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अट्ठाइस मई - क्या कुछ याद रखने लायक भी है

क्या इसे सावरकर जैसे माफीवीर के जन्मदिन के लिए याद रखना चाहिए? या फिर नई संसद के अलोकतांत्रिक तरीके से किए गए उद्घाटन के लिए याद रखना चाहिए? या फिर राजतंत्र की, सेंगोल की पुनर्स्थापना के लिए याद रखना चाहिए? या फिर...
satire

उस अट्ठाइस तारीख को बहुत कुछ हुआ। छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त, दो अक्टूबर की तरह ही उस अट्ठाइस तारीख का भी अब बहुत महत्व हो गया है। उस अट्ठाइस तारीख मतलब अट्ठाइस मई। अभी ठीक एक हफ्ते पहले ही तो गुजरी है, अट्ठाइस मई। पिछले रविवार को ही तो थी अट्ठाइस मई।

यह अट्ठाइस मई तो पहले से ही विशिष्ट रही है लेकिन लोगों को याद ही नहीं था कि अट्ठाइस मई को कुछ हुआ भी था। कोई पैदा हुआ था अट्ठाइस मई को। लोगों के ज़हन में दो अक्टूबर है, चौदह नवंबर है, और अट्ठाइस सितंबर भी है, लेकिन अट्ठाइस मई नहीं थी। लोगों को ध्यान ही नहीं था कि अट्ठाइस मई को भी एक महानुभाव पैदा हुए थे। उन महानुभाव के नाम अंग्रेजों से पांच, छः या सात बार माफी मांगने का रिकॉर्ड आज तक कायम है। ऐसा कोई माई का लाल आज तक पैदा नहीं हुआ है जिसने इतनी बार माफी मांगी हो। मुझे तो लगता है कि माफी मांगने का यह रिकॉर्ड, राष्ट्रीय रिकॉर्ड ही नहीं, विश्व रिकॉर्ड भी है। एक ही बात के लिए एक ही सरकार से इतनी बार माफी मांगने का विश्व रिकॉर्ड। और विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर सरकार जी को विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले की परवाह तो करनी ही चाहिए। माफी मांगने में विश्व रिकॉर्ड बनाने वाला वह आदमी अब से एक सौ चालीस वर्ष पहले ठीक अट्ठाइस मई के दिन ही पैदा हुआ था और लोगों को याद ही नहीं था। बस सरकार जी को याद था। बस इसीलिए सरकार जी ने अट्ठाइस मई चुना।

सरकार जी उस व्यक्ति को बहुत मानते हैं। सरकार जी की खासियत यही है कि वे गांधी जी को भी मानते हैं और उन सबको भी बहुत मानते हैं जो गांधी जी की हत्या में प्रत्यक्ष तौर पर या परोक्ष रूप से शामिल रहे। यह उल्टा-सीधा सरकार जी की राजनीति को बहुत सुहाता है। दोनों हाथों में लड्डू रहें तो जब जो चाहे खा लो। एक हाथ में गांधी और पटेल रहें और दूसरे में गोड़से और सावरकर, इससे अच्छा और भला क्या हो सकता है।

तो सरकार जी ने नई संसद का, अपने अरमानों की संसद का उद्घाटन करने के लिए वही दिन चुना, सावरकर का जन्मदिन, अट्ठाइस मई। जैसी संसद, जैसा लोकतंत्र सरकार जी चाहते हैं, वैसा ही उद्घाटन सरकार जी ने किया। विपक्ष विहीन, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति विहीन लोकतंत्र और संसद। यही तो है ना सरकार जी के सपनों की संसद और सरकार जी के सपनों का लोकतंत्र। जैसी अपने सपनों की संसद, वैसा ही उसका उद्घाटन। उद्घाटन में न तो राष्ट्रपति महोदया थीं, न उपराष्ट्रपति और न ही बीस विपक्षी दलों के सांसद। सच में ऐसी ही संसद चाहिए सरकार जी को। ऐसी संसद ही तो चाहिए होती है एक तानाशाह को।

साथ ही तानाशाह को चाहिए होता है राजदंड, उसके हाथों में दंड देने का अधिकार। राजदंड के बिना राज कैसा? तो राजदंड को भी ढूंढ कर निकाल लिया गया। सेंगोल ढूंढ कर निकाला गया। जिस सेंगोल को नेहरू ने एक संग्रहालय में रखवा दिया था, कि इस लोकतंत्र में उसकी कोई जरूरत नहीं है, वही ढूंढ कर निकाल लिया गया। उस पर जो धूल मिट्टी जम गई थी, उसे साफ किया गया, धोया पोंछा गया और चमकाया गया। और फिर सरकार जी ने उस सेंगोल को संसद में, सरकार में, स्थापित किया। सरकार जी ने राजदंड को, सेंगोल को साष्टांग प्रणाम किया। सरकार जी राजदंड के बिना सरकार चला ही नहीं पा रहे थे।

