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महाराष्ट्र : सुप्रीम कोर्ट ने चुनी हुई सरकार को तोड़ने में राज्यपाल की भूमिका पर जताई गंभीर चिंता 

ठाकरे गुट ने अदालत को बताया कि केवल दलबदलू विधायकों के आधार पर ही शिंदे गुट ने शिवसेना के धनुष और तीर के निशान को हासिल किया है।
supreme court

मामले का विवरण: सुभाष देसाई बनाम मुख्य सचिव, महाराष्ट्र के राज्यपाल

  • 27 जून, 2022 को जस्टिस सूर्यकांत और जे.बी पारदीवाला की सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ द्वारा दिए गए आदेश में, शिंदे के नेतृत्व वाले गुट के 16 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही पर रोक लगा दी थी। जवाब देने के लिए 12 दिन का समय दिया गया था।
  • 29 जून, 2022 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट की विधानसभा में राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट पर रोक लगाने की याचिका खारिज को कर दिया था।
  • 23 अगस्त, 2022 को पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना और जस्टिस कृष्ण मुरारी और हिमा कोहली ने मामले को पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजे जाने का आदेश दिया था।
  • सुनवाई के लिए ग्यारह मुद्दों को तैयार किया गया, जिसमें संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत विधान सभा अध्यक्ष के कार्य से जुड़ी विकलांगता, तब जब विधायकों के खिलाफ अयोग्यता नोटिस लंबित पड़ा है, राज्यपाल द्वारा विवेक के इस्तेमाल की सीमा, और चुनाव आयोग की शक्ति जिसके तहत किसी राजनीतिक दल में विभाजन को पहचानना शामिल है। 

मौजूदा खंडपीठ: भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस हेमा कोहली, एम.आर. शाह, कृष्ण मुरारी और पी.एस. नरसिम्हा इसमें शामिल हैं’।

कुछ प्रमुख घटनाक्रम: चुनाव आयोग के 17 फरवरी के आदेश ने शिंदे के नेतृत्व वाले गुट को 'प्रामाणिक' शिवसेना के रूप में मान्यता दी थी, जिसके अनुसार पार्टी का धनुष-बाण चुनाव चिन्ह उन्हे मिला। इसे ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी, लेकिन अदालत ने आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

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बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ और भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट में राज्यपाल की भूमिका पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। पीठ ने कहा कि एक राज्यपाल को कभी भी विश्वास मत साबित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी, खासकर तब-जब विधायिका के पटल पर सरकार में पार्टी के बहुमत को हिलाने के लिए बिल्कुल कुछ नहीं था। 

पांच जजों की संविधान पीठ का नेतृत्व भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी. वाई. चंद्रचूड़, कर रहे हैं जिसमें जस्टिस हेमा कोहली, एम.आर. शाह, कृष्ण मुरारी और पी.एस. नरसिम्हा शामिल हैं, ने संविधान की दसवीं अनुसूची से उत्पन्न संवैधानिक सवालों पर महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट से संबंधित याचिकाओं की सुनवाई जारी रखी, जो दलबदल के आधार पर विधायकों की अयोग्यता से संबंधित है, जिसमें नबाम रेबिया और बामांग फेलिक्स बनाम डिप्टी स्पीकर, अरुणाचल प्रदेश विधान सभा (2016) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की शुद्धता की जांच करना शामिल है। 

भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल, भगत सिंह कोश्यारी का प्रतिनिधित्व करते हुए अदालत को बताया कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही फ्लोर टेस्ट के नियम से अलग कुछ किया जा सकता है।

मेहता: विश्वास खोकर सरकार चलाना बड़ा संवैधानिक पाप है

उन्होंने कहा कि दल-बदल सबसे बड़ा राजनीतिक पाप है, लेकिन सदन का विश्वास खोकर सरकार चलाना एक बड़ा संवैधानिक पाप है, जिसमें राज्यपाल को उसके पक्ष में नहीं होना चाहिए।

उनका तर्क था कि राज्यपाल के कार्य का दसवीं अनुसूची या उससे निकलने वाले नतीजों से कोई संबंध नहीं है।

