मोदी सरकार ने ताप ऊर्जा संयंत्रों में निम्न स्तर का कोयला इस्तेमाल करने की अनुमति दी, पेरिस समझौते के वायदे ख़तरे में
पर्यावरणीय जिम्मेदारियों से एक और भटकाव के तहत केंद्र सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी किया है। इसके मुताबिक, ताप विद्युत गृह, कोयले में राख की मात्रा से परे किसी भी तरह का कोयला इस्तेमाल कर सकते हैं। ध्यान रहे यह नोटिफिकेशन कोरोना महामारी के भयावह वक़्त में आया है। नोटिफिकेशन में कोयले को स्वच्छ करने के अनिवार्य प्रावधानों से छूट से दी गई है। यह एक अनिवार्य प्रक्रिया होती थी, जिससे कोयले के कई प्रदूषकों से निजात मिलती थी।
21 मई को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी इस नोटिफिकेशन को कई लोग कोयले के खनन को निजी निवेशकों के लिए ज़्यादा फायदेमंद बनाने के तौर पर देख रहे हैं। कम गुणवत्ता के कोयले के इस्तेमाल की अनुमति और स्वच्छ करने वाले प्रावधानों को हटाकर, पूंजीगत कीमत कम कर निजी निवेश को लुभाने की कोशिश की जा रही है। यह नोटिफिकेशन काफ़ी जल्दबाजी में जारी किया गया है। लोगों से सलाह और आपत्तियां पूछने के 15 दिन बाद ही नोटिफिकेशन आ गया।
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली NDA सरकार ने उन सभी प्रावधानों को हटा दिया, जिनसे इन ताप संयंत्रों को अधिकतम 34 फ़ीसदी राख वाले कोयले को इस्तेमाल करने की ही अनुमति मिलती थी। नोटिफिकेशन में इसे न्यायोचित ठहराते हुए कहा गया, "औसत राख मिश्रण की अनिवार्य 34 फ़ीसदी की दर के चलते उद्योगों को कोयले का आयात करवाना पड़ता है, इससे विदेशी मुद्रा का प्रवाह देश से बाहर होता है।''
जनवरी, 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी कर ताप विद्युत गृहों के लिए 34 फ़ीसदी राख वाले कोयले को अपनाने के लिए समयसीमा तय की थी। समयसीमा कोयले की खदानों से उनकी दूरी के आधार पर अलग-अलग थी। यह नोटिफिकेशन पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी किया गया था। इसके ज़रिए जून, 2016 तक सभी कोयला खदानों को 34 फ़ीसदी राख वाले कोयले के नियम के तहत खुद को परिवर्तित करना था।
बिना स्वच्छ किए हुए कच्चे कोयले के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन और उड़ती राख से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ेगा। इससे भारत को COP21 के लक्ष्यों को 2030 तक हासिल करने में मुश्किल आएगी। कॉन्फ्रेंस ऑन पार्टीज़ (COP21) के तहत पेरिस समझौते में भारत ने चार वायदे किए थे। इनमें 2005 को आधार वर्ष बनाते हुए, 2030 तक ग्रीन गैस उत्सर्जन को 33-35 फ़ीसदी कम करने का वायदा था। साथ में गैर जीवाश्म स्रोतों से अपनी ऊर्जा का 40 फ़ीसदी हिस्सा हासिल करने का लक्ष्य था।
कोल इंडिया के पूर्व अध्यक्ष पार्थसारथी भट्टाचार्य के मुताबिक़, ''अगर हम 2005 से 2030 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में सात फ़ीसदी सालाना की औसत बढ़ोतरी मानें, तो कोयले की खपत इस हिस्से के 67 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। यह 4.9 फ़ीसदी आंकड़ा होता है। 2005 को आधार मानते हुए, 2030 तक हमारी खपत 1500 मिलयन टन से ज़्यादा नहीं हो सकती। फिलहाल हम सालाना करीब़ 965 मिलियन टन की खपत करते हैं। यहां केवल 600 टन का ही अंतर है। अगर संयंत्रों में कच्चे कोयले का इस्तेमाल होता है, तो इसे 1500 टन सालाना की खपत सीमा में रखना मुश्किल होगा। हम पेरिस समझौते के अपने वायदे पूरे नहीं कर पाएँगे।''
21 मई का नोटिफिकेशन नीति आयोग की एक रिपोर्ट के आधार पर लाया गया है। इस रिपोर्ट में यह नतीजा दिया गया कि ''कोयले को स्वच्छ करने की प्रक्रिया में ऊर्जा की कीमत बढ़ जाती है, जबकि इस हिसाब के पर्यावरणीय फायदे हासिल नहीं होते। आदि...'' नोटिफिकेशन में कहा गया कि स्वच्छ करने के बावजूद कोयले में राख की हिस्सेदारी ज्यों के त्यों बनी रहती है। रिपोर्ट में बताया गया कि कोयला दो जगह पर विभाजित होता है- एक स्वच्छ करने वाली ''वाशरीज़'' में, दूसरा ऊर्जा संयंत्रों में। अगर कच्चा कोयला सीधे इस्तेमाल किया जाता है तो राख सामग्री केवल ऊर्जा संयंत्रों में ही इस्तेमाल होगी।
भट्टाचार्य के मुताबिक़, ''अस्वच्छ कोयले में स्वच्छ कोयले की तुलना में कम कैलोरी ऊर्जा होती है। स्वच्छ कोयले में राख की मात्रा 34 फ़ीसदी और अस्वच्छ कोयले में 42 फ़ीसदी होती है। राख की मात्रा में 8 फ़ीसदी की कमी से 500kcl से 600 kcl तक ऊर्जा कैलोरी की बढ़ोतरी होती है। इसलिए एक यूनिट ऊर्जा पैदा करने के लिए आपको अस्वच्छ कोयले के बजाए स्वच्छ कोयले के इस्तेमाल में कम कोयले का इस्तेमाल करना पड़ता है।''
21 मई को दिए नोटिफिकेशन में बताया गया कि कोयले को स्वच्छ करने से राख की मात्रा कम नहीं होती। जबकि इसके ठीक उलट पर्यावरण मंत्रालय ने मार्च, 2017 में ओडिशा के झारसुगुडा जिले में लखनपुर स्थित महानदी कोलफील्ड में एक स्वच्छता संयंत्र या ''वाशरी'' बनाने की अनुमति दी थी। इस संयंत्र द्वारा 41.5 फ़ीसदी राख के साथ कोयले के इस्तेमाल का प्रस्ताव दिया गया था। इस संयंत्र को फिर भी अनुमति दे दी गई। यह अनुमति विशेषज्ञ समिति द्वारा दी गई थी। वह भी तब जब ताप विद्युत गृहों को 34 फ़ीसदी राख की हिस्सेदारी से ज़्यादा वाले कोयले के इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी। इससे पता चलता है कि वाशिंग से कोयले में राख की मात्रा कम होती है। पर्यावरणीय अनुमति की एक कॉपी न्यूज़क्लिक के पास मौजूद है।
जहां तक पर्यावरणीय सुरक्षा पैमानों की बात है तो कच्चे कोयले के इस्तेमाल से ''उड़ती राख'' की मात्रा में वृद्धि होगी। ऊपर से नोटिफिकेशन में ताप ऊर्जा संयंत्रों के लिए उन तालाबों को बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं किया गया, जिनमें मैले के रूप में राख को इकट्ठा किया जाता है। हाल में देश के अलग-अलग हिस्सों में जहरीले मैले के उफान और रिसाव की खबरें सामने आई हैं। इसकी वजह इसे इकट्ठा करने वाले तालाबों की क्षमता कम हो जाना है। सालों से इन तालाबों में यह मैला इकट्ठा होता आ रहा है। खुद तापविद्युत गृह जहरीली राख के 100 फ़ीसदी निस्तार की समस्या से जूझ रहे हैं। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी द्वारा हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 195 ताप विद्युत घरों में 2019-20 के शुरूआती 6 महीनों में 78.9 फ़ीसदी उड़ने वाली राख का ही निस्तार हो पाया।
यह अजीब है कि कोरोना का हवाला देते हुए कम गुणवत्ता वाले कच्चे कोयले की अनुमति देने वाले अपने जल्दबाजी भरे फ़ैसले को मंत्रालय ने न्यायोचित ठहराया है। नोटिफिकेशन में लिखा गया, ''अभूतपूर्व कोरोना महामारी को ध्यान में रखते हुए, फौरी तौर पर घरेलू कोयले के इस्तेमाल से कोयला क्षेत्र से ज़्यादा ऊर्जा उत्पादन की मांग है। इसलिए यह नोटिफिकेशन जल्द से जल्द लाया जाना जरूरी है।''
विश्लेषकों का मानना है कि कच्चे कोयले के इस्तेमाल की अनुमति से ऊर्जा संयंत्रों की उत्पादन कीमत में कमी को आधार बनाना गलत धारणा पर आधारित फ़ैसला है।
बेंगलुरू स्थित ''नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़'' में ''स्कूल ऑफ नेचुरल साइंस एंड एनजीनयरिंग'' के डीन डॉक्टर आर श्रीकांत का कहना है, ''अब रेलवे को 20 फ़ीसदी ज़्यादा कोयला ढोना होगा, अगर यह अस्वच्छ रहता है, तो इसमें ज़्यादातर धूल होगी। अस्वच्छ कोयले को ढोने की कीमत भी बढ़ेगी। ज़्यादातर रेलवे रूट उत्तरप्रदेश और बिहार से गुजरते हैं। आज रेलवे के पास इन रूट पर ज़्यादा ट्रैफिक होने की वजह से इस कोयले को ढोने की क्षमता मौजूद नहीं है। फिर तेज गर्मी के मौसम में जब ऊर्जा की मांग सबसे ज़्यादा होती है, तब हर साल ताप विद्युत घरों पर भार बहुत ही ज़्यादा बढ़ जाता है और रेलवे इन रूट पर कोयला ढोने में असमर्थता जाहिर करता है।''
पूंजीगत कीमत आगे और ज़्यादा बढ़ने का अंदाजा है क्योंकि सभी ताप विद्युत गृहों में कच्चे कोयले को साफ करने के लिए वैकल्पिक तकनीक स्थापित किए जाने की जरूरत होगी। कोल वाशिंग तकनीक के विकल्प के तौर पर ''फ्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD)'' नाम की तकनीक आयातित करने की बात कही जा रही है।
कोल प्रिपरेशन सोसायटी ऑफ इंडिया के निदेश आर के सचदेव के मुताबिक़, ''इस तकनीक से कोयले से केवल सल्फर का हिस्सा निकाला जाएगा। अध्ययनों से पता चला है कि FGD तकनीक से बिजली की प्रति यूनिट कीमत में 0.35 रुपये की बढ़ोतरी होती है। जबकि कोल वाशिंग से सिर्फ 0.05 रुपये प्रति यूनिट कीमत बढ़ती है। सरकार का यह फ़ैसला विक्रेताओं को ध्यान में रखते हुए लिया गया है।''
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Modi Govt Allows Low-grade Coal in Thermal Power Plants Risking COP21 Commitments
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