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‘प्रतीकात्मक’ महाकुंभ के बाद विरोधियों पर चलेगा ‘बुलडोजर’?

सवाल यह है कि क्या महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की पहल कर कोई त्याग किया गया है? इसे शुरू ही क्यों किया गया कोरोना संकट के दौर में?
‘प्रतीकात्मक’ महाकुंभ के बाद विरोधियों पर चलेगा ‘बुलडोजर’?
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

मुंबई के मेयर कह रहे हैं कि कुंभ से लौट रहे श्रद्धालु कोरोना ऐसे बांट रहे हैं जैसे प्रसाद। 17 दिन में दो करोड़ डुबकियां लगी हैं। इतने सारे लोग अगर कोरोना का प्रसाद बांट रहे हैं देश में, तो समझिए स्थिति कितनी गंभीर होने वाली है। 17 दिन बाद महाकुंभ प्रतीकात्मक होगा! क्या इस महाकुंभ से निकल रहा कोरोना का प्रसाद भी प्रतीकात्मक रह सकेगा?

जान बड़ी या आस्था? जवाब सटीक रहा। मगर, सवाल ही देर से पूछा गया। महाकुंभ के आयोजक, साधु-संत और इस पूरे आयोजन को सक्रिय सहयोग कर रही डबल इंजन की सरकारें 17 दिन तक क्यों इस सवाल से कतरा रही थी- जान बड़ी या आस्था?

लोक नहीं तो लोकतंत्र कैसे?

पश्चिम बंगाल में चुनावी महाकुंभ को लेकर अब भी सरकार, संवैधानिक संस्था और राजनीतिक दलों का रुख बदला नहीं है! लोकतंत्र में आस्था के नाम पर यहां जान जोखिम में डाली जा रही है। यह सोचने की जरूरत किन्हीं को दिखाई नहीं दे रही कि ‘लोक’ के बिना ‘लोकतंत्र’ कैसे संभव है!

जबसे प्रधानमंत्री ने साधु-संतों से बात कर महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने को कहा है तभी से नया नैरेटिव गढ़ा जाना शुरू हो चुका है- साधुओं से सीख लें। कोरोना से लड़ें। जब साधु महाकुंभ छोड़ सकते हैं तो आप क्या आंदोलन नहीं छोड़ सकते?

नमाज़ियों पर भी होगा ‘प्रतीकात्मक’ प्रयोग?

मस्जिदों में नमाज पढ़ने वालों से भी ऐसे ही सवाल पूछे जा सकते हैं। सत्ता के सामन कैमरे भी मनपसंद ‘मुजरा’ दिखा सकती है और हर शुक्रवार मस्जिद के सामने कैमरे लगा सकती है। तभी तो बताया जा सकेगा कि साधु कितने त्यागी हैं कि महाकुंभ छोड़ सकते हैं लेकिन दूसरे नहीं।

राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शनों को भी कोरोना के नाम पर दबाए जाने के वाकये सामने आ सकते हैं। किसान-मजदूर अब विरोध प्रदर्शन की ना सोचें। आगे लॉकडाउन की घोषणा हो तो पैदल चलना एक बार फिर सत्ता की नाफरमानी या फिर कोरोना नियमों का उल्लंघन होगा।

मेहनतकश वर्ग से भी कराया जाएगा ‘त्याग’?

फैक्ट्रियां बंद हों, तनख्वाह रोक दी जाए या नौकरी से हटा दिए जाएं, आपको विरोध करना नहीं है क्योंकि देश कोरोना के गंभीर संकट से गुजर रहा है। विरोध का मतलब कोरोना से संघर्ष को कमजोर करना होगा। जब साधु महाकुंभ छोड़ सकते हैं तो क्या आप संकटकाल में अपने हक नहीं छोड़ सकते?

सवाल यह है कि क्या महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की पहल कर कोई त्याग किया गया है? इसे शुरू ही क्यों किया गया कोरोना संकट के दौर में? जब रेलवे स्पेशल ट्रेनें चला रहा था, हवाई जहाजों से हरिद्वार के लिए स्पेशल फ्लाइट शुरू किए जा रहे थे, सरकारें महाकुंभ में शिरकत के लिए इश्तेहार दे रही थीं, तब क्या यह इल्म नहीं था कि देश कोरोना की वजह से गंभीर संकट के दौर में गुजर रहा है?

प्रतीकात्मक प्रयोग के पीछे मौत का डर या त्याग?

