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भारत-सऊदी संबंधों में मिथक और वास्तविकता

भारतीय विश्लेषकों को कई बार ऐसा महसूस होता है कि जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर जाएँ तो उस विदेश यात्रा के चाहे जो भी परिणाम निकलें, उन्हें अपनी ओर से उसकी भूरि भूरि प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। सऊदी अरब की हालिया यात्रा भी इस लिहाज़ से इसका अपवाद नहीं रही, क्योंकि यहाँ भी विश्लेषक स्तुतिगान लिखने की होड़ में एक दूसरे पर गिरते नज़र आए।
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भारतीय विश्लेषकों ने ऐसा लगता है कि मन बना लिया है कि जब भी कभी प्रधानमंत्री विदेशी दौरे पर जाएँ, तो इस बात से कोई फ़र्क़ पड़े बग़ैर कि उस यात्रा का क्या जमा हासिल है, उन्हें बस उनकी प्रशंसा के लिए कुछ न कुछ करना चाहिए। सऊदी अरब की हालिया यात्रा भी इसका अपवाद नहीं रही, क्योंकि यहाँ भी विश्लेषक स्तुतिगान लिखने के चक्कर में एक दूसरे के उपर गिरते नज़र आए।

जबकि सच्चाई यह है कि पिछले डेढ़ दशक से - जब से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनवरी 2006 में दिवंगत किंग अब्दुल्ला को गणतंत्र दिवस समारोह की राजकीय यात्रा पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था– तब से भारत-सऊदी अरब सम्बन्ध वैसे हो गए हैं जैसे अंग्रेज़ी कवि जॉन कीट्स की कविता Ode on a Grecian Urn के प्रेमियों की तरह झलक पड़ती है: ओ मेरे साहसिक प्रेमी, कभी नहीं, कभी नहीं क्या तू चुंबन, / हालाँकि अभी तक लक्ष्य के नज़दीक जीत है, शोक न कर / वह फीका नहीं पड़ सकता है, हालाँकि तू ने अपना आनंद नहीं बढ़ाया है, / क्योंकि तू ने हमेशा प्यार किया है, और वह निष्पक्ष बना रहे!

यह जुनून तो अपने आप में स्पष्ट है, लेकिन इसका अंत अभी भी भटकाने वाला बना हुआ है। भारतीय विश्लेषकों द्वारा मोदी की सऊदी अरब की यात्रा को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने की प्रवत्ति एक तरह के deja  vu की तरह उबाऊ प्रतीत होने लगती है।

जबकि असल में, यह आमंत्रण मोदी जी को रियाद में एक अंतर्राष्ट्रीय निवेश सम्मेलन को संबोधित करने को लेकर था जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और मौक़े को भारत-सऊदी आर्थिक संबंधों में प्रगाढ़ता लाने के लिए एक और बार ज़ोर देने के रूप में हाथों हाथ लिया।

फ़रवरी में अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने यह वादा किया था कि सऊदी अरब आने वाले दो वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 100 अरब डॉलर का निवेश करेगा। जबकि आधा समय बीतने के क़रीब है।

44 बिलियन डॉलर की विशालकाय रिफ़ाइनरी और पेट्रोकेमिकल परियोजना जो मूलरूप से महाराष्ट्र के रत्नागिरी में स्थापित की जाने की योजना थी, जिसमें सऊदी के अरामको को निवेश करना था, के बारे में कुछ सुनने को नहीं मिल रहा है।

याद करें, अगस्त माह में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने भविष्यवाणी की थी कि सऊदी अरामको कम्पनी 15 बिलियन डॉलर के बदले उनकी कंपनी में अपनी 20% हिस्सेदारी लेने जा रही है। हो सकता है कि पीएम की इस सऊदी अरब की यात्रा का मुख्य उद्देश्य, सऊदी अरामको को इसी बहाने कुहनी मार टटोलने के लिए रहा हो।

अंतिम विश्लेषण में, भारत-सऊदी संबंध दो प्रमुख ढांचों पर निर्भर करते हैं - सऊदी अरब में मौजूद 40 लाख भारतीय प्रवासी समुदाय की मज़बूत उपस्थिति और उनके द्वारा देश में भेजी जाने वाली रकम जो एक बड़ी बजटीय मदद पहुँचाती है और दूसरा कारक यह है कि तेल के आयात की भारत को बेहद ज़रूरत है। बेशक, ये दोनों ढांचे ही अकेले इस रिश्ते को बेहद अहम बना देते हैं।

इसके बाद के आने वाली भारतीय सरकार के ज़ेहन में भी यह बात घर कर गई। याद कीजिये 2006 में किंग अब्दुल्ला की भारत यात्रा के दौरान जारी किया गया दिल्ली उद्घोषणा? या रियाद घोषणा: 2010 में मनमोहन सिंह की सऊदी अरब की आधिकारिक यात्रा के दौरान जारी रणनीतिक साझेदारी से एक नए युग की शुरुआत? किसी भी अन्य भारतीय पीएम ने मनमोहन सिंह की तरह सऊदी अरब के साथ रणनीतिक साझेदारी पर इतना ध्यान केन्द्रित नहीं किया। किंग अब्दुल्ला को गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में दो-दो बार भारत आमंत्रित किया गया।

मौलिक अर्थों में कहें तो मोदी सरकार ने भारत-सऊदी संबंधों में अपनी तरफ़ से कोई अतिरिक्त पहल नहीं की है। पिछले हफ़्ते मोदी की यात्रा के बाद जारी किया गया संयुक्त बयान काफ़ी हद तक उसी बात को दोहरा रहा है जैसा कि अतीत में इसी तरह के दस्तावेज़ कहते आए हैं।

भारत के साथ संबंधों के मामले में सऊदी की स्थिति ड्राइविंग सीट पर बैठकर दिशा संचालन की है; वही इसके दिशा संचालक यंत्र को निर्धारित कर रहा है और इसकी रफ़्तार क्या होगी को जांच-परख कर सेट कर रहा है। शायद, मोदी जी का योगदान इस बात में है कि उनकी सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों के बावजूद वे रिश्तों को टूटने से बचाए रखें। लेकिन अगर देखें तो इसका श्रेय सऊदी शासन को भी मिलना चाहिए, जिसका धर्म और राजनीति के मामले में दोहरी-बयानबाज़ी करने में कोई जवाब नहीं।

दरअसल, हरे-हरे नोटों के प्रति सहज खिंचाव मोदी सरकार के लिए सऊदी अरब को अपना एक चहेता पार्टनर बना देने के लिए काफ़ी है। अगर इसके ज़रिये सऊदी अरामको को रिलायंस में 15 बिलियन डॉलर का निवेश करने के लिए मना लिया जाए या अगर मरणासन्न स्थिति में पड़ी रत्नागिरी परियोजना चालू हो जाए, तो हर्ज क्या है?

लेकिन कई बार ज़बरदस्ती हाइप देने से ज़मीनी हक़ीक़त दिखनी बंद हो जाती है, जिससे ग़लत धारणाओं को बल मिलने लगता है। मोदी की प्रशंसा में बेचैन भारतीय विश्लेषक एक बेहद आश्चर्यचकित कर देने वाले निष्कर्ष पर पँहुच जाते हैं जब वे कहते हैं कि रियाद ने कश्मीर मुद्दे पर 'सकारात्मक रुख' अपनाया है और पाकिस्तान को आगाह किया है कि वह संकट को और आगे बढ़ाने की अपनी भूमिका से ख़ुद को दूर रखे।

इस तरह की सपाट बयानबाज़ी वाले निष्कर्षों से, जिसमें ठोस अनुभवजन्य साक्ष्य की कमी नज़र आती है, हमारे लिए अहितकर हैं। हमें पता ही नहीं है कि कश्मीर को लेकर सऊदी और पाकिस्तानी नेताओं के बीच क्या खिचड़ी पक रही है। ज़ाहिर है, मोदी की सऊदी अरब की यात्राओं से पाकिस्तान पर प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।

इसी प्रकार, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के संबंध में अपनी मान्यता को लेकर भारत और सऊदी अरब एक ही धरातल पर खड़े होने का दावा करते हैं। लेकिन यह समझ सऊदी अरब के बारे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रचलित मान्यता के ख़िलाफ़ जाती है। और इस बात की पुष्टि अमेरिकी महिला कांग्रेस सदस्य और डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की दावेदार तुलसी गबार्ड ने सोमवार को फॉक्स न्यूज़ से सऊदी अरब के आतंकवाद को सक्रिय समर्थन देने के संदर्भ में अपने बयान में भी की है:

"वे हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की अवहेलना कर रहे हैं ... वे इस वहाबी चरमपंथी विचारधारा को दुनिया भर में निर्यात करने वाले देशों में पहले स्थान पर हैं। पूरी दुनिया में अल क़ायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकवादियों को रिक्रूट करने के लिए वे उपजाऊ ज़मीन तैयार करने का काम कर रहे हैं। वे सीधे यमन, और सीरिया जैसी जगहों पर अल क़ायदा को हथियार और सहायता प्रदान कर रहे हैं।”

गैबार्ड ने इस बात पर खेद जताया कि 9/11 के हमलों में सऊदी का हाथ होने के बारे में अमेरिका "सच को छुपा रहा है।" उसी सऊदी का हाथ थामकर, भारत ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई को धूल में मिला दिया है।

लब्बोलुआब यह है कि तेल के मामले में सऊदी अरब से भारत को कोई रियायत नहीं मिलती है। हम सिर्फ़ यही उम्मीद करते हैं कि सऊदी से यह आपूर्ति सुनिश्चित हो। सऊदी अरब, भारत को अपने तेल निर्यात के मामले में भारतीय बाज़ार की मध्यम और दीर्घकालिक संभावनाओं के प्रति जागरुक है। आज चुनौती यह है कि इस ख़रीदने-बेचने वाले संबंध को एक गहरे रिश्ते में बदलने के लिए निवेश, औद्योगिक सहयोग और अन्य सहायक गतिविधियों में तब्दील किया जाए। वास्तव में देखें तो अभी भी इस मामले में ज़मीन पर हम शून्य हैं।

मोदी जैसे ही दिल्ली लौटे, रियाद ने अपने बहुप्रतीक्षित एजेंडा, राज्य द्वारा संचालित सऊदी अरामको को सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध करने की औपचारिक पेशकश शुरू कर दी है। फ़र्म के पास फ़िलहाल इसे विदेशी शेयर बाज़ार में लिस्ट कराने की कोई योजना नहीं है। सऊदी को आशा है कि बिकवाली से क्राउन प्रिंस के आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने और बेरोज़गारी से निपटने की योजना में मदद मिलेगी जो कि फ़िलहाल 10 प्रतिशत से अधिक है।

अरामको स्टॉक के लिए मूल्य निर्धारण 17 नवंबर से शुरू होगा, और अंतिम मूल्य 4 दिसंबर को निर्धारित किये जायेंगे, और 11 दिसंबर से इसकी बाक़ायदा ट्रेडिंग शुरू हो जाएगी। इस बीच, सच्चाई सच यह है कि रिलायंस को हाथ बांधें अपनी उम्मीदों पर टकटकी लगाए रखनी पड़ सकती है और 'रत्नागिरी' वाला मामला अँधेरी सुरंग में चला गया लगता है।

सउदी आज भारत में निवेश के माहौल को लेकर उत्साहित महसूस नहीं कर सकता है, और फ़िलहाल उसकी प्राथमिकता अपने ख़ुद के आर्थिक संकट से निपटने के लिए होगी।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Myths and Reality in Saudi-India Relations

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