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महाराष्ट्र: ठगा तो मतदाता गया, नुकसान तो लोकतंत्र का हुआ!

त्वरित टिप्पणी : आज फिर गंभीर मुद्दा यही है कि क्या सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है। क्या सीबीआई, ईडी जैसी स्वायत्त संस्थाओं के जरिये सरकार बनाने और गिराने का खेल खेला जा रहा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : tv9bharatvarsh

किसी ने किसी को नहीं ठगा। न बीजेपी ने शिवसेना को, न शिवसेना ने बीजेपी को। न अजित पवार ने शरद पवार को। न शरद पवार ने उद्धव ठाकरे या सोनिया गांधी को। महाराष्ट्र में ठगा तो मतदाता गया है।

इसी तरह किसी राजनीतिक दल या नेता ने किसी की पीठ में छुरा नहीं घोंपा, बल्कि इस सत्ता की राजनीति में छुरा तो लोकतंत्र और संविधान के सीने में ही घोंपा जाता रहा है।

इसलिए कोई भी पार्टी नैतिकता-अनैतिकता की बात करते हुए अच्छी नहीं लगती। ख़ासतौर पर महाराष्ट्र के संदर्भ में। यहां शुद्ध सत्ता का खेल हुआ है और अंतत: बाज़ी बीजेपी ने मारी।

अब उद्धव कहें कि जनादेश का अपमान हुआ है या शरद पवार कहें कि अजित पवार ने उन्हें धोखा दिया, यह सब बकवास है। सबने एक-दूसरे को और सबने मिलकर अंतत आम जनता, आम मतदाता को धोखा दिया है, उसके वोट का सौदा किया है, उसके मत का अपमान किया है। और यह भी कोई पहली बार नहीं है।

गोवा से लेकर कर्नाटक तक, बिहार से लेकर हरियाणा तक यही तो हुआ है। कांग्रेस का भी जब तक दम चला उसने ये सब किया। हालांकि अब इस खेल में बीजेपी उससे ज़्यादा माहिर हो गई है। इसलिए पार्टियों की आपस की धोखधड़ी हमारे लिए कोई चिंता का विषय या मुद्दा नहीं है। असल मुद्दा है आम मतदाता का, हमारे संविधान का, हमारे लोकतंत्र का। इससे मज़ाक का हक़ किसी को नहीं दिया जा सकता।

संविधान दिवस (26 नवंबर) से तीन दिन पूर्व 23 नवंबर को खुलेआम संविधान की धज्जियां उड़ा दी गईं। मुद्दा ये नहीं कि बीजेपी ने क्यों महाराष्ट्र में सरकार बना ली, या एनसीपी के अजित पवार ने क्यों पार्टी विधायकों के समर्थन का पत्र हासिल करते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया और डिप्टी सीएम बन गए। आप यहां साफ तौर पर समझ लें कि मुद्दा डिप्टी सीएम का था ही नहीं। किसी की भी सरकार बनती डिप्टी सीएम अजित पवार ही बनते।

जी हां, शिवसेना की सरकार में भी डिप्टी सीएम अजित पवार ही बनते। हो सकता है कि अगर ज़्यादा ज़ोर देकर बारगेन किया जाता और शिवसेना के साथ ढाई-ढाई साल का फार्मूला निकल जाता तो भी एनसीपी के कोटे से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री अजित पवार ही बनते।

एनसीपी में अजित पवार, शरद पवार के बाद नंबर दो पर हैं। रिश्ते में भी अजित पवार, शरद पवार के भतीजे हैं। यानी सबकुछ घर का मामला है। इससे पहले भी वे डिप्टी सीएम और मंत्री रह चुके हैं। इसलिए समझिए कि डिप्टी सीएम के लालच में तो वे बीजेपी के साथ नहीं गए।

हालांकि ये आशंका सच हो सकती है कि वे डर से बीजेपी के साथ गए। जी हां, डर! ईडी (Enforcement Directorate: प्रवर्तन निदेशालय) का डर! जेल भेजे जाने का डर!

आपको मालूम है कि अजित पवार महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक (MSCB) घोटाले में आरोपी हैं। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है।

दरअसल, इसी साल चुनाव से पहले 24 सितंबर को ईडी ने MSCB घोटाले में अजित पवार समेत 70 लोगों पर मामला दर्ज किया था। ये घोटाला करीब 25 हजार करोड़ रुपये का है।

आरोप है कि चीनी मिल को कम दरों पर कर्ज दिया गया था और डिफॉल्टर की संपत्तियों को सस्ते में बेच दिया था। आरोप है कि संपत्तियों को बेचने, सस्ते लोन देने और उनका रीपेमेंट नहीं होने से बैंक को 2007 से 2011 के बीच 1,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। अजित पवार उस समय बैंक के डायरेक्टर थे।

इसके अलावा उनके ऊपर सिंचाई घोटाले का भी आरोप है। 28 नवंबर 2018 को महाराष्ट्र एंटी करप्शन ब्यूरो (ACB) ने अजित पवार को 70 हजार करोड़ के कथित सिंचाई घोटाले में आरोपी बनाया था। अजित पवार एनसीपी के उन मंत्रियों में शामिल रहे, जिनके पास महाराष्ट्र में 1999 से 2014 के दौरान कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार में सिंचाई विभाग का प्रभार था। अभी भी यह मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन है।

तो राजनीति के जानकार बता रहे हैं कि शायद यही डर रहा हो अजित पवार को जो वे अपने चाचा और एनसीपी प्रमुख शरद पवार को छोड़कर बीजेपी के खेमे में चले गए।

ख़ैर, हमारी चिंता भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे किसी राजनेता के डर की भी नहीं होनी चाहिए। असल डर या चिंता इस बात की है कि क्या सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है? क्या सीबीआई, ईडी जैसी स्वायत्त संस्थाओं का प्रयोग या दुरुपयोग मोदी सरकार अपने हित में कर रही है। इनके जरिये अपने राजनीतिक प्रतिद्धवंदियों को फंसाने, ठिकाने लगाने के लिए कर रही है। और ये संस्थाएं ऐसा होने दे रही हैं।

मतलब देश की शीर्ष स्वायत्त संस्थाएं सरकार बनाने और गिराने के खेल में शामिल की जा रही हैं। ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन इसी के बरख़िलाफ़ मोदी सरकार सत्ता में आई थी। लेकिन अब ये सब दोगुनी गति और बेशर्मी के साथ हो रहा है। भरी सभा में लोकतंत्र का चीरहरण!

हद ये है कि अब तो चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी बार-बार सवाल उठने लगे हैं। आशंका जताई जाती रही हैं कि चुनाव आयोग सरकार के मन मुताबिक चुनाव कार्यक्रम तय कर रहा और बदल रहा है।

ख़तरा यही है, डर यही है कि हमारे संविधान के मूल्य, हमारे लोकतंत्र की सारी संस्थाएं सवालों के घेरे में हैं। यानी हमारी आज़ादी ही ख़तरे में हैं। हमारा देश ही दांव पर है। वरना किसी की सरकार बनने या न बनने से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है कि इसके लिए क्या तरीके अपनाए गए। और क्या इस खेल में, इस साज़िश में हमारी शीर्ष संस्थाओं भी शामिल हो गई हैं और सरकार की कठपुतली बनती जा रही हैं।

वाकई अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि देश बुरी हालत में हैं। सरकार हर चीज अपनी ढंग से नियंत्रित और निर्देशित करना चाहती है। हद तो ये है कि हमारे गृहमंत्री अमित शाह यहां तक कहते हैं कि कोर्ट को ऐसे फ़ैसले नहीं देने चाहिए जिनका पालन न कराया जा सके। सरकार को राम मंदिर पर फ़ैसला मंज़ूर होता है लेकिन सबरीमाला पर नहीं। यानी मोदी सरकार कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट को भी अपने अनुसार चलाना चाहती है।

अब ऐसे में छात्र, महिला, किसान, दलित-आदिवासी के हक़-हकूक की बात कौन करे, कैसे करे। आप देख ही रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में अपनी फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ लड़ रहे छात्र पीटे जा रहे हैं तो सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में बीजेपी की योगी आदित्यनाथ सरकार उन्नाव में किसानों पर लाठी चलवा रही है।  

विडंबना यही है कि अब जब सरकार बनाने में ही सारी 'मेहनत' ख़र्च की जा रही है तो सरकार कैसे चलती है, क्या काम करती है, कौन पूछे और कौन बताए? 

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