जब बड़े-बड़े साधुओं की मौत होने लगी, खुद अखाड़ा परिषद के प्रमुख कोरोना की चपेट में आ गये और हर दिन सैकड़ों की संख्या में साधु कोरोना संक्रमित पाए जाने लगे तो मौत के डर ने एक बेचैनी पैदा कर दी। इसी बेचैनी को ‘त्याग’ का नाम दिया गया। प्रतीकात्मक महाकुंभ की अवधारणा के साथ महाकुंभ से बच निकलने का मार्ग प्रशस्त किया गया। 

यह भी तय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘उद्धारक’ के तौर पर पेश किया जाएगा। मगर, यही ‘उद्धारक’ वास्तव में पश्चिम बंगाल में चुनावी महाकुंभ का ‘महामंडलेश्वर’ है। बंगाल में एक दिन में कई-कई रैलियां करते हैं पीएम मोदी। सामने लाखों ‘श्रद्धालु’ होते हैं। कोरोना संक्रमण के लिहाज से बिल्कुल नंग-धड़ंग यानी न मास्क और न ही दो गज की दूरी। सैनिटाइजर आदि का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। कभी नरेंद्र मोदी ने इस ओर लोगों का ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं समझी। यहां जान से ज्यादा ‘लोकतंत्र की चिंता’ करते दिखे मोदी।

बंगाल में रैली, शेष भारत में दो गज की दूरी?

लोकतंत्र ‘लोक’ की चिंता न करे या फिर धर्म और उसके अनुष्ठान अपने अनुयायियों की बीमारी और मौत का कारण हो जाए- क्या कभी ऐसा हो सकता है? बिल्कुल हो सकता है- मोदी है तो मुमकिन है। लोकतंत्र में ‘लोक’ से अधिक ‘तंत्र’ की रक्षा के लिए चुनाव जरूरी है और इसलिए रैलियां-रोड शो भी। बंगाल में रैली, शेष भारत में दो गज की दूरी दोनों एक साथ संभव हैं!

महाकुंभ के प्रतीकात्मक होने से पहले 16 अप्रैल को चुनाव आयोग को भी कोरोना की सुध हो आयी। पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार अब शाम 7 बजे के बाद से सुबह 10 बजे तक नहीं हुआ करेगा। यह बहुत कुछ कोरोना काल में ‘नाइट कर्फ्यू’ की तरह है। यह भी प्रतीकात्मक चुनावी महाकुंभ ही लगता है। इससे न चुनावी रैली रुकती है, न रोड शो। और, न ही भीड़-भाड़ वाले चुनावी अभियान। उल्टे चुनाव आयोग के इस फैसले से उन लोगों को रैली-रोड शो करने में मदद मिलेगी जो सुबह 10 बजे तक दिल्ली से कोलकाता पहुंचेंगे और शाम 7 बजे की फ्लाइट से दिल्ली लौट आएंगे। क्या ऐसे ‘चुनावी कर्फ्यू’ से कोरोना कम होगा या फिर इससे कोरोना संक्रमण और बढ़ जाएगा?

चुनाव आयोग को भी ‘प्रतीकात्मक नसीहत’ देंगे मोदी?

संभव है कि आगे पीएम नरेंद्र मोदी चुनाव आयोग को भी आईना दिखाने का काम करें। हालांकि आईने में चुनाव आयोग के साथ-साथ खुद उनका भी चेहरा साझा ही दिखेगा, लेकिन वे दिखाएं और बताएंगे सिर्फ आयोग का चेहरा। पीएम मोदी कह सकते हैं कि बगैर भीड़ के वे रैली को संबोधित करेंगे और उसका सीधा प्रसारण लोग अपने-अपने घरों से सोशल मीडिया या मुख्य धारा की मीडिया में देखें। कहने की जरूरत नहीं कि वे यह भी कहेंगे कि इससे कोरोना के खिलाफ लड़ाई मजबूत होगी।

बंगाल में 180 सीटों के लिए वोट डाले जा चुके हैं। आगे के चुनावों में वैसे भी बीजेपी की अधिक दाल गलने वाली नहीं है। ऐसे में महाकुंभ के साधुओं की तरह ‘त्याग’ भी दिखाया जा सकता है। चाहे महाकुंभ हो या पश्चिम बंगाल का चुनाव दोनों ही पूरी तैयारी के साथ शुरू की गयी। मगर, दोनों ही आयोजनों में कोविड नियमों को ताक पर रखा गया। अब ‘प्रतीकात्मक’ कहकर शर्मनाक करतूतों से बचने का रास्ता निकाला जा रहा है। इसके साथ ही अपने विरोधियों पर इसी रास्ते से बुलडोजर चलाने की भी तैयारी कर ली गयी लगती है!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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