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भाजपा के क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान करने का मोदी का दावा फेस वैल्यू पर नहीं लिया जा सकता

भगवा कुनबा गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने का हमेशा से पक्षधर रहा है।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लंबी दूरी से कम संभाषण उनका विशेष गुण नहीं है। हालांकि, वे आम तौर पर अपने शब्दों की लड़ियों वाले भाषणों में, शायद ही इसका दावा करते हैं। वे अपने प्रत्येक कथन को स्थायी रूप से प्रभावी बनाने के इरादे से शब्दों के चुनाव बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से और नाप-तौल के करते हैं। फिर इसको सुनिश्चित करने के लिए समय और स्थान का चयन किया जाता है ताकि उनका संदेश इच्छित व्यक्ति या समुदाय तक असरदार तरीके से पहुंच जाए।

लेकिन पिछले हफ्ते जब नरेन्द्र मोदी ने भाषा की राजनीति के पहले से ही खराब चल रहे इलाके पर बात की, तो यह समझना मुहाल हो रहा था कि वे क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं और यह सब किससे कह रहे हैं।

क्या वे हिंदी के लिए प्रेम दर्शाते समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ताओं को और अधिक सावधान होने का संकेत दे रहे थे?  या, क्या वे भाजपा की भाषा नीति में एक और ‘संस्करण' जोड़ते हुए लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे थे औऱ इस तरह उन्हें यह तय करने में लाचार कर रहे थे कि वे पार्टी की किस नीति पर विश्वास करें? या, फिर लोगों को उनकी अपनी व्याख्या को स्वीकार करने की अनुमति दे रहे थे, जिस पर वे सबसे अधिक सहमत थे?

अब इनमें जो भी बात हो, पर यह दशकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एकदम सटीक चाल रही है कि सबसे पहले, एक विवादास्पद मांग को फ्लोट करें या उसे बहस के काबिल मुद्दा बनाएं या उनके बहसतलब होने का दावा करें, और उसके क्रियान्वयन के लिए समाज के अलग-अलग कोनों से आवाजें बुलंद करवाएं। जाहिर है कि अब हर कोई उलझन में पड़ा है कि किसे ऊपर भरोसा करना है या इसमें कौन सही है।

अब अखंड भारत की आरएसएस की अवधारणा को ही लें, जिसे अनगिनत बार और हमेशा अलग-अलग ढंग से दोहराया गया है।

हम लोगों में कौन हैं जो इतने लंबे समय तक अखंड भारत को लेकर चलाए गए यूटोपिया में भरोसा करते हैं-हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दावा किया है कि एक ‘अविभाज्य’ या ‘अखंड भारत’ का स्वप्न साकार होने के करीब है, या जिन्होंने सरकार के केहुनी मारने के बाद स्पष्ट किया कि  ‘अखंड भारत’ की अवधारणा की प्रकृति भू-राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक है?

प्रधानमंत्री मोदी इस बात से जरूर वाकिफ रहे होंगे कि भाषा नीति पर उनका दिया जा रहा बयान निश्चित रूप से सुर्खियों में आ जाएगा, और उनका वह बयान वास्तव में सुर्खी बना भी। इसने हिंदी को देश की लोक भाषा बनाने के लिए कट्टर भाजपा नेताओं को बेलगाम उत्साह से भर दिया।

बहरहाल, यहां सवाल है कि क्या मोदी अन्य भारतीय भाषाओं पर हिंदी के प्रभुत्व का समर्थन करते समय अपने ताकतवर सहयोगियों को यह संदेश भेज रहे थे कि वे इस मुद्दे पर विरोध करने में जरा कम उत्साह दिखाएं? या, कि इसका दावा यह महसूस करने के बाद किया गया था कि पार्टी के वास्तविक इरादे को किसी अन्य व्यक्ति के जरिए नहीं बल्कि उस आधिकारिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा छद्म आवरण में पेश करने की जरूरत है?

