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कृषि का उदारीकरण : विकसित और विकासशील देशों के सबक

कृषि उदारीकरण का विकसित और विकासशील दोनों देशों पर पड़े प्रभाव और अनुभव से पता चलता है कि भारतीय किसानों ने कृषि क़ानूनों के खिलाफ जो चिंताएं जताई हैं, वे न तो निराधार हैं और न ही ग़लत हैं।
कृषि

देश के विभिन्न राज्यों के किसान और कृषि मजदूर दिल्ली की सीमाओं पर तीन महीने से  आंदोलन कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि तीनों कृषि कानूनों को निरस्त किया जाए। किसानों का तर्क है कि इन कानूनों के लागू होने से उनकी कृषि उपज की कीमतें गिरेगी, खेती की लागत बढ़ने के साथ उनका कर्ज़ भी बढ़ेगा। उन्हें डर है कि यह आर्थिक स्थिति उन्हें उनकी जमीन बेचने में मजबूर कर देगी।

वे यह तर्क भी देते हैं कि नए कानून अंततः सार्वजनिक खरीद प्रणाली (जिसके तहत सरकार किसानों से एक पूर्व-निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)) पर खरीद करती है और जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली से आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ है उसे तबाह कर देंगे यानि देश में खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता खतरे में पड़ जाएगी।

उन्हें डर है कि कृषि क्षेत्र में बड़े कृषि-व्यापारियों, पूँजीपतियों और कॉर्पोरेट के प्रवेश से उन्हें अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने वाले मजदूरों में बदल दिया जाएगा। विशाल कॉर्पोरेट का इस तरह का प्रभुत्व होता है, जिसके बारे में तर्क दिया जाता है कि वे छोटे और सीमांत किसानों को हाशिए पर डाल देंगे और ये बात भी तय है कि इससे कृषि श्रमिकों की आजीविका भी होगी।

किसान समुदाय के इस ऐतिहासिक आंदोलन के बावजूद, केंद्र सरकार कृषि कानूनों के ज़रीए कृषि सुधार को एक आवश्यक सुधार मानती है, और कहती है कि इससे किसानों आने वाले समय में लाभ होगा। अपने रेडियो शो ‘मन की बात’ में राष्ट्र के नाम अपने एक संबोधन में, पीएम मोदी ने कहा, “संसद ने हाल ही में कठोर विचार-मंथन के बाद कृषि-सुधार कानून पारित किए है। इन सुधारों ने न केवल किसानों की बेड़ियों को तोड़ दिया है, बल्कि उन्हें नए अधिकार और अवसर भी दिए हैं।”

कुछ दिनों पहले कृषि-कानूनों की तारीफ करते हुए, उन्होंने जोर देकर कहा था कि सुधारों से छोटे और सीमांत किसानों को फायदा होगा और किसानों से इन कानूनों को मौका देने की अपील की। भारत सरकार द्वारा पेश किए गए कृषि कानूनों जैसे कानूनों के माध्यम से ही दुनिया के अन्य हिस्सों में कृषि का उदारीकरण करने की कोशिश की गई थी और इन अनुभवों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

भारतीय किसानों के संघर्ष के प्रति एकजुटता का व्यक्त करते हुए, अमेरिका की 87 किसान यूनियनों ने तर्क दिया कि भारतीय किसान आज जिस हमले का सामना कर रहे हैं वह लगभग चार दशक पहले अमेरिका में हुआ था। रीगन प्रशासन ने कृषि में गैर-नियामक वाली नीतियों को लागू किया और समता मूल्य यानि मूल्यों का अनुपात (यूएस में एमएसपी के बराबर) को खत्म कर दिया था। 

इन नीतियों ने मक्का या सोया जैसी बढ़ती मोनोकल्चर कमोडिटी की फसलों को मजबूत करने वाले साधनों से बड़े किसानों को असमान रूप से लाभान्वित किया। पारंपरिक उत्पादक और छोटे किसान के लिए खेती की आय पर ज़िंदा रहना मुश्किल होता गया और इसकी पूर्ति के लिए आय के अन्य स्रोतों का सहारा लिया जाने लगा। ग्रामीण अमेरिका में आत्महत्या की दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में 45 प्रतिशत अधिक है।

