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महाराष्ट्र: उलझता ही क्यों जाता है कपड़ा-उद्योग पर संकट का 'धागा'?

कपड़ा-उद्योग से जुड़ी समस्याओं के लिए सिर्फ कपास फैक्टर ज़िम्मेदार नहीं है।
Maharashtra
वस्त्रोद्योग नगरी इचलकरंजी के एक कारखाने में रखी मशीन। तस्वीर साभार: अभिजीत भाकडे

कपास के उत्पादन में वृद्धि और गिरावट का असर कपड़ा उद्योग पर पड़ता है। पिछले सीजन में कपास का उत्पादन करीब 30 फीसदी कम हुआ था। लेकिन, कपड़ा-उद्योग से जुड़ी समस्याओं के लिए सिर्फ कपास फैक्टर जिम्मेदार नहीं है।

देश की अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले कपड़ा-उद्योग में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। इसके बावजूद यहां का कपड़ा-उद्योग प्रगति करने के बजाय स्थिर होता दिख रहा है तो इसके पीछे नीति और क्रियान्वयन संबंधी कारण प्रमुख हैं।

दावों की नहीं दवा की दरकार

कपड़ा-उद्योग के इस संकट को समझने के लिए पहले इसकी पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है। कपड़ा-उद्योग को आकार और दिशा देने के लिए देश और राज्य स्तर पर कपड़ा-उद्योग नीति बनाई गई है। केंद्र की नीति प्रशासनिक स्तर पर तैयार की जाती है। लिहाजा, महाराष्ट्र में जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की कमेटी बनाई गई है। लेकिन, पुरानी नीति समाप्त हो गई है और नई नीति कब आएगी और इसमें क्या प्रावधान होंगे, इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है।

राज्य की 2011-17 की नीति में 20,000 करोड़ के निवेश से 3 लाख रोजगार सृजित होने का दावा किया गया था, जबकि 2018-23 की नीति में 36,000 करोड़ के निवेश से 10 लाख रोजगार सृजित करने का दावा किया गया था। सरकार और नीति निर्धारक कब इस बात का लेखा-जोखा पेश करेंगे कि वास्तव में क्या हासिल हुआ और कितना हासिल हुआ?

बता दें कि कपड़ा उद्योग को एक छत के नीचे व्यवस्थित करने के लिए वर्ष 2005-06 में एक वस्त्र उद्योग वाटिका (कपड़ा पार्क) की योजना बनाई गई थी। इसके तहत करीब 60 प्रोजेक्ट सबमिट किए गए। इनमें छोटे और मझोले उद्यमियों को प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी। लेकिन, इनमें से करीब आधे शुरू ही नहीं हुए। बाद में परियोजना की त्रुटियों, कमियों, राजनीतिक उलझनों के कारण15 दूसरे प्रोजेक्ट खारिज कर दिए गए। ऐसे प्रोजेक्ट को केंद्र और राज्य स्तर से सब्सिडी दी जाती है। लेकिन, अनुदान स्वीकृति की गति को देखते हुए गारमेंट उद्योग फलने-फूलने के बजाय मुरझाने की स्थिति में है। केंद्रीय बजट के तहत राज्य में इचलकरंजी पावरलूम मेगा क्लस्टर जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा की गई थी। लेकिन, यह घोषणा कागजी साबित हुई।

जैसा कि कहा जा चुका है कि कपास के उत्पादन में वृद्धि और गिरावट का असर कपड़ा उद्योग पर पड़ रहा है। पिछले सीजन में कपास का उत्पादन करीब 30 फीसदी कम हुआ था। इस साल कपास का उत्पादन अच्छा रहा है, हालांकि समस्याएं कम हुई हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। दरअसल, कई वर्षों के बाद भी इस स्तर पर रणनीतिक दिशा और प्रारूप कब बनेगा, यह सवाल अनुत्तरित है। सूत मिलों का प्रदेश में बड़ा स्थान है। लेकिन, वित्तीय सहायता में देरी के कारण ऐसी कई परियोजनाओं में निवेश या तो हुआ ही नहीं है या यह निवेश अधूरा ही रह गया है जिससे परियोजनाएं अधर में हैं।