शुरुआत में, मेहता ने पीठ को बताया कि शिवसेना के विधायक दल ने महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री और शिवसेना के अध्यक्ष एकनाथ एस. शिंदे को अपने समूह के नेता के रूप में नियुक्त किया और इसलिए यह तथ्य, जिसके बारे में उनका दावा है कि वह विवादित नहीं है, इस बात पर असर डालता है कि राज्यपाल ने क्यों शिंदे को सबसे पहले सरकार में दावा पेश करने के लिए बुलाया। यह मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि राज्यपाल से केवल सदन के 'निर्वाचित नेता' से ही संपर्क करने की अपेक्षा की जाती है।

मेहता के अनुसार, शिंदे विधायक दल के नेता थे, जबकि शिवसेना विधायक अजय चौधरी को दल का नेता नियुक्त करने के लिए बुलाई गई बैठक अनधिकृत थी और कोरम की जरूरत को पूरा नहीं करती थी। उन्होंने यह भी कहा कि चौधरी को पार्टी नेता के रूप में नियुक्त करने के प्रस्ताव को विधायकों ने सर्वसम्मति से खारिज कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट: फ्लोर टेस्ट का निर्देश देने के मामले में राज्यपाल के पास भौतिक संकेतक या आधार कहां हैं?

मेहता के अनुसार, राज्यपाल इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और शिवसेना अध्यक्ष उद्धव बी. ठाकरे को अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट करना होगा, क्योंकि यह 34 विधायकों का प्रस्ताव था जो एक पत्र के ज़रिए आया था, जिसमें उस किसी भी प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया, जिसमें विधायक दल के स्तर पर नेतृत्व में बदलाव को मान्यता की बात कही गई थी, 47 विधायकों के पत्र जिसमें उनकी सुरक्षा को लेकर खतरा बताया गया था, और विपक्ष के नेता का एक पत्र जिसमें कहा गया था कि शिवसेना के 39 विधायक चुनाव के बाद महा विकास अघाड़ी के गठबंधन से बाहर निकलना चाहते हैं (जिसमें शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस शामिल हैं)।

राज्यपाल ने शक्ति परीक्षण का आदेश देते वक़्त इन सामग्रियों पर भरोसा किया था, और फिर मेहता के अनुसार शिंदे को सरकार का दावा करने के लिए आमंत्रित किया गया था।

मेहता ने समझाते हुए कहा कि राज्यपाल को केवल उस सामग्री के आधार पर प्रथम दृष्टया विचार बनाना होता है जो उनके मन में संदेह पैदा करता है और संतुष्टि देता है कि सरकार ने सदन में विश्वास खो दिया है। यह उच्चतम न्यायालय द्वारा एसआर बोम्मई और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1994) और शिवराज सिंह चौहान बनाम अध्यक्ष, मध्य प्रदेश (2020) में निर्धारित मानक है।

उन्होंने जोर देते हुए कहा कि, राज्यपाल को 'जरूरी', ऐसे मामलों में फ्लोर टेस्ट के लिए कहना चाहिए जैसा कि एस.आर. बोम्मई मामले में किया गया था। 

मेहता ने यह भी कहा कि दूसरे पक्ष का यह तर्क कि विधायकों को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट का निर्देश देने के बजाय अविश्वास प्रस्ताव के लिए कहना चाहिए था, इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि दोनों ही मामलों में सदन के पटल पर संख्या की गणना की जाएगी।

सीजेआई: एक चुनी हुई सरकार को गिराने में राज्यपालों को एक इच्छुक सहयोगी नहीं बनना चाहिए

इस मौके पर सीजेआई ने टिप्पणी की कि: "... राज्यपाल को इस तथ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए कि विश्वास मत के लिए आमंत्रित करने से सरकार के लिए बहुमत का नुकसान हो सकता है ... विश्वास मत की मांग करना अपने आप में एक ऐसी परिस्थिति हो सकती है जो सरकार गिराने की कवायद बन सकती है।”

सीजेआई ने वकील से कहा कि राज्यपालों को किसी खास परिणाम को प्रभावित करने के लिए अपने कार्यालय का इस्तेमाल नहीं होने देना चाहिए।

इसके अलावा, सीजेआई ने कहा कि विपक्ष के नेता द्वारा लिखा गया पत्र अप्रासंगिक है क्योंकि वे अक्सर सत्ताधारी सरकार की आलोचना करते हैं। उसी पर निर्भर रह कर राज्यपाल के लिए कार्रवाई करने का कोई आधार नहीं है।

