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त्वरित टिप्पणी: विशुद्ध चुनावी है मोदी जी का यू-टर्न, लेकिन किसानों की जंग अभी जारी है

जाहिर है किसानों ने 3 कानूनों की लड़ाई जीत ली है, लेकिन कृषि के विकास के कारपोरेट रास्ते के ख़िलाफ़ किसान-रास्ते की विजय का युद्ध अभी बाकी है।
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संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री मोदी के बयान पर सतर्क प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपने प्रेस वक्तव्य में कहा है, " भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जून 2020 में पहली बार अध्यादेश के रूप में लाए गए सभी तीन किसान-विरोधी, कॉर्पोरेट-समर्थक काले कानूनों को निरस्त करने के भारत सरकार के फैसले की घोषणा की है।"

"संयुक्त किसान मोर्चा इस निर्णय का स्वागत करता है और उचित संसदीय प्रक्रियाओं के माध्यम से घोषणा के प्रभावी होने की प्रतीक्षा करेगा। अगर ऐसा होता है, तो यह भारत में एक वर्ष से चल रहे किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जीत होगी। हालांकि, इस संघर्ष में करीब 700 किसान शहीद हुए हैं। लखीमपुर खीरी हत्याकांड समेत, इन टाली जा सकने वाली मौतों के लिए केंद्र सरकार की जिद जिम्मेदार है।"

तीन कृषि-कानूनों को repeal करने की प्रधानमंत्री की नाटकीय घोषणा इतनी अप्रत्याशित भी नहीं है, राजनीतिक हलकों में इसका कयास हाल के दिनों में लगाया जा रहा था।

न्यूज़क्लिक के इन्हीं पन्नों पर 2 सप्ताह पूर्व लिखा गया था, " उपचुनाव नतीजों के बाद पैनिक मोड में आई मोदी सरकार क्या किसान-आंदोलन पर भी यू-टर्न लेगी?  .…

क्या सरकार सचमुच आंदोलन की किसी happy ending के dramatic effect से 24 के पहले के सबसे निर्णायक विधानसभा चुनावों में हारी बाजी पलटने की कोशिश करेगी ? BJP की Political necessity का logic तो यही है ! "

कोविड की दूसरी लहर की भयानक तबाही और बंगाल चुनाव की भारी पराजय के बाद से ऐसा लगता है कि शीर्ष स्तर पर इस प्रश्न पर पुनर्विचार शुरू हो गया था। इसके संकेत कृषिमंत्री व अन्य शीर्ष नेताओं के नरम होते बयानों से लगने लगे थे। ज्ञातव्य है कि बंगाल चुनावों में पहली बार किसान-आंदोलन सीधे तौर पर भाजपा हराओ नारे के साथ मैदान में उतरा था। भले ही बंगाल चुनाव पर किसान-आंदोलन का कोई सीधा प्रभाव न पड़ा हो, पर किसानों के खुल कर उतरने से भाजपा विरोधी माहौल को आवेग तो मिला ही। सबसे बड़े बात यह कि यह साफ हो गया कि बंगाल चुनाव से निकली किसान-आंदोलन की यह नई रणनीति अब भाजपा के लिए चुनाव-दर-चुनाव स्थायी सरदर्द बनी रहेगी।

यह भी साफ हो गया कि मोदी लहर खत्म है और मोदी-शाह-भाजपा की अपराजेयता का मिथ टूट चुका था।

इसके तुरंत बाद किसान-आंदोलन मिशन UP & उत्तराखंड के नारे के साथ मैदान में उतर पड़ा और सरकार की पेशानी पर बल पड़ने लगे। पर, ऐसा लगता है कि संघ-भाजपा में एक line of thinking यह थी कि किसान-आंदोलन से शायद कोई ठोस राजनैतिक नुकसान नहीं होगा। आंदोलन को राजनैतिक दृष्टि से सिखों और जाटों तक ही प्रभावी मानकर, यह गणित था कि पंजाब में भाजपा को खोने के लिए बहुत कुछ है नहीं, हरियाणा में जाट विरोधी सामाजिक समीकरण का भरोसा था और शायद UP-उत्तराखंड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का।