उत्तर भारत के लोगों की तरफ से गैर हिन्दी भाषियों-खास कर विंध्य के दक्षिण भाग में रहने वाले लोगों पर हिंदी थोपने के प्रयासों का विरोध का एक लंबा इतिहास रहा है, जो सबको मालूम है। और मोदी को इस प्रकरण में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता तब महसूस हुई जब एक उनसे कमतर नेता ने ऐसा बयान दिया जिसकी दक्षिणी और उत्तरी-पूर्वी भारत भर्त्सना करने लगा।

इसके अलावा, अब जबकि भाजपा देश की सबसे प्रमुख राजनीतिक पार्टी है और दक्षिण भारत में भी इसकी पकड़ है तो क्या व्यावहारिक राजनीतिक मोदी हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान के नारे लगाने वाले अपने अति उत्साही समर्थकों को हिंदुत्व की नाव को चट्टान से टकरा देने की इजाजत देंगे?

प्रधानमंत्री मोदी जयपुर में अपनी पार्टी-पदाधिकारियों की एक बैठक को ऑनलाइन संबोधित कर रहे थे, जब उन्होंने वह बयान दिया था। मोदी का भाषण अगले 25 वर्षों के लिए भाजपा के लक्ष्यों पर केंद्रित था, जिस विषय को उन्होंने 2019 में खुद के दोबारा सत्ता में आने के बाद भाजपा की अजेयता और इस तरह, उसके एक स्थायी शक्ति तंत्र के रूप में उभरने की भावना को दोहराया है। भाषा नीति के विषय पर प्रधानमंत्री का दावा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के हिंदी पर संदिग्ध दावे के जरिए राजनीतिक हलचल मचाने के कुछ ही दिन बाद सामने आया है।

मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि भाजपा भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ने वाली अकेली पार्टी है। इसके विपरीत, उनकी पार्टी एकलवाद और 'एक राष्ट्र, एक भाषा' फार्मूला को लेकर हद तक जुनूनी रही है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि नई शिक्षा नीति में स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं को प्रमुखता देकर केंद्र सरकार ने देश की भाषाई विविधताओं का सम्मान करने की पार्टी की प्रतिबद्धता दिखाई है।

अतीत में भाषा के मुद्दे पर भाजपा के संकीर्ण रुख को देखते हुए, मोदी के दावों को बतौर फेस वैल्यू नहीं लिया जा सकता है। यहां तक कि शाह के हालिया बयान ने पानी को और गंदा कर दिया है। उन्होंने कहा कि अलग-अलग राज्यों के लोगों को भी एक दूसरे के साथ हिंदी में संवाद करना चाहिए, अंग्रेजी में नहीं।

अमित शाह के बयान पर बवाल मचने के बाद स्पष्टीकरण जारी किए गए थे लेकिन तब तक असली मंशा सामने आ चुकी थी। इस स्थिति को संभालने के लिए मोदी ने दावा किया कि “भाजपा भारतीय भाषाओं को राष्ट्र की आत्मा मानती है और उन्हें राष्ट्र के बेहतर भविष्य के लिए एक संवाहक की तरह से देखती है।”

केतली को काला कहने वाले बर्तन के एक क्लासिक उदाहरण में, मोदी ने आरोप लगाया कि वे यह टिप्पणी इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हाल के दिनों में, भाषा के मुद्दे पर विवाद उत्पन्न करने के लिए लगातार प्रयास किए गए (लेकिन उन्होंने ऐसा करने वालों के नाम नहीं लिये)। उन्होंने कहा कि “हमें हर समय इसके खिलाफ सतर्क रहना होगा। भाजपा हर भारतीय भाषा को भारतीय भावना का प्रतीक मानती है और उसे बहुत पवित्र मानती है। लिहाजा,वे पूजा की योग्य हैं।”

यह स्पष्ट था कि जहां तक भाषा का सवाल है, मोदी उदारमना और सहयोगी राजनीतिक होने का खेल रहे थे। जहां तक भाषा से जुड़े मुद्दे की बात है तो यह भारी शत्रुता और हिंसा की वजह रही है।

स्पष्ट है कि मोदी अमित शाह के इस बयान से उत्पन्न स्थिति पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे कि राष्ट्रभाषा को राष्ट्र की एकता का एक अनिवार्य घटक बनाने का समय आ गया है। लेकिन जब तक कि भाजपा अपने अतीत को अस्वीकार नहीं करती। तब तक प्रधानमंत्री के लिए हिंदी थोपने के मुद्दे का उल्लेख नहीं करने से बात नहीं बनेगी। इसकी बजाय उन्हें देश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं के समान सम्मान का वचन देकर उन्हें आश्वस्त करने के लिए कुछ ठोस कदम भी उठाने होंगे।

