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खनन कानून: क्या केंद्र प्रचुर खनिज संपदा वाले राज्यों की शक्तियां छीनेगा?

राज्यों को सावधानी और पूरी तैयारी के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंचना होगा, क्योंकि उनकी खनिज संपदा दांव पर है।
खनन कानून: क्या केंद्र प्रचुर खनिज संपदा वाले राज्यों की शक्तियां छीनेगा?

खनिज संपदा संपन्न राज्यों समेत खनन क्षेत्र को "खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2021" से आए बदलावों का पूरा अध्ययन करना होगा। विधेयक के ज़रिए पूरे क्षेत्र में बदलाव लाए जा रहे हैं। नीरज मिश्रा लिखते हैं कि इस विधेयक में पूरा ध्यान संरक्षण और जीवनाधार के बजाए शोषण पर है।

कृषि विधेयकों पर मचे बवाल के बीच BJP सरकार ने "खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2021" पर दोनों सदनों में चालाकी से काम चला लिया। अब कम वक़्त का नोटिस देकर विधेयकों को पेश करना और उनके ऊपर ज़्यादा विमर्श करवाए बिना उन्हें पारित करवाना बीजेपी की पहचान बन चुका है।

संरक्षण नहीं, शोषण

हम जैसे वक़्त में रहते हैं, उसमें संरक्षण और जीवनाधार के बजाए शोषण पर ध्यान ज्यादा दिया जाता है। पिछली सरकारों को उनके द्वारा ना किए गए कामों के लिए दोष देना बहुत आसान होता है। उससे भी आसान इसके पक्ष में आंकड़ें देना होता है। 

उदाहरण के लिए:

* दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी की 7 फ़ीसदी हिस्सेदारी खनन क्षेत्र की है। जबकि भारत में यह आंकड़ा महज 1.75 फ़ीसदी ही है। तो बुनियादी तर्क दिया जाता है कि हमें और भी ज़्यादा खनन करने की जरूरत है। 

* लौह और कोयला जैसे बड़े खनिजों के लिए दी गई 2904 बड़ी खनन पट्टों में से 1900 कई साल से खाली पड़े हैं। राज्य अब तक केवल 7 खनन पट्टों की ही नीलामी करने में कामयाब हो पाए हैं। तो तर्क दिया जाता है कि हमारी क्षमता का हमने कम उपयोग किया है और इसके लिए केंद्र सरकार को ज्यादा सक्रिय होना होगा। 

* फिर यहां पर खोज़बीन और खनन लाइसेंस से जुड़े छोटे मामले भी हैं। अब तक अपनाए जाने वाले तरीके के मुताबिक़ पहले कोई व्यक्ति या कंपनी लाइसेंस और पर्यावरणीय अनुमतियां हासिल करने के लिए आवेदन करता है। अगर वह कामयाब हो जाता है तो खनन शुरू करने के लिए भी इसी प्रक्रिया की जरूरत होती है। मौजूदा सरकार ने खोज और खनन के लाइसेंस को एकसाथ मिला दिया है। तो अब जो भी कोई गैस, अयस्क या तेल की खोज कर रहा होगा, अगर उसे यह चीजें मिल जाती हैं, तो वह उनका खनन भी कर सकेगा। 

अलग-अलग तस्वीरें

किसी तर्क को समर्थन देने के लिए आधे-अधूरे तथ्यों और आंकड़ों का समर्थन देना हमेशा आसान होता है। हम दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के साथ अभी अपनी तुलना नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी भारी मशीनरी अच्छी स्थिति में नहीं है और अब हमें पर्यावरणीय चिंताओं को ध्यान में रखना होगा। 

2,904 बड़े खनन पट्टों में से 1900 कई सालों से बंद पड़े हैं। अब तक राज्य इनमें से सिर्फ़ 7 की ही नीलामी करवाने में कामयाब रहा है। तो तर्क दिया जाता है कि हमारी क्षमता का हमने कम उपयोग किया है और इसके लिए केंद्र सरकार को ज्यादा सक्रिय होना होगा। 

यहां बता दें कि हमारे पास 100 साल के उपयोग के लिए कोयला है, तो हम यहां-वहां खदानें शुरू नहीं कर सकते।  हम अब भी कोयले का आयात करते हैं, क्योंकि आयात, खनन से ज़्यादा सस्ता और अच्छी गुणवत्ता वाला होता है। 
सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाईयों ने खनन पट्टों को अपने पास रखा, क्योंकि यह वृद्धि दर से सीधा आनुपातिक है। अगर सरकारी विशेषज्ञों की मानें, तो राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाईयों (जो अंतिम उत्पाद, जैसे बिजली और इस्पात की कीमत कम रखती हैं) की जगह को निजी क्षेत्र के लिए खोल देना चाहिए। 

संविधान गारंटी देता है कि ज़मीन और उसके नीचे जो भी चीज है, राज्य उसका स्वामी है।

सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाईयों ने खनन पट्टों को अपने पास रखा, क्योंकि यह वृद्धि दर से सीधा आनुपातिक है। अगर सरकारी विशेषज्ञों की मानें, तो राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाईयां, जो अंतिम उत्पाद, जैसे बिजली और इस्पात की कीमत कम रखती हैं, उनकी जगह निजी क्षेत्र के लिए इन्हें खोल देना चाहिए। 

संघीय खनन लाइसेंस कंपनियों के चुनाव के लिए उपयोग होता है, समाजवादी युग में इन लाइसेंसों को ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, जैसे- राष्ट्रीय खनिज विकास निगम और भारतीय इस्पात प्राधिकरण को दिया जाता था। इनके लिए सरकार प्रति टन उत्खनिज खनिज के हिसाब से कुछ शुल्क लेता था। ज़्यादातर प्रचुर खनिज़ संपदा वाले राज्य, जैसे- छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, गोवा और राजस्थान अपने राजस्व का बड़ा हिस्सा खनन से प्राप्त करते थे।  

राज्य बनाम् केंद्र

नई खान एवम् खनिज़ विकास एवम् विनियमन (MMDR) से आने वाले बदलावों का नतीज़ा यह होगा कि यह नीति राज्य के विषयों में सीधा हस्तक्षेप करना शुरू कर देगी। 

लगभग सभी प्रचुर खनिज संपदा वाले प्रदेश गैर-बीजेपी शासित हैं। तो अगर केंद्र सरकार अपने पसंदीदा लोगों को खान के पट्टे दिलवाना चाहती है, तो उसे हस्तक्षेप करना होगा। 

विधेयक की धारा 14 (iii) कहती है कि अगर कोई राज्य सूचीबद्ध खदानों की नीलामी करने में असफल रहता है तो केंद्र इस बारे में फ़ैसला लेगा। इस प्रावधान के ज़रिए एक जटिल स्थिति बना दी गई है, जहां या तो राज्य को अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए बहुत कम दामों पर खदानों की नीलामी करनी होगी या फिर केंद्र के लिए रास्ता छोड़ना होगा। 

नई खान एवम् खनिज़ विकास एवम् विनियमन (MMDR) से आने वाले बदलावों का नतीज़ा यह होगा कि यह नीति राज्य के विषयों में सीधा हस्तक्षेप करना शुरू कर देगी। लगभग सभी प्रचुर खनिज संपदा वाले प्रदेश गैर-बीजेपी शासित हैं। तो अगर केंद्र सरकार अपने पसंदीदा लोगों को खान के पट्टे दिलवाना चाहती है, तो उसे हस्तक्षेप करना होगा। 

खनन कंपनियां गिरोह बना सकती हैं और अगर उन्हें राज्य सरकार की मांग बहुत ज़्यादा लग रही है तो वे नीलामी में हिस्सा ना लेने का फ़ैसला ले सकती हैं। इसके बाद वे इस मुद्दे को सुलझाने के लिए केंद्र का रुख कर सकती हैं। तब राज्य पर खनन कंपनियों के रास्ते में आने वाली सारी बाधाओं को दूर करने की मजबूरी हो सकती है। 

अगर हम हालिया वन्यजीव कानून और पर्यावरणीय नीतियों में केंद्रीय स्तर पर हुए बदलावों समेत  खनन नीति के बदलावों को देखें, तो यह बहुत अहमियत रखते हैं। ग्राम सभा की अपने इलाके में खनन रोकने की शक्ति को बहुत कमजोर कर दिया गया है। हर वो चीज, जिसके लिए पिछली सरकार में बीजेपी पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन और जयराम रमेश पर आरोप लगाती थी, चाहे वह फाइल को रोके रखने की बात हो या फिर लाइसेंस में अड़ंगा लगाने की, उन्हें अब आसान बना दिया गया है। 

भले ही यह अहानिकारक लगता हो, पर राज्य की कार्यप्रणाली में दूसरा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप ज़्यादा अहमियत रखता है। जिला खनन कोष (DMF) का नियंत्रण जिलाधीश और उनके ज़रिए राज्य सरकार के हाथों में होता था। यह खनन क्रियाओं से इकट्ठा किया जाता था। 

वैधानिक तौर पर इसका इस्तेमाल विकास कार्यों और उससे इतर आपातकोष की तरह होता था। आमतौर पर राज्य सरकारों इस विकास में स्वास्थ्य, जल और सफ़ाई से लेकर हर चीज शामिल करती थीं। 

 विधेयक की धारा 14 (iii) कहती है कि अगर कोई राज्य सूचीबद्ध खदानों की नीलामी करने में असफल रहता है तो केंद्र इस बारे में फ़ैसला लेगा। इसके प्रावधान के ज़रिए एक जटिल स्थिति बना दी गई है, जहां या तो राज्य को अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए बहुत कम दामों पर खदानों की नीलामी करनी होगी या फिर केंद्र के लिए रास्ता छोड़ना होगा। 

उदाहरण के लिए ओडिशा ने DMF का इस्तेमाल कुछ जिलों में सभी उपकरणों वाले कोविड अस्पताल बनाने के लिए किया। अब धारा 10 (1) के ज़रिए केंद्र DMF पर सीधे अधिकार रखेगा, इसके लिए तर्क दिया गया है कि देशभर में पूरे कोष का 45 फ़ीसदी उपयोग ही नहीं हो पाया, क्योंकि जिलाधीशों को कोष का सही ढंग से इस्तेमाल करना नहीं आता और उन्हें विशेष प्रशिक्षण की जरूरत है। राज्य इस कानून पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, इसके बारे में तो सुप्रीम कोर्ट में कानून को चुनौती देने के बाद ही पता चलेगा। 

बड़े बदलाव

इस बीच केंद्र सरकार MMDR में किए गए बदलावों को आगे बढ़ा रही है। यह बदलाव हैं:

* मुख्य कानून केंद्र सरकार को किसी भी खदान (कोयला, लिग्नाइट और परमाणु खनिज छोड़कर) को किसी विशेष अंतिम उत्पाद के लिए नीलामी के ज़रिए आरक्षित करने का अधिकार देता था। जैसे किसी इस्पात संयंत्र के लिए लौह अयस्क की खदान। लेकिन अब MMDR ने बंदी खदानों से अंतिम उपयोग से जुड़े इस तरह के सभी प्रतिबंध हटा दिए हैं। जिन लोगों के पास मौजूदा वक़्त में बंदी खदानें (कैप्टिव माइन्स) हैं, उन्हें इससे बहुत फायदा होगा।

* निजी क्षेत्र को फायदा पहुंचाने के लिए दूसरा तार्किक तरीका उन्हें बंदी खदानों से माल को खुले बाज़ारों में बेंचने की अनुमति देना है। MMDR के मुताबिक़ बंदी खदानों (परमाणु खनिज़ों को छोड़कर) से उनके वार्षिक खनिज उत्पादन का 50 फ़ीसदी हिस्सा खुले बाज़ार में बेंचा जा सकता है। ऊपर से केंद्र सरकार एक संसूचना के ज़रिए इस सीमा को बढ़ा भी सकती है। पट्टेदार को इसके लिए केवल एक अतिरिक्त शुल्क ही चुकाना होगा। इसका मतलब होगा कि सभी भारी उद्यम अब खनन कंपनियां भी बन जाएंगी। 

* मुख्य कानून के तहत राज्य खनिज़ों (कोयले, लिग्नाइट और परमाणु खदानों को छोड़कर) के आवंटन के लिए नीलामी करवाते थे। इसके तहत खनन पट्टा और लाइसेंस दिया जाता था। नए विधेयक के ज़रिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह के बाद नीलामी की प्रक्रिया पूरी करने के लिए एक समयसीमा बना सकती है। अगर राज्य सरकार तय वक़्त में नीलामी प्रक्रिया पूरी करने में नाकामयाब रहती है, तो केंद्र सरकार इस काम को कर सकती है। इस तरह राज्य सरकार की शक्तियां छीनी जा रही हैं। 

* पुराने मालिक से मौजूदा खदान के नए पट्टे के हस्तांतरण के बाद खनन के लिए दो साल के लिए इंतज़ार नहीं करना होगा। इसका मतलब हुआ कि पुराना पक्ष जाता है और नया पक्ष पुराने लाइसेंस और अनुमतियों के साथ प्रवेश करता है। जब अडानी जैसा कोई निजी खिलाड़ी किसी सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाई का अधिग्रहण करता है, तो यह प्रावधान काफ़ी उपयोगी साबित होगा। 

मुख्य कानून केंद्र सरकार को किसी भी खदान (कोयला, लिग्नाइट और परमाणु खनिज छोड़कर) को किसी विशेष अंतिम उत्पाद के लिए नीलामी के ज़रिए आरक्षित करने का अधिकार देता था। लेकिन अब MMDR ने बंदी खदानों से अंतिम उपयोग से जुड़े इस तरह के सभी प्रतिबंध हटा दिए हैं। 

* MMDR कानून के मुताबिक़ किसी सरकारी कंपनी को दिए गए खनन पट्टे की अवधि का निर्धारण केंद्र सरकार करेगी। विधेयक में उल्लेखित शुल्क को चुकाए जाने के बाद इसको बढ़ाया भी जा सकता है। यहीं राज्यों के साथ टकराव तेज होगा। 

इनके अलावा MMDR कहता है कि अगर कोई कंपनी दो साल के लिए खनन नहीं करती, तो उसका खनन लाइसेंस रद्द हो जाएगा। राज्य केवल एक बार इस छूट को आगे बढ़ा पाएंगे, इसके बाद संबंधित खदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में हो जाएगी। 

यह आने वाले बदलावों और उनके दीर्घकालीन परिणामों का केवल प्राथमिक विश्लेषण है। राज्यों को सावधानी और तैयारी के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंचना होगा, क्योंकि उनकी खनन संपदा यहां दांव पर है।

(नीरज मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार, किसान और वकील हैं। वे रायपुर में रहते हैं। यह उनके निजी विचार है)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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