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स्मृति शेष: मैनेजर पांडेय– शिक्षक, सहकर्मी, मित्र और विद्वान

मैनेजर पांडेय ने अपनी रचनाओं से न सिर्फ़ हिंदी साहित्य, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य जगत को समृद्ध किया। वह एक अत्यंत प्रतिबद्ध शिक्षक थे।
Manager Pandey
Image courtesy : NBT

6 नवंबर, 2022 को तक़रीबन 8.30 बजे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के प्रख्यात शिक्षकों और विद्वानों में से एक प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय का निधन हो गया। वह 81 वर्ष के थे। उन्होंने 30 से ज़्यादा किताबें लिखी/संपादित की थी। ये सभी किताबें हिंदी में थीं, जिनमें से कुछ किताबों का दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी किया गया था।

मैनेजर पांडेय का जन्म 23 सितंबर,1941 को बिहार के इस समय गोपालगंज और पहले सिवान ज़िले के लोहटी गांव में हुआ था। गांव में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने खुरारिया हाई स्कूल से पढ़ाई की, जिसकी दूरी उनके गांव से लगभग 10 किलोमीटर थी और जहां जाने के लिए उन्हें हर दिन एक नदी पार करना होता था। उनके माता -पिता ने स्नातक की पढ़ाई के लिए उन्हें बनारस (उत्तर प्रदेश) के डीएवी कॉलेज भेज दिया।

पांडेय ने बचपन में बहुत पहले ही अपनी मां को खो दिया था और उनका ख़्याल उनकी विधवा बुआ ने रखा था। उनके पिता किसान थे और पिता उनकी शिक्षा को आगे जारी रखने में मददगार रहे। यही वजह है कि अपने परिवार से शिक्षा हासिल करने वाले पहले व्यक्ति थे, बल्कि उच्चतम शैक्षणिक डिग्री,यानी कि डॉक्टरेट हासिल करने वाले भी पहले व्यक्ति थे।

मैनेजर पांडेय ने 1968 में हिंदी में मास्टर ऑफ आर्ट्स (एमए) और ‘सूर का काव्य: परम्परा और प्रतिभा’ विषय पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से डॉक्टर ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी (पीएचडी) की उपाधि पायी थी। इस थीसिस को किताब की शक्ल में मैकमिलन (अब डिफंक्ट) प्रकाशन ने 1982 में ‘कृष्ण कथा की परम्परा और सूरदास का काव्य’ के रूप में प्रकाशित किया गया था। इसका नया और संशोधित संस्करण 1993 में वाणी प्रकाशन, दिल्ली से ‘भक्ति आंदोलन और सुरदास का काव्य’ के रूप में सामने आया।

पांडेय ने 1969 में बरेली कॉलेज में बतौर हिंदी व्याख्याता अपना करियर शुरू किया। उन्होंने प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में विद्वतापूर्ण लेख लिखने शुरू कर दिए, और जल्द ही 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में नियुक्त कर दिए गए, जहां से वह मार्च,1977 में दिल्ली स्थित जेएनयू चले आये।

उनके साथ मेरा मिलना-जुलना शुरू से ही रहा। उन्हें कुछ समय के लिए उत्तराखंड ब्लॉक के उस एच.नंबर 165 में ठहराया गया था, जिसे कि अस्थायी रूप से एक जेएनयू गेस्ट हाउस के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, और जिसे संभवतः प्रोफ़ेसर सतीश चंद्र ने तब खाली कर दिया था, जब उन्हें यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया किया था। बाद में वह उस पुराने कैंपस के सामने बेर सराय के एक फ्लैट में शिफ़्ट हो गये थे, जहां उस समय जेएनयू के सभी स्कूल/सेंटर स्थित थे।