निर्दलीय विधायकों की सुरक्षा पर कथित खतरे को लेकर लिखा गया पत्र संविधान के अनुच्छेद 356 (राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में प्रावधान) के तहत रिपोर्ट नहीं किया गया है। सीजेआई ने कहा कि यह विश्वास मत बुलाने का एक अप्रासंगिक आधार भी बन जाता है।

सीजेआई: विधायकों को धमकाया जाना कानून और व्यवस्था का मसला है, इसका मुख्यमंत्री के विश्वास खोने से कोई लेना-देना नहीं है

सीजेआई ने कहा कि विधायकों को धमकाया जाना कानून व्यवस्था का मामला है। न्यायमूर्ति कोहली ने टिप्पणी की कि विधायक केवल अपनी सुरक्षा का आश्वासन चाहते थे। इसका मुख्यमंत्री के विश्वास खोने से कोई लेना-देना नहीं था।

सीजेआई ने निष्कर्ष निकाला कि यह किसी सरकार को "सत्ता से हटाने" का कोई कारण नहीं है। लेकिन मेहता ने जवाब दिया कि यह एक महत्वपूर्ण 'आधार' है न कि कोई कारण, खासकर तब-जब विधायकों ने संकेत दिया कि वे अपना समर्थन वापस लेना चाहते हैं क्योंकि उन्हें धमकी दी जा रही है। इस पर कोर्ट को यकीन नहीं हुआ। 

पीठ ने कहा कि राज्यपाल के सामने उपलब्ध एकमात्र सामग्री 34 विधायकों का प्रस्ताव था। सीजेआई ने कहा कि जब तक परिस्थितियां राज्यपाल को यह निष्कर्ष निकालने पर मजबूर नहीं कर देती कि ये विधायक शिवसेना का समर्थन करना बंद कर देंगे, इसलिए उन्हें शिवसेना के सदस्य के रूप में ही मानना बेहतर होता।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने यह भी कहा कि प्रस्ताव केवल इस बात की पुष्टि करता है कि शिंदे विधायक दल के नेता बने रहेंगे। उन्होंने वकील से यह पता करने के लिए कहा कि राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट का आदेश देने का निष्कर्ष कैसे निकाला।

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि इस सूचना को इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता है कि ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस लिया जा रहा है। 

सीजेआई ने तब कहा कि यह राज्यपाल को कार्रवाई करने का कोई आधार प्रस्तुत नहीं करता है।  

मेहता ने रामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम भारत संघ (2006) और एस.आर. बोम्मई और अन्य मामले में कोर्ट में समझाते हुए कहा, जिसमें यह माना गया था कि दसवीं अनुसूची को लागू करने वाली परिस्थितियां, राज्यपाल के फ्लोर टेस्ट को निर्देशित करने के निर्णय से संबंधित नहीं हैं।

इनका उल्लेख करते हुए, सीजेआई ने कहा कि फ्लोर टेस्ट का आदेश देते वक़्त 34 विधायकों की संभावित अयोग्यता राज्यपाल के लिए अप्रासंगिक मसला थी। फिर निष्कर्ष यह निकाला गया कि यदि ऐसा है, तो उस शक्ति को आज़माने के मामले में राज्यपाल की कार्रवाई का समर्थन करने के लिए कोई ठोस सामग्री नहीं थी। जस्टिस कोहली ने राज्यपाल के इस कदम को जल्दबाजी वाला कदम करार दिया।

मेहताः चुनाव के बाद का गठबंधन गैर-क़ुदरती 

लेकिन मेहता ने अदालत को बताया कि ठाकरे को अंततः विश्वास मत का सामना नहीं करना पड़ा जिससे राज्यपाल का फैसला सही साबित हुआ। 

इसके अलावा, जब मेहता ने चुनाव के बाद बने एमवीए गठबंधन को अप्राकृतिक करार दिया, तो सीजेआई ने कहा कि गठबंधन 2019 से अस्तित्व में था। उन्होने पूछा कि "तीन साल बेहतर साझेदारी के बाद रातों-रात क्या हो गया?" 