चरमरा गया ब्रिकी का गणित

वहीं, धागों की दर में अस्थिरता का मुद्दा बढ़ती चिंता का कारण बन रहा है। चूंकि, धागे की कीमतों में उतार-चढ़ाव बना रहता है, जिसने हथकरघा संचालकों को प्रभावित किया है, जो देश में कपड़ा उत्पादन का सबसे बड़ा घटक हैं। हथकरघा मालिकों का यह कटु अनुभव है कि धागों की खरीद से बिक्री तक की अवधि में स्थिरता की कमी के कारण कपड़ा बिक्री का गणित चरमरा जाता है तो यह एक गंभीर प्रश्न है। वहीं, इनकी मांग है कि आयात और निर्यात नीतियां सुसंगत होनी चाहिए। एक ओर जहां चीनी सामान के मामले में बेहद कड़ा रुख अख्तियार करने का दावा किया जाता है। वहीं, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों से चीन की कंपनियों का ही कपड़ा कम कीमत पर भारत में आयात किया जाता है।

स्थिति ऐसी है कि कपड़ा उद्यमी जब देखेंगे कि उनके नाक के नीचे ही आत्मनिर्भरता की नीति पिछड़ रही है तो वे अपने कारोबार को सीमित करना चाहेंगे और यही हो रहा है। इनका कहना है कि इन्हें विदेशी मशीनरी की खरीद में अत्यधिक सीमा शुल्क देना पड़ता है, जबकि सरकार की ओर से इन्हें इस मामले में जरा भी रियायत नहीं दी जा जा रही है।

दूसरी तरफ, देश के कपड़ा-उद्योग को आधुनिक बनाने की भी दरकार बताई जाती है। भारत में कपड़ा-उद्योग की मशीनरी बहुत पुरानी बताई जा रही है। हालांकि, इसके आधुनिकीकरण के लिए 1999 में 'तकनीकी उन्नयन निधि योजना' शुरू की गई थी। शुरुआत में ब्याज पर 5 प्रतिशत या मशीनरी की खरीद पर 20 प्रतिशत की सब्सिडी प्रदान की जाती थी। इस योजना से उद्योग की चमक बढ़नी चाहिए थी, लेकिन हुआ विपरीत और इस योजना के कारण कपड़ा उद्योग अपनी चमक खो बैठा। उद्योग का एक हिस्सा सरकारी 'आधुनिकीकरण' की भेंट चढ़ गया।

कैसे बनेगा आत्मनिर्भर भारत

दरअसल, योजना के तहत अरबों रुपए का निवेश किया गया था और करोड़ों रुपये के अनुदान दिए गए थे। लेकिन, बाद में इस योजना के तहत कई उद्यमियों का अनुदान की अगली किस्ते ही जारी नहीं हुईं। ऐसा होने से कई उद्यमियों पर ब्याज का बोझ बढ़ता चला गया, हताशा होकर उद्यमियों ने अपना कारोबार समेट लिया। बता दें कि 'तकनीकी उन्नयन निधि योजना' भी इस वर्ष मार्च के महीने में समाप्त हो रही है। इस योजना का नया लुक कैसा होगा तो इसको लेकर अभी तक कोई स्पष्टता नहीं है।

देश की अर्थव्यवस्था में कपड़ा-उद्योग की भूमिका हमेशा अहम रही है। कपड़ा-उद्योग देश के औद्योगिक उत्पादन का 14 प्रतिशत, राष्ट्रीय सकल उत्पाद का 4 प्रतिशत और कुल निर्यात का 15 प्रतिशत है। कपड़ा-उद्योग देश में रोजगार सृजन का एक प्रमुख साधन है। पांच करोड़ से अधिक लोग धागे सेक्टर से जुड़े हैं। महाराष्ट्र सरकार की साल 2018 की टेक्सटाइल इंडस्ट्री पॉलिसी के मुताबिक देश में रेडीमेड गारमेंट मार्केट 6 लाख करोड़ का है। रेडीमेड गारमेंट्स का 60 प्रतिशत घरेलू क्षेत्र में और 21 प्रतिशत संस्थागत क्षेत्र में उत्पादित किया जाता है।

घरेलू कपड़ा और परिधान उद्योग 2021 में 152 बिलियन अमरीकी डालर होने का अनुमान लगाया गया था। 12 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर मानते हुए 2025 तक इसके 225 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। कच्चे माल के समृद्ध संसाधन, अत्यधिक प्रशिक्षित जनशक्ति, कम मजदूरी दर, उत्पादन सुविधाएं, कपड़ा उत्पादन के प्रकार, मात्रा, गुणवत्ता, मूल्य विविधता सभी पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में कपड़ा उद्योग एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले कई वर्षों से लगातार आश्वासन दे रहे हैं कि भारतीय बुनकरों को विश्व स्तरीय उत्पादों का उत्पादन करने के लिए सहायता प्रदान की जाएगी। लेकिन, कपड़ा उद्योग के रास्ते में कई बाधाएं हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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