आपातकाल के दौरान मुझे 1976 में भारतीय भाषा केंद्र में पीएचडी पाठ्यक्रम में दाखिला के लिए चुन लिया गया था, लेकिन राजनीतिक कारणों से एक अन्य छात्र के साथ मेरा दाखिला रोक दिया गया। आपातकाल वापस ले लेने के बाद हमें मार्च, 1977 में दाखिले की अनुमति दे दी गयी। मैं पांडेय से मिला और इस सिलसिले में उनसे सलाह मांगी, जैसा कि विदित हो कि 1977 से सेंटर फ़ॉर इंडियन लैंग्वेज़,यानी CIL ने एमफ़िल में दाखिला शुरू करने की योजना बना ली गयी थी। इससे पहले पीएचडी में सीधे-सीधे दाखिला प्री पीएचडी पाठ्यक्रम के साथ होता था। उन्होंने मुझे 1977 के सत्र के दाखिले तक इंतज़ार करने की सलाह दी, जो महज़ चंद महीनों की बात थी और एक संयुक्त एमफ़िल/पीएचडी कोर्स में दाखिला लेना था। मैंने उनकी सलाह पर ग़ौर किया और 1977 में फिर से दाखिले की परीक्षा में भागीदारी की, सेलेक्ट हो गया और मैंने उन्हें अपने सुपरवाइज़र के रूप में चुन लिया।

1974 में जेएनयू में स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज़ेज के हिस्से के रूप में सीआईएल बिना किसी फ़ैकल्टी के स्थापित किया गया था, जिसमें हिंदी और उर्दू में पाठ्यक्रम थे। नामवर सिंह नवंबर 1974 में प्रोफ़ेसर और चेयरपर्सन के रूप में शामिल हुए थे।यह तक़रीबन वही समय था,जब सावित्री चंदर शोबा और एस पी सुधेश भी शामिल हुए थे। चिंतमणि, केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय को नामवार सिंह ही यहां लाये थे। सीआईएल में हिंदी के शुरुआती सभी छह फ़ैकल्टी सदस्यों में से पांडे इस दुनिया को अलविदा कहने वाले आखिरी व्यक्ति थे। जनवरी, 2022 में एसपी सुधेश ने 85 से ज़्यादा साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।

साहित्य और समाज के मूल्यांकन को लेकर पांडेय की प्रतिभा जेएनयू के आलोचनात्मक सोच वाले माहौल में विकसित हुई थी। उनकी पहली किताब, ‘शब्द और कर्म’ 1981 में प्रकाशित हुई थी। इसने हिंदी साहित्यिक आलोचना के घिसे-पिटे मंज़र में ताज़े हवा का झोंका ले आयी। सीआईएल के छात्रों के बीच उन्होंने एमफ़िल के छात्रों को साहित्य के समाजशास्त्र और कभी-कभी साहित्यिक पेपर पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अपने शिक्षण से बड़ा असर डाला।

प्रोफ़ेसर नामवर सिंह और मोहम्मद हसन की अगुवाई में उन्नत पाठ्यक्रमों को शामिल करते  हुए हिंदी और उर्दू के पाठ्यक्रमों में ऐसे ज़बरदस्त सुधार लाये, जिनकी कल्पना दूसरे भारतीय विश्वविद्यालयों में नहीं की जा सकती थी। इन मुख्य पाठ्यक्रमों की मूल प्रकृति आलोचनात्मक सोच वाली थी, जो कि अंग्रेज़ी या यूरोपीय भाषाओं के साहित्यिक अध्ययन के लिहाज़ से तो आम थी, लेकिन भारतीय भाषाओं के लिए बिल्कुल नयी थी।

जिन दो पाठ्यक्रमों ने सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित किया और हिंदी और उर्दू साहित्यिक अध्ययनों को विश्वसनीयता दी थी, वे थे- ‘साहित्य का समाजशास्त्र और साहित्य की इतिहास दृष्टि’। इन दोनों पाठ्यक्रमों को मैनेजर पांडेय और नामवर सिंह हिंदी में पढ़ाते थे। नामवर सिंह ने एमए (हिंदी) के छात्रों को साहित्य का मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य पढ़ाया था, जिसे पांडे ने भी सिंह के अध्ययन प्रोत्साहन अवकाश के दौरान पढ़ाया था।