ब्रिटेन में भी आबादी को कृषि से उद्योग की तरफ धकेलने लिए इसी तरह के प्रयास किए गए थे। परिणामस्वरूप, 19 वीं शताब्दी से अब तक ब्रिटेन में ग्रामीण आबादी 65.2 प्रतिशत से घटकर मात्र 17 प्रतिसत रह गई है। कृषि भूमि 4.5 लाख से घटकर 2.17 लाख हो गई है जबकि जनसंख्या 3.1 करोड़ से बढ़कर 6.6 करोड़ हो गई है। जबकि ब्रिटेन की चार सबसे बड़ी सुपरमार्केट यूके की 70 प्रतिशत जनता को किराने का सामान सप्लाई करती हैं, जबकि किसानों को भोजन पर खर्च किए गए कुल धन का केवल 8 प्रतिसत ही मिलता है। यहां तक कि किसानों को खेती पर दी जाने वाली सब्सिडी को भी आर्थिक रूप से काफी कम कर दिया गया है।

विकासशील दुनिया में, 1980 और 90 के दशक में ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के तहत लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया और अफ्रीका के कई देशों में कृषि बाजार के उदारीकरण के उपायों को लागू किया गया था। 1980 के दशक में, अधिकांश अफ्रीकी सरकारों ने कृषि बाजार में उदारीकरण के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी और इसके दो निम्न उपाय किए गए: 1) इनपुट और आउटपुट मूल्य निर्धारण और वितरण पर सरकारी नियंत्रण को समाप्त करना; 2) इनपुट और आउटपुट मार्केटिंग पर विनियामक नियंत्रणों को समाप्त करना।

यूके के डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट द्वारा किए गए एक शोध से पता चलता है कि सब-सहारा अफ्रीका में कृषि उदारीकरण भयंकर रूप से विफल रहा है और इसके परिणाम निराशाजनक रहे हैं। जबकि इन कृषि सुधारों ने कुछ तय फसलों और उसके उत्पादकों और उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाया, लेकिन यह ग्रामीण क्षेत्रों की खाद्य फसलों और गरीब किसानों को वे लाभ पहुंचाने में विफल रहा जिन्हे उत्पादकों को वादा किया गया था। रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि सुधारों से व्यापक-आधारित कृषि बदलाव नहीं आया जिसकी जरूरत  व्यापक गरीबी को कम करने की थी।'

केन्या में, फसल बाजारों में कृषि-व्यापारियों या पूँजीपतियों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए 20 से अधिक क़ानूनों को निरस्त किया गया था। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एक हालिया शोध से पता चलता है कि इन कानूनी में किए गए बदलावों से कृषि-व्यवसाय से जुड़े लोगों के मुनाफे में काफी वृद्धि हुई है, जबकि कृषि-व्यापारियों को फसल बेचने वाले किसानों की आय में 6 प्रतिशत की औसत गिरावट आई है। कृषि-उपज के खरीदारों के रूप में कृषि-व्यापारियों का पूरे बाजार पर कब्ज़ा लगभग दोगुना हो गया है, जो 2010 तक 38 प्रतिशत तक पहुंच गया था और उनका लाभ मार्जिन 5 प्रतिशत तक बढ़ गया था।

जिन किसानों ने अपनी फसल को कृषि-व्यवसाय को बेचना शुरू किया था, उन्होंने कुछ ही वर्षों में उन्हे बेचना बंद कर दिया। एक मोनोपॉजेनिक स्थिति यानि किसी वस्तु को खरीदने का एकाधिकार जैसे हालात बनाए गए जहां किसान फसल बाजारों में बड़े लेकिन कम खरीदारों का सामना कर रहे थे। शोध में आगे कहा गया है कि कृषि व्यवसाय से जुड़े किसान अक्सर बड़े किसान होते हैं, जबकि छोटे किसानों की आय में गिरावट देखी गई है।

घाना की रिपोर्टों से पता चलता है कि उदारीकरण की नीति के कारण और चावल, टमाटर और मुर्गी के आयात में आई तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे किसानों को अपने ही घरेलू बाजार से विस्थापित होना पड़ा है। इससे तीन फसलों के उत्पादन में गिरावट आई और राष्ट्रीय खपत में स्थानीय उत्पादों की खपत में भी कमी आई है।

