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UP निकाय चुनाव के मिले-जुले नतीजे कर्नाटक के नुक़सान की भरपाई नहीं कर सकते

महानगरों से छोटे शहरों/नगरों/कस्बों की ओर उतरते ही तस्वीर बदलने लगती है और भाजपा की जीत का अनुपात घटता जाता है।
yogi and siddaramaiah

कर्नाटक विधानसभा और UP निकाय चुनाव साथ साथ होना, संयोग रहा हो या प्रयोग, लेकिन इसने भाजपा समर्थक विश्लेषकों/एंकरों को कर्नाटक चुनाव के  'डरावने/अप्रिय' नतीजों से lime light थोड़ा divert करने का मौका जरूर दे दिया।

बहरहाल निकाय चुनावों में भाजपा की कथित ' लैंड-स्लाइड विक्ट्री ' कर्नाटक चुनाव नतीजों से हुए नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। सच तो यह है कि सत्ता-प्रायोजित प्रचार तंत्र को चुनावों के अगले राउंड तक अब यह सफाई देते बीतने वाला है कि  " मोदी मैजिक खत्म नहीं हुआ है, अभी बचा हुआ है। "

और इस,  " ब्रांड मोदी बचाओ " अभियान में UP  निकाय चुनाव के नतीजे कोई मदद नहीं कर पाएंगे। क्योंकि इसका पूरा श्रेय तो योगी जी हथिया चुके हैं। उसमें मोदी-शाह को कोई share मिलने वाला नहीं है। 

बताया जा रहा है कि UP में एक से दूसरे छोर तक योगी आदित्यनाथ ने 13 दिन में 50 रैलियां कीं। उनका अभियान अपराधी-माफिया राज के खात्मे और उसके माध्यम से सपा और विपक्ष के खिलाफ केंद्रित रहा। उन्होंने नारा दिया था " नो कर्फ्यू, नो दंगा, UP में सब चंगा "। अतीक प्रकरण के माध्यम से इस नारे को convincing और लोकप्रिय बनाने की ताजा जमीन पहले ही तैयार हो चुकी थी। 

बहरहाल,  भाजपा की जीत उतनी चमकदार भी नहीं है जितनी कर्नाटक की हार को बैलेंस करने के लिए गोदी मीडिया बताना चाहता है। 

BJP ने पिछली बार के 15 की तुलना में इस बार नगर निगम की सभी 17 सीटें जरूर जीत लीं। लेकिन यह आधा सच है। उतना ही अहम सच यह है कि प्रदेश के 16 जिलों में भाजपा एक भी नगरपालिका नहीं जीत सकी है। सारे जिला मुख्यालयों की नगरपालिकाओं को जीतने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य धरा रह गया। कल्याण सिंह के जमाने से भाजपा का अभेद्य दुर्ग रही अलीगढ़ की अतरौली समेत स्मृति ईरानी, संजीव बालियान अजय मिश्र टेनी सूर्य प्रताप शाही, सुरेश खन्ना, जितिन प्रसाद, जे पी एस राठौर समेत अनेक मंत्री अपने गढ़ नहीं बचा सके।

नगर निगम पार्षदों के 1420 में से 813 सीटें जीतने में भाजपा सफल रही। जाहिर है महानगर उसके गढ़ बने हुए हैं। चुनाव में सभी विपक्षी दल, यहां तक कि AAP और AIMIM भी मैदान में थीं और विपक्षी दलों के बीच कहीं कोई तालमेल नहीं था। अगर यह होता तो तस्वीर बदल सकती थी।

लखनऊ नगर निगम जो कई दशकों से भाजपा के सबसे मजबूत गढ़ों में रहा है, उसका उदाहरण पर्याप्त है-वहां भाजपा के 5 लाख के मुकाबले सपा को 3 लाख मत मिला ( इस बार एक लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट पत्रकार वंदना मिश्रा को सपा ने उम्मीदवार बनाया था ), वहीं कांग्रेस प्रत्याशी को 1 लाख के ऊपर, बसपा को 75 हजार और आप पार्टी को 25 हजार मत मिला। जाहिर है विपक्षी मतों के बिखराव से भाजपा को जीत हासिल करने में मदद मिली।