1981 में नव स्थापित प्रगतिशील प्रकाशक, पीपुल्स लिटरेसी दिल्ली से पाण्डेय की एक और किताब, ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ निकली, जिसने हिंदी अनुवाद में कई मार्क्सवादी साहित्यिक सिद्धांत शास्त्रीय पुस्तकें निकालीं। इस किताब ने पांडेय को अकादमिक जगत में एक महत्वपूर्ण हिंदी आलोचक के रूप में स्थापित कर दिया। एक दूसरी किताब, जिसने उन्हें ख्याति दिलाई थी, वह थी- ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’, जो 1989 में प्रकाशित हुई थी, और तब से इसके कई संस्करणों निकले हैं और उर्दू सहित कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी किया गया है। यह किताब कई अन्य भारतीय भाषाओं में एम.ए. और रिसर्च डिग्री कोर्सों के लिए अनुशंसित थी और इस समय भी है।

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इन दो महत्वपूर्ण साहित्यिक सिद्धांत वाली किताबों के अलावे पांडेय ने आधुनिक और मध्यकालीन साहित्य पर भी कई पुस्तकें प्रकाशित करवायीं। हिंदी लेखकों/विद्वानों/छात्रों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं की आम धारणा में वह एक मार्क्सवादी साहित्यिक आलोचक थे और माने जाते हैं। वह कई सालों तक एक आमूल-चूल परिवर्तनवादी वामपंथी सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष रहे। उनकी बाद की कुछ पुस्तकों का संक्षेप में यहाँ उल्लेख किया गया है।

पांडेय का अगला महत्वपूर्ण प्रकाशित किताब अंभाई सांचा थी। यह बहुत ही मुश्किल और दुखद परिस्थितियों में प्रकाशित हुई थी। कथित तौर पर बिहार पुलिस ने इलाक़े के उस आपराधिक गिरोहों के साथ मिलकर उनके युवा और इकलौते बेटे आनंद की बिहार स्थित उनके गांव में 16 अगस्त, 2000 को हत्या कर दी थी, जिसके ख़िलाफ़ आनंद बौतर एक नौजवान और लोकप्रिय कार्यकर्ता लड़ रहे थे। यह किताब लेखक की पीड़ा का वर्णन करते हुए एक प्रस्तावना के साथ अपने बेटे को समर्पित है। यह हिंदी साहित्य पर उनके तीन दशकों के असंख्य लेखन से साहित्य पर लिखे गये 20 लेखों का संग्रह है। इसमें मध्यकालीन भक्ति साहित्य से लेकर आधुनिक दलित साहित्य तक के लेखन शामिल हैं। 1998 में प्रकाशित ‘मेरे साक्षात्कर’ नामक पुस्तक विभिन्न हिंदी लेखकों के साथ उनके 16 साक्षात्कारों पर आधारित है, जिसमें उनके कई छात्र और सीआईएल फ़ैकल्टी सदस्य देवेंद्र चौबे भी शामिल हैं।

साक्षात्कारों की एक और किताब, ‘मैं भी मुंह में ज़ुबान रखता हूं’ 2005 में प्रकाशित हुई थी। उनके साक्षात्कारों पर आधारित दो और किताबें,’बतकही’ और ‘संवाद-परिसंवाद’ प्रकाशित हुईं थीं। 2005 में उनके चुने हुए 26 लेखों का संग्रह, ‘आलोचना की सामाजिकता’ प्रकाशित हुआ था, जो आधुनिक कथा और सांस्कृतिक मुद्दों पर अधिक केंद्रित था।

किशन कालजयी की सम्पादित सामवेद का एक अंक मैनेजर पाण्डेय पर केन्द्रित था और ‘संकट के बावजूद’ शीर्षक से यह किताब 2002 में प्रकाशित हुई थी, जिसमें हिन्दी के 26 जाने-माने आलोचकों/लेखकों ने उनकी आलोचनात्मक साहित्यिक रचनाओं पर चर्चा की थी। पांडे ने एक अलग किताब, ‘संकट के बावजूद’ कुछ विश्व प्रसिद्ध लेखकों के चुने हुए लेख और अनुवाद बाद में प्रकाशित करायी थी।

मैनेजर पाण्डेय के योगदान पर कुछ और किताबें उनके जीवन काल में ही प्रकाशित हो गयी थीं।

उनकी संपादित पुस्तकों में से एक सिवान की कविता है। 1977 से दिल्ली में रहने के बावजूद मैनेजर पांडेय बिहार के सिवान में अपनी जड़ों से बंधे हुए थे और उन्होंने उस इलाक़े की साहित्यिक प्रतिभा को इस संग्रह में एकत्र किया था। उन्होंने प्रमुख हिंदी लेखकों - सूरदास, कुमार विकल, नागार्जुन, माधव राव सप्रे, मुंशी नवज़ादिक, लाल श्रीवास्तव और अन्य लेखकों के चुनिंदा लेखों का संपादन भी किया था।

मैनेजर पाण्डेय ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को चित्रित करने वाली ऐसी अनेक किताबों को सामने लाया था, जो मौजूदा वक़्त में दृष्टि से ओझल हो गयी हैं। ऐसी ही एक किताब थी, ‘देश की बात’, मराठी में एक किताब सखाराम विष्णु पराडकर और दूसरी हिंदी में देव नारायण द्विवेदी द्वारा इसी शीर्षक वाली थीं। दोनों किताबें भारत के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास की महत्वपूर्ण किताबें थीं।

ऐसी ही एक और किताब मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव की ‘पराधीनों की विजय यात्रा’ थी। उन्होंने अपने मित्रों की सहायता से एक जर्मन विश्वविद्यालय से इसकी प्रति हासिल की थी। यह किताब पहली बार 1934 में प्रकाशित हुई थी, इसके 1937 संस्करण को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस किताब में भारत सहित 36 देशों के स्वतंत्रता संग्राम का वर्णन है। इसी तरह, माधव राव सप्रे एक जाने-माने पत्रकार थे, जिन्हें हिंदी के पहले लघु कथाकार होने का श्रेय भी प्राप्त है,उन्होंने ‘एक टोकरी भर मुठी’ लिखी थी। मैनेजर पांडेय ने उनकी चुनी हुई रचनाओं का संपादन किया था।

उनकी अन्य किताबें है- उपन्यास और लोकतंत्र, साहित्य और दलित दृष्टि, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना में सहमति-असहमति, भारतीय साहित्य में प्रतिरोध की परंपरा, मुक्ति की पुकार- संपादित कविता, शब्द और साधना, आचार्य द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ (संपादित), लोकगीतों में 1857- प्रस्तावना के साथ संपादित, एनबीटी (नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया) द्वारा प्रकाशित संकलित निबन्ध (मैनेजर पांडे के संग्रहित निबंध)।

उनके अंतिम और महत्वपूर्ण किताबों में से एक किताब 2016 में प्रकाशित ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता’  थी। इस संग्रह में संपादक ने अपनी प्रस्तावना भारत में मुग़ल शासन के संस्थापक बाबर से शुरू की थी, जिन्होंने फ़ारसी में कविता लिखी थी। बाबर की बेटी गुलबदन बेगम ने भी फ़ारसी में कविता लिखी थी। मैनेजर पांडेय को हुमायूं के कविता लिखने का तो कोई प्रमाण नहीं मिल पाया, लेकिन उन्होंने हुमायूं के ख़ुद के दरबार में रहने वाले दो फ़ारसी कवियों की सराहना और उन्हें संरक्षण देते हुए पाया। बादशाह अकबर से मुग़ल बादशाहों की कलम से काव्य का अविरल प्रवाह शुरू होता है। बादशाहों ने न सिर्फ़ कविता लिखीं, बल्कि बड़ी संख्या में कवियों को संरक्षण भी दिया।

पांडेय ने एक पुरानी किताब, ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी’ खोज निकाली थी। यह किताब पंडित चंदर बलि पांडे ने लिखी थी और 1940 में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अकबर से लेकर बहादुरशाह ज़फ़र तक के मुग़ल बादशाहों की लिखी गयी हिंदी कवितायें थीं। उन्होंने हरबंस मुखिया की किताब ‘इंडियन मुग़ल’ भी पढ़ी, जिससे कि बादशाह शाह आलम की लिखी कविता की और भी पुष्टि हुई। पाण्डेय के सम्पादित इस संग्रह में शाह आलम की लिखी कविताओं की संख्या सबसे ज़्यादा है, कविताओं की संख्या के लिहाज़ से अकबर दूसरे स्थान पर है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि औरंगज़ेब ने भी हिंदी कवितायें लिखी थीं। एक विस्तृत भूमिका के साथ वह इस मुग़ल बादशाह की हिंदी को ब्रजभाषा की कविता के रूप में वर्णित करते हैं।

सूरदास ने भी उस ब्रजभाषा में लिखा था, जो कि वर्तमान खड़ी बोली की जगह लेने से पहले हिंदी भाषा का एक प्रमुख काव्य रूप थी। इस संग्रह में अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगज़ेब, आजम शाह, मोअज़्ज़म शाह शाह आलम बहादुर शाह, जहांदारशाह मौज, मोहम्मद शाह, अहमद शाह, आलमगीर, मोहम्मद शाह आलम और आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की हिंदी कवितायें शामिल हैं।

मैनेजर पांडेय सालों तक दारा शिकोह पर काम करते रहे थे, जिसे औरंगज़ेब ने सत्ता के लिए भाइयों के बीच होने वाले युद्ध में मार दिया था, लेकिन दारा को सभी मुग़ल शासक परिवारों में सबसे बड़ा दार्शनिक शहज़ादा माना जाता था। वह उनकी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना थी, जो कि उनकी ज़िंदगी को और ज़्यादा मोहलत नहीं मिल पाने के चलते अधूरी रह गयी।

मैनेजर पाण्डेय को बतौर पुरस्कार और सम्मान अनेक सम्मान प्राप्त हुए, जैसे; दिल्ली सरकार का शलाका सम्मान, दक्षिण भारत प्रचार सभा का सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार, उन्हें बिहार सरकार के अलावे और कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया था।

मैनेजर पाण्डेय ने अपने लेखन से न सिर्फ़ हिन्दी साहित्य,बल्कि भारतीय साहित्य जगत को भी समृद्ध किया और वह एक प्रतिबद्ध और अनुशासित विद्वान के रूप में छात्रों के आदर्श भी बने। वह अपने छात्रों को अक्सर डांटने के लिए जाने जाते थे, लेकिन उसी तरह उन छात्रों को लेकर चिंतित होने वाले शिक्षक भी रहे और हमेशा उनके बचाव में खड़े रहे।

उनके निधन पर शोक/स्मृति सभाओं में शोक व्यक्त करने वालों में न सिर्फ सीआईएल और जेएनयूटीए जैसे संगठन शामिल थे, बल्कि इनमें दिल्ली के उनके कई प्रकाशक और लेखकों के संगठन भी शामिल थे। बिहार और विशेषकर सिवान इल़ाके में ऐसी कई सभायें हुईं। देश के कई हिस्सों में हिंदी, अंग्रेज़ी और पंजाबी में कई लेखकों ने उन्हें याद करते हुए कई श्रद्धांजलि लेख लिखे।

लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र (Centre of Indian Languages) में सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर और पूर्व चेयरपर्सन हैं। इस समय वह भगत सिंह अभिलेखागार और संसाधन केंद्र नई दिल्ली के मानद सलाहकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

OBITUARY: Manager Pandey -- Teacher, Colleague, Friend and Scholar

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