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मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मोहन भागवत की मुलाकात के मायने?

वैसे तो नेताओं की मुलाकातों को अक्सर औपचारिकता मात्र घोषित किया जाता है, लेकिन मोहन भागवत न तो नेता हैं और आधिकारिक तौर पर न ही उनका कोई विरोधी... फिर मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ मुलाकात के पीछे उनकी क्या मंशा है?
Mohan Bhagwat
फ़ोटो साभार: ट्विटर

विचारधाराओं के खेल में उलझी राजनीतिक पार्टियां, और राजनीतिक पार्टियों की शगूफे से निकली जनता के लिए नीतियां, समाज सुधार पर कम और ख़ुद की ईंट मज़बूत करने में लिए ज्यादा कारगर साबित होती हैं। क्योंकि जिस विचारधारा का सहारा लेकर पार्टियां हमसे हमारे वोट लेती हैं, दरअसल वो उनकी होती ही नहीं है।

जैसे सवाल उठे कि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा क्या है? तो ज़ुबान पर यही आएगा जो आरएसएस यानी संघ की है। और जब सवाल होगा कि संघ की विचारधारा क्या है? तो शायद जवाब होगा कि हिंदुत्व का प्रचार देश के कोने-कोने में करना?

अब समझने वाली बात ये है कि जिस देश की जनसंख्या का 20 फीसदी हिस्सा मुसलमान हो, 2 प्रतिशत के करीब सिख हो, 2 प्रतिशत के करीब ही ईसाई हों... उस देश में अगर सिर्फ हिंदुत्व की बात होगी, तो विकास के नाम पर क्या ही हाथ लगेगा।

इसके बावजूद संघ ने अपना ये काम लगातार जारी रखा है, और उसको एक बेहतरीन ज़रिया मिला है भारतीय जनता पार्टी के रूप में। अब साल 2024 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में भाजपा तो अपना प्रचार कर ही रही है, लेकिन संघ की ओर से भी हर बार की तरह भाजपा के प्रचार के लिए बढ़िया प्लान तैयार कर लिया गया है।

जिसकी शुरुआत संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कर भी दी है। कहने को तो मोहन भागवत इन दिनों बुद्धिजीवियों से मुलाकात कर रहे हैं, लेकिन इसके पीछे उनका मकसद क्या हो सकता है? हम वो जानने की कोशिश करेंगे।

साल 2025 में संघ के 100 बरस पूरे हो जाएंगे, ऐसे में पूरी उम्मीद है वहां एक प्लान तैयार हो रहा हो देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के लिए। और इसके लिए किसी भी हालत में भाजपा का केंद्र की सत्ता में बने रहना बहुत ज़रूरी है। ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, देश की जनता ने ख़ुद देखा होगा, कि पिछले कुछ सालों में कैसे इस बात को भाजपा और संघ की ओर से बहुत मुखरता से उठाया गया है। आपने गलियों में, बाज़ार की दीवारों पर अक्सर लिखा देखा होगा, कई बार तो साधु संतों के कार्यक्रम में इसकी प्रतिज्ञा तक ले ली जाती है।

यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि मोहन भागवत जिस तरह से अचानक सक्रिय हो गए हैं, वो एक तीर से दो निशाने... यानी हिंदू राष्ट्र का सपना और भाजपा के लिए प्रचार दोनों कर रहे हैं।

भाजपा के प्रचार के लिए मोहन भागवत को मुसलमानों से मिलने की क्या ज़रूरत पड़ गई?  इसके लिए पहले उत्तर प्रदेश चलते हैं, जहां चुनावों के वक्त योगी आदित्यनाथ ने साफ कह दिया था, कि हमारी लड़ाई 80 बना 20 की है। यानी 80 प्रतिशत हिंदू और 20 प्रतिशत मुसलमान। फिर जिस तरह से टारगेटेड बुल्डोज़र चलाए गए, देश में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़के, फिर भाजपा की प्रवक्ता ने पैगंबर पर आपत्तिजनक टिप्पणी की, इन कार्रवाईयों और घटनाओं के बाद कहीं न कहीं देश का मुसलमान भाजपा से दूरी बना रहा है। जिसे मनाकर भाजपा के पक्ष में लाना ही होगा। यानी किसी भी हालत में पहले भाजपा को सत्ता में लेकर आना बेहद ज़रूरी है।