संघ परिवार की भाषा नीति खुली रही है। शुरुआत से ही भगवा कुनबा उन राज्यों के लोगों पर हिंदी थोपने के पक्षधर था, जहां हिंदी मातृभाषा नहीं है और न ही इसमें लोगबाग बातचीत ही करते हैं।

भारतीय जनता पार्टी की पुरखा भारतीय जनसंघ के सिद्धांतों और नीतियों में आजादी के बाद पहली बार 1951 में भाषा का संदर्भ दिया गया था। इसमें हिंदी का उल्लेख “सबसे अधिक जाने जानेवाली” भाषा के रूप में किया गया है और बताया गया है कि यह “भारत की सामान्य भाषा” के रूप में विकसित हो रही है।

दस्तावेज में कहा गया है कि संस्कृत हमेशा से भारत की राष्ट्रीय भाषा रही है, और इसे इसी रूप में मान्यता मिलनी चाहिए और इसका उपयोग औपचारिक अवसरों पर किया जाना चाहिए।

जनसंघ ने “क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से माध्यमिक और उच्च शिक्षा दिए जाने” की वकालत की। साथ ही, यह मांग भी की कि हिंदी को “एक अनिवार्य विषय के रूप में” पढ़ाया जाए। इस प्रकार,क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग शुरू से ही एक अस्थायी व्यवस्था थी।

1958 में आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के अपनाए गए एक प्रस्ताव में, संगठन ने जोर देकर कहा कि अंग्रेजी का निरंतर उपयोग"लोगों की दास मानसिकता को बनाए रखने के लिए मजबूर करता"है और इसके उपयोग से "लोगों और सरकार के बीच मौजूदा खाई"कम नहीं होगी।

आरएसएस दस्तावेज में यह भी दावा किया गया है कि हिंदी “अंतर-प्रांतीय संचार की आम भाषा के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए इसका उपयोग सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए।”

इसके बहुत बाद में, और लालकृष्ण आडवाणी ने मार्च 1994 में भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से दिए गए एक भाषण में पार्टी को “प्रतीक्षा में सरकार” घोषित करने के बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला दिया था। यह फैसला 1984 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती और न्यायमूर्ति अमरेंद्र नाथ सेन तथा रंगनाथ मिश्रा ने दिया था।

इस समय तक, आडवाणी धर्म से लेकर भाषा तक के सभी मुद्दों पर पार्टी की हार्ड लाइन की सीमा को तेजी से महसूस करने लगे थे। इसके परिणामस्वरूप, आडवाणी ने न्यायाधीशों के इस कथन को उद्धृत किया कि "इतिहास का एक दिलचस्प तथ्य यह है कि भारत एक राष्ट्र के रूप में न तो एक आम भाषा के कारण और न ही अपने क्षेत्र पर एक ही राजनीतिक शासन के निरंतर अस्तित्व के कारण बना था।” निश्चित रूप से, आडवाणी ने इस फैसले का कतई उल्लेख नहीं किया होता, अगर वे न्यायमूर्तियों की भावना से सहमत नहीं होते।

इस दिशा में तब और तेजी आई, जब आडवाणी ने मई 1998 में, अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने के बाद के.जन.कृष्णमूर्ति के लिए अपना अध्यक्ष पद छोड़ दिया। इसके पहले के अवसरों पर भाजपा को सरकार चलाने की प्रतिबद्धता की वजह से साझा एजेंडा स्वीकार करना पड़ा था, जिसके चलते पार्टी ने अपने तीन विवादास्पद एजेंडे (अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, एक समान नागरिक संहिता लागू करना और राम मंदिर का निर्माण सुनिश्चित करना) को छोड़ दिया था।

फिर भी भाषा के मुद्दे पर, पार्टी के नए अध्यक्ष ने अपने पहले भाषण में जोर देकर कहा कि "राष्ट्रीय आत्मविश्वास की प्रमुख कमी है, इस वजह से आजादी के 50 साल बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में अपने राज्यों से जुड़े मामलों पर बात भी नहीं कर सकते।” हालांकि, इस पर अपने सहयोगियों की संभावित प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए कृष्णमूर्ति ने तपाक से यह जोड़ दिया “… या किसी भी अन्य भारतीय भाषा में (काम नहीं कर सकते)।”.