हरियाणा में खट्टर द्वारा किसानों के खिलाफ लट्ठ उठाने और गृहराज्य मंत्री टेनी द्वारा तराई से सिख किसानों को खदेड़ने की उकसावेबाजी इसी सोच और रणनीति का हिस्सा लगती है।

लेकिन इसी क्रम में लखीमपुर में हुए किसानों के जनसंहार ने पूरी कहानी बदल दी। उसे लेकर जिस तरह सरकार के खिलाफ पूरे देश में गुस्से की लहर दौड़ गयी और सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए अपनी बेहद तल्ख टिप्पणियों और आदेशों से मोदी-योगी दोनों सरकारों को पूरी तरह नंगा कर दिया, ऐसा लगता है कि सरकार उससे अंदर तक हिल गयी और स्वयं मोदी के नैतिक प्राधिकार को उससे जबरदस्त चोट पहुंची।

उसी के बाद उपचुनावों के परिणाम आने के बाद ऐसा लगता है, भाजपा के नीति-नियामकों के हाथ-पांव फूल गए और 3 कृषि कानूनों की वापसी की तारीख पर विचार होने लगा। ( एक खबर तो यह आ गयी थी कि दीपावली के पहले कानून वापस होने जा रहे हैं। )

खास तौर से तब जब यह बात साफ तौर पर उभर कर आ गई कि किसान आंदोलन के प्रभाव का जो मुख्य इलाका है, दिल्ली के आसपास का, हरियाणा-राजस्थान-हिमाचल वहां भाजपा का सूपड़ा पूरी तरह साफ हो गया है। हिमाचल में न सिर्फ मंडी की लोकसभा सीट और तीनों विधान सभा सीटें भाजपा ने खो दिया, बल्कि अग्रणी सेब उत्पादक शिमला की कोटखाई सीट पर तो भाजपा उम्मीदवार को महज 2644 वोट ( 4.61% ) मिले और उसकी जमानत जब्त हो गयी।

इसी तरह दक्षिण भारत में किसान आंदोलन के सर्वाधिक प्रभाव वाले राज्य कर्नाटक में मुख्यमंत्री के गृहक्षेत्र में भाजपा खेत रही, मध्यप्रदेश के UP से लगे रैगरपुरा सीट पर भी भाजपा हार गयी जहां किसान आंदोलन की हलचल है।

उपचुनावों के नतीजे आने के बाद पैनिक मोड में आई भाजपा ने आनन-फानन में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी करने और उप्र में अनाज के साथ तेल, दाल, चीनी और नमक भी बांटने का ऐलान किया और उसकी अवधि होली यानी चुनाव तक बढ़ा दिया।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के बयानों से यह साफ होने लगा था कि कुछ खिचड़ी जरूर पक रही है। अमरिंदर सिंह ने तो कांग्रेस से अलग होने के बाद इसी भरोसे नई पार्टी बनाकर भाजपा से गठजोड़ का भी ऐलान कर दिया था। मुखर जाट नेता सत्यपाल मलिक मोदी को लगातार किसान-आन्दोलन से हो रही अपूरणीय राजनीतिक क्षति के बारे में धमका और समझा रहे थे,18 नवम्बर को मलिक साहब का ताजा बयान आया कि किसान-आंदोलन के कारण UP में भाजपा का सफाया हो जायेगा।

ऐसा लगता है final clinching अनुभूति स्वयं मोदी जी को UP के अपने हालिया दौरों के दौरान हुई, जहाँ उन्होंने दीवाल पर लिखी इबारत साफ पढ़ लिया कि भाजपा का सूपड़ा साफ होने वाला है।

आखिरकार अपनी चिरपरिचित नाटकीय शैली में मोदी ने 19 नवम्बर को सबेरे कृषि-कानून वापस लेने का एलान कर दिया। इसके लिए उन्होंने गुरुनानक जयंती के अवसर का चुनाव किया, इस प्रतीकात्मकता के पीछे के राजनीतिक कारण स्वतः स्पष्ठ हैं।

जाहिर है किसान-आंदोलन की इस जीत पर पूरे देश में खुशी की लहर है। किसानों और कृषि की रक्षा होगी, इसकी तो खुशी है ही, उससे अधिक खुशी लोगों को तानाशाह मोदी के हार की है।

मोदी के आज के बयान से यह भी साफ है कि उनका कोई हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। 3 कॄषि कानूनों पर उनके विचार और उसे सही साबित करने की हठधर्मिता जस की तस है। यह विशुद्ध चुनावी फैसला है, केवल और केवल UP व अन्य राज्यों के निर्णायक चुनावों के दबाव में लिया गया। मोदी ने बेहद शातिर ढंग से अपने बयान में यह जता दिया कि वे इन कानूनों से किसानों का बहुत बड़ा भला करने वाले थे, लेकिन आंदोलनकरियों ने अपने अड़ियल रुख के कारण यह नहीं होने दिया। अब वे देश-हित में इसे वापस ले रहे हैं। ( गोदी मीडिया के कुछ चैनलों ने तो यह कहानी शुरू कर दिया कि आंदोलन की आड़ में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने की बहुत बड़ी साजिश की खबर मोदी जी को लगी थी, इसलिए देशहित में उन्होने कानूनों की वापस ले लिया )

बहरहाल, मोदी जी के आज के बयान में यह अन्तर्निहित है कि अनुकूल राजनीतिक स्थिति होते ही वे इसे पुनः लागू करना चाहेंगे !( यह अलग बात है कि किसान और आम जनता शायद यह अवसर अब न आने दे !)

सबसे दुःखद यह है कि मोदी ने आज भी 700 से ऊपर जो किसान शहीद हो गए, 1 साल से आंदोलनरत लाखों किसानों ने इस दौरान जो अकथनीय यातना झेली है, उनके मंत्री के बेटे ने जिन किसानों को कुचलकर मार डाला, उनके लिए न संवेदना के दो शब्द कहे न माफी माँगी, न गृहराज्यमंत्री को हटाने का एलान किया। उल्टे उन्होंने माफी इसके लिए मांगी कि इन कानूनों को वे लागू न कर सके !

सबसे बड़ी बात यह कि किसान-आंदोलन की दूसरी प्रमुख मांग- MSP को कानूनी दर्जा देने की- वह अभी ज्यों की त्यों है।

इसीलिए संयुक्त किसान मोर्चा ने बेहद सतर्कता पूर्वक बयान देते हुए कहा है, "

हम प्रधानमंत्री को यह भी याद दिलाना चाहते है कि किसानों का यह आंदोलन न केवल तीन काले कानूनों को निरस्त करने के लिए है, बल्कि सभी कृषि उत्पादों और सभी किसानों के लिए लाभकारी मूल्य की कानूनी गारंटी के लिए भी है। किसानों की यह अहम मांग अभी बाकी है। इसी तरह बिजली संशोधन विधेयक को भी वापस लिया जाना बाकी है। संयुक्त किसान मोर्चा सभी घटनाक्रमों पर संज्ञान लेकर, जल्द ही अपनी बैठक करेगा और यदि कोई हो तो आगे के निर्णयों की घोषणा करेगा। "

आंदोलन अभी जारी है। इस महान आंदोलन ने देश के इतिहास में अविस्मरणीय भूमिका निभाया है। इसने न सिर्फ कृषि क्षेत्र में नवउदारवादी सुधारों के प्रवेश को फिलहाल रोक दिया है बल्कि मोदी और भाजपा की साख पर मरणांतक चोट कर देश को फासीवाद के शिकंजे में जाने से भी बचा लिया है।

जाहिर है किसानों ने 3 कानूनों की लड़ाई जीत ली है, लेकिन कृषि के विकास के कारपोरेट रास्ते के खिलाफ किसान-रास्ते की विजय का युद्ध अभी बाकी है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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