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मेकेदत्तु बांध परियोजना: तमिलनाडु-कर्नाटक राज्य के बीच का वो विवाद जो सुलझने में नहीं आ रहा! 

कर्नाटक में मेकेदत्तु बांध परियोजना की मांग की लेकर कांग्रेस पार्टी ने एक पदयात्रा निकाली, जिसके बाद राज्य में राजनीतिक गर्माहट और अधिक तेज हो गई है। 
Mekedattu Dam project

9 जनवरी 2022 से शुरू होकर अगले 5 दिनों तक कर्नाटक में राजनीतिक हालात सरगर्म रहा। यह हाई ड्रामा कोविड -19 तीसरी लहर के पीक के मध्य एक पद यात्रा पर केंद्रित था। पद यात्रा मेकेदत्तु बांध परियोजना नामक एक बांध परियोजना को जल्द शुरू करने की मांग के लिए थी। पड़ोसी राज्य तमिलनाडु इस परियोजना का विरोध कर रहा था और इसे कावेरी न्यायाधिकरण के फैसले का उल्लंघन बता रहा था। केंद्र ने स्टैंड लिया है कि इस परियोजना को मंजूरी देने के लिए तमिलनाडु के ‘ओके’ की जरूरत है। इसलिए एक गतिरोध था और इस पर आपसी सहमति के अभाव में परियोजना शुरू नहीं की जा सकी। विपक्षी कांग्रेस मांग कर रही थी कि कर्नाटक सरकार को कानूनी और प्रक्रियात्मक बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। अब कांग्रेस ने इस मुद्दे को सड़क पर उतार दिया है।

कर्नाटक में कांग्रेस का यह हाई-प्रोफाइल शो था। कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार इसका नेतृत्व कर रहे थे। किसी भी महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेता का नाम सोचिये और वह मार्च में था- चाहे वह कर्नाटक में कांग्रेस विधायक दल के नेता सिद्धरमैया हों या राज्यसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे हों या राज्य के कोई अन्य प्रमुख नेता हों। “नम्मा नीरू, नम्मा हक्कू” (हमारा पानी, हमारा अधिकार) शीर्षक वाली 170 किलोमीटर की पदयात्रा 19 जनवरी 2022 को बेंगलुरु के बसवनगुडी में समाप्त होने से पहले 10 दिनों के लिए 15 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरने वाली थी।

लेकिन जो एक बड़े धमाके के साथ शुरू हुआ वह एक ‘डैंप स्क्वीब’ के रूप में समाप्त हुआ। 4 दिनों के बाद, 13 जनवरी 2022 को, कांग्रेस को इस योजना को बंद करना पड़ा। कोविड -19 मामलों में वृद्धि ने हजारों लोगों की भागीदारी के साथ होने वाली, अत्यधिक भीड़ वाली पदयात्रा को क्या, किसी भी सभा को आयोजित करना असंभव बना दिया। यात्रा के दूसरे दिन, जब पत्रकारों ने इस मुद्दे को उठाया, डी.के. शिवकुमार ने पहले तो कोरोना वायरस के खतरे की खिल्ली उड़ाई। राज्य सरकार ने भी कोरोना के आधार पर मार्च का विरोध किया लेकिन इस पर रोक लगाने को तैयार नहीं थी। वह मेकेदत्तु बांध के लिए एक लोकप्रिय आंदोलन विरोधी के रूप में नहीं देखी जाना चाहता थी।

लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट ने पदयात्रा न रोकने पर सरकार की खिंचाई की। इससे पहले कि हाईकोर्ट ने यात्रा पर प्रतिबंध लगाने का अगला तार्किक कदम उठाया, राज्य के मुख्यमंत्री बोम्मई ने सिद्धारमैया को एक पत्र लिखकर उनसे मार्च न करने की अपील की। स्वयं कांग्रेसियों में यह आशंका उठ रही थी कि यदि प्रतिभागियों के बीच कोविड-19 फैलता है तो उन्हें ही दोषी ठहराया जाएगा। इससे पहले कि बोम्मई सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाया, कांग्रेसी नेताओं में बेहतर समझ जागी और उन्होंने खुद मार्च को रद्द करने का फैसला किया, हालांकि उन्होंने इसे "अस्थायी स्थगन" के रूप में वर्णित किया।

