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लॉकडाउन संकट: ‘मन की बात’ बनाम मज़दूरों का पलायन

पलायन करने पर मजदूरों को दोषी ठहराया जा रहा है लेकिन क्या हमारी सरकारों ने समय रहते मजदूरों की फ़िक्र की थी? राजधानी दिल्ली तक में सरकार ने तब क़दम उठाया जब हालात बेकाबू हो गए।
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लॉकडाउन के बीच रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से ‘मन की बात’ की। उन्होंने लॉकडाउन से मज़दूरों को हुई दिक्क्तों के लिए माफ़ी भी मांगी। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बात की वो शायद उन्हीं के मन की बात थी। ये मज़दूरों के मन की बात तो कतई नहीं थी।

ऐसा इसलिए है कि अब तक लाखों मजदूर पलायन कर चुके हैं। सैकड़ों अब भी रास्ते में हैं। पूरे देश से जिस तरह से लोगों ने पलायन किया है, उसे रोकने के लिए उनके पास कोई विजन या ब्लू प्रिंट नहीं दिखा। अलग अलग स्रोतों से आई खबरों के मुताबिक अब तक इस लॉक डाउन में पैदल अपने घर जाते हुए 22 मज़दूरों की मौत हो गई है जबकि कोरोना से अब तक कुल 28 मौतें हुई हैं।

जिस तरह से देश की राजधानी दिल्ली से लाखों लोगों ने पलायन किया हैं, उसको लेकर कई लोग इन मज़दूरों को ही दोषी ठहरा रहे हैं। इसे इनकी मूर्खता बताने में लगे है लेकिन सवाल यह है कि क्या सही समय पर इन मज़दूरों को रोकने की कोशिश हमारी सरकारों ने की?

इसका जवाब है- नहीं। और अगर सरकार ने कुछ किया भी हो तो बहुत देरी से किया और वो भी आधी अधूरी तैयारी के साथ। दिल्ली से हुए पलायन की ही बात करते हैं और यहां की सरकार के राहत कार्यों पर एक नज़र डालते हैं। 

दिल्ली में जनता कर्फ्यू के अगले दिन यानी 23 मार्च से ही लॉकडाउन हो गया था। लोग इसका समर्थन भी कर रहे थे लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ जो लोगों ने शहर छोड़कर भागना शुरू कर दिया। दरअसल पहले यह लॉकडाउन मात्र 31 मार्च तक के लिए था तो मज़दूरों ने सोचा किसी तरह से सात दिन काट लेंगे लेकिन 24 मार्च को जब मोदी जी ने संपूर्ण देश में लॉकडाउन की बात कही तो यह मज़दूर घबरा गए।

प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा के समय मज़दूर वर्ग के लिए किसी भी तरह की कोई राहत की घोषणा नहीं की या ऐसी कोई बात नहीं कही जिससे मज़दूरों को सरकार पर विश्वास हो। इसके साथ केजरीवाल ने मज़दूरों के रहने के लिए भोजन और रहने की व्यवस्था के नाम पर केवल आश्रय गृहों को ही खोला था जोकि कुछ समय में ही भर गए।

इसके विपरीत दुनिया के दूसरे देशों ने लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही मजदूरों के लिए आर्थिक मदद का भी ऐलान किया। दुर्भाग्य से हमारे यहां यह घोषणा भी देर से हुई।

इस बीच दिल्ली सरकार लगातार यह दावा करती रही कि वो लाखों लोगों को भोजन दे रही है लेकिन यह सब शायद मज़दूरों को विश्वास दिलाने में नाकाफ़ी था कि सरकार उनके लिए है।

इधर प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की उधर मजदूर घर की ओर चलना शुरू कर दिए। शुरुआत में इसमें अधिकतर दिहाड़ी मजदूर थे जो रोज कमाते और खाते थे। इसके साथ ही वो मज़दूर भी थे जो फैक्ट्रियों में या अपने कार्य स्थल पर ही रहते थे। क्योंकि जिनके पास वो काम करते थे उन्होंने उन्हें जाने के लिए कह दिया था क्योंकि मालिकों को यह भय था कि अगर मज़दूर उनके पास रहेगा तो उनका खर्च उन्हें ही उठाना पड़ेगा। 

इसके साथ ही सरकार भी इन मज़दूरों तक पहुंचकर इन्हे विश्वास नहीं दिला पा रही थी। दरअसल सरकार की पहुंच इन मजदूरों के पास तक है ही नहीं। आपको बता दे बीते कई सालों में दिल्ली एनसीआर में यह सर्वे ही नहीं हुआ है कि कितनी फैक्ट्रियां चल रही हैं या बंद हो चुकी हैं।

ऐसे में जब सरकार को फैक्ट्रियों का ही नहीं पता तो मज़दूरों की जानकारी होना तो बड़ा सवाल है। आपको बता दें कि प्रवासी मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किराया बचाने के लिए अपनी फैक्ट्रियों में ही रहता है।

दूसरी बात अगर सरकार को इनकी जानकारी थी तो भी इनके पास मदद नहीं पहुंची तो यह और गंभीर सवाल खड़े करती है। फिलहाल सच्चाई यही है कि दिल्ली सरकार के हज़ार दावों के बाद इन तक सरकारी मदद और भोजन नहीं पहुंच सका।

इसमें एक विकल्प यह हो सकता था कि सरकार की मदद मज़दूर संगठन कर सकते थे लेकिन केजरीवाल सरकार ने किसी भी मज़दूर संगठन से बातचीत करने की ज़हमत नहीं उठाई। यहां तक कि मजदूर संगठनों ने उन्हें पत्र भी लिखा लेकिन इसके बाद भी उन्होंने ऐसी कोई कोशिश ही नहीं की।

 एक बात और। दिल्ली सरकार कह रही है कि वो 70 लाख लोगों को राशन दे रही है। तो आपको बता दें कि यह सरकारी राशन कल यानी रविवार से मिलना शुरू हुआ है वो भी राशनकार्ड धारकों को। मज़दूर इसलिए भी भागे क्योंकि उनके पास कोई काग़जात नहीं है। अगर हैं भी तो वह उनके गृह नगर में हैं।

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