Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मोदी का बनारस दौरा: ‘नमो’ घाट पर खड़े हुए गंभीर सवाल

सूत्रों के मुताबिक पीएम मोदी गुरुवार को इस घाट का भी लोकार्पण करना चाहते थे, लेकिन चंद घंटे पहले ही पीएमओ ने इस प्रोजेक्ट को लोकार्पण होने वाली परियोजनाओं की सूची से बाहर कर दिया। मगर असल सवाल सीना तानकर जस का तस खड़ा है। 
NaMo Ghat
बनारस का नमो घाट

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने बनारस में विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ी है, जिसके नेपथ्य से गरीब सिरे से गायब हैं। केंद्र सरकार ने तीन बरस पहले स्मार्ट सिटी मिशन के तहत बनारस के खिड़किया घाट से लगायत राजघाट के बीच के इलाके को पर्यटन के लिहाज से सुंदर और आकर्षक बनाने का फैसला लिया गया था। इसी फैसले की भेंट चढ़ गए गरीबों के वो 100 से ज्यादा परिवार जो करीब 60 साल से खिड़किया घाट पर झुग्गी-झोपड़ी डालकर किसी तरह से अपना जीवन बसर कर रहे थे। अचरज की बात यह है कि मुलायम सिंह की सरकार ने खिड़किया घाट को समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया के साथी नेता राजनारायण घाट नाम दिया था और भाजपा सत्ता में आई तो नौकरशाही ने पीएम नरेंद्र मोदी को खुश करने के लिए सिरे से इस घाट का नाम ही बदल दिया। इस घाट को नया नाम दिया गया है नमो नमः घाट।

सूत्रों के मुताबिक पीएम मोदी गुरुवार को इस घाट का भी लोकार्पण करना चाहते थे, लेकिन चंद घंटे पहले ही पीएमओ ने इस प्रोजेक्ट को लोकार्पण होने वाली परियोजनाओं की सूची से बाहर कर दिया। मगर असल सवाल सीना तानकर जस का तस खड़ा है। लोकबंधु राजनाराण के नाम को मिटाकर इस घाट को ‘नमो घाट’ नाम क्यों दिया गया? दशकों से इस घाट पर बसी जिस झोपड़पट्टी पर तीन बरस पहले बुल्डोजर चलाया गया था, उन गरीबों को अभी तक छत क्यों नसीब नहीं हुई?

खिड़किया घाट के परिवर्तित नाम लोकबंधु राजनारायण घाट का नाम क्यों बदला, इस पर स्मार्ट सिटी योजना से जुड़े नुमाइंदों और आला अफसरों की बोलती बंद है। कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं है। इस मुद्दे पर समाजवादी पार्टी ने प्रवक्ता मनोज राय धूपचंडी भाजपा सरकार की नीति और नीयत पर बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। इन्हें लगता है कि स्मार्ट सिटी के कर्ता-धर्ता लोकबंधु राजनारायण के साथ झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीबों के प्रति दुर्भावना रखते हैं। वह कहते हैं, "सपा सरकार ने साल 2013 में खिड़किया घाट को समाजवादी नेता राजनारायण सिंह का नाम दिया था। सपा सरकार ने उस समय तीन महापुरुष- मालवीय, लोहिया और राजनारायण के नाम पर घाट बनाने का मसौदा तैयार कराया था। सिंचाई विभाग ने 515 मीटर लंबे तीनों घाटों पर क्रमशः 23, 17 और 18 करोड़ रुपये की परियोजनाएं तैयार की थीं।"

झोपड़पट्टी में रहने वालों को पीने के पानी के लिए भी करनी पड़ती है भारी जद्दोजहद

धूपचंडी यह भी बताते हैं, "23 जनवरी 2013 को कमिश्नरी सभागार में लोकबंधु राजनारायण घाट के सुंदरीकरण के लिए इस्टीमेट तैयार करने में हीलाहवाली करने पर तत्कालीन कमिश्नर चंचल तिवारी नगर निगम के मुख्य अभियंता पर बिफर पड़े थे। कमिश्नर ने मुख्य अभियंता को सस्पेंड करने की धमकी तक दे डाली थी। इसी बैठक में, इसी मुद्दे पर सिंचाई  विभाग के अधीक्षण अभियंता को एडवर्स इंट्री और चेतावनी दी गई थी। इस बैठक में बनारस के तत्कालीन डीएम सौरभ बाबू के अलावा चंदौली के डीएम पवन कुमार भी मौजूद थे। बाद में राजनारायण घाट पर कई विकास कार्य कराए गए, लेकिन घाट पर झोपड़पट्टी में रहने वालों के नहीं उजड़ा गया। भाजपा सरकार ने शोहरत लूटने के लिए बनारस की एक महान हस्ती की नाम ही मिटा दिया। साथ ही वहां रहने वाले 250 से ज्यादा गरीबों को खुले आसमान में गुजर-बसर करने के लिए बेसहारा छोड़ दिया।"  

जिस स्थान पर विस्थापितों की बस्ती हुआ करती थी, उसे अब पर्यटक स्थल के रूप में तब्दील कर दिया गया है। पहले चरण में इस योजना पर 35.83 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। यहां एक ऐसी बाथिंग जेटी बनाई गई है जहां बगैर गंगा में उतरे ही पर्यटक और सैलानी स्नान कर सकेंगे। इस परियोजना पर 1.95 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। अहमदाबाद के साबरमती रिवर फ्रंट की तर्ज पर पर्यटकों को आकर्षित करने के मकसद से खिड़किया घाट का नवीनीकरण और पुनर्विकास कराया जा रहा है। इसका ठेका मेरठ की कंपनी प्रीति बिल्डकॉन प्राइवेट लिमिटेड को दिया गया है।

वाराणसी स्मार्ट सिटी योजना के मुख्य महाप्रबंधक डॉ डी वासुदेवन कहते हैं, "करीब खिड़किया घाट पर निर्मित हाईटेक नमो नमः घाट की कनेक्टिविटी जल, थल और नभ तीनों से होगी। यहां ओपेन थियेटर, सीएनजी स्टेशन, फ्लोटिंग स्टेशन, फूड कोर्ट सहित कई सुविधाएं होंगी। दूसरे चरण में यहां वाटर एडवेंचरस स्पोर्ट्स, हैलीपेड, चिल्ड्रेन पार्क और भी बहुत कुछ तैयार किया जाएगा। वाराणसी के नमो नमः घाट पर नमस्ते के आकार के तीन स्कल्पचर बनाए गए हैं, जो पूरे घाट पर सबसे आकर्षण के केंद्र हैं। देसी-विदेशी को लुभाने वाले इस घाट पर बड़ी तादाद में सैलानी पहुंचने लगे हैं।"

गरीबों को भूल गई सरकार

बनारस में मोदी सरकार के फैसले के चलते करीब 250 लोगों को अक्टूबर से दिसंबर 2020 के बीच विस्थापित होना पड़ा था। इनमें ज्यादातर मल्लाह थे या फिर नाविक। विस्थापन का दर्द झेल रहे इन गरीबों के पास बारिश के दिनों में सिर छिपाने के लिए जगह नहीं है। कोई पुल-पुलिया के नीचे जीवन-यापन कर कर रहा है तो कोई खुले आसमान के नीचे। खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना से जुड़े प्रचार अभियान और शोर-शराबे के बीच उन 250 से अधिक बेहद गरीब लोगों के घरों पर बुलडोज़र चलाने के बाद योगी सरकार उनकी सुधि लेना ही भूल गई। ये वो लोग थे जिनके पास जमीन के अभिलेख भले ही नहीं थे, लेकिन पिछले 60 सालों से ज्यादा समय से खिड़किया घाट के पास  झोपड़पट्टी बनाकर रह रहे थे। इसी झोपड़पट्टी को उन्होंने अपना मुहल्ला और घर मान लिया था। यहां रहने वालों के राशन कार्ड भी बने थे और आधार कार्ड भी। विधवा महिलाएं और विकलांग लोग पेंशन भी पा रहे थे।

खिड़किया घाट पर रहने वाले लोगों के घरों पर जब बुल्डोजर चलाया गया उसके बाद सिर्फ 14 लोगों को ही अस्थायी तौर पर रैन बसेरा में जगह मिल सकी। पिछले तीन सालों में बनारस की सरकार ने खिड़किया घाट की झोपड़पट्टी में रहने वालों की खोज-खबर नहीं ली। नतीजा, जबरिया उजाड़े जाने के बाद कुछ परिवार काशी रेलवे स्टेशन के नजदीक रेलवे पुल के नीचे जाकर बस गए तो कुछ ने विकास के लिए रखे गए पाइपों अथवा जहां-तहां पालीथानी डालकर बुरे हालात में रहना शुरू कर दिया।

बनारस के काशी रेलवे स्टेशन पर गरीबों को जमघट

खिड़किया घाट की झोपड़पट्टी उजाड़े जाने के बाद 36 वर्षीय लल्लन चौरसिया को अब खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारना पड़ रहा है। रिक्शा चालक लल्लन की पत्नी सुनैना डेढ़ बरस पहले इलाज के अभाव में मर गई। वह खुद काशी स्टेशन के बाहर सोता है और रिक्शा चलाकर अपना गुजारा करता है। लल्लन कहते हैं, "हुजूर! हम अंगूठाटेक हैं। शुरुआत में अफसरों के यहां खूब दौड़ लगाई, लेकिन सबने भगा दिया। सिर छिपाने के लिए जगह नहीं रही तो हमने अपने सभी पांच बच्चों (तीन लड़के व दो लड़कियां) को उनके ननिहाल मुर्सिदाबाद पहुंचा दिया।"

लल्लन

"बारिश होने पर काशी स्टेशन के पोर्टिको में चले जाते हैं और तेज धूप होने पर पेड़ की छांव में दिन गुजार लेते हैं। हमारी कहानी बस इतना सी है। सुन रखा है कि हमारी झोपड़ियों पर बने नमो घाट का उद्घाटन करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस आ रहे हैं। सरकार ने हमारी झोपड़ियों को उज़ड़ाकर के उसके ऊपर भले नमो घाट तान दिया है, लेकिन हमारे घरों को सरकारी बुल्डोजर से रौंदने की चुभन दिल में अब तक बरकरार है। नमो घाट की चमक-दमक हमारे सीने में शूल की तरह चुभती है। हमारे सीने में दर्द तो बहुत है, लेकिन गरीबों का दर्द सिर्फ दर्द नहीं होता। हमारी उम्मीद और सपने तो तभी टूटकर बिखर गए थे जब हमारी झोपड़ी को बुल्डोजर रौंदता चला गया था। अब हम किसके पास जाएं दुहाई देने और भला हमारी सुनेगा कौन? "

बंद हो गई विधवा पेंशन

खिड़किया घाट से उजाड़े गए लोगों में 35 वर्षीय विधवा पारो भी हैं जो कोनिया इलाके में चौका-बर्तन करके अपनी दो बेटियों को पाल रही हैं। बजरडीहा के झोपड़पट्टी इलाके में एक कमरे का कच्चा मकान 1200 रुपये में किराये पर लेकर रह रही हैं। वह कहती हैं, "खिड़किया घाट से उजाड़े जाने के बाद हमारी विधवा पेंशन भी बंद कर दी गई। शायद सरकार ने मान लिया होगा कि कोरोना में हम भी मर-खप गए होंगे। पिछले कुछ सालों से कमाई का कोई साधन न होने या नाममात्र की कमाई होने के कारण मकान का किराया देना असंभव हो गया है। करीब 12 साल पहले हमारे पति अशोक साहनी की मौत हो गई थी। उसके बाद दो बेटियों को पालने की जिम्मेदारी भी हमारे ऊपर आ गई। बड़ी बेटी शिवानी (14) दसवीं में और छोटी वैष्णवी (11) पांचवीं कक्षा में पढ़ती हैं। बेटियों का स्कूल भले ही सरकारी है, लेकिन हम घरों में चूल्हा बर्तन न करें दोनों बेटियां भी हमारी तरह ही निरक्षर रह जाएंगी। "

पारो

विधवा पारो बताती हैं, "पहले हमारा जीवन बहुत खुशहाल था। पति नाव चलाते थे, गंगा में मछली पकड़ते थे और राजघाट पुल से ट्रेनों के गुजरने पर यात्रियों द्वारा गंगा में फेंका जाने वाला पैसा जुटाया करते थे। पैसा बीनते समय एक रोज ट्रेन का धक्का लगा और मेरे पति अशोक गंगा में गिर पड़े। फिर तो नदी से उनकी लाश ही बाहर आई। साथ ही ढेरों विपत्तियां भी, जिससे मैं आज तक जूझ रही हूं। "

राजघाट रेलवे पुल के समीप पालीथीन वाला अपना अस्थायी ठौर दिखाते हुए 52 वर्षीय शारदा साहनी कहती हैं, "हम सात दशक से खिड़किया घाट पर रह रहे थे। हमारे मां-बाप भी वहीं रहते थे। गंगा में नाव चलाने से लेकर मछली पकड़ने का काम करते थे। पहले ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी। बगैर सोचे-समझे सरकार ने हमें खिड़किया घाट से जबरन उजाड़ दिया। हम आगे कैसे जिएंगे, यह सोचकर हम परेशान रहते हैं?" शारदा यह भी बताती हैं, "खिड़किया घाट से जब हमारी झोपड़ी पर बुल्डोजर चलाया जा रहा था, उस वक्त हम होश खो बैठे थे। हमारा सारा सामान झोपड़ी के साथ ही खत्म हो गया। हमें इतना समय भी नहीं दिया गया कि अपना जरूरी सामान निकाल सकें। बुलडोज़र चलना शुरू हुआ तो हमारे घरों को रौंदता चला गया।"

काशी रेलवे स्टेशन के बाहर एक पेड़ के नीचे रह रहीं 30 वर्षीया माला ने इस बातचीत में शामिल होते हुए कहा, "अगर हम भूख से तड़पकर मर भी जाएं तब भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगेगी। आवास के लिए हम जब भी अफसरों के पास जाते हैं तो वे झल्ला जा जाते हैं और हमें भगा देते हैं। जब योगी सरकार के पास गरीबों को आवास देने की योजना है तो फिर हमें घर क्यों नहीं दिया जा रहा है? लाचारी में हमने बड़ी बेटी को ननिहाल में छोड़ दिया है। पति दीपक गोस्वामी के साथ दो बच्चों को लेकर हम जहां-तहां भटकते रहते हैं। शादी-विवाह में कभी पूड़ी बेलने चले जाते हैं तो कभी चौका बर्तन करने।"

माला

55 वर्षीया लालमनी का परिवार भी दो साल से भी ज्यादा वक़्त से काशी रेलवे स्टेशन पर एक पेड़ के नीचे ये खुले आसमान के नीचे रह रहा है और यह उम्मीद लगाए बैठा है कि सरकार उनकी दुर्दशा को देखते हुए उन्हें आवास आवंटित कर देगी। लालमनी भी उन ढाई सौ विस्थापितों में से एक हैं जिनकी झोपड़ी दशकों से खिड़किया घाट पर हुआ करती थी। वह कहती हैं, "कोरोना की महामारी फैली तो हम भुखमरी की कगार पर पहुंच गए थे। हमें और हमारी जैसी उन सभी औरतों को महामारी के समय कोई काम नहीं मिला। आपस में मिल-जुलकर हमने किसी तरह एक वक्त भोजन का इंतजाम किया, लेकिन सरकार से कोई मदद नहीं मिली।"

लालमनी

मोदी के दौरे से गरीब भयभीत

हाईप्रोफाइल विजिट के दौरान हाशिए के लोगों को सड़कों से हटाने का चलन नया नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी कहीं दौरा करते हैं या फिर विदेशी मेहमानों के साथ होते हैं तो गरीबों झुग्गियों को छिपाने के लिए तंबू कनात लगा दिए जाते हैं।  मोदी के बनारस दौरे के भव्य आयोजन की तैयारियों के बीच काशी रेलवे स्टेशन के बाहर और पड़ाव के पास सुजाबाद में पालीथीन लगाकर डेरा डाले लोग इस बार भी डरे हुए हैं। इन्हें डर इस बात का है कि कहीं सरकारी मशीनरी पहले की तरह उन्हें खदेड़कर भगा न दे।

काशी रेलवे स्टेशन पर 70 साल की महिला मुमतारा देवी ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "खिड़किया घाट पर हमारी झोपड़पट्टी के साथ हम उजाड़ दिए गए, पर घर नहीं मिला। उस वक्त ऐसा दौर था कि एक तरफ सिर छिपाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही थी तो दूसरी तरफ कोरोना महामारी से उपजे लाकडाउन में भोजन के लिए। हम सभी को लाकडाउन से पहले ही खिड़किया घाट से खदेड़ दिया गया। तब से जहां-तहां भटक रहे हैं। करीब ढाई साल से परेशान हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। अब तो विधवा पेंशन के भी लाले पड़ गए हैं। "

कुछ इसी तरह की शिकायत लाश ढोने वाले युवक राधे साहनी को भी है। वह कहते हैं, "सरकार को हमारे जीवन और आजीविका की परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री बनारस रहे हैं। अगर हमें कहीं घूमते देख लिया गया तो हमारे साथ मारपीट की जाएगी। सरकारी मुलाजिम हमें हटा देना चाहते हैं, लेकिन कोई यह तो बताएं कि कहां जाना है? "

राधे साहनी

काशी रेलवे स्टेशन के बाहर सालों से झुग्गियों में रहने वाली 40 वर्षीया मंजू देवी योगी सरकार के बुल्डोजर से डरी हुई हैं। सरकार ने इस रेलवे स्टेशन का कायकल्प करने की योजना बनाई है। सब्जी बेचकर परिवार को पालने वाली मंजू कहती हैं, "बगैर नोटिस और स्थायी ठौर दिए बगैर हमें किसी दिन उजाड़ा जा सकता है। फिर हम कहां जाएंगे? हम मोदी को ही वोट देते आ रहे हैं, लेकिन हमारी मुश्किलें उस समय शायद नहीं देखी जाएंगी जब खिड़किया घाट की तरह हमारी झोपड़पट्टी पर बुल्डोजर चलना शुरू होगा।"  

कुछ इसी तरह की चिंता 40 वर्षीया नाजिमा को भी है, जिसका विकलांग पति दो बच्चों के साथ जिंदगी की जंग लड़ रहा है। 35 वर्षीया फरहाना का विकलांग पति भी आटो चलाता है, जिससे उसके पांच बच्चे पलते हैं। 15 वर्षीया लाजो का कोई अपना नहीं है। उसके मां-पिता का देहांत हो चुका है। कूड़ा बीनकर वह बस किसी तरह जिंदा है। 30 वर्षीया गीता भी अपनी मां के साथ कूड़ा बीनती हैं। पति जोगेंद्र रिक्शा चलाते हैं। खिड़किया घाट के बदनसीब लोगों की तरह इन्हें भी विकास का नाम पर उजाड़े जाने का खौफ सता रहा है।

काशी रेलवे स्टेशन की यह झोपड़पट्टी भी है नए विकास के निशाने पर

नश्तर की तरह चुभता है जख्म

खिड़किया घाट से उजड़े गए लोगों के हक की आवाज उठाने और उन्हें संबल देने वाले एक्टिविस्ट सौरभ सिंह विस्थापित परिवारों को खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना से होने वाली मुश्किलों को लेकर सरकार के कई दफ्तरों में गए। रविंद्रपुरी स्थित पीएम के संसदीय दफ्तर में भी अर्जी दी,   लेकिन उनकी सारी कोशिशे बेकार साबित हुईं। अफसरों ने सरकार के पास लिखकर भेज दिया है कि खिड़किया घाट से उजड़े गए गरीबों के विस्थापन की समस्या दूर की जा चुकी है। नंगा सच यह है कि विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए आज तक कोई सार्थक कदम नहीं उठाया गया है। सौरभ कहते हैं, "सरकारी महकमे के कुछ अफसर अब हमें भी बेइज्जत करते हैं। यहां तक कह देते हैं कि फटेहाल लोगों के लिए क्यों रोज चले आते हो। बनारस में पांच लाख लोग सड़क के किनारे रहते हैं। हर किसी को छत दे पाना संभव नहीं है। इतना ही नहीं, कुछ प्रशासनिक अफसरतो खिड़किया घाट से उजाड़े गए लोगों से दूर ही रहने की नसीहत देते हैं।"  

सौरभ यह भी कहते हैं, "खिड़किया घाट के विस्थापितों का जख्म बहुत गहरा है। सरकार इनकी इसलिए नहीं सुन रही है क्योंकि अफसरों का मानना है कि खिड़किया घाट पर रहने वाले फटेहाल लोग जबरिया कब्जा जमाए बैठे थे। ऐसे में वो पुनर्वास कार्यक्रम के लाभार्थी नहीं हो सकते। खिड़किया घाट से उजड़े गए 20 परिवारों को बजरडीहा इलाके में एक रैनबसेरा तैयार कर ठहरा दिया गया, मगर 80 परिवारों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। पुनर्वासित परिवारों को भी ज्यादा दिन रैनबसेरे में रहने की इजाज़त नहीं है।"

एक्टिविस्ट सौरभ सिंह को लगता है कि पीएम और सीएम को गुमराह किया गया है। वह कहते हैं, " हम हारे नहीं हैं। खिड़किया घाट से विस्थापित  लोगों को स्थायी ठौर दिलाने के लिए लड़ाई नहीं छोड़ी है। हालांकि मोदी सरकार से हमें कोई उम्मीद नहीं है, फिर भी मुहिम जारी है। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन है कि किसी भी गरीबों को उजाड़े जाने से पहले उन्हें पुनर्वासित किया जाए। सिर्फ छत ही नहीं, उन्हें सभी जरूरी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएं। दुर्योग है कि बनारस में गरीबों की सुनने वाला कोई नहीं है। पीएम मोदी जब भी बनारस आते हैं हम पत्राचार और ट्वीट तेज कर देते हैं। इससे ज्यादा हम कर भी क्या सकते हैं? निराशा जरूर हैं, लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी है। दुख इस बात का है कि खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना की कीमत उन इंसानों को चुकानी पड़ रही है जिनकी जिंदगी में कोई रंग नहीं है। सिर्फ निजी फंड से चलने वाली बुनियादी ढांचों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ही ध्यान देने की भाजपा की नीति ने गरीब तबके के एक बड़े हिस्से और उसकी रोजी-रोटी के मसले को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। मेहनत-मजदूरी कर कमाने-खाने वाले लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति और बदतर ही हुई है, वह तो अपने जन प्रतिनिधियों के उदासीन रवैये से भी बेहद दुखी हैं।"

विकास की कीमत चुका रहे बनारसी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आमजन की हर तरह की तकलीफों की झलक सिर्फ खिड़किया घाट ही नहीं, दशाश्वमेध घाट पर भी मिलती है। विश्वनाथ कॉरिडोर बनाने के लिए सरकार ने दो सौ से अधिक छोटे-बड़े मंदिरों और ढेरों उन हेरिटेज इमारतों को ध्वस्त कर दिया गया, जिसमें बहुत से पुस्तकालय, मठ और दुकानें हुआ करती थीं। बहुत से पुजारी इन छोटे मंदिरों पर ही निर्भर थे, बहुत से लोग उन दुकानों के सहारे थे, जिन्हें सरकारी बुलडोज़रों ने कुचल दिया।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "हमें उम्मीद थी कि सरकार उजाड़े गए उन सभी लोगों को काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में कोई न कोई रोजगार जरूर दे देगी, लेकिन उसने तो काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का पूरा प्रबंधन ही अंतरराष्ट्रीय कंसल्टेंसी कंपनी अर्नस्ट एंड यंग को सौंप दिया जिसने अपने अलग ही नियम-कानून बना रखे हैं।"

"काशी-विश्वनाथ मंदिर परिसर के भीतर काम करने सफाई कर्मी अक्सर अनियमित वेतन और काम के भारी दबाव को लेकर शिकायत करते हैं। हर रोज करीब 10 घंटे काम के एवज में तय आठ हजार रुपये की पगार भी उन्हें समय से नहीं मिलती है। यूपी में कामगार तबकों को ऐसा महसूस हो रहा है कि उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं को भाजपा के ‘विकास’ के सपनों के पैरों तले रौंदा जा रहा है। भाजपा का ये सपना पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ उद्योग जगत के बुनियादी ढांचे के सुधार पर केंद्रित है। लगता है कि सरकार ने तात्कालिक मुद्दों के प्रति अपनी आंखें ही मूंद ली हैं।"

बनारस के जाने-माने एक्टिविस्ट डा.लेनिन कहते हैं, "अगर बनारस में विकास की रफ्तार अगर तेज़ हुई है तो उसने दौलत की कभी ना पूरी की जा सकने वाली भूख को भी पैदा किया है। ऐसी भूख जिसमें कारोबारी कुशलता कम, किफायत के आधार पर पैसा बनाने का लक्ष्य ज्यादा है। यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक गरीबों के लिए शहर की जिंदगी का स्तर गांव की जिंदगी से बदतर है और सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग बच्चों का है। रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय शहरों में करीब 50 बजार गंदी बस्तियां हैं, जिसमें रहने वाला तीन में एक व्यक्ति या तो नाले या रेल लाइन के किनारे रहता है। बनारस में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की हालत बेहद ख़राब है। ये बच्चे ख़ुरदरी बंज़र दीवारों के बीच क़ैद से हैं। उनके पास खिलौने के नाम पर ईंट-पत्थरों के अलावा कुछ भी नहीं है। "

खिड़किया घाट की झपड़पट्टी में रहने वाली इन महिलाओं का कोई पुरसाहाल नहीं

डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "खुले आसमान अथवा झुग्गियों में रहते हुए अभावग्रस्त जिंदगी जीने वाले बच्चे इसलिए भी गरीबी से उबर नहीं पा रहे, क्योंकि उनके दिमाग़ के अहम हिस्सों को सही स्टिमुलेशन नहीं मिलता। उनके दिमाग की तंत्रिकाएं सूख जाती हैं और उनका आईक्यू लेवल कम रह जाता है। साथ ही उनका दिमाग़ भी वक़्त से पहले बूढ़ा हो जाता है।  ग़रीबी की वजह से जो माहौल बनता है, दरअसल वो माहौल हमारी सोच पर असर डालता है। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह गरीबों के बच्चों की पढ़ाई, खान-पान और तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी संसाधन और मुहैया कराए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो गरीब तबके के लोग हमेशा कमअक़्ल रह जाएंगे और समाज पर बोझ बनेंगे। खिड़किया घाट जैसी झोपड़पट्टियों में रहने वालों का भला तभी होगा, जब उनके लिए तेजी से घर बनाए जाएं और उनके बच्चों को खेलने-पढ़ने की सुविधाएं मुहैया कराई जाएं। ग़रीबी मिटाने के लिए नई तेज़ी और नए जोश के साथ अभियान छेड़े जाएं।"

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest