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ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक

हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
Modi
फ़ोटो- Narendra Modi Twitter

अजित डोभाल का दावा और हक़ीक़त

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग के निजी रिश्ते बेहद घनिष्ठ हैं। उनका यह भी दावा है कि दोनों नेताओं के अच्छे निजी रिश्तों की वजह से ही पिछले आठ वर्षों के दौरान भारत और चीन के बीच कई विवाद आसानी से सुलझा लिए गए हैं। बतौर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 20 साल के कामकाज पर आई एक किताब 'मोदी@20: ड्रीम्स मीट डिलीवरी’ में डोभाल ने इन बातों का जिक्र किया है। यह किताब कई लोगों के लेखों का संकलन है, जिसका पिछले सप्ताह विमोचन हुआ है। गृह मंत्री अमित शाह ने इस किताब को आधुनिक गीता बताया है। बहरहाल किताब के मुताबिक अजित डोभाल का कहना है कि 2014 में शी जिनफिंग की भारत यात्रा के समय प्रधानमंत्री ने उनसे बात करके चुमार विवाद सुलझाया था। डोभाल के मुताबिक 2017 में जर्मनी में हुई जी-20 देशों की बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अलग से शी जिनफिंग से बात की थी, जिसके बाद डोकलाम विवाद सुलझाने मे मदद मिली।अब सवाल है कि जब दोनों नेताओं के इतने अच्छे संबंध हैं, जिसकी वजह से 2014 में चुमार विवाद का निबटारा हो गया था तो फिर 2017 में डोकलाम विवाद क्यों हुआ? और अगर अच्छे निजी संबंधों की वजह से 2017 में डोकलाम विवाद सुलझा था तो 2020 में पूर्वी लद्दाख का सीमा विवाद और गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं के बीच हिंसक झड़पें क्यों हुईं? 

दरअसल दोनों देशों के बीच दशकों से सीमा विवाद जारी है अक्सर उभरता रहता है तो इसके पीछे चीन की विस्तारवादी नीतियां जिम्मेदार हैं। वह भारत को परेशान करते रहना चाहता है। इसी वजह से दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं और इसका सीधा मतलब यह है कि न तो निजी संबंध अच्छे हैं और न ही कूटनीति काम आ रही है।

नड्डा की बात पर कौन राजनयिक भरोसा करेगा?

गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले महीने भोपाल में अपनी पार्टी के नेताओं की बैठक में कहा था कि केंद्र सरकार आने वाले कुछ समय समान नागरिक संहिता भी लागू कर देगी। लेकिन भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पिछले दिनों 14 देशों के राजदूतों और उच्चायुक्तों के साथ एक बैठक में कहा कि समान नागरिक संहिता भाजपा के एजेंडा में नहीं है। 14 देशों के ये राजनयिक 'भाजपा को जानें’ कार्यक्रम के तहत भाजपा मुख्यालय गए थे, जहां पार्टी अध्यक्ष और अन्य नेताओं ने उन्हें भाजपा के बारे में जानकारी दी। एक राजनयिक ने समान नागरिक संहिता को लेकर सवाल किया तो भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने कहा कि यह भाजपा के एजेंडा में नहीं है। लेकिन क्या सचमुच यह मुद्दा भाजपा के एजेंडा नहीं है? अगर नहीं है तो फिर कैसे भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में समान नागरिक संहिता लागू करने की कवायद चल रही है? फिर भाजपा अध्यक्ष के इनकार का क्या मतलब है? भाजपा की सरकारें और उसके नेता खुद ही समान नागरिक संहिता का इतना प्रचार कर रहे हैं तो कैसे किसी राजनयिक को नड्डा की बात पर यकीन आएगा?

विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने का सिलसिला

एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर के कारोबारियों, उद्योगपतियों और निवेशकों को 'मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत भारत में निवेश करने का न्योता देते रहते हैं और दूसरी ओर भारत में पहले से कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत छोड़ने का सिलसिला जारी है। नई कंपनियां भारत नहीं आ रही हैं लेकिन पहले से काम कर रहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत छोड़ने का सिलसिला थम नहीं रहा है। इसी सिलसिले में एक और बहुराष्ट्रीय कंपनी के देश छोड़ने का फैसला हो गया है।

जर्मनी की कंपनी होलकिम का भारतीय कारोबार अडानी समूह ने खरीद लिया है। ज्यूरिख स्थित इस कंपनी के पास अंबुजा सीमेंट में 63 फीसदी से ज्यादा और एसीसी सीमेंट में 53 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी थी, जिसे अडानी समूह ने करीब 82 हजार करोड़ रुपए में खरीदा है। इस सौदे के बाद अडानी समूह का देश के सीमेंट कारोबार के 23 फीसदी हिस्से पर कब्जा हो जाएगा, जो आगे चल कर एकाधिकार में बदल सकता है। लेकिन वह अलग चिंता का कारण है। इससे पहले एक दर्जन के करीब बड़ी कंपनियों ने भारत से अपना कारोबार समेट लिया है। दुनिया की सबसे बड़ी मोटर कंपनियों ने भारत में कारोबार बंद किया है। फोर्ड मोटर्स, जनरल मोटर्स, हार्ले डेविडसन, मैन ट्रक जैसी कंपनियों ने भारत में कारोबार बंद कर दिया है। संचार क्षेत्र की कंपनियों में हचिसन, इटिस्लैट आदि ने काम बंद किया तो फिडालिटी और सिटी बैंक जैसी वित्तीय कंपनियों ने भी भारत में अपना कारोबार समेट लिया। माना जा रहा है कि टैक्स के ढांचे से लेकर श्रम कानूनों और देश के हालात को देखते हुए कंपनियां भारत से कारोबार समेट रही हैं। अब दुनिया की कंपनियों की पहली पसंद बांग्लादेश, फिलीपींस, वियतनाम आदि देश बन गए हैं। कोरोना के बाद चीन से कारोबार समेटने वाली जापान और दूसरे देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बांग्लादेश में अपना कारोबार जमाया है।

नौ पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री और दो कांग्रेसी मुख्यमंत्री

देश में इस समय कांग्रेस के दो मुख्यमंत्री हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल। इनके अलावा कुछ और राज्यों में कांग्रेस सरकार में तो है लेकिन वहां मुख्यमंत्री कांग्रेस का नहीं है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस समय देश के नौ राज्यों में ऐसे नेता मुख्यमंत्री हैं, जो पहले कांग्रेस में रहे हैं। कांग्रेस छोड़ कर ये नेता भाजपा में गए या अपनी पार्टी बनाई और आज मुख्यमंत्री हैं। क्या यही कारण है कि कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ कर जा रहे है? अगर वर्तमान और पूर्व विधायकों-सांसदों को जोड़ें तो पार्टी छोड़ने वालों की बहुत बड़ी संख्या हो जाएगी। सबसे पहले बड़े राज्यों की बात करें तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पूर्व कांग्रेसी हैं। उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस बनाई और आज देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक राज्य की तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं। दूसरा बड़ा नाम तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव का है। उन्होंने भी ममता बनर्जी की तरह अपना राजनीतिक जीवन युवक कांग्रेस से शुरू किया था। उन्होंने बाद में अलग तेलंगाना राज्य का आंदोलन चलाया और तेलंगाना राष्ट्र समिति नाम से पार्टी बनाई। वे दूसरी बार इस नए राज्य के मुख्यमंत्री बने हैं। कांग्रेस से दूसरी पार्टी में जाकर मुख्यमंत्री बनने वालों में सबसे नया नाम त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा का है, जिनको भाजपा ने बिप्लव देब की जगह मुख्यमंत्री बनाया है। महज छह साल पहले तक वे कांग्रेस में थे। उन्हीं की तरह छह-सात साल पहले हिमंता बिस्वा सरमा भी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए थे। वे तरुण गोगोई की कांग्रेस सरकार मे मंत्री थे। कांग्रेस छोड़ने के बाद वे 2015 में असम की भाजपा सरकार मे मंत्री बने और 2021 में मुख्यमंत्री बना दिए गए। पूर्वोत्तर के बाकी पांच राज्यों में से तीन में पूर्व कांग्रेसी नेता मुख्यमंत्री हैं। मेघालय में एनपीपी के नेता कोनरेड संगमा, अरुणाचल में पेमा खांडू, मणिपुर में एन. बीरेन सिंह और नागालैंड में नेफ्यू रियो मुख्यमंत्री हैं। ये चारों मुख्यमंत्री भी पहले कांग्रेस में रह चुके हैं। उधर सुदूर दक्षिण के पुड्डुचेरी में एनआर रंगास्वामी मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने 2011 में कांग्रेस छोड़ कर अपनी पार्टी ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस बनाई थी। उससे पहले वे कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे थे। इस तरह देश में कुल नौ ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपनी राजनीति कांग्रेस से शुरू की थी या कांग्रेस में रहे थे। 

मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला जारी रहेगा

भाजपा ने पिछले एक साल में चार मुख्यमंत्री बदले हैं। पार्टी सूत्रों की मानें तो मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। इसलिए त्रिपुरा में बिप्लब देब को हटाए जाने के बाद से अटकल लगाई जाने लगी हैं कि अब किसकी बारी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई सबसे ज्यादा आशंकित हैं। उनके राज्य में अगले साल मई में विधानसभा का चुनाव होना है। उससे पहले उनके ऊपर बहुत दबाव है। पार्टी की एक मजबूत लॉबी, जिसे आरएसएस के एक बड़े नेता का समर्थन प्राप्त है, वह उनके पीछे पड़ी है। वे हाल में दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह से मिले और उसके बाद कहा कि कुछ भी हो सकता है। सो, कर्नाटक मे कुछ भी होने का इंतजार शुरू हो गया है। असल में भाजपा को उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने का फायदा हुआ है इसलिए उसने यह दांव त्रिपुरा में आजमाया है। पिछले साल भाजपा ने उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया और चार महीने में ही उनको भी हटाकर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया, जिनकी कमान में भाजपा लगातार दूसरी बार चुनाव जीत गई। इसी तरह पिछले साल असम चुनाव के बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री बदला और सर्बानंद सोनोवाल की जगह हिमंता बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाया था। गुजरात में भी इस साल के अंत में चुनाव है और उसकी तैयारियों के लिए पार्टी ने पिछले साल विजय रूपानी को हटा कर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया था।

त्रिपुरा में भाजपा के लिए मुश्किलें शुरू 

त्रिपुरा में भाजपा ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का 25 साल का राज खत्म किया था। यह बहुत बड़ी बात थी। लेकिन पांच साल पूरे होने से पहले ही वहां भाजपा की स्थिति बिगड़ने लगी है। मुख्यमंत्री बिप्लब देब को हटाना इसका एक संकेत है। लेकिन इसके अलावा भी पार्टी की स्थिति कमजोर हुई है। आदिवासियों के बीच पार्टी को लेकर नाराजगी बढ़ी है तो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए नेता वापस लौटने लगे हैं। राज्य सरकार में मंत्री रहे पूर्व कांग्रेसी नेता भाजपा छोड़ कर वापस कांग्रेस में लौट गए हैं। नए मुख्यमंत्री का पार्टी के अंदर ही विरोध शुरू हो गया है। भाजपा की सहयोगी इंडेजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा यानी आईपीएफटी में विभाजन की संभावना दिख रही है। पार्टी ने राज्य सरकार के भू राजस्व मंत्री एनसी देबबर्मा को अध्यक्ष चुना है, जिनका पूर्व अध्यक्ष मेवल कुमार जमातिया विरोध कर रहे हैं। आदिवासी मतदाताओं में इस पार्टी का अच्छा खासा असर है। उधर आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक दूसरा संगठन त्रिपुरा इंडिजेनस प्रोग्रेसिव रीजनल एलायंस की भी भाजपा से नाराजगी बढ़ी है। ध्यान रहे त्रिपुरा में 60 में से 20 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं और इसके अलावा 15 सीटों पर उनका अच्छा खासा असर है। सो, एक तरफ दलबदल कर आने वाले नेताओं की नाराजगी दूसरी ओर भाजपा और संघ के नेताओं के बीच आपसी खींचतान और तीसरे, आदिवासी समूहों की नए सिरे से गोलबंदी भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है।

कांग्रेस का शिविर-सम्मेलन कहां होना चाहिए?

कांग्रेस पार्टी की यह बात समझ से परे है कि वह अपने शिविर या अधिवेशन विपक्षी शासन वाले राज्यों में क्यों नहीं आयोजित करती है? उसके शिविर और अधिवेशन या तो दिल्ली में होते हैं या फिर उन राज्यों में जहां उसकी सरकार है। यह ठीक है कि अपने शासन वाले राज्यों में ऐसे आयोजन करने पर सुविधाएं जुटाने में आसानी हो जाती है और कार्यक्रम भव्य हो जाता है। लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी उन राज्यों में भी इस तरह के कार्यक्रम कर सकती है, जहां वह विपक्ष में है और पहले सरकार में रह चुकी है। लेकिन एकाध अपवाद को छोड़ कर कांग्रेस अपने शासन वाले राज्यों में ही शिविर और अधिवेशन करती है। कांग्रेस ने 1998 में पचमढ़ी में चिंतन शिविर आयोजित किया था, तब मध्य प्रदेश में उसकी ही सरकार थी। उसके बाद 2003 में उसने जब शिमला में चिंतन शिविर किया तब हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वाले थे और वहां कांग्रेस मजबूत विपक्षी पार्टी थी, लेकिन भाजपा की सरकार भी कांग्रेस के ही नेता सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस की मदद से बनी थी। फिर 2010 में कांग्रेस ने दिल्ली के बुराड़ी में बड़ा अधिवेशन किया था। तब केंद्र के साथ ही दिल्ली में भी कांग्रेस की सरकार थी। उसके बाद 2013 में उसका जयपुर में चिंतन शिविर हुआ तब भी राजस्थान में उसकी ही सरकार थी। इस बार पिछले दिनों उसने राजस्थान के ही उदयपुर में चिंतन शिविर किया तो अभी भी वहां उसकी ही सरकार है। बीच में कांग्रेस ने सिर्फ एक अधिवेशन दिल्ली में किया, जब वहां उसकी सरकार नहीं थी। इसके उलट भाजपा और वामपंथी पार्टियां अपने अधिवेशन अलग-अलग राज्यों में अधिवेशन करती रहती हैं। 

अब कैप्टन का क्या करेगी भाजपा?

भाजपा फिलहाल पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर खास ध्यान नही दे रही है। पंजाब विधानसभा का चुनाव कैप्टन की पंजाब लोकहित कांग्रेस और भाजपा मिल कर लड़े थे लेकिन दोनों के हाथ कुछ नहीं लगा। उसके बाद खबर आई थी कि भाजपा की प्रदेश इकाई ने उनसे पल्ला झाड़ लिया है और स्थानीय निकाय चुनाव और संगरूर लोकसभा सीट पर होने वाला उपचुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया है। इसके बावजूद कहा जा रहा है कि भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने अभी कैप्टन से उम्मीद नही छोड़ी है। भाजपा को अभी उनकी उपयोगिता दिख रही है। पंजाब में भगवंत मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार के सामने जिस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ रही हैं और लगातार खालिस्तान का मुद्दा उठ रहा है उसमें भाजपा को एक बड़े और मजबूत सिख चेहरे की जरूरत है। इसीलिए चर्चा है कि कैप्टन का कहीं पुनर्वास हो सकता है। उनकी उम्र को देखते हुए यह तो नहीं लगता है कि उन्हें सरकार में शामिल किया जाएगा लेकिन राज्यसभा की सीट उनको मिल सकती है। अगर राज्यसभा में नहीं भेजा जाता है तो कहीं का राज्यपाल बनाया जा सकता है। राज्यसभा का फैसला तो अगले एक हफ्ते में हो जाएगा। वे खुद भी इस प्रयास में लगे हैं कि इसी बार कहीं से उनको राज्यसभा की सदस्यता मिल जाए।

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