यह साफ है कि इस दौर में महानगरों में भाजपा विरोधी मतों की एकजुटता के बिना उसे परास्त नहीं किया जा सकता।

बहरहाल, महानगरों से छोटे शहरों/नगरों/कस्बों की ओर उतरते ही तस्वीर बदलने लगती है और भाजपा की जीत का अनुपात घटता जाता है। नगर पंचायत सदस्यों में यह 20% से भी नीचे पहुंच जाता है। 

कुल 199 नगर पालिका अध्यक्षों में वह 89 तथा नगर पालिका के 5327 सदस्यों में 1360 स्थानों पर जीती। इसी तरह नगर पंचायत के कुल 544 अध्यक्षों में भाजपा 191 तथा 7177 नगर पंचायत-सदस्यों में 1403 पर ही जीत पाई।

आगरा में कुल 5, आजमगढ़ में 3, इटावा में तीन, कानपुर नगर में दो , फर्रुखाबाद में दो , बस्ती में एक, बाराबंकी में एक, भदोही में एक, मऊ में एक, मुरादाबाद में दो, महाराजगंज में दो, रायबरेली में एक, श्रावस्ती में एक, संत कबीर नगर में एक, अयोध्या में एक नगर पालिका है, लेकिन इनमें से किसी पर बीजेपी का खाता  भी नहीं खुल सका। गाजियाबाद की 4 , बागपत में छह, मुजफ्फरनगर में आठ, रामपुर की 6 नगर पंचायत अध्यक्ष की सीटों में बीजेपी एक भी सीट नहीं जीत पाई.

बहरहाल चुनाव में कुछ नई प्रवृत्तियां उभरी हैं, भविष्य के लिए जिनके निहितार्थ गम्भीर हो सकते हैं।

महज 1 वर्ष पहले ही सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों की तुलना में एक नया ट्रेंड इस चुनाव में सामने आया है जिसने तमाम प्रेक्षकों का ध्यान आकर्षित किया है, 2022 विधानसभा चुनाव में भाजपा के विरुद्ध सपा के पक्ष में एकमुश्त मतदान के पैटर्न से भिन्न मुस्लिम समुदाय ने इन चुनावों में क्षेत्रवार अलग-अलग और बिखरे ढंग से मतदान किया है। 

अभी भी उसका बड़ा हिस्सा सपा के साथ रहा, तो कई regions में कांग्रेस के पक्ष में उनका रुझान बढ़ा है, जैसे मुरादाबाद, झांसी, अयोध्या आदि में ।

इसी तरह बसपा भी भारी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर दलित-मुस्लिम समीकरण द्वारा मुस्लिम मतों को आकर्षित और विभाजित करने की क्षमता retain किये हुए है, जो आगरा, सहारनपुर आदि में दिखा।

यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में AIMIM ने भी अपनी  जगह बनायी है। 1.28 लाख वोट के साथ मेरठ में मेयर पद पर उनका प्रत्याशी runner रहा और सपा तीसरे स्थान पर खिसक गई, भाजपा ने 11 साल बाद फिर वहां कब्जा कर लिया। मुजफ्फरनगर में AIMIM को जितना वोट मिला, लगभग उतनी ही मार्जिन से भाजपा विपक्ष को धराशायी कर जीतने में कामयाब रही। साथ ही उनके 5 नगर पालिका अध्यक्ष और 75 सदस्य भी जीते।

सबसे आश्चर्यजनक तो यह रहा कि भाजपा ने भी अच्छी संख्या में निचले स्तरों पर मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए और उनमें से कई जीतने में भी सफल रहे। बताया जा रहा है कि भाजपा के 395 प्रत्याशियों में से 45 जीते हैं। इसी के साथ, आज़म खान के बेटे अब्दुल्ला आजम के disqualification से खाली स्वार सीट का उपचुनाव भी भाजपा-अपना दल के मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत लिया! (अब शफीक अहमद अंसारी विधानसभा में सत्तारूढ़ गठबंधन के इकलौते मुस्लिम विधायक बन गए हैं!)

इस voting behaviour के पीछे एक कारण तो निश्चय ही यह है कि सभी मतदाताओं की ही तरह मुस्लिम मतदाताओं ने भी इन चुनावों को विधानसभा-लोकसभा चुनाव जैसी राजनीतिक गम्भीरता से नहीं लिया। लेकिन मूल राजनीतिक कारण यह है  कि हिंदुत्व के सबसे खौफनाक मॉडल-योगी के बुलडोजर राज का शिकार UP का मुसलमान समाजवादी पार्टी से, जो उनकी उम्मीदों का सबसे बड़ा मरकज़ थी, बेहद निराश है और भारी political churning के दौर से गुजर रहा है। उसी का एक छोर AIMIM की ओर रुझान है तो दूसरा BJP से रिश्ता! 

निश्चय ही, भारत जोड़ो यात्रा के बाद से भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडा से टकराते दिखते राहुल गांधी और कांग्रेस उनकी उम्मीद का नया केंद्र बन कर उभर रहे हैं, तो दूसरी ओर भारी असुरक्षा की भावना से घिरे मुस्लिमों के एक छोटे हिस्से को भाजपा के साथ जुड़ने में pragmatic आधार पर सुरक्षा और संभावना दिख रही है। पसमांदा कार्ड का पासा इसी लिए फेंका गया है।

क्या ये प्रवृत्तियां कोई स्थायी ट्रेंड/ परिघटना बनेंगी ? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है और आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति के गतिपथ पर निर्भर है।

योगी जी बिल्कुल focussed ढंग से ध्रुवीकरण की आग को धधकाये रखने में लगे हुए हैं। बुलडोजर राज और अतीक प्रकरण के साये में निकाय चुनाव जीत लेने के बाद अब वे 43 साल पहले 13 अगस्त 1980 को कांग्रेस शासन में मुरादाबाद में हुए ईदगाह गोली कांड ( जिसमें पुलिस की गोली और भगदड़ में 100 के आसपास लोगों के मरने का अनुमान है ) की जस्टिस MP सक्सेना कमेटी की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखने जा रहे हैं, जो अब तक सार्वजनिक नहीं की गयी थी। मुरादाबाद के बाशिंदे पूछ रहे हैं कि " अब उस घाव को कुरेदने से क्या फायदा है? यहां हिन्दू-मुसलमान दोनों बस शांति चाहते है। उस मामले में अब कोई कानूनी कार्रवाई भी सम्भव नहीं है। उससे सम्बंधित लोग मर भी चुके है। "

सुनते हैं इस रिपोर्ट के अनुसार गोलीकांड के लिए मुस्लिम नेता जिम्मेदार थे जो बाल्मीकि समुदाय और पंजाबी हिंदुओं को बदनाम करना चाहते थे। जाहिर है इस रिपोर्ट को आज पेश करने के पीछे  उद्देश्य माहौल को communalise करना, मुसलमानों को demonise करना और कांग्रेस को मुसलमानों की निगाह में संदिग्ध बनाना है।

संघ-भाजपा का 2024 के लिए रोडमैप और रणनीति सब बिल्कुल स्पष्ट है। विपक्ष के लिए भी कर्नाटक ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं। क्या उससे lead लेते हुए UP में, जो आज संघ-भाजपा की सत्ता की  सबसे बड़ा स्रोत बना हुआ है और जिसके ऊपर मोदी की पुनर्वापसी का सारा दारोमदार है, वहां विपक्ष एकताबद्ध होकर एक प्रभावी काउंटर-नैरेटिव खड़ा कर सकता है? अगर ऐसा हुआ तो बाजी पलट सकती है और 2024 में मोदी जी की विदाई तय ही जाएगी। आने वाले महीनों में पूरे देश की निगाहें इस ओर लगी रहेंगी।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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