इसके अलावा, इन आयातों से पैदा हुई प्रतियोगिता कई मामलों में अनुचित रही है क्योंकि विकसित देशों में आयात पर भारी सब्सिडी दी जाती है और उनकी कीमतों को कृत्रिम रूप से सस्ता कर दिया जाता हैं। जबकि दूसरी ओर, विकासशील देशों में छोटे किसानों को भारी सब्सिडी नहीं मिलती है। यहां तक कि विकासशील देशों में सरकारों द्वारा प्रदान दी जाने वाली सहायता को ढांचागत समायोजन नीतियों के परिणामस्वरूप काफी कम कर दिया गया है, जिन नीतित्यों को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने तैयार किया था और वे आज भी बदस्तूर लागू है। विकसित देशों से भारी रियायती आयातों ने स्थानीय घाना के किसानों को घनघोर गरीबी की तरफ धकेल दिया है जिन्हें हुकूमत का समर्थन बहुत कम हासिल है।

कृषि बाजारों के उदारीकरण का मतलब यह है कि अफ्रीका के कई देशो की सरकारों ने खाद्य फसलों से हटकर निर्यात या नकदी फसलों को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी। जिससे अधिक भूमि संसाधन को निर्यात वाली फसलों को लगाने में इस्तेमाल किया जाने लगा जिससे घरेलू खाद्य उत्पादन कम होने लगा। 

बेनिन में, कपास के निर्यात को सरकारी बढ़ावा देने के लिए कपास की खेती के लिए भूमि में वृद्धि की गई। युगांडा से मिले साक्ष्य पारंपरिक और गैर-पारंपरिक नकदी फसलों दोनों के निर्यात पर जोर देते हैं और स्थानीय स्तर पर खाद्य फसलों के उत्पादन में गिरावट का संकेत देते हैं। अफ्रीकी देश जिन्होंने कृषि को उदार बनाने के लिए सुधारों को लागू किया के अनुभव बताते है और जिन्हे केन्या के सेंट्रल बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर, हर्जोन न्यांगितो के शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है- "डब्ल्यूटीओ व्यापार समझौते पर आधारित उदारीकृत व्यापार, केवल अमीरों को लाभ पहुंचाते हैं" इससे अधिकांश गरीबों को लाभ नहीं होता है, बल्कि उन्हें खाद्य असुरक्षा की तरफ धकेल दिया जाता है।”

अंतत, कृषि के उदारीकरण के बाद अफ्रीका में एक महत्वपूर्ण विकास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देखा गया जिसके तहत अफ्रीकी पंचायती भूमि का निजीकरण हुआ है। अफ्रीका में भूमि का बड़ा हिस्सा जो पहले देशज गरीब आबादी के कब्जे में था, उसे विदेशी राष्ट्रों, कंपनियों या व्यक्तियों ने कृषि उत्पादन के लिए खरीद लिया या फिर पट्टे पर ले लिया है। लक्षित देशों में इथियोपिया, केन्या, मलावी, माली, मोज़ाम्बिक, सूडान, तंजानिया, ज़ाम्बिया, कैमरून, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो, मेडागास्कर, सोमालिया और सूडान शामिल हैं। अकेले 2004 से 2009 के बीच, कम से कम 2.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि हस्तांतरित की गई है। अफ्रीका में भूमि की बड़ी खरीद करने वाले  कुछ सबसे बड़े निवेशकों में मध्य पूर्वी के देश जैसे सऊदी अरब, कतर, कुवैत और अबू धाबी शामिल हैं।

कृषि उदारीकरण और विकसित और विकासशील दोनों देशों के छोटे किसानों पर इसके पड़ते प्रभाव और उसके अनुभवों से पता चलता है कि भारतीय किसानों ने कृषि कानूनों के खिलाफ जो चिंताएं जताई हैं, वे न तो निराधार हैं और न ही बेमिसाल हैं।

भारत में चल रहे किसान आंदोलन के प्रति दुनिया के विभिन्न कोनों से किसान और श्रमिक संगठनों की बढ़ती एकजुटता से यह भी साबित होता है कि विकसित दुनिया द्वारा विकसित और प्रचारित कृषि के विकास के मॉडल की भारत जैसे विकासशील देश को पूरे पैकेज की ईमानदारी से जांच करने की जरूरत है। 

(लेखिका न्यूज़क्लिक में लेखन और शोध का काम करती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Liberalisation of Agriculture: Lessons from Developed and Developing Countries

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