लेकिन यात्रा के उद्घाटन के समय भारी उपस्थिति और किसानों और युवाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी ने दिखाया कि मार्च ने विवादास्पद परियोजना के बारे में जबरदस्त उत्साह पैदा किया था। हालांकि कर्नाटक सरकार दावा कर रही थी कि यह परियोजना मेगा सिटी बेंगलुरु की पेयजल आवश्यकता को पूरा करने के लिए थी, लेकिन सूखे क्षेत्रों में किसानों के बीच उम्मीदें बढ़ रही थीं कि यह उनकी सिंचाई आवश्यकताओं को भी पूरा करेगी ।

परियोजना वास्तव में है क्या?

कर्नाटक सरकार की प्रस्तावित मेकेदत्तु परियोजना 9,000 करोड़ रुपये की बांध परियोजना है। कावेरी नदी के संगम पर उसकी एक सहायक नदी अर्कावती के साथ 284,000 मिलियन क्यूबिक फीट (टीएमसी) क्षमता का जलाशय बनाने का प्रस्ताव है। यह उन तीन स्रोतों में से एक है, जिनसे कावेरी के जलग्रहण (catchment) क्षेत्रों और उसकी शाखाओं का पानी तमिलनाडु के मेट्टूर बांध में प्रवाहित होता है। जबकि कर्नाटक सरकार दो अन्य स्रोतों के माध्यम से प्रवाह को विनियमित और नियंत्रित कर सकती है, अर्थात कृष्णराजसागर बांध और काबिनी बांध; अर्कावती स्रोत में कोई बांध नहीं है और बारिश के मौसम में अतिरिक्त पानी बिना किसी नियंत्रण के तमिलनाडु के निचले तटवर्ती राज्य में अबाध रूप से बह जाता है।

बांध के लिए मुख्य स्थान तमिलनाडु के साथ सीमा के पास मेकेदत्तु (उच्चारित मेकेदत्तु, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'जिसे एक बकरी पार कर सकती है') है। यह दो करीबी चट्टानी संरचनाओं को संदर्भित करता है जिनके बीच नदी की शाखा बह रही है। मुख्य उद्देश्य बाढ़ के दौरान अतिरिक्त जल प्रवाह को संरक्षित करना है, ताकि संग्रहीत पानी का उपयोग बेंगलुरु के निरंतर बढ़ते पेयजल संकट को हल करने के लिए किया जा सके। संयोग से, चूंकि यह एक विशाल जलाशय है, इससे पुराने मैसूर क्षेत्र के कुछ जिलों में लगभग 400 मेगावाट पनबिजली पैदा करने के अलावा सूखी भूमि को सिंचित करने की भी उम्मीद है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह परियोजना मैसूर क्षेत्र के साथ-साथ बेंगलुरु, कोलार और चिक्काबल्लापुरा के लिए एक बड़ा वरदान होगी और उनकी पेयजल आवश्यकताओं को भी पूरा कर सकती है।
तमिलनाडु इसका विरोध क्यों कर रहा है?