भाजपा 2003 तक अपने सहयोगियों के साथ सबसे अधिक विभाजनकारी मुद्दों पर एक अलग दृष्टिकोण रखने के लिए आई थी, जो भगवा पार्टी के लिए केंद्रीय विषय थे। इसके नतीजतन,तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष एम वेंकैया नायडू ने कहा कि भाजपा के राजनीतिक संकल्प में सरकार से "सभी भारतीय भाषाओं को उचित मान्यता और हैसियत दिलाने" का अनुरोध शामिल होगा।

हिंदी की प्रधानता पर जोर देने का पुराना आक्रामक दृष्टिकोण भाजपा ने 2014 से दोहराना शुरू किया है और 2019 में पार्टी के दोबारा सत्ता में आने के बाद से तो उसे और अधिक जोरदार ढंग से रखा जा रहा है।

उस साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर अमित शाह ने पूरे देश के लिए 'एक भाषा' की वकालत की थी। तब तक नई शिक्षा नीति के संदर्भ में हिंदी पर विवाद उत्पन्न हो चुका था। फिर भी शाह ने हिंदी के ‘सरोकार' के लिए एक्सिलेटर पर दबाव बढ़ा दिया था।

वाजपेयी से शुरू करके मोदी तक, जब भी भाजपा को कोई अवसर मिला, उसके नेता ने इस भाषा पर भाजपा के रुख को दोहराने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में ही भाषण दिया है। और इसे एक राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने पर जोर दिया है, न कि संविधान में उल्लिखित आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार करना चाहिए।

इस महीने की शुरुआत में संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक में अमित शाह ने अलग-अलग राज्यों के लोगों को एक-दूसरे से अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिंदी में संवाद करने का आह्वान किया।

भाजपा के पास अंग्रेजी को खत्म करने के लिए अपने वैचारिक कारण हैं, जो भारत में एक ऐसा दर्जा हासिल कर चुका है जो किसी भी तरह से भारत की अपनी भाषाओं से कमतर नहीं है। भारत के अधिकतर हिस्सों में अंग्रेजी को आकांक्षित भाषा के रूप में देखा जाता है।

परंतु, अंग्रेजी के प्रति भाजपा के विरोध को देश के अधिकतर लोग, विशेषकर दक्षिण भारत के लोग और राज्य नहीं मानते।

इस तरह के बयान देकर “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम आधिकारिक भाषा है, और इससे निश्चित रूप से हिंदी का महत्त्व बढ़ेगा। अब, आधिकारिक भाषा को देश की एकता का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाने का समय आ गया है,” यह कह कर शाह ने उन लोगों को और भड़काया ही है, जो गैर-हिंदी बोलने वालों पर भाजपा के हिंदी ‘थोपने'  के लिए संदेह करते हैं।

नरेंद्र मोदी के अपनी पार्टी-पदाधिकारियों को दिए संबोधन के परिणामस्वरूप अमित शाह जैसे भाजपा के अति उत्साही नेता अपनी जीभ काट सकते हैं, लेकिन भाजपा का हिंदी के प्रति उसके दुराग्रह पर बना संदेह रातोंरात दूर नहीं होगा।

दरअसल, भाषा के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी के पिछले दावों के साथ एक त्वरित तुलना, अमित शाह के उद्धरण सहित, प्रधानमंत्री के कई विरोधाभासों को प्रकट करेगी।

(नीलांजन मुखोपाध्याय पत्रकार एवं लेखक हैं। वे एनसीआर में रहते हैं। ‘दि डेमोलिशन एंड दि वर्डिक्ट: अयोध्या एंड दि प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया’ उनकी ताजा किताब है। उनकी अन्य किताबें हैं-‘दि आरएसएस: आइकन्स ऑफ दि इंडियन राइट ’ और ‘नरेंद्र मोदी: दि मैन, दि टाइम्स’। उन्हें @NilanjanUdwin पर ट्विट किया जा सकता है। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

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