और एक बार सेंगोल का शासन स्थापित हुआ, राजदंड आया, तो फिर लोकतंत्र की, लोकतांत्रिक मूल्यों की जरूरत ही क्या है। तो सरकार जी की सरकार ने, सरकार जी की पुलिस ने, लोकतांत्रिक ढंग से चल रहे, पैंतीस चालीस दिनों पुराने, पहलवानों के आंदोलन को कुचल डाला। बिस्तर उठा दिए गए, टेंट उखाड़ दिए गए, और पहलवानों को डंडे मार मार कर भगा दिया गया। अब राजदंड आ गया है, राजतंत्र आ गया है। गणतंत्र की खाल ओढ़ कर राजतंत्र आ गया है। शेर की खाल ओढ़ कर भेड़िया आ गया है। अब राजतंत्र में इन आंदोलनों का कोई स्थान नहीं है। अब जन आंदोलनों को इसी तरह से कुचल दिया जाएगा।

सेंगोल की एक खासियत और होती है। वह यह कि जो सेंगोल के जितना निकट होता है, सेंगोल उसकी उतनी ही रक्षा करता है। सेंगोल ने स्थापित होते ही उसकी स्थापना के समय संसद में मौजूद लोगों की रक्षा करनी शुरू कर दी। सेंगोल ने एक सांसद की रक्षा कर अपने काम की शुरुआत की है। वह काम जो पहले सरकार जी कर रहे थे, सरकार जी की सरकार कर रही थी, अब उस काम को सेंगोल करेगा। अब राजतंत्र में राजा की रक्षा होगी, राजा के लोगों की रक्षा होगी, राजा के करीबियों की रक्षा होगी, और वह काम अब सेंगोल करेगा।

जैसे ये सब बातें ही काफी नहीं हों, अट्ठाइस मई को को याद रखने के लिए, उसी दिन उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर में शिव जी ने भी तीसरी आंख खोल दी। नहीं, नहीं कोई जान का नुक़सान नहीं हुआ पर माल तो गिरा ही। मंदिर में तीस किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ्तार से चली आंधी में, हां अखबार तो उस आंधी की गति इतनी तेज ही बता रहे हैं, आठ सौ करोड़ से अधिक खर्च कर खड़ी की गईं मूर्तियां गिर गईं, ढह गईं। जैसे भगवान शिव भी अपने सेंगोल के दुरुपयोग से चिंतित हों, नाराज़ हों। जैसे अपने नाम पर किए गए भ्रष्टाचार पर क्रोध करने का उन्होंने वही दिन चुना हो, वही अट्ठाइस मई।

उस अट्ठाइस मई को लोग अपने अपने तरीके से याद रखेंगे। कुछ सावरकर के जन्म दिवस के रूप में याद रखेंगे तो कुछ नई संसद के उद्धघाटन के लिए याद रखेंगे। कुछ लोकतंत्र के खात्‍मे के लिए याद रखेंगे तो कुछ राजतंत्र की, सेंगोल की स्थापना के लिए याद रखेंगे। कुछ पहलवानों के आंदोलन समाप्त करने के लिए किये गए अत्याचार के लिए याद रखेंगे तो कुछ भगवान शिव के क्रोध के लिए याद रखेंगे।

लेकिन मैं, मैं तो अट्ठाइस मई को भूल ही जाना चाहूंगा। इस दिन में याद रखने लायक है ही क्या? क्या इसे सावरकर जैसे माफीवीर के जन्मदिन के लिए याद रखना चाहिए? या फिर नई संसद के अलोकतांत्रिक तरीके से किए गए उद्धघाटन के लिए याद रखना चाहिए? या फिर राजतंत्र की, सेंगोल की पुनर्स्थापना के लिए याद रखना चाहिए? या फिर पहलवानों द्वारा न्याय मांगने के लिए किए जा रहे आंदोलन को बर्बरता से कुचलने के लिए याद रखना चाहिए? या फिर भगवान शिव के क्रोध, उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण में हुए भ्रष्टाचार के लिए याद रखना चाहिए? मुझे तो इसमें से कुछ भी याद रखने लायक नहीं लग रहा है। मैं तो इस अट्ठाइस मई को भूल ही जाना चाहुंगा।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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