सीजेआई ने यह भी सवाल उठाया कि क्या राज्यपाल केवल इसलिए फ्लोर टेस्ट का निर्देश दे सकते हैं क्योंकि किसी पार्टी के भीतर विधायकों के समूह में नीति को लेकर मतभेद हैं।  सीजेआई ने कहा, इसका मतलाब है कि आप वस्तुत: एक पार्टी को तोड़ रहे हैं।

यदि यह इंगित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि सरकार ने सदन में बहुमत खो दिया है, तो सदन का नेता कौन होगा, यह मुद्दा राज्यपाल के लिए अलग मुद्दा है; पीठ के मुताबिक,  यह पार्टी के आंतरिक अनुशासन का मसला है।

सीजेआई ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि लोग अपनी सरकार को धोखा दे सकते हैं, लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब राज्यपाल विश्वास मत हासिल करने का आदेश देते हैं और उस प्रक्रिया के 'इच्छुक सहयोगी' बन जाते हैं, जो लोकतंत्र के भीतर एक बहुत ही दुखद मसला है।

उन्होंने चेताया कि राज्यपाल को अपने अधिकारों का इस्तेमाल पूरी सावधानी के साथ करना चाहिए।

सिब्बलः वे किस आधार पर कहते हैं कि वे असली शिवसेना हैं?

ठाकरे और उनकी शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) गुट के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपने प्रत्युत्तर में पीठ को बताया कि किसी भी संवैधानिक पैरामीटर के तहत राज्यपाल के पास किसी राजनीतिक दल के गुट को मान्यता देने की शक्ति नहीं है।

राज्यपाल विधायिका का हिस्सा होता है लेकिन विधान सभा का सदस्य नहीं होता है। सिब्बल ने पीठ को बताया कि वह केवल एक राजनीतिक दल को मान्यता दे सकते हैं और विधायक की अपनी पार्टी से जुड़े होने से अलग कोई पहचान नहीं होती है। 

सिब्बल ने कहा: "यदि आप वास्तव में उनके द्वारा पेश सामग्री को सही मानते हैं, तो आप 'आया राम, गया राम' के शासन को वापस लाते हैं

क्योंकि फिर कोई भी उस किस्म की संख्या इकट्ठी कर सकता है जैसे कि आजकल किया जाता है, उन्हें किसी दूसरे राज्य में ले जाते हैं, आराम से रखा जाता है … और फिर आकर सरकार तख़्ता पलट दिया जाता है।”

उन्होंने कहा कि शिंदे गुट अदालत के सामने बहस कर रहा है कि वह 'असली' शिवसेना है। लेकिन इसने शुरुआत से ऐसा नहीं किया। 

मीलोर्ड “यह एक मज़ाक है, जो हमारे देश में चल रहा है … यह सिर्फ महाराष्ट्र के बारे में नहीं है। यही मेघालय की बात है; मणिपुर की बात है और कल ये उत्तर प्रदेश की बात होगी... अगर आप ऐसा होने देंगे तो कहीं भी कुछ भी हो सकता है। यह हमारे भविष्य की बात है।

सिब्बल ने कहा कि, “उनके पास यह कहने का कोई आधार नहीं है कि वे असली शिवसेना हैं! … दसवीं अनुसूची का पक्का उद्देश्य, विधायक दल और राजनीतिक दल के बीच अंतर करना है। जबकि उनका पूरा तर्क यही है कि विधायक दल और राजनीतिक दल में कोई अंतर नहीं होता है. 'मैं एक राजनीतिक दल हूँ!'

यदि आप राजनीतिक दल हैं, तो आपने चुनाव आयोग का रुख क्यों किया?”

सिब्बलः व्हिप की नियुक्ति राजनीतिक दल ही करता है

सिब्बल ने कहा कि शिंदे गुट ने व्हिप की अवधारणा का सामना नहीं किया। यह केवल राजनीतिक दल होता है जो व्हिप नियुक्त करता है। इसलिए, शिवसेना के सांसद संजय राउत को व्हिप नियुक्त करने की बात पर, उन्होने पूरे तर्क को खारिज़ कर दिया कि वह विधान सभा के सदस्य नहीं हैं। और उन्हें पार्टी से ताकत मिली हुई है।

सिब्बल ने सवाल उठाया: “तो, यह तर्क देना कि मैं असम में बैठा था, [शिवसेना विधायक भरतशेट] और मैंने गोगावाले को व्हिप नियुक्त कर दिया था, यह संवैधानिक विचार में कहां फिट बैठता है?

फिर सवाल उठाया कि, “असम में बैठे आप में से चौंतीस विधायक जो [भारतीय जनता पार्टी]  की गोद में बैठे थे, गोगावाले को कैसे व्हिप नियुक्त कर सकते हैं? और फिर कोर्ट में आकर यह कहें, कि हम आपको पहले ही हटा चुके हैं! किस शक्ति के तहत ऐसा किया गया?