तमिलनाडु का दावा है कि कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पांडिचेरी के बीच कावेरी जल बंटवारा 2018 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले द्वारा शासित है। इससे पहले, लंबे चले कावेरी नदी जल विवाद के बाद, विवाद को 1990 में कावेरी जल न्यायाधिकरण को भेजा गया था। 17 साल के विलंब के बाद, ट्रिब्यूनल ने 2007 में एक फैसला दिया जिसके तहत तमिलनाडु को 419 tmcft, कर्नाटक को 270 tmcft, केरल को 30 tmcft और पांडिचेरी को 7 tmcft जल आवंटित किया गया। तमिलनाडु का 419 tmcft का हिस्सा मेकेदत्तु क्षेत्र से मेट्टूर में बहने वाले अतिरिक्त वर्षा जल के मुक्त प्रवाह के अलावा था। यदि इस जल स्रोत को भी नुकसान पहुँचाया जाता है तो तमिलनाडु के लिए कावेरी जल का कुल हिस्सा काफी कम हो जाएगा।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा पानी का बंटवारा कावेरी में एक सामान्य वर्ष में कुल पानी की उपलब्धता पर आधारित था। एक संकटपूर्ण वर्ष में, जहां कम वर्षा होती है, कुल पानी की उपलब्धता कम हो जाती है और जल संकट पैदा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया कि संकट के वर्ष में पानी कैसे साझा किया जाए और चार तटवर्ती राज्यों के बीच पानी की कमी को कैसे वितरित किया जाए। एक संकटपूर्ण वर्ष में, कर्नाटक कृष्णराजसागर और काबिनी बांधों से पानी नहीं छोड़ पा रहा है। इस तीसरे स्रोत से सीमित वर्षा जल मेकेदत्तु क्षेत्र के माध्यम से ही प्राप्त होता है। तमिलनाडु को डर है कि अगर इस स्रोत को भी बांध दिया जाता है, तो सूखे के वर्ष में जब कम वर्षा होगी तो उन्हें पानी नहीं मिलेगा और तमिलनाडु में 14.5 लाख हेक्टेयर का पूरा कावेरी कमांड क्षेत्र पानी से वंचित हो जाएगा और लाखों किसान प्रभावित होंगे।

इसके अलावा, तमिलनाडु इंगित कर रहा है कि कर्नाटक के अपने अनुमान के अनुसार,  बेंगलुरु और कर्नाटक के अन्य शहरों में पीने के पानी की आवश्यकता केवल 4.75 tmcft है। फिर वह 67 टीएमसीएफटी की क्षमता वाला मेकेदत्तु बांध क्यों बना रहा है। यदि यह बांध बन जाता है, तो तमिलनाडु राज्य में बहने वाले जल के बड़े हिस्से से वंचित हो जाएगा।

तमिलनाडु को यह भी लगता है कि वे पहले से ही पीड़ित हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सड़क पर विरोध और दंगों के बाद ट्रिब्यूनल के 419 tmcft पानी देने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने इसे 14.75 tmcft कम कर दिया और कर्नाटक की भावनाओं को शांत करने के लिए वहां के हिस्से में इतना पानी ट्रांसफर कर दिया। अब, तमिलनाडु को और अभाव का सामना करना पड़ेगा।
गतिरोध क्यों?

तमिलनाडु के विरोध के बावजूद, मेकेदत्तु परियोजना को कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण से भी मंजूरी की आवश्यकता होगी, जिसके पास ही बसावट (settlement) क्षेत्र में किसी भी नई परियोजना को मंजूरी देने का अधिकार है; पर केंद्र ने यह पोज़िशन ले ली है कि कावेरी नदी प्रबंधन प्राधिकरण की मंजूरी के बिना केंद्र परियोजना के लिए पर्यावरण और अन्य मंजूरी जारी नहीं करेगा। कर्नाटक ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण को परियोजना रिपोर्ट भेजी, लेकिन वह निर्णय नहीं ले सका क्योंकि तटीय राज्यों के बीच कोई सहमति नहीं थी। इसलिए अब यह प्रोजेक्ट अटका हुआ है। कर्नाटक राज्य सरकार केंद्रीय मंजूरी के बिना परियोजना को आगे नहीं बढ़ा सकती है। लेकिन विपक्षी कांग्रेस उन्हें अपनी ही (भाजपा वाली) केंद्र सरकार की अवहेलना करने के लिए मजबूर कर रही है।

