लोकसभा आमचुनाव 2024: प्रजातंत्र और धार्मिक अल्पसंख्यक
सन 2024 के आमचुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की चुनावी ताकत में कमी आई. वह बहुमत हासिल नहीं कर सकी. इससे यह आशा जागी थी कि बहुवाद और विविधता जैसे प्रजातान्त्रिक मूल्य एक बार फिर मज़बूत होंगे.
चुनाव प्रचार के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह अहसास हो गया था कि राममंदिर कोई जादू की छड़ी नहीं है जो उनकी पार्टी की झोली को वोटों से भर देगी. और इसलिए उन्होंने समाज को बांटने वाले प्रचार का सहारा लेना शुरू कर दिया. उन्होंने इंडिया गठबंधन पर आरोप लगाया कि अल्पसंख्यकों का समर्थन हासिल करने के लिए वह उनके आगे मुजरा कर रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि इंडिया गठबंधन संविधान में संशोधन कर अनुसचित जातियों / जनजातियों और ओबीसी के लिए आरक्षण समाप्त कर देगा और उनके लिए निर्धारित कोटा, मुसलमानों को दे दिया जाएगा.
हिन्दुओं को आतंकित करने के लिए उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दू महिलाओं का मंगलसूत्र उनसे छीन कर मुसलमानों को दे दिया जायेगा. उन्होंने इस तरह की कई बातें कहीं. मगर नफरत फैलाने की यह कोशिश भाजपा के काम नहीं आई और लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या 303 से घट कर 240 रह गई.
इससे यह आशा जागी कि अब अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की कोशिशों में कमी आएगी और सामाजिक सद्भाव बढेगा. मगर एनडीए (जिसका सबसे बड़ा घटक भाजपा है) सरकार के शासनकाल के पिछले कुछ हफ़्तों के घटनाक्रम ने इन आशाओं पर पानी फेर दिया है. बल्कि, भाजपा नेताओं और सरकार की कथनी-करनी से ऐसा लग रहा है कि वे अपनी पुरानी हरकतों से बाज आने को तैयार नहीं हैं.
असम के मुख्यमंत्री श्री हेमंत बिस्वा सरमा, जो नफरत फैलाने वाली बातें कहने के लिए कुख्यात हैं, ने कहा कि असम जल्दी ही मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य बन जायेगा. उनके अनुसार, राज्य की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत सन 1951 में 12 प्रतिशत था (बाद में उन्होंने इसे 14 प्रतिशत बताया), जो अब 40 प्रतिशत हो गया है. ये आंकड़े झूठे हैं और इनका उद्देश्य केवल हिन्दुओं को डराना है. सच यह है कि सन 1951 की जनगणना के अनुसार राज्य की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत 24.68 था और 2011 की जनगणना के अनुसार, 34.22. पुरानी आदतें जल्दी छूटती नहीं हैं.
पश्चिम बंगाल, जहाँ भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और उसके लोकसभा सदस्यों की संख्या 18 से घट कर 12 रह गयी, में पार्टी नेता सुवेंदु अधिकारी भाजपा की सीटों में गिरावट के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं. उन्होंने घोषणा की, "हमें सबका साथ – सबका विकास की बातें करने की ज़रुरत नहीं है. हमें तो यह कहना चाहिए कि जो हमारा समर्थन करेगा, हम उसका समर्थन करेंगे." भाजपा परिवार के कई सदस्यों ने अधिकारी के बयान से असहमति दर्शाई मगर जो उन्होंने कहा वह निश्चित तौर पर पार्टी के वास्तविक राजनैतिक लक्ष्यों का खुलासा करता है.
इससे से भी एक कदम और आगे बढ़कर, उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में डीआईजी ने निर्देश दिया कि कांवड़ यात्रा के रास्ते में पड़ने वाली खाने-पीने का सामान बेचने वाले दुकानों और होटलों को उनके मालिकों और कर्मचारियों के नाम की पट्टी लगाना आवश्यक होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई को उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड की सरकारों द्वारा जारी किये इस निर्देश के अमल पर रोक लगा दी. न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और एस.वी.एन. भट्टी की एक खंडपीठ ने इस सम्बन्ध में एक अंतरिम आदेश जारी किया.
प्रशासन के अनुसार यह कदम उन "हिन्दू श्रद्धालुओं की आस्था की पवित्रता की रक्षा करने के लिए उठाया गया है, जो सावन के महीने में कांवड़ यात्रा में भाग लेते हैं." उत्तर प्रदेश के बाद उत्तराखंड की सरकार ने भी यही निर्देश जारी किया. इसके बाद भाजपा की अन्य सरकारें भी ऐसे ही निर्देश जारी करने की जुगत में थीं, जिससे धीरे-धीरे यह नियम व्यापक रूप से लागू हो जाता.
जब इस कदम की आलोचना हुई तो राज्य सरकार ने कहा कि नाम लिखना वैकल्पिक होगा. यह श्स्यद पहला ऐसा सरकारी आदेश होगा जिसका पालन करना ऐच्छिक है! देश के सर्वोच्च नेता और प्रधानमंत्री ने इस आदेश के मामले में चुप्पी साध रखी है. इससे ऐसा लगता है कि उनकी पार्टी की यही नीति है. इस निर्णय का भाजपा के गठबंधन साथियों जैसे जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने भी विरोध किया. मगर उससे भू कुछ नहीं हुआ. साफ़ है कि मोदी के लिए गठबंधन दलों की राय का कोई महत्व नहीं है.
यह शायद भाजपा द्वारा लिया गया सबसे ज्यादा निर्णायक कदम है. इससे कांवड़ यात्रा के रास्ते में पड़ने वाली होटलों में मुसलमान कर्मचारियों को निकालने का सिलसिला शुरू हो गया है. सच तो है कि शुद्धता और प्रदूषण जैसी अवधारणाओं की आज के समय में कोई जगह नहीं है. हरिद्वार से गंगा का पानी भरकर उसे विभिन्न शिवमंदिरों में ले जाने की परंपरा काफी पुरानी है. मगर पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर 1980 के दशक के बाद से, इसने बहुत जोड़ पकड़ लिया है. राममंदिर आन्दोलन से शुरू हुई धर्म की राजनीति का समाज में बोलबाला बढ़ने के साथ-साथ कांवड़ यात्रा में भागीदारी भी बढ़ी है. अब लाखों-लाख लोग इन यात्राओं में भाग लेते है.
बहरहाल, इस तरह के आदेश का क्या नतीजा होता? कई लोगों ने इस आदेश की तुलना दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार और जर्मनी की नाज़ी सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों से की है. नाज़ी जर्मनी में फासीवादी नीतियों के निशाने पर यहूदी थे. उन्हें उनकी दुकानों के सामने स्टार ऑफ़ डेविड लटकाने और अपने शरीर पर पहनने के लिए कहा गया. इससे उनकी पहचान करना और उन्हें प्रताड़ित करना आसान हो गया. कांवड़ यात्रा के बारे में यह निर्णय शायद एक प्रयोग था और आगे चलकर भाजपा सरकारें ऐसे कदम उठा सकतीं हैं जिनसे मुसलमानों की पहचान करना आसान हो जाए.
ऐसा लग रहा है कि देश की राजनीति में सांप्रदायिकता का ज़हर घुल चुका है. भाजपा और उसके गठबंधन साथियों को चुनाव में हराना, देश में बहुवाद की पुनर्स्थापना की ओर पहला कदम है. मुसलमानों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व में कमी लाने के साथ-साथ उन्हें निशाना भी बनाया जा रहा है. आरएसएस-भाजपा के नेताओं का कहना है कि वे मुस्लिम राजनीति को साम्प्रदायिकता से मुक्त करने का प्रयास कर रहे हैं.
कांवड़ यात्रा सम्बन्धी आदेश से साफ़ है कि यह दावा शुद्ध पाखण्ड है. वे यह नहीं बताते कि भाजपा का एक भी लोकसभा सदस्य मुसलमान क्यों नहीं है और यह भी कि मंत्रीपरिषद् में एक भी मुसलमान को क्यों शामिल नहीं किया गया है. उनका दावा है कि वे अब पसमांदा मुसलमानों से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं. क्या उन्हें पता है कि भाजपा की राजनीति के सबसे बड़े शिकार कौन हैं? अगर सुप्रीम कोर्ट आदेश पर रोक नहीं लगाता तो निर्णय का सबसे ज्यादा खामियाजा पसमांदा मुसलमानों को ही भोगना पड़ता.
इंडिया गठबंधन को इस तरह के क़दमों का जम कर विरोध करना चाहिए. यह ज़रूरी है कि समावेशी मूल्यों को बढ़ावा दिया जाए और उन प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ संघर्ष किया जाए जो समाज को बांटने वाली हैं और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की ओर कदम हैं. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया.
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
साभार : सबरंग
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