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मोदी के भाषण सिर्फ़ अपने बारे में हैं! : यह भाजपा के लिए बुरा क्यों है?

मैं, मेरा और सिर्फ़ मैं की जुगाली, किसी भी पार्टी के नेता के लिए अच्छी रणनीति नहीं हो सकती है।
PM modi

मोदी ने 2019 में अपने चुनाव अभियान की अगुवाई करते हुए उस एक महीने के दौरान 32 घंटों में जो भाषण दिए उसमें जो एक निरंतरता दिखी थी: वह थी ख़ुद के बारे में बोलना। यह असामान्य बात नहीं है कि वे रैलियों को संबोधित करते हुए ख़ुद को ही धन्यवाद देते हैं, अपनी नीतियों को धन्यवाद देते हैं और देश के प्रति अपनी दृष्टि को धन्यवाद देते हैं। जैसा की 2014 के आम चुनावों के दौरान देखा गया था ठीक वैसे ही 2019 के चुनावों में भी सोशल मीडिया और वेबसाइटों पर बिलबोर्ड, पोस्टर, डिजिटल विज्ञापन के माध्यम से मोदी की छवि का सर्वव्यापक रूप से देखा गया।

मिशिगन विश्वविद्यालय में संचार विषय के विद्वान स्वप्निल राय ने इस घटना को "भारतीय राजनीति का जश्न मनाने" के रूप में संदर्भित किया है, और एक तरह से मोदी के व्यक्तित्व को एक सेलिब्रिटी जैसी हस्ती और उसकी आभा बनाने के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकी, सामाजिक और पारंपरिक मीडिया का सामूहिक तौर पर रणनीतिक इस्तेमाल बताया है। हालांकि भारत की राजनीति में व्यक्तिगत राजनेताओं का ऐसा जश्न असामान्य बात नहीं है, लेकिन मोदी के भाषण विशेष रूप से ख़ुद के संदर्भों से भरे पड़े हैं।

यदि इतिहास एक सबक़ है, तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर इंदिरा गांधी के बड़े पैमाने पर मौजूद पदचिह्न अपने आप में इस तरह की विकट व्यक्तित्व वाली राजनीति के ख़तरे को दर्शाते हैं। इंदिरा गांधी सत्ता में इसलिए आई थीं क्योंकि उनमें विभिन्न या विरोधाभाषी राजनीतिक योग्यताएँ प्रतीत होती थीं, जो कि ख़ासतौर पर भिन्न थीं(देश के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के नाते) और उनमें अस्पष्टता भी थी कि उनके भीतर नीतियों को लेकर कोई दृष्टि नहीं थी। फिर भी, उन्होंने नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस की बहुसंस्कृति वाली संरचना को सफलतापूर्वक एकजुट किया और कुछ हद तक आगे बढ़ाया।

हालांकि, उसके बाद जो हुआ उसे राजनीतिक वैज्ञानिक सुदीप्त कविराज यानी इन्दिरा के शासन काल को  "बादशाही शासन" के रूप में संदर्भित करते हैं, जब पार्टी के भीतर किसी भी असंतोष बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था, बिना किसी सलाह या सहयोग के निर्णायक फ़ैसले लिए जाने लगे, और अंतत: इसने एक वंशवादी शासन की दृष्टि का आकार ले लिया। राजीव गांधी की हत्या के बाद, वास्तव में कांग्रेस अपनी चमक वापस नहीं पा सकी, हालांकि उसके बाद वह एक दशक तक सत्ता में रही।

आज, 25 साल बाद, जब हम कांग्रेस को पूरी तरह से अस्त-व्यस्त देख रहे हैं, तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कभी उपनिवेशवाद के बाद के काल में राष्ट्रीय विकास का मुख्य अंग थी वह सत्ता को बनाए रखने का एक विशेष साधन बन गया। दरअसल, कांग्रेस पार्टी एक विस्तृत संसदीय मशीन बन गई, जहां चुनावों को जीतने के लिए बड़े धन के इस्तेमाल की अनुमति थी और पार्टी नेतृत्व के भीतर किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी से मुंह  मोड़ने की लत लग गई जिसने इसे वैचारिक रूप से पतवारहीन बना दिया।

गांधी परिवार के बाहर, अन्य वरिष्ठ नेता, जिन्हें साहस या बुद्धि के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, ज़ाहिर तौर पर वे भी शासन और आम जनता के बीच बढ़ती खाई की न तो कोई ज़िम्मेदारी ले रहे थे और न ही कोई दिलचस्पी। 21 वीं सदी तक कांग्रेस पार्टी, आपस में एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने वाले नेताओं और चाटुकारिता का प्रतीक बन कर रह गई, और ये सब नेता गांधी परिवार की चाटुकारिता करते नहीं थकते थे, वे चुनाव को लेकर ज़मीनी स्तर पर हो रहे बदलावों से पूरी तरह से बेख़बर थे।

अगर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालें तो रिपब्लिकन पार्टी में डोनाल्ड ट्रम्प की त्वरित वृद्धि और संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट और सदन के नेताओं की सार्वजनिक चुप्पी से पता चलता है कि इस तरह की राजनीति पारंपरिक पार्टी के प्रभुत्व को कैसे समाप्त कर सकती है। अधिकांश रिपब्लिकन नेता अब मीडिया से बात नहीं करते हैं और चमक-दमक से बाहर रहना पसंद करते हैं, वे ऐसा कुछ तो डर और कुछ मर्यादा के तहत करते हैं। हालांकि कुछ आलोचकों ने रिपब्लिकन को "भेड़ की पार्टी" कहा है, कठोर शब्दों वाले रूढ़िवादी राजनीतिक टिप्पणीकार जॉर्ज विल ने हाल ही दिए गए एक साक्षात्कार में कहा था, कि ट्रम्प की लीडरशीप में रिपब्लिकन पार्टी "विनम्र, अल्पज्ञानी और अयोग्य बन गई है।"

यहां तक कि अगर रिपब्लिकन पार्टी में ज़्यादातर लोग ये मानते हैं कि ट्रम्प पार्टी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, तो ऐसा कर वे अपने लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर लेंगे। ट्रम्प के ख़िलाफ़ बोलने से उनकी तात्कालिक राजनीतिक हस्ती गंभीर रूप से ख़तरे में पड़ जाएगी। ट्रम्प की शक्ति के सिद्धांत ने रिपब्लिकन पार्टी के पारंपरिक आदर्शवाद और वैश्विक सुरक्षा के सिद्धान्त को पलट दिया और उन्हें "पहले ट्रम्प, बाद में अमेरिका" के छद्म राष्ट्रवादी उत्थान के नारे में बदल दिया है।

ट्रम्प के विपरीत, जिनके भाषण और ट्वीट शुद्ध संकीर्णता से भरे वाले रहे हैं, मोदी के भाषण प्रत्यक्ष कम लेकिन समान रूप से खुद के संदर्भ में रहे हैं। उनके भाषणों का जो एक तत्व है वह यह कि हर तीसरे व्यक्ति के रूप में उनका निरंतर संदर्भ होता है। 25 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के बांदा में दिए गए 41 मिनट के एक भाषण में, उन्होंने 30 बार तीसरे व्यक्ति के रूप में ख़ुद को संदर्भित किया। जबकि मोदी की भाषा में इस तरह की भाषाई रणनीति के इस्तेमाल के मनोवैज्ञानिक कारणों पर बहस की जा सकती है, लेकिन वह अपनी सफलता के लिए तीसरे व्यक्तिवाद का इस्तेमाल करते हैं और आलोचना को टाल जाते हैं।

इस राजनीति का एक और सिरा यह भी है कि हर सार्वजनिक नीति का बयान व्यक्तिगत रूप से किया जाता है, जैसे कि मोदी के व्यक्तिगत अनुभव ही हैं जो राष्ट्रीय नीतिगत निर्णय की तरफ़ ले जाते हैं। उदाहरण के लिए, वे देश की "बहनों और माताओं" के लिए घरों में बाथरूम की आवश्यकता का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि "मैंने अपनी ग़रीब माँ को घर से शौच के लिए बाहर जाने के लिए अपमानित होते देखा है।"

मोदी के भाषणों में एक तीसरा तत्व भीड़ के आकार के आधार पर अपना जुनूनी ध्यान केंद्रित करना है। जैसा कि उन्होंने कई रैलियों में इसे उल्लासपूर्वक देखा और उसके बारे में कहा है, "जहाँ तक मेरी आँखें देख सकती हैं वहाँ तक मैं जनता को पाता हूँ।" वह इसे पारदर्शी बना देते हैं कि भीड़ उन्हें देखने आती है, भले ही उनका प्रत्येक भाषण और रैली में आना अन्य भाजपा नेताओं और मंत्रियों के भाषणों के बाद या पहले होता है।

मोदी की इस सर्वव्यापकता को किसी भी अन्य भाजपा राजनेता के संदर्भों की पूर्ण अनुपस्थिति के साथ किया जाता है जैसे कि भाजपा में मोदी को छोड़ कोई अन्य नेता है ही नहीं। वे शासन के किसी भी पहलू, नीति लेखन या कार्यान्वयन, या अभियान में मदद करने के लिए अपनी पार्टी के या फिर कैबिनेट मंत्री या सांसद के योगदान को कभी स्वीकार नहीं करते है। बीजेपी को मोदी का पर्याय बना दिया गया है।

बीजेपी के लिए इसके मायने क्या है?

मोदी की सत्ता में मज़बूती से तरक़्क़ी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। जिसे क्रूर हितों का गठजोड़ कहा गया जो हिंदुत्व, व्यापार और सत्ता के कुलीन लोगों से मिलकर तैयार हुआ है, और एक धनी लेकिन रूढ़िवादी प्रवासी लोगों के जमावड़े ने मोदी को अन्य प्रतिस्पर्धी राजनीतिक नेताओं से बढ़त दिला दी है। लेकिन अगर इतिहास से कोई एक चीज़ सीखनी है, तो वह यह है कि भाजपा के मोदी के इर्द-गिर्द घूमने से पार्टी अपने राजनीतिक करिश्मे को खो रही है - और ख़ासकर जिन कारणों या मुद्दों की वजह से आम लोग भाजपा को सत्ता में लाए थे उन्हे भी वह खो रही है।

जब भी मोदी सार्वजनिक जीवन से रिटायर होंगे, तो सत्ता की शून्यता व्यापक होगी। क्योंकि मोदी लहर को बनाए रखना मुश्किल होगा यदि कोई नीतिगत पहल नहीं होती है जिसे कि दूसरे स्तर का नेतृत्व अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करने में सक्षम हो। अगर हमेशा मोदी और उनके राजनीतिक कौशल के बारे में कहानी चलती रहेगी तो एक चतुर मतदाता एक बिना नाम के पार्टी प्रचारक की ओर क्यों रुख करेगा? यहां तक कि पार्टी के नौकरशाह अमित शाह, जो मोदी की छाया बने रहते हैं, उन्हें भी लोग केवल एक छाया ही समझते हैं।

हालांकि, मोदी के बाद की भाजपा की शव यात्रा निकालना थोड़ी जल्दबाज़ी है, लेकिन इतिहास हमें बताता है कि कोई भी पार्टी एक व्यक्ति के प्रदर्शन के नाम पर ज़्यादा देर तक सत्ता में नहीं रह सकती है। कांग्रेस उस समय अपने उत्कर्ष पर थी जब इसमें विभिन्न विचार के लोग शामिल थे। नेहरू का मंत्रिमंडल बुद्धिजीवियों से और नीति निर्माताओं से भरा था और यह उस समय विलुप्त होने लगा जब पार्टी ने अपने भाग्य को गांधी परिवार के साथ जोड़ दिया। भाजपा उसी दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है।

शकुंतला राव, संचार अध्ययन विभाग, न्यूयॉर्क के स्टेट विश्वविद्यालय, प्लेट्सबर्ग में पढ़ाती हैं। विचार व्यक्तिगत हैं

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

Modi’s Speeches Are All About Himself: Why That is Bad for BJP

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