पिछले जुलाई में कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने केंद्रीय जल संसाधन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से 1 घंटे की मुलाकात की थी, जिसके बाद उन्होंने कहा कि तमिलनाडु से परामर्श करने के बाद निर्णय लिया जाएगा। तमिलनाडु में राजनीतिक ताकतें इसमें एक सूक्ष्म बदलाव देखती हैं -'तमिलनाडु की सहमति' से 'तमिलनाडु के साथ परामर्श', और उन्हें आशंका है कि केंद्र की भाजपा सरकार कर्नाटक में चुनाव से पहले, तमिलनाडु की सहमति के बिना, परियोजना को मंजूरी देकर कर्नाटक की भाजपा सरकार का पक्ष ले सकती है। एक सर्वदलीय बैठक ने इस परियोजना का विरोध किया और तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने भी इस परियोजना का विरोध किया। अगर कांग्रेस का विरोध जारी रहता तो सड़क पर प्रदर्शन के लिए भी स्थितियां परिपक्व हो रही थीं। लेकिन अब जब से कांग्रेस की पदयात्रा को रद्द कर दिया गया है, तमिलनाडु में स्थिति खराब हो गई है। लेकिन भविष्य में यह मामला फिर से भड़क सकता है।

संवेदनशील मुद्दे पर दोनों पक्षों से कौमपरस्त (chauvinistic) स्वर

1947 के बाद के भारत में अंतर-राज्यीय विवाद, और विशेष रूप से 1956 में भाषाई राज्यों के निर्माण के बाद, बड़े पैमाने पर दो श्रेणियों में बंट गए- 1) अंतर-राज्यीय जल विवाद और 2) एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवासियों पर हमले, जहां वे एक भाषाई या जातीय /राष्ट्रीय अल्पसंख्यक हैं । कावेरी विवाद के मामले में यह दोनों का घातक जोड़ बना है। बेंगलुरु और कर्नाटक के कुछ अन्य हिस्सों में एक बड़ी तमिल आबादी है और काफी कन्नड़ लोग तमिलनाडु के कई सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रहे हैं। जब जल विवाद के कारण तनाव बढ़ जाता है, तो उनकी सुरक्षा को खतरा होता है और उन पर हमले होते हैं। 1991 में कई तमिल लोगों की जानें गईं। TN में, कॉलीवुड ने भी 2018 में उस समय विरोध प्रदर्शन किया जब कर्नाटक ने सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पहले, एक गंभीर सूखे वर्ष में पानी देने से इनकार कर दिया।
संस्थागत विवाद समाधान की आवश्यकता

नदी जल विवाद भी भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि जैसी संधियों के माध्यम से देशों के बीच सुलझाए जाते रहे हैं। यदि समझौता करने वाली पार्टियों में से एक संधि का उल्लंघन करता है तो विवाद फिर से उत्पन्न होते हैं और देश सशस्त्र संघर्ष में भी जाते हैं। लेकिन जहां एकीकृत राज्य वाले एक बड़े देश में प्रांतों के बीच विवाद उत्पन्न होते हैं, केंद्र एक भूमिका निभाता है या अदालतें कानूनी ढांचे के भीतर उन्हें सुलझाती हैं। भारत में मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के बीच नर्मदा विवाद, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के बीच पोलावरम और वंशधारा विवाद और तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश के बीच कृष्णा जल विवाद जैसे कई अंतर-राज्यीय जल विवाद हैं। कर्नाटक ही महाराष्ट्र के साथ महादयी जल विवाद और तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के साथ कृष्णा विवाद आदि में उलझा हुआ है। लेकिन मेकेदत्तु विवाद अनोखा है क्योंकि इसमें एक बड़े शहर का पेयजल मुद्दा शामिल है।

