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“क्या तुमने लव जिहाद किया है? ...जी नहीं लव मैरेज की है”

बीच बहस: प्रेम सरकार का मूड देख कर या मज़हब देख कर होता तो अब तक हिन्दुस्तान की धरती से प्रेम ख़त्म हो गया होता।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Indian Express

शालिनी उर्फ फिजा फातिमा ने मो. फैजल से प्रेम किया। दोनों कानपुर में साथ पढ़ते थे, बजरंग दल के लोग घर आ पहुंचे, धमकी देते हुए कहा कि नहीं मानोगे तो हम कुछ भी कर सकते हैं। एकता वर्मा उर्फ आलिया ने मोहसिन से प्रेम विवाह किया वो दोनो भी साथ पढ़ते थे, उनको धमकी देते हुए पूछा गया तुमने लव जिहाद किया है? आलिया ने तपाक से जवाब दिया, जी नहीं लव मैरेज की है।

कुछ केस जो सुर्खियों में आ जाते हैं उनका पता चल जाता है और जो गुमनामी में ही रह जाते है उनका क्या हश्र हुआ किसी को नहीं पता चलता। बंगाल की नुसरत जहां, मुम्बई की मीनाक्षी चौरसिया, केरल की हादिया उर्फ अखिला और बरेली की साक्षी मिश्रा को ट्रोल करने वाले अभी थमें नही थे कि कुछ नए मामले सामने आ गए।

प्रेम सरकार का मूड देख कर या मजहब देख कर होता तो अब तक हिन्दुस्तान की धरती से प्रेम खत्म हो गया होता।

लेकिन अब उत्तर प्रदेश में तो कम से कम प्रेम करने वालों को होशियार रहना ही होगा। बात अब आगे बढ चुकी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री को इस प्रकार का प्रेम पसन्द नहीं लिहाजा उन्होंने धर्मांतरण पर कानून बनाने और इसे सख्ती से लागू करने का फैसला ले लिया है, उन्होंने उप-चुनाव प्रचार के दौरान ये घोषणा देवरिया में की कि वह लव-जिहाद के खि़लाफ कानून लाऐंगे, उन्होंने चेतावनी देते हुए यह भी कहा कि जो लोग नाम छिपाकर बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं वो अगर नही सुधरे तो राम-नाम सत्य की उनकी अन्तिम यात्रा निकलने वाली है। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों के पोस्टर भी लगवाए जाएंगे। यानी उत्तर प्रदेश में दूसरी जात मजहब में जो प्यार करेगा या तो उसे मार दिया जाएगा अगर बच गया तो उसके पोस्टर लगाकर चिह्नित करेगी सरकार और सजा देगी।

राज्य विधि आयोग द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक-2019 का ड्राफ्ट तैयार है, 268 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को आयोग के अध्यक्ष एएन मित्तल ने बगैर किसी पूर्व अध्ययन के मुख्यमंत्री के समक्ष पेश कर कुछ सिफारिशें की है। आयोग यह मानता है कि उत्तर प्रदेश में बहुत भारी संख्या में धर्म परिवर्तन हो रहा है। जिसे रोकने के लिए पूर्व का कानून अपर्याप्त है, अतः नया कानून बनाया जाना चाहिए। हालांकि भारी संख्या में धर्म परिवर्तन का डेटा कितना है इसे रिपोर्ट में नहीं बताया गया।

रिपोर्ट के अनुसार इसके दायरे में छल-कपट, लालच, पैसे देकर धर्म परिवर्तन के द्वारा किए गए विवाह भी आऐंगे। ऐसा विवाह कराने वाले को सात साल की जेल हो सकती है।

अगला बिन्दु है यदि किसी ने दूसरा धर्म अपना लिया है और वह अपने पुराने धर्म में वापस आना चाहता है तो उसे अपराध नहीं माना जाएगा, इस पूरी प्रक्रिया को घर वापसी नाम से जाना जाएगा।

रिपोर्ट में लिखा है कि कुछ लोग लव जिहाद की आड़ में धर्म को निशाना बना रहे हैं, लव जिहाद क्या है यह शब्द किस डिक्शनरी से आया, धर्म को कैसे निशाना बनाया जा रहा है इसका भी कोई उदाहरण रिपोर्ट में नहीं है। आज तक प्रदेश में एक भी केस ऐसा नही पाया गया जिसमें प्रेम विवाह करने वाली लड़की ने कहा हो कि उसका जबरन धर्म बदला गया। रिपोर्ट सिर्फ एक नफरत भरे विचार से तैयार की हुई मालूम होती है।

यह भारत की एक पुरानी परम्परा है कि लड़की जिससे ब्याही जाती है उसी धर्म की हो जाती है, ऐसा वह शौक से भी करती है और अनुकरण से भी।

रिपोर्ट का अगला बिन्दु है कि धर्म परिवर्तन के लिए शपथ पत्र जरूरी होगा। यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करना चाहता है तो उसे एक महीने पहले जिला मजिस्ट्रेट या उसके द्वारा हस्ताक्षरित अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को शपथ पत्र प्रस्तुत करना होगा, उस व्यक्ति को पहले यह भी घोषित करना होगा कि यह धर्म परिवर्तन धोखा, लालच, जबरन या किसी अन्य प्रभाव में नहीं किया जा रहा है। धर्म परिवर्तन कराने वाले धर्मगुरूओं को प्रस्तावित फार्म भर कर एक महीने की नोटिस देनी होगी।

बीजेपी शासित सभी राज्यों में यह ट्रेंड नज़र आ रहा है। हाल में मध्य प्रदेश ने भी दूसरे धर्म में बिना अनुमति लिए शादी करने पर 5 साल की सजा का एलान किया है।

काबिले फिक्र बात यह है कि ऐसा करके सरकार लोगों की निजता पर हमला कर रही है, कोई किससे प्यार करे, किससे शादी करे इस मामले में राज्य का दखल बेजा, घृणित और गैरज़रूरी है। ऐसा काला कानून निजता और स्वतन्त्रता के अधिकार को नागरिकों से छीन लेगा। किसी एक धर्म को निशाने पर बनाए रखने, उसके नौजवानों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने की नीयत इसमें साफ झलकती है।

यहां तीन बातों में बड़ी समानता है, आयोग की रिपोर्ट, मुख्यमंत्री का बयान, और तीसरा अदब के साथ कहना जरूरी है वह है अदालतों के कुछ फैसले। जो बात आयोग कह रहा है वही बात सरकार, और अदालतों ने भी कमोबेश ऐसे ही कुछ फैसले दिए है, उदाहरण स्वरूप-

केस 1- नूरजहां बेगम उर्फ अंजलि मिश्र बनाम स्टेट ऑफ यूपी के एक मुकदमें में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 16 दिसंबर 2014 को फैसला दिया, अदालत ने कहा था कि धर्म परिवर्तन के लिए उस धर्म में गहरी आस्था के साथ व्यक्तिगत विश्वास भी होना चाहिए। अगर कोई इस्लाम धर्म अपनाता है तो वह खुद की मर्जी से ऐसा करे। अगर खुद की इच्छा से इस्लाम धर्म में परिवर्तन न हो और यह अपने मतलब के लिए किया जा रहा हो या किसी दावे या अधिकार के लिए हो रहा हो, तो वह परिवर्तन वैध नही है। हाईकोर्ट इलाहाबाद ने कहा था कि लड़की ने शादी के इरादे से धर्म बदला और वह इस्लाम के बारे में जानती तक नही है। लड़की ने नहीं कहा कि वह इस्लाम के प्रति गहरी आस्था रखती है और उसे खुदा में विश्वास है। साफ है कि लड़के ने शादी के इरादे से लड़की का धर्म परिवर्तन कराया। यह परिवर्तन बिना आस्था या सम्मान के केवल शादी के लिए था, जो कि अवैध है।

केस 2- इसी तरह एक और मामला सहारनपुर की पूजा उर्फ ज़ोया व शावेज़ का इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंचा, न्यायमूर्ति जहांगीर जमशेद मुनीर ने 23 सितंबर, 2020 को आदेश दिया कि दो अलग धर्म के याचियों को अपनी मर्जी से कहीं भी किसी के साथ भी रहने का अधिकार है। पूजा ने भाग कर शावेज से शादी की थी, यह जानने के बाद उसके पिता ने उसे घर में कैद कर लिया था, उसे हाजिर नही किया जा रहा था न्यायमूर्ति ने एसपी सहारनपुर को आदेश देकर लड़की को हाजिर कराया, उनका बयान हुआ और उनकी निजता में किसी को दखल देने से रोका गया। 

केस 3- प्रेम विवाह के एक दूसरे मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति उमेश चन्द्र त्रिपाठी ने याचिका पर हस्तक्षेप करने से इनकार किया, कोर्ट ने कहा कि एक याची हिन्दू दूसरा मुसलमान है। लड़की ने 29 जून 2020 को इस्लाम स्वीकार किया और 31 जुलाई 2020 को विवाह कर लिया। 8 अक्टूबर, 2020 को कोर्ट ने कहा कि इससे साफ पता चलता है कि धर्म परिवर्तन महज़ शादी के लिए किया गया है। सिर्फ शादी के लिए धर्म परिवर्तन करना वैध नही है। इस केस में न्यायालय ने 2014 के निर्णय नूरजहां बेगम उर्फ अंजलि मिश्र बनाम स्टेट ऑफ यूपी के फैसले को ही नजीर माना। कुछ दिन पूर्व आए पूजा व शावेज के केस को नजरअंदाज किया। ऐसे में यह समझना भी कठिन है कि न्यायालय कब किस न्याय के सिद्वान्त को अमल करेंगे कब नही।  

केस 4- मुम्बई हाईकोर्ट ने मार्च 2020 में एक केस में कहा कि यदि विधि-विधान से विवाह नहीं किया जाता तो विवाह प्रमाणपत्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। कोर्ट ने ठाणे के एक शख्स और उसकी गर्लफ्रेंड के चार साल पहले बनवाए गए विवाह प्रमाणपत्र को अमान्य करार दे दिया। कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई सुबूत नही है जो साबित कर सके कि याचिकाकर्ता ने शादी की है, कोर्ट ने कहा कि इसमें पवित्रता और भरोसे का अभाव है। ऐसे अजीबोगरीब फैसलों का प्रभाव भी समाज पर पड़ता है। यह सोच भी पितृसत्ता को मजबूती देती है। औरत की स्थिति को कमजोर, निर्णय न ले सकने वाली अबला नारी, व उसके चयन के अधिकार को समाप्त करती है।

जहां एक तरफ भारत का संविधान दो बालिगों को अपनी मरजी से जीवन साथी चुनने की इजाजत देता है, उन्हें विवाह बंधन में बंधे बिना भी लिव-इन में रहने की इजाजत देता है वही सरकार प्रेम से पहले धर्म पूछने, उसे रोकने के तमाम रास्ते तलाश रही है। रोड़े अटका रही है।

हिन्दू विवाह अधिनियम कहता है कि शादी के लिए दोनों पक्षों का हिन्दू होना जरूरी है, वहीं मुस्लिम विवाह अधिनियम भी कहता है कि विवाह के लिए दोनों पक्षों का मुस्लिम होना जरूरी है, ऐसे में वो लोग कहां जाएं जो अलग-अलग धर्म के हैं, किसी पुलिसिया झमेले में भी नहीं उलझना चाहते, बस एक दूसरे से विवाह करना चाहते हैं, उनके लिए सरकार नई-नई बाधाएं खड़ी कर रही है। जहां तक विशेष विवाह अधिनियम-1954 का प्रश्न है उसकी पहुंच आज भी गांव-गिरांव तक नहीं है। 90 दिन तक जोड़े की फोटो लटका दी जाती है, अनुभव यह भी बताता है कि विशेष विवाह अधिनियम में भी बिना घूस लिए पुलिस रिपोर्ट नहीं लगाती, कभी-कभी 90 दिन का समय निकल जाने के बाद भी पुलिस रिपोर्ट नहीं लगाती, और एक बार समय निकल जाने के बाद पुनः फार्म भरने की पूरी प्रक्रिया दोहरानी पड़ती है। अगर विवाह करने वाला जोड़ा शिक्षित नहीं है तो वकील भी डरा-धमका कर लम्बी फीस वसूल करते हैं। भले ही फार्म की फीस मात्र 5 रुपये क्यों न हो। भारत में विशेष विवाह अधिनियम की प्रक्रिया आज भी आसान नही है। 

सरकार व्यक्तियों पर नियंत्रण बढ़ा रही है, उनके निजी जीवन में हस्तक्षेप कर रही है, उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन कर रही है, महिलाओं को हतोत्साहित कर रही है, डरा धमका रही है कि वह दूसरे धर्म में प्यार-मोहब्बत न करें, ऐसे में सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाज़मी है, ऐसा दहशत का माहौल एक आजाद देश में जम्हूरियत और दस्तूर को खतरे में डालने से ज्यादा और कुछ भी नही है। ऐसे कानून पर सरकार का पुनर्विचार किया जाना जरूरी लगता है।

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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