“गोगावाले को व्हिप मानकर राज्यपाल ने क्या किया?” राज्यपाल ने ठाकरे को लिखे अपने पत्र में इसका जिक्र किया था। राज्यपाल ने यह भी कहा कि सदन के नेता शिंदे हैं। 

सिब्बल ने आगे कहा कि यदि कोई गुट राज्यपाल के पास जाता है, तो वे उसे मान्यता नहीं दे सकते हैं। यदि वे दावा करते हैं कि वे राजनीतिक दल हैं तो उन्हें चुनाव आयोग के पास जाना होगा। 

सिब्बल: संवैधानिक दृष्टि से एकनाथ शिंदे कौन हैं?

4 जुलाई तक, शिवसेना विधायक सुनील प्रभु, विधानसभा में पार्टी के मान्यता प्राप्त व्हिप/सचेतक थे। 3 जुलाई को, प्रभु ने व्हिप जारी किया कि विधायक स्पीकर के रूप में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के उम्मीदवार के लिए वोट नहीं कर सकते हैं, लेकिन शिंदे गुट में शामिल होने वाले विद्रोही शिवसेना विधायक विप्लव बाजोरिया ने इसकी अवज्ञा की।

इसके अलावा, शिंदे विधायक दल के नेता नहीं थे क्योंकि उनके निष्कासन की सूचना उप-सभापति को दे दी गई थी और जिसे उन्होने स्वीकार कर लिया था। 

राज्यपाल एकनाथ शिंदे को सरकार बनाने के लिए कैसे बुला सकते हैं? संवैधानिक दृष्टि से एकनाथ शिंदे कौन हैं?”

सिब्बल: राज्यपाल ने जानबूझकर/निहित रूप से राजनीतिक दल में विभाजन को मान्यता दी

पिछले महीने, दसवीं अनुसूची के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका की संवैधानिक सीमाओं के मुद्दे पर बहस सिब्बल ने शुरू की थी।

सिब्बल ने इससे पहले अदालत को बताया था कि महाराष्ट्र के राज्यपाल के विश्वास मत का आदेश देने से राजनीतिक दल में विभाजन को मान्यता दी गई। 

फ्लोर टेस्ट का आदेश तब दिया गया जब शिंदे गुट के 39 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं विधानसभा के उपाध्यक्ष नरहरि एस. जिरवाल के समक्ष लंबित पड़ी थीं।

दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 3 में निर्दिष्ट 'विभाजन' को अब संविधान (इक्यानवे संशोधन) अधिनियम, 2003 द्वारा हटा दिया गया है।

फ्लोर टेस्ट का आदेश देकर, राज्यपाल ने स्पष्ट निर्णय लिया कि बागी विधायकों ने स्वेच्छा से सदस्यता नहीं छोड़ी है

सिब्बल ने इशारा किया कि, इसका मतलब यह भी था कि राज्यपाल ने अप्रत्यक्ष रूप से यह निर्णय लिया था कि बागी विधायकों ने दल-बदल के आधार पर दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2(1)(ए) के तहत स्वेच्छा से सदन की अपनी सदस्यता नहीं छोड़ी थी।

राज्यपाल ने शिंदे और तत्कालीन विपक्ष के नेता और वर्तमान उपमुख्यमंत्री, भाजपा के देवेंद्र जी. फडणवीस के अनुरोध पर महाराष्ट्र विधानसभा में फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया।

शक्ति के विवेक पर बहस आगे बढ़ाते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि राज्यपाल हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था और फ्लोर टेस्ट का आदेश नहीं देना चाहिए था तब-जब अयोग्यता से जुड़ी याचिकाएं दो स्तरों पर उप-न्यायिक थीं - सुप्रीम कोर्ट और इससे पहले डिप्टी स्पीकर के पास ये लंबित थी।

डॉ. सिंघवी ने राज्यपाल द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा सचिव को लिखे गए एक पत्र का हवाला दिया। पत्र में उल्लेख किया गया है कि शिवसेना विधायक दल के भीतर 'असंतोष' है और कुछ विधायक तत्कालीन एमवीए गठबंधन से बाहर निकलना चाहते हैं।

पत्र के जरिए राज्यपाल ने संदेश दिया कि ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना सदन में बहुमत खो चुकी है। डॉ. सिंघवी ने राज्यपाल के इस बयान के संवैधानिक आधार पर सवाल उठाया। 