राष्ट्रीय जल नीति 2012 और संयुक्त राष्ट्र वॉटरकोर्सेस कन्वेंशन 

कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा अपनाई गई राष्ट्रीय जल नीति 2012 की धारा VI कहती है: "पीने और स्वच्छता के लिए सुरक्षित पानी को पूर्व- अधिकृत जरूरतों के रूप में माना जाना चाहिए, इसके बाद अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों (जानवरों की जरूरतों सहित) के लिए उच्च प्राथमिकता आवंटन किया जाना चाहिए; इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा हासिल करना, जीविका कृषि और न्यूनतम इको-सिस्टम की जरूरतें का समर्थन करना भी है”।

लेकिन विभिन्न देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय जलमार्गों के गैर-नेविगेशनल उपयोगों के कानून पर 1997 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने पीने के पानी की जरूरतों को ऐसी कोई प्राथमिकता नहीं दी है।

लेकिन भारत में अदालतों, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने पीने के पानी के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया है, और उद्योगों, और यहां तक कि सिंचाई के लिए पीने के पानी को प्राथमिकता दी है।

इसलिए, न्याय कर्नाटक के पक्ष में है, क्योंकि बेंगलुरू का पेयजल संकट एक मानवीय मुद्दा है न कि सिंचाई जैसा आर्थिक मुद्दा। इसलिए लंबे समय तक तमिलनाडु का विरोध टिकाऊ नहीं हो सकता है। लेकिन अल्पावधि में, कावेरी नदी जल प्रबंधन प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय का मत तात्कालिक संदर्भ में तमिलनाडु के पक्ष में है। इसके अलावा, अपने अधिकारों के लिए दावा करते हुए भी, तमिलनाडु को बेंगलुरु के पेयजल मुद्दे पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए क्योंकि वे शहरी जल संकट से काफी हद तक परिचित हैं, जो चेन्नई में एक वार्षिक परिघटना है। कावेरी जल वर्तमान में बेंगलुरु में केवल 30% घरों को कवर करता है। उसे बाकी के लिए अन्य अस्थिर स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। कम से कम तात्कालिक संदर्भ में बातचीत द्वारा समाधान के लिए पर्याप्त जगह है क्योंकि प्रस्तावित आकार का कोई भी जलाशय एक दशक से पहले नहीं बन सकता है।

कांग्रेस की आंतरिक राजनीति

कांग्रेस की आंतरिक राजनीति भी इस मुद्दे के भड़कने के पीछे हालिया कारक है। केपीसीसी के नए अध्यक्ष शिवकुमार पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के साथ मुख्यमंत्री पद के लिए एक विवाद में फंस गए हैं। इसके अलावा, शिवकुमार वोक्कालिगा समुदाय (जिसे गौड़ा के नाम से भी जाना जाता है) से है और वह देवेगौड़ा से वोक्कालिगा नेतृत्व की कमान हथियाना चाहते हैं। सिद्धारमैया प्रमुख ओबीसी समुदाय कुरुबा  से हैं। लेकिन वोक्कालिगा उच्च जाति है। इस सामाजिक दृष्टिकोण के अलावा, कांग्रेस का कर्नाटक में अंधराष्ट्रवाद का इतिहास रहा है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री बंगरप्पा ने 1991 के कावेरी दंगों को सत्ता में आने के लिए हवा दी थी, जब उन्हें यह संकेत मिला कि तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव उनपर भ्रष्टाचार के आरोप के कारण उन्हें बदलने पर विचार कर रहे थे। अब, कांग्रेस नेता एक बार फिर आग से खेल रहे हैं, जबकि तमिलनाडु के साथ बातचीत के लिए पर्याप्त संभावना मौजूद है। यह गनीमत रही कि विवाद शांत हो गया। अब, दो पड़ोसी लोगों के बीच शांति और सद्भाव के हित में, जल युद्ध से बचने के वास्ते बातचीत द्वारा समझौता करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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