इसके अलावा एक बार पहले भी मोहन भागवत कह चुके हैं कि हिंदू शब्द हमारी मातृभूमि, पूर्वज और संस्कृति की समृद्ध धरोहर के बराबर है और हर भारतीय हिंदू है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं और मुसलमानों के पुरखे एक ही थे।

इस को बात को समझना होगा कि हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ने के लिए हिंदुओं का बहुसंख्याक होना ज़रूरी है, जो देश में हैं, लेकिन 20 प्रतिशत मुसलमानों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, ऐसे में लोगों के मन पूर्वजों, संस्कृति के प्रति कैसे एक तरह की वैचारिक सहमति बनाई जाए, ये भी संघ की तरफ से बड़ा मकसद होगा, ताकि आने वाले वक्त में जब संघ अपने मकसद की ओर बढ़े तो ज्यादा रुकावट नहीं आए।

लेकिन ऐसी बातों में बहुत ज्यादा संशय तब पैदा हो जाता है जब मोहन भागवत मुस्लिमों के प्रति अपना दोहरा चरित्र पेश करते हैं। और कहते हैं कि भारत को पाकिस्तान बनाने और अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य से 1930 से मुस्लिम आबादी को बढ़ाने का एक संगठित प्रयास किया गया। इसकी योजना पंजाब, सिंध, असम और बंगाल के लिए बनाई गई थी और यह कुछ हद तक सफल भी हुई।

हालांकि मोहन भागवत के इस बयान के बाद काफी विवाद हुआ और विपक्ष के नेताओं ने निशाना भी साधा। जिसमें असदुद्दीन ओवैसी ने ट्वीट कर कहा था कि ‘’आरएसएस के पास जीरो दिमाग है और मुसलमानों से नफरत 100 परसेंट है।‘’

इसके अलावा ओवैसी ने भागवत की एक ही डीएनए वाली बात पर भी पलटवार किया था और कहा था कि अगर हमारा डीएनए एक ही है तो हम गिनती क्यों कर रहे हैं ? भारतीय मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर में 1950 से 2011 के बीच सबसे तेज गिरावट देखी गई है। संघ के पास जीरो ब्रेन है, 100% मुसलमानों से नफरत है।'

मतलब साफ है कि संघ या उसका कोई सदस्य या ख़ुद संघ प्रमुख मुसलमानों के प्रति लाख संवेदनाएं दिखाएं, लेकिन आख़िर में उनका मकसद उनकी विचारधाराओं के साथ मिलकर चलता है। लेकिन इसके विपरीत संघ या भाजपा लोगों को भ्रमित करने में कभी पीछे नहीं हटती।

जैसे वर्तमान में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली के एक मस्जिद में जाकर इमाम से मुलाकात की। उनके साथ संघ के नेता और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के इंद्रेश कुमार भी थे। आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने बताया कि सरसंघचालक ने दिल्ली की कस्तूरबा गांधी मार्ग की मस्जिद में मुख्य इमाम डॉ. उमर अहमद इलियासी और अन्य मुस्लिम नेताओं से मुलाकात की।

इससे पहले मोहन भागवत मुस्लिम बुद्धिजीवियों से भी मिले थे। जिसमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ. एसवाई कुरैशी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रहे रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह भी थे। कहा गया कि सभी लोगों ने बैठकर देश में सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने के लिए उठाए जाने वाले जरूरी कदमों की चर्चा की थी। इस बैठक में आमराय ये थी कि बिना सांप्रदायिक सौहार्द के देश का विकास नहीं हो सकता।

वैसे तो देश में बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसाओं के खिलाफ एक्शन लेने का काम सरकार है, लेकिन जो सरकार मौजूदा वक्त में है, जो प्रधानमंत्री मौजूदा वक्त में हैं, वे ख़ुद ही संघ का हिस्सा रहे हैं, और जैसा कि आप जानते हैं और हमने शुरुआत में बात भी की संघ और भाजपा एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। तो ग़ैर आधिकारिक ही सही लेकिन फैसले तो संघ की ओर से ही लिए जाते हैं।

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