दूसरी ओर, मेहता ने पीठ को बताया कि सदन के समक्ष बहुमत साबित करने के लिए ठाकरे को राज्यपाल का निर्देश इस बात की संतुष्टि करना था कि फ्लोर टेस्ट की जरूरत है। क्या राज्यपाल को इस बात से संतुष्ट नहीं होना चाहिए था कि ठाकरे ने बहुमत खो दिया है।

हालाँकि, सीजेआई ने मेहता को दुरुस्त करते हुए कहा कि राज्यपाल ने अपने पत्र के माध्यम से ठीक यही किया था। पत्र में कहा गया है कि राज्यपाल को इस बात पूरा भरोसा था कि ठाकरे सदन का बहुमत खो चुके हैं।

जबकि डिप्टी-स्पीकर ने अयोग्यता का नोटिस जारी किया था, उनके खिलाफ एक अविश्वास प्रस्ताव पारित किया गया, जिसे उन्होंने हस्ताक्षर और पत्र के स्रोत की प्रामाणिकता की कमी के आधार पर खारिज कर दिया था।

पिछले साल जुलाई में पूर्व सीजेआई रमना के नेतृत्व वाली पीठ के समक्ष सुनवाई के दौरान, डिप्टी स्पीकर ने नोटिस के जवाब में कहा था कि कथित तौर पर उनके कार्यालय को एक अज्ञात व्यक्ति से 39 विधायकों द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस प्राप्त हुआ था। इसी तरह, एक अधिवक्ता विशाल आचार्य के डाक पते से उन्हें उक्त नोटिस के साथ एक मेल भेजा गया था।

उन्होंने कहा था कि नबाम रेबिया का फैसला उनके मामले में लागू नहीं होता है क्योंकि महाराष्ट्र विधान सभा नियम, 2015 के साथ पढ़े जाने वाले संविधान के अनुच्छेद 179 (सी) के तहत उन्हें हटाने की कोई वैध सूचना नहीं थी।

शिंदे: मौजूदा सरकार में आस्था का आकलन करने के लिए फ्लोर टेस्ट जरूरी था

इस महीने की शुरुआत में शिंदे खेमे का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों का खंडन किया था।

शिवराज सिंह चौहान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, कौल ने तर्क दिया था कि मौजूदा सरकार में विश्वास की कमी की अभिव्यक्ति में विधायकों के इस्तीफे के प्रभाव का आकलन करने के लिए विधान सभा में फ्लोर टेस्ट कराना सबसे सुरक्षित तरीका है। 

उन्होंने अदालत से कहा कि, इसके अलावा, दसवीं अनुसूची के तहत की जाने वाली कार्यवाही, राज्यपाल की शक्ति से स्वतंत्र रूप से संचालित होती है।

राज्यपाल द्वारा कथित रूप से विभाजन को मान्यता देने के संदर्भ में, कौल ने कहा कि विधायिका और राजनीतिक दल के बीच का अंतर कृत्रिम और गैर-जरूरी है क्योंकि बाद वाले के पास पूर्व का जनादेश है।

कौल ने स्पष्ट किया कि उनका मामला केवल यह निर्धारित करना है कि चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के पैरा 15 के तहत प्रतिद्वंद्वी गुट कौन है, जो किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल से अलग हुए समूहों या प्रतिद्वंद्वी वर्गों के संबंध में आयोग की शक्ति के बारे में बात करता है। 

इसके अलावा, कौल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही सादिक अली बनाम भारत निर्वाचन आयोग (1971) में एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के भीतर एक प्रतिद्वंद्वी गुट को मान्यता देने के लिए मानदंड निर्धारित कर दिए हैं। चुनाव आयोग ने पिछले महीने सादिक अली फैसले में निर्धारित विधायी बहुमत के परीक्षण के माध्यम से शिंदे गुट को चिन्ह आदेश के तहत आरक्षित धनुष और तीर के चिन्ह को रखने की अनुमति दी थी।

कौल ने तर्क दिया: "... मेरा मामला यह नहीं है कि [अनुच्छेद] 2(1)(1) [दसवीं अनुसूची] के तहत बहुमत हासिल नहीं किया जा सकता है... आपका यह कहना कि यह केवल एक विधायक दल है और राजनीतिक दल होने का इसका कोई आधार नहीं है। किसी भी मामले में, इस पर स्पीकर को फैसला करना होता है [लेकिन] आप इस पूरी प्रक्रिया को दरकिनार करना चाहते हैं और अनुच्छेद 32 के तहत मामले को सुप्रीम कोर्ट में घसीटना चाहते हैं और कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को स्पीकर के मुक़ाबले फैसला करना चाहिए जो [किहोटो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हु] (1992)] से मुख्य रूप जुड़ा है’। मेरा [अनुच्छेद] 32 नबाम के तहत आने का स्तर पूरी तरह से अलग है…”

कौल ने आगे यह तर्क दिया गया कि पैरा 6 (राजनीतिक दल का वर्गीकरण) और 6ए (राज्य पार्टी की मान्यता की शर्तें) में चुनाव चिन्ह आदेश में वोट प्रतिशत, निर्वाचित प्रतिनिधियों और विधायक दल के निर्वाचित सदस्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। इसीलिए विधायक दल राजनीतिक दल का एक जैविक हिस्सा बना रहता है। 

इस संदर्भ में, सादिक अली मामले से जुड़ा एक पैराग्राफ पढ़ा गया, जिसमें कहा गया है कि: "... किसी राजनीतिक दल को एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के रूप में मानने के लिए जिन कारकों को ध्यान में रखा जा सकता है, वह उस पार्टी द्वारा हासिल की गई सीटों की संख्या है, लोक सभा या राज्य विधान सभा, या ऐसी पार्टी द्वारा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को पड़े मतों की संख्या जो इस बात को तय करेगी है…”

आंतरिक असंतोष स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने का पर्याय नहीं है

कौल ने पहले पीठ से कहा था कि आंतरिक असहमति को राजनीतिक दल की स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना नहीं कहा जा सकता है। कौल ने बताया कि असहमति, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ चुनाव के बाद हुए गठबंधन को लेकर थी।

अयोग्यता लंबित रहने के दौरान, विधायक अपने कार्यों का निर्वहन करना जारी रख सकते हैं

विधान सभा अध्यक्ष के संवैधानिक दायित्वों की ओर इशारा करते हुए जैसा कि एस.आर. बोम्मई और अन्य मामले में बताया गया है, शिंदे खेमे का नेतृत्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि न तो स्पीकर और न ही राज्यपाल को इस किस्म के गणित पर काम करने की जरूरत है। राज्यपाल को सिर्फ फ्लोर टेस्ट का आदेश देना चाहिए।

साल्वे ने टिप्पणी की, "... जब राज्यपालों ने गिनती करने वाली सरकारों को बर्खास्त कर दिया है, तो मिलोर्ड आपने उन्हें यह कहते हुए निशाना बना लिया कि आप अपने काम में असफल हो रहे। क्यों? क्योंकि संख्या गिनना राज्यपाल का काम नहीं है। मिस्टर सिब्बल और डॉ. सिंघवी जो करने की कोशिश कर रहे हैं, वह लॉर्डशिप को सिर गिनने के लिए राजी कर रहे हैं।

ऐसे कई उदाहरणों का उल्लेख करते हुए जहां गंभीर चुनावी अपराध किए गए हैं, साल्वे ने पीठ को बताया कि ये विधायक आरोपों के बावजूद अपने पद पर बने हुए हैं।

उन्होंने कहा कि यह हमारे सिस्टम के लिए एक अभिशाप है।

इस संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 191(2) का भी हवाला दिया गया। अनुच्छेद 191(2) के अनुसार, एक व्यक्ति किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद का सदस्य होने के मामले में तब अयोग्य होगा, तब-जब वह दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य पाया जाता है।

साल्वे ने कहा कि अयोग्यता विधायक की सदस्यता छीन लेती है और ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि स्पीकर इस पर निर्णय नहीं ले लेते हैं। उन्होंने कहा कि कोई भी अन्य विचार, विधानसभा के कामकाज को पंगु बना देगा।

कौल ने हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष बनाम कुलदीप बिश्नोई व अन्य (2012) और शिवराज सिंह चौहान का जिक्र करते हुए भी इसी तरह का तर्क दिया कि विधायकों के खिलाफ लंबित अयोग्यता का मतलब यह नहीं है कि विधायक सदन के सदस्य के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना बंद कर दें। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Maharashtra: SC Voices Serious Concern Over Governor’s Role in Breaking Legitimate Govt

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