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जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या एक असामान्य समाज की सामान्य घटना

संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास के सामान्य घटनाक्रम में डोनाल्ड ट्रंप एक अतिशयोक्ति भर नज़र आते हैं। अमेरिकी कुरूपता को वे अंतिम छोर तक ले जा चुके हैं जिसमें सेना को बुलाने से लेकर प्रदर्शनकारियों के सामूहिक डिटेंशन की क़ानूनी संभावना को चारों ओर सूंघते फिरना शामिल है। 
जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या

इस बात पर आश्चर्य प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि 25 मई 2020 को मिनेसोटा के मिनियापोलिस में जॉर्ज फ्लॉयड (46 वर्ष) की दिन-दहाड़े हत्या क्यों कर दी गई। उनकी मौत की पटकथा तो अमेरिकी इतिहास के बदसूरत ड्रामा की अतल गहराइयों में पहले से ही लिख दी गई थी।

मैं 2020 में सांस नहीं ले पा रहा हूं

पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन का घुटना आठ मिनट 46 सेकंड तक जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन पर टिका रहा। इतने समय में जॉर्ज फ्लॉयड की मौत हो चुकी थी। जिस क्षण से चाउविन ने अपने शरीर का वज़न एक निहत्थे इंसान के उपर डाला था तबसे जॉर्ज फ्लॉयड ने कुल ग्यारह बार कहा था - मैं सांस नहीं ले पा रहा।

मानव श्वसन प्रणाली पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मत है कि किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए तीस सेकंड से दो मिनट के बीच तक सांस रोक कर रख पाना संभव है, इससे थोड़ा भी अधिक समय होने पर निस्संदेह मौत हो सकती है।

मैं 2014 में भी सांस नहीं ले पा रहा था

एरिक गार्नर द्वारा सड़क पर हो रहे एक झगड़े को सुलझाने में मदद करने के कुछ ही मिनटों के भीतर ऑफिसर डैनियल पेंटालेओ ने गार्नर को न्यूयॉर्क सिटी के फुटपाथ पर पटक दिया था। पेंटालियो ने गार्नर के चेहरे को फुटपाथ पर दबा रखा था और गार्नर ने कुल ग्यारह बार कहा था - मैं सांस नहीं ले पा रहा।

गार्नर बेहोशी की हालत में पहुंच चुका था, रास्ते में एम्बुलेंस में उसे किसी प्रकार की चिकित्सा सुविधा मुहैया नहीं की गई थी, नतीजतन अस्पताल पहुंचने के तुरंत बाद ही उसे मृत घोषित कर दिया गया था। उसकी मौत गला घोंटने से हुई थी।

हताशा का आलम

फ्लॉयड और गार्नर दोनों ही अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के थे और ये दोनों ही लोग कठोर आर्थिक परिस्थितियों में अपनी जिंदगी की गाड़ी को किसी तरह खींच पाने की जद्दोजहद में जुटे हुए थे।

जॉर्ज फ्लॉयड की मौत पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के प्रमुख मिशेल बाचेलेट की ओर से बेहद कड़ा बयान आया है: “अमेरिकी पुलिस के अधिकारियों और लोगों के एक वर्ग द्वारा निहत्थे अफ़्रीकी -अमेरिकी मूल के लोगों की हत्याओं की एक लंबी कतार में यह एक नवीनतम घटना मात्र है। मैं जॉर्ज फ्लॉयड का नाम ब्रेओंना टेलर, एरिक गार्नर, माइकल ब्राउन और कई अन्य निहत्थे अफ्रीकी-अमेरिकियों के नाम के साथ जोड़ने से हताश हूं, जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान पुलिस के हाथों मारे गए हैं। इसके साथ ही अहमुद अर्बेरी और ट्रेवोन मार्टिन जैसे लोग हैं जिन्हें हथियारबंद लोगों के एक वर्ग ने मार डाला था।”

संयुक्त राज्य अमेरिका में हर साल पुलिस के हाथों एक हजार से अधिक लोगों की मौत होती है। गोरों की तुलना में पुलिस के हाथों मारे जाने वालों में अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के लोगों की संख्या तीन गुना अधिक है, और इस बात की संभावना कहीं ज़्यादा है कि पुलिस के हाथों मारे जाने वाले अफ्रीकी-अमेरिकी लोग गोरों की तुलना में निहत्थे हों। इनमें से ज़्यादातर हत्याएं गंभीर अपराधों से नहीं जुड़ी होती हैं। सबसे चौंकाने वाली सच्चाई ये हैं कि 99 प्रतिशत अधिकारियों पर जिनके हाथों किसी नागरिक की हत्या हुई है उनपर अपराध का कोई आरोप नहीं लगाया गया है।

स्थायी अवसाद

कवि लैंगस्टन ह्यूगेस ने 1930 के दशक में लिखा था "अवसाद हर किसी को कमतर महसूस कराया।" अफ्रीकी अमेरिकियों के लिए यह भिन्न था क्योंकि उनके लिए "ऐसा महसूस कराने के लिए कुछ भी नहीं है।"

जिस तरह गार्नर पर सड़कों पर खुला सिगरेट बेचने का आरोप थोपा गया था, जिसमें कुछ डॉलर कमाने के लिए एक्साइज शुल्क क़ानून का उल्लंघन करने का आरोप था; उसी तरह फ्लॉयड पर 20 डॉलर के नकली नोट के इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया था। एक बार मान भी लेते हैं कि ये आरोप साबित भी हो जाते हैं, तो भी इन अपराधों से भूचाल नहीं आ जाता। यदि अदालतों में इन मामलों पर केस चलते भी तो इन लोगों को इन अपराधों के लिए मौत की सजा तो नहीं ही मिलने जा रही थी। मामूली उल्लंघन के आरोप में वे मार दिए गए।

जब ह्यूगेस ने इन शब्दों को लिखा था तो 16 वर्षीय एफ्रो-प्यूर्टो रिकन लड़के लिनो रिवेरा को 10-सेंट की क़ीमत वाले जेब के चाक़ू चुराने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। जब पुलिस उसे गिरफ़्तार करने पहुंची थी तो वहां पर भीड़ जमा हो गई थी और चारों तरफ अफवाह फैल गई कि उसकी मौत हो चुकी है, नतीजतन हर्लेम में गुस्सा भड़क उठा था। एक सरकारी रिपोर्ट ने बाद में दिखाया कि “स्वतःस्फूर्त” विरोध प्रदर्शन हुए थे और रोष की वजह "रोज़गार के मामले में अन्याय और भेदभावपूर्ण बर्ताव, पुलिस की ओर से आक्रामकता और नस्लीय आधार पर भेद भाव इसके मुख्य वजहें पाई गईं थीं।" ऐसी ही रिपोर्ट पिछले सप्ताह भी लिखी जा सकती थी। यह स्थायी डिप्रेशन की स्थिति को दर्शाता है।

व्यवस्था में सुधार करना संभव नहीं

ऐतिहासिक तौर पर देखें तो पुलिसिया आक्रामकता किसी भी असंतोष से पहले होते देखी जा सकती है। 1967 के दौरान डेट्रायट में छाई अशांति ने अमेरिकी सरकार को उन कारणों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया, जिनके बारे में यह माना जाता रहा था कि इसके पीछे कम्युनिस्टों और भड़काऊ प्रेस की भूमिका रही होगी। नेशनल एडवाइजरी कमीशन ऑन सिविल डिजऑर्डर्स (द कर्नर कमीशन) के अनुसार ये दंगे "न ही किसी संगठित योजना की वजह से भड़के थे और न ही किसी ‘साजिश’ के परिणामस्वरुप भड़के थे।"

कर्नर कमीशन के अनुसार अशांति की वजह संरचनात्मक नस्लवाद थी। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, "यह चीज़ जिसे गोरे अमेरिकी कभी भी पूरी तरह से समझ नहीं सके हैं" रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, “वह यह कि गोरे लोगों का समाज घेटो (वर्ग विशेष के लोगों की बस्ती) में बुरी तरह से उलझा हुआ है। श्वेत संस्थानों ने इसे पैदा किया है, श्वेत संस्थान ही इसको क़ायम रखे हुए हैं और श्वेत समाज ही इसे होने दे रही है।” "घेटो" से रिपोर्ट के लेखकों का आशय था संयुक्त राज्य अमेरिका में गुलामी के इतिहास की जो अत्याचारी वर्ग असमानताएं थीं- वे नस्लीय आधार पर चिह्नित कर दी गई थीं।

समाज में फैले गहरे ग़ैर-बराबरी की चुनौतियों से निपटने के बजाय अमेरिकी सरकार ने अपने पुलिस प्रशासन को हथियारों से लैस करने के विकल्प को चुना और अपने ख़तरनाक हथियारों के साथ उन्हें उन संकट के क्षणों में लोगों को अनुशासित करने के लिए भेजने का काम किया। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में इसके बजाय इस बात को पेश किया "एक ऐसी नीति जो घेटो समृधिकरण के एकीकरण को बढ़ावा देने वाले प्रोग्राम को डिज़ाइन करने को प्रोत्साहित करती हो...उस समाज के साथ जो घेटो से बाहर मौजूद है।"

उस रिपोर्ट का कोई नतीजा नहीं निकल सका क्योंकि पिछले 150 वर्षों के दौरान तैयार की गई किसी भी रिपोर्ट का कोई नतीजा नहीं आ सका है। लोगों के कल्याण पर वास्तविक तौर पर ख़र्च करने के बजाय हर अमेरिकी सरकार ने- चाहे रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट्स का शासन रहा हो, इसने सामाजिक कार्यक्रमों और जन कल्याणकारी कार्यों पर ख़र्च में कटौती को ही तरजीह दी है। इन सरकारों ने कंपनियों को मज़दूरी में कटौती करने और मज़दूरों के काम की स्थितियों को दयनीय बनाते जाने की अनुमति प्रदान की है। 1968 में जो कुछ भयानक था, वह आज के दिन में मज़दूर वर्ग के काले लोगों के लिए और भी बदतर हो चुका है।

2008 के वित्तीय संकट ने अफ्रीकी-अमेरिकी परिवारों की उस बचत को चुराने का काम किया था, जिसे उन्होंने अपनी पीढ़ियों की मेहनत से जमा कर रखा था। 2013 तक की प्यू रिसर्च में पाया गया कि गोरे परिवारों की कुल परिसंपत्तियां अफ्रीकी-अमेरिकी परिवारों से 13 गुना अधिक थी। 1989 के बाद से यह इस प्रकार का सबसे बड़ा अंतर था और यह खाई अब और अधिक चौड़ी ही हो रही है। अब जबकि इस वैश्विक महामारी ने ख़ास तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका को सर्वाधिक आघात पहुंचाया है तो ऐसे में आंकड़े दर्शाते हैं कि इस बीमारी ने अफ्रीकी-अमेरिकियों और अन्य रंग के लोगों को ही सबसे अधिक अपनी चपेट में ले रखा है। इसके पीछे की एक मुख्य वजह यह है कि ये अफ्रीकी-अमेरिकी और अन्य वर्ण के लोग ही हैं जिनके ज़िम्मे मुख्यतया सबसे जोखिम वाले अग्रिम मोर्चों पर कामकाज है।

यदि एरिक गार्नर और जॉर्ज फ्लॉयड को किसी ठीक-ठाक काम के बदले में 25 डॉलर वाली न्यूनतम मज़दूरी मिल रही होती तो क्या उन्हें ऐसी परिस्थितियों में रहने की आवश्यकता पड़ती जिसमें मारपीट को बेचैन पुलिस अधिकारी को उन पर खुला सिगरेट बेचने या नकली नोट चलाने जैसे आरोप लगाने के मौके मिल पाते?

वे सामान्य हैं

संयुक्त राज्य अमेरिका का समाज विषम आर्थिक असमानता, भारी संख्या में ग़रीबी, एक अभेद्य शैक्षणिक व्यवस्था में प्रवेश की न के बराबर गुंजाइश और जनसंख्या को क़ाबू में रखने के लिए उल्लेखनीय तौर पर युद्ध जैसी स्थिति के तंत्र की तैनाती जिसमें लोगों को नागरिक के तौर पर देखने के बजाय अपराधियों के तौर पर देखा जाता है।

ऐसी प्रक्रियाएं किसी सभ्यता में जंग लगाने का काम करती हैं। माइकल ब्राउन, सैंड्रा ब्लैंड, एरिक गार्नर, तामीर राइस… और अब जॉर्ज फ्लॉयड वर्तमान क्षण में सिर्फ वे नाम हैं जिन नामों को समूचे संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्डबोर्ड की संकेत पट्टिकाओं में मोटी स्याही में लिखा जा रहा है जिसे हाथों में लेकर कई-कई विरोध प्रदर्शनों का क्रम जारी हैं। इन विरोध प्रदर्शनों में गहरी निराशा का भाव झलकता है और साथ ही व्यवस्था को लेकर आक्रोश भी नजर आता है। लेकिन इस गुस्से को कम करने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता।

संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास के सामान्य घटनाक्रम में डोनाल्ड ट्रंप एक अतिशयोक्ति भर नजर आते हैं। अमेरिकी कुरूपता को वे अंतिम छोर तक ले जा चुके हैं जिसमें सेना को बुलाने से लेकर प्रदर्शनकारियों के सामूहिक डिटेंशन की क़ानूनी संभावना को चारों ओर सूंघते फिरना शामिल है। उनकी हिंसा की राजनीति है। लेकिन इसे लंबे समय तक क़ायम नहीं रखा जा सकता। समूची आबादी की न्याय की आकांक्षा का गला घोंट पाना मुश्किल है।

जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, उस बीच संयुक्त राज्य अमेरिका के किसी छोर पर कोई अन्य इंसान की हत्या की जा रही होगी- एक और ग़रीब इंसान जिसे पुलिस क़ानून-व्यवस्था के लिए ख़तरा मान रही होगी। कल किसी और को मारा जाएगा और फिर किसी और को। व्यवस्था के लिए ये मौतें सामान्य हैं। लेकिन इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ उमड़ता आक्रोश भी उसी की एक तार्किक और नैतिक प्रतिक्रिया है।

विजय प्रसाद भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वे इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की परियोजना, ग्लोबट्रॉट्टर में एक फेलो लेखक और मुख्य संवाददाता हैं। प्रसाद लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं। वे बीस से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें द डार्कर नेशंस और द पुअरर नेशंस शामिल हैं। प्रसाद की नवीनतम पुस्तक वाशिंगटन बुल्लेट्स है, जिसकी प्रस्तावना ईवो मोरालेस आयमा द्वारा लिखी गई है।

इस लेख को ग्लोबेट्रोटेर द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट का एक प्रोजेक्ट है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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