुलिस स्टेट में प्रवेश कर चुके हैं, जो एक फासिस्ट राज्य बनने की राह पर आगे बढ़ रहा है। हम इसका अहसास शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के सरकारी तरीकों से भी कर चुके हैं। हमें इसका अहसास तब भी हुआ जब बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं या जब सत्ताधारी पार्टी से अलग मत रखने वालों को फंसा दिया गया, जैसा भीमा- कोरेगांव/एलगर परिषद केस में हुआ। राजद्रोह कानून के लगातार इस्तेमाल से भी हमें इसकी आहट सुनाई पड़ती है। यह एक ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक कानून है, जिसे हटा दिया जाना चाहिए था।

संस्थानों की गिरावट से राज्य को अपनी शक्तियों के खुलकर इस्तेमाल की छूट मिल गई है, खासकर हिंसा के "वैध एकाधिकार" और इसे अंजाम देने के लिए जरूरी संस्थानों पर क़ब्ज़ा। यह वो तरीके हैं, जो पूरी तरह से गैरकानूनी हैं। जैसा ऊपर देखा, दंगों और तोड़फोड़ पर न्यायपालिका के फैसलों से राज्य की हिंसा और दबदबे को खुली छूट और बचाव का रास्ता मिल गया है। क्योंकि इन्हें अब न्यायिक तरीके से सुलझाया नहीं जा रहा है।

लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि फासीवाद, सामाजिक बीमारी की राजनैतिक अभिव्यक्ति है। सवाल उठता है कि आखिर समाज में ऐसा क्या हो गया कि मौजूदा सरकार उदारवादी लोकतंत्र को तानाशाही की तरफ खींचने में कामयाब रही है। इस सवाल का जवाब यहां देना बेहद पेचीदा है। लेकिन इसके जवाब देने के क्रम में हमें समझना होगा कि राज्य-समाज द्वंदवात्मकता जारी है। भारतीय समाज कई तरफ से विघटित है। वर्ग विभाजन कई दूसरे विभजनों के साथ मौजूद है, जैसे - धार्मिक, जातिगत, नस्लीय या भाषाई आधार पर। पूंजीवाद और वैश्वीकरण से इनके खात्मे के बजाए, इन विभाजनों का खेल हमेशा चलता रहता है। बल्कि यह पूंजीवाद और वैश्वीकरण इन्हें बढ़ावा ही दे रहा है।

समाज को आकार देने में राज्य और इसकी असीमित शक्तियों का काफ़ी योगदान होता है। पिछले पांच सालों में हमने देखा कि राज्य सामाजिक विभाजन को लगातार बढ़ा रहा है, कभी घिनौने तरीके से, तो कभी बिल्कुल खुलकर। ताकि एक उन्माद फैलाकर ताकतवर बहुंसंख्यकवाद का माहौल बनाया जा सके।  इसे एक पार्टी द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और सत्ता द्वारा बहुसंख्यकों की भीड़ को भड़काया जाता है, जो अल्पसंख्यकों और दलितों को निशाना बनाती है। इसमें सभी वर्ग के गरीब भी पिस्ते हैं। इससे बहुसंख्यकवाद को खाद - पानी मिलता है और  सत्ताधारी पार्टी की विभाजनकारी डिजाइन को बल मिलता है। यही द्वेध आज फासीवाद की स्थितियां बना रहा है। जबकि सिर्फ पच्चीस फीसदी लोगों ने ही फासीवाद की तरफ बढ़ती और भयानक सांप्रदायिक बीजेपी को वोट दिया था।

किस्मत से आम नागरिक  अपने संसाधन और निजी व्यय के बावजूद इस सत्ता और इसकी डिजाइन को नकारने के लिए वोट दे रहा है। हम आशा करते हैं कि जिन 62 फीसदी लोगों ने फासीवाद, पुलिस स्टेट और बहुसंख्यकवाद के लिए वोट नहीं किया था, वे यह लड़ाई जीतेंगे।

(सुहित केसेन स्वतंत्र शोधार्थी और पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

A Liberal Democracy in an